सोमवार, अक्तूबर 26, 2009

पहाड़ तोड़ता बचपन


पहाड़ तोड़ता बचपन
26 December, 2008
संजय स्वदेश
समान काम के लिए समान मेहनताना, बालश्रम की मुक्ति और सर्व शिक्षा अभियान के तहत देश के कोने-कोने में शिक्षा को अलख जगाने के दावे झूठे हैं। इसे कोई हम नहीं झुठला रहे रहे रहैं। इसे झुठला रहे हैं महाराष्ट्र के विभिन्न जिलों के खान क्षेत्र में पत्थर तोड़ने वाली महिला मजदूर, शिक्षक और मासूम बच्चे। इनका एक समूह दिंसबर माह में नागपुर में हो रहे विधानसभा की शीत सत्र में अपने हक को पाने के लिए नागपुर आया था। धरना एक गैर सरकारी संगठन के नेतृत्व में था। प्रतिबंध के बावजूद पत्थर क्षेत्रों में बाल मजदूरी जारी है। वहां सरकारी स्कूल हैं। पर इतनी दूर कि बच्चे नहीं जाना चाहते। स्वयंसेवी संगठनों के सहयोग के पत्थर खानों के आसपास ही छोटे-छोटे स्कूल चलते हैं। मान्यता और अनुदान नहीं मिलने के कारण स्वयंसेवी शिक्षकों को आर्थिक संकट का सामान करना पड़ता है। महिला-पुरूष की मजदूरी के भुगतान राशि में भी अंतर है। असंगठित क्षेत्र की श्रेणी मे आने के कारण इन मजदूरों के पास न तो राशन कार्ड है और न ही मतदाता सूची में नाम। वोट कहां और किसलिए डालते हैं? कुछ पता नहीं है।


ये तो बस एक गैर- सरकारी संगठन के कहने पर नागपुर आए। खान क्षेत्र में खुले आसमान के नीचे यत्र-तत्र चल रहे स्कूलों की मान्यता के नारे लगाए और चले गए। पर धरना देने वाले शिक्षिकाओं, महिला मजदूर और बाल मजदूरों को जनप्रतिनिधियों के आश्वासन के सिवा कुछ नहीं मिला। शिक्षा की अलख जगाने को किसी तरह की पारिश्रमिक भी मिलेगी या नहीं पता नहीं? खान क्षेत्रों में पढ़ाने वाले शिक्षकों में अधिकतर महिलाएं हैं। धरने पर बैठी महिलाओं से मिलने लातूर जिले के अहमदपुर विधानसभा क्षेत्र के विधायक बब्रुवान खंदाड़े, गंगाखेड परभणी के विठुल गायकवाड, और चौसाला बीड के विधायक किशव राव आंधले, हेर लातूर के टी.पी. कांबले मिलने आए। आश्चर्य की बात है कि पूछने पर इन विधायकों ने बताया कि आज तक उन्हें इस बात की जानकारी ही नहीं थी कि खान क्षेत्रों में इस तरह से महिलाओं का शोषण हो रहा है। इस मामले में पहली बार ज्ञापन प्राप्त हुआ है।

2020 तक 7.5 लाख लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार की संभावना- वर्ष 1999-2000 में राज्य में प्राथमिक खनिजों के लिए 250 और गौण खनिजों के लिए 1772 लाइसेंस मिला था। इससे राज्य सरकार को 30 करोंड़ रूपये राजस्व प्राप्त हुआ था। 421041 लोगों को रोजगार प्राप्त हुआ था। अनुमान है कि वर्ष राज्य के खनिज क्षेत्रों से 2020 तक 112320 लाख रूपये राजस्व में प्राप्त होगा। 7.5 लाख लोग रोजगार से जुड़ेगे। खनिज क्षेत्र से जुड़े मजदूरों में करीब आधी संख्या महिलाओं की हैं।संतुलन की सचिव पल्लवी रेगे कहती हैं कि खनिज कानून 1952 के अनुसार इस 18 साल के कम उम्र के लोगों का काम करना प्रतिबंधित है। प्रतिबंध के बाद भी राज्य के विभिन्न खान क्षेत्रों में 18 साल के कम उम्र के करीब दस लाख लड़के-लडिकियां कार्यरत हैं। अधिकतर मजदूर खान क्षेत्रों में रहते हैं। बच्चे भी पत्थर तोड़ने में लग जाते हैं। सरकारी स्कूल हैं, पर बहुत दूर। वहां वे पढ़ने नहीं जाना चाहते। थोड़े से पैसे के लालच में इनका बचपन पत्थर तोड़ने में गुजर जाता हैं। श्रीमती पल्लवी का कहना है कि सरकारी योजना होने के बाद भी मजदूरों के कल्याण के लिए कोई योजना नहीं चलती हैं। चिकित्सा की सुविधा उपलब्ध नहीं कराई जाती है। पत्थर खदान के मालिक, ठेकदार सामाजिक कार्यकर्ताओं को मजदूरों से मिलने नहीं देते हैं। खान क्षेत्र में ही मजदूरों के बच्चों को इस शर्त पर पड़ाने के लिए अनुमति देते हैं कि वे दूसरे कार्यों में किसी तरह की दखल नहीं देंगे। श्रम विभाग की टीम आने की सूचना इन्हें पहले ही मिल जाती है। तुरंत कुछ मजदूरों के लिए हेल्मेट, जूते आदि की व्यवस्था कर देते हैं। बाकी को छुट्टी दे देते हैं।

सुनीता निवल की उम्र करीब 13 साल है। आठवीं कक्षा में पढ़ती है। बड़ी होकर स्कूल खोलने का सपना है। सुनीता ने बताया कि कभी-कभी मम्मी-पापा के साथ खदानों में पत्थर तोड़ती है। कुछ महीने की बात है। पत्थर तोड़ने के दौरान उसके भाई का पांव टूट गया। ठेकेदार ने पैसे भी नहीं दिए। फिर भी उसके पास यह करने के अलावा कोई चारा नहीं है. पुणे के खान क्षेत्रों में पढ़ाने वाली शिक्षिका सरोजना कुटे का कहना है मजदूरों के बच्चों में पढ़ने की रूचि नहीं है। फिर दूर के स्कूलों में जाने की बात दूर की है। स्वयंसेवी संगठन की ओर इन बच्चों को पथरीले क्षेत्रों में ही किसी पेड़ के नीचे या पत्थर पर ही इकठ्ठा करके पढ़ाने की कोशिश चलती है। इस काम के लिए एजनीओ की ओर से कुछ वेतन भी मिलता था। अब वह भी बंद हो गया।

सतारा के कराड तालुक के सुरली गांव के खान क्षेत्र में पढ़ाने वाली भारती मोरे कहती हैं कि मजदूर सुबह छह बजे घर से निकल जाते हैं औश्र शाम छह बजे वापस आते हैं। इस बीच उनके बच्चे इधर-उधर खेलते रहते हैं। कई बार हम लोग घूम-घूम कर इन बच्चों को इकठ्ठा कर पढ़ाने की कोशिश करते हैं। कोल्हापुर की सुरखा माली भी कुछ ऐसी ही कहती है। उनका कहना है कि जिन क्षेत्रों में वे पढ़ाने जाती हैं, वहां खान मजदूरों के करीब 100 बच्चे पढ़ते हैं। स्कूल के नाम पर कोई भवन नहीं है। इधर-उधर बच्चों को बैठा कर पढ़ाते हैं। सर्व शिक्षा अभियान के तहत मिलने वाला पोषहणार अभी यहां तक नहीं आया है। कोल्हापुर की खान मजदूर सकू हरसुड़े का कहना है कि पत्थर तोड़ने की एक दिन की मजदूरी 40 रूपये है। पुरूषों को इसी काम के लिए 60 रूपये मिलते हैं। कभी-कभी ठेकेदार से ही एक ट्रॉली भरने का ठेका मिल जाता है। जिसमें परिवार के हर सदस्य मिल कर पूरा करते हैं। इसमें बच्चे भी शामिल होते हैं।


दोष सिद्ध करना मुश्किल
यहीं स्थित क्षेत्रिय श्रम आयुक्त (केंद्रीय) उमेश चंद कहते हैं कि इन क्षेत्रों में जब भी कोई जांच टीम जाती है। वाहन आते देख मजदूर इधर-उधर बिखर जाते हैं। कोई बच्चा मिलता है तो पूछताछ पर वे तरह-तरह के बहाने बनाते हैं। कोई कहता है मिलने आए थे, तो कहता है इन्हीं पत्थरों से खेल रहे थे। यदि कोई मामला दर्ज भी कर लिया जाता है तो कठिनाई उसे कोर्ट में सिद्व करने में होती है। सारे प्रमाण उन क्षेत्रों में तत्कालीन होते हैं। महिला-पुरूष असमान मजदूरी के बारे में हमेशा जांच पड़ताल होती है। इस मामले में इस साल सौ से भी अधिक मामले दर्ज हुए।

श्रम कल्याण कार्यालय के पास जिम्मेदारी नहीं
नागपुर में श्रम कल्याण विभाग का कार्यालय है। कार्यालय के गेट पर खान मजदूरों के कल्याण के लिए ढ़ेरों योजनाओं की सूची एक बोर्ड पर लिखी है। पूछने पर यहां के एक अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं विभाग की कल्याणकारी योजनाएं लौह मैगनीज, क्रोम अयस्क, डोलोमाइट, चूना पत्थर और बीड़ी मजदूरों के लिए ही ही है। पत्थर खदानों में कार्यरत मजदूरों के कल्याणकारी योजनाएं उनके पास नहीं है।

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