मंगलवार, दिसंबर 22, 2009

गढ़ तो चढ़ गये गड़करी लेकिन...

प्रेम शुक्ल
गडकरी निश्चित तौर पर महाराष्ट्र के लोक निर्माण विभाग में क्रांतिकारी परिवर्तन करने में कामयाब हुए थे। उन्होंने विदर्भ में भाजपा के विस्तार की कमान भी संभाले रखी। लेकिन पिछले पांच वर्षों के कार्यकाल में वे महाराष्ट्र में भाजपा को पुनर्संगठित करने में कामयाब नहीं हुए। महाराष्ट्र में भाजपा को सफलता दिलाने में उन्हें किसी प्रकार की बाधा नहीं थी। क्या राष्ट्रीय स्तर पर वही गडकरी भाजपा को नए सिरे से सुसंगठित करने में कामयाब हो पाएंगे?
हिंदुत्ववादी विचारधारा के किसी भी महाराष्ट्रवासी के लिए यह गौरवपूर्ण है कि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कमान महाराष्ट्रीयों के हाथ में सौंपी गई है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार मराठी थे। उनके उत्तराधिकारी माधव सदाशिव गोलवलकर उर्फ श्रीगुरूजी थे। बीच के दिनों में सरसंघचालक राजेंद्र सिंह रज्जू भैया और कुप् सुदर्शन गैर महाराष्ट्रीय थे। मोहन भागवत जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नये सरसंघचालक बने तो किसी को आश्रर्य नहीं हुआ। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में महाराष्ट्रवासियों में विशेषकर देशस्थ ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा है। जब राजनाथ सिंह के उत्तराधिकारी के रूप में महाराष्ट्र भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी का नाम लिया गया तो राजनीतिक विश्लेषकों को निश्चित तौर पर आश्चर्य हुआ है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वरिष्ठता क्रम में नितिन गडकरी का काफी नीचे होना, आश्चर्य का विषय नहीं था। भारतीय जनसंघ के जमाने से राष्ट्राय स्वयंसेवक संघ ने अपनी राजनीतिक इकाई का नेतृत्व वरिष्ठता के बजाय सक्रियता और प्रभाव को मापदंड माना है। 1970 के दशक में जब लालकृष्ण आडवाणी को भारतीय जनसंघ की कमान सौंपी गई थी तब वे जनसंघ के वरिष्ठता क्रम में अटल बिहारी वाजपेयी के उत्तराधिकारी होने की स्थिति में कदापि नहीं थे। भारतीय जनता पार्टी में भी अध्यक्ष पद के लिए कभी वरिष्ठता को मापदंड नहीं माना गया। यदि वरिष्ठता को मापदंड माना जाता तो बंगारू लक्ष्मण, वेंकया नायडू और राजनाथ सिंह भाजपा के अध्यक्ष कैसे बनते? इसलिए गडकरी का नाम प्रस्तावित होने पर कोई राजनीतिक विश्लेषक आश्चर्यचकित नहीं हुआ। आश्चर्य इस बात का था कि क्या राष्टीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा दोनों का नेतृत्व महाराष्ट्रीय, देशस्थ ब्राहा्रणों को इकट्ठे सौंपा जा सकता है? मोहनराव भागवत और नितिन गडकरी न केवल महाराष्ट्र के बल्कि विदर्भ से आते हैं। दोनों देशस्थ ब्राहा्रण हैं। जिस देश में राजनीतिक निर्णयों के पहले जाति के जनेऊ को रगड़े जाने की परंपरा हो क्या वहां इस तरह का निर्णय सहज स्वीकार्य होगा? खैर, यह खुशी की बात है कि भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस तरह की क्षेत्रीय और जातीय समीकरण में उलझने की बजाय योग्यता को मापदंड माना है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में नया खून संचरित करने में मोहनराव भागवत से बेहतर कोई अन्य व्यक्ति नहीं हो सकता था।

क्या भारतीय जनता पार्टी सचमुच राजनीतिक दुर्दशा की कगार पर है? जो भाजपा 1980 के दशक में किसी भी राज्य में सत्ता तो दूर मुख्य विपक्षी दल के रूप में भी स्थान पान योग्य नहीं थी। क्या वह भाजपा 8 राज्यों में सत्ता भोगने की स्थिति में होने के बावजूद दुर्दशा में है? जिस भारतीय जनाता पार्टी के पास लोकसभा में केवल दो सांसद हुआ करते थे उसके 116 निर्वाचित सदस्यों के होने के बावजूद यदि वह स्वयं को कमजोर पाती हो तो इसे विपक्ष का दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए। क्या भारतीय जनता पार्टी में आमूल-चूल परिवर्तन अकेले अध्यक्ष के बूते की बात है? क्या भाजपा में अध्यक्ष सर्वशक्तिमान व्यक्ति होता है? अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के अलावा पिछले 29 वर्षों में भाजपा का कोई भी अध्यक्ष सर्वोच्च नेता की हैसियत को नहीं पा सका है? वाजपेयी और आडवाणी के बाद पहली बार अध्यक्ष की कुर्सी पानेवाले मुरली मनोहर जोशी वरिष्ठता, अनुभव, वक्तृत्व, विद्वता आदि मापदंडों पर सुषमा स्वराज या अरूण जेटली की तुलना में बहुत आगे हैं। फिर मुरली मनोहर जोशी को वाजपेयी और आडवाणी के बाद पार्टी में कभी तीसरे क्रमांक का भी व्यक्ति क्यों नहीं बनाया गया? वाजपेयी, आडवाडी और जोशी के बाद अध्यक्ष पद कुशाभाऊ ठाकरे और जना कृष्णमूर्ति के पास रहा। जना कृष्णमूर्ति और कुशाभाऊ ठाकरे कभी भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के हिस्से बनते नजर नहीं आए। उनकी शक्ति जसंवत सिंह जितनी भी नहीं रही। बंगारू लक्ष्मण और वेंकया नायडू अध्यक्ष पद पर भले बने रहे किंतु उनकी औकात आडवाणी के पालतू प्राणियों से अधिक कभी नहीं रही। राजनाथ सिंह आडवाणी के विरोध के बावजूद अध्यक्ष पद पर बैठने में कामयाब हो गए। राजनाथ सिंह को संघ के साथ-साथ ‘बापजी’ अटल बिहारी वाजपेयी का अखंड आर्शीवाद प्राप्त था। जिन्ना के जिन्न से घायल आडवाणी को राजनाथ सिंह के लिए कुर्सी खाली करनी पड़ी। राजनाथ सिंह के कार्यकाल में भारतीय जनता पार्टी भले ही केन्द्र की सरकार पाने में नाकामयाब रही किंतु कई राज्यों में भाजपा को सत्ता हासिल करने में सफलता हासिल हुई।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में महाराष्ट्रवासियों में विशेषकर देशस्थ ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा है। जब राजनाथ सिंह के उत्तराधिकारी के रूप में महाराष्ट्र भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी का नाम लिया गया तो राजनीतिक विश्लेषकों को निश्चित तौर पर आश्चर्य हुआ है।
केंद्र की सत्ता में भाजपा को लाना अकेले राजनाथ सिंह का उत्तरदायित्व नहीं था। राजनाथ सिंह की तुलना में लोकसभा चुनाव का संचालन आडवाणी और उनके अंतःपुर के अगंओं ने किया था। इसलिए लोकसभा चुनाव के पराजय का दोष भी आडवाणी के अंतःपुर के लोगों को दिया जाना चाहिए। हुआ उल्टा है, राजनाथ सिंह की विदाई इस अंदाज में की गई है मानो वे भाजपा के सबसे विफलतम अध्यक्ष रहे हों। जबकि सच्चाई यह है कि राजनाथ सिंह के नेतृत्व में उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, पंजाब, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और कर्नाटक में पार्टी को सफलता हासिल हुई। यदि केंद्र में सरकार न बनाने की विफलता राजनाथ सिंह के खाते में दर्ज होती है तो राज्यों की सफलता भी उनके खातों में क्यों नहीं दर्ज की जाती? मतलब साफ है जो लोग ये समझते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भाजपा से आडवाणी के खेमे को हाशिए पर फेंक दिया है वे भाजपा की अंतर्दशा का त्रटिपूर्ण विश्लेषण कर रहे हैं। संघ की एक बड़ी लाॅबी जिसमें दूसरी पंक्ति से लेकर पैदल सेना तक के कार्यकर्ताओं का समावेश है, आडवाणी के नाम पर आग बबूला हो जाया करते हैं। आडवाणी के खिलाफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यह आक्रोश पांच वर्ष पुराना है। जिस दिन आडवाणी जिन्ना की मजार पर फातिया पढ़ आए थे उसी दिन से हिंदुत्व की हुंकार भरने वाले सामान्य कार्यकर्ताओं को उन्होंने अपने खिलाफ कर लिया था। भाजपा में आडवाणी जो कुछ कर गए वैसा अगर कोई और करता तो वह राजनीति से रपट दिया जाता। उदाहरणस्परूप जसवंत सिंह का जिन्ना के समर्थन में पुस्तक लिखना उनको पार्टी से निष्कासित करने का कारण बन गया। यह फार्मूला चाहकर भी संघ के लोग आडवाणी पर नहीं चला पाए। राजनाथ सिंह को अध्यक्ष की कुर्सी पर कभी चैन से नहीं बैठने दिया गया। राजनाथ के खिलाफ जिन लोगों ने मुहिम जारी रखी वे सारे नेता आडवाणी के अंतःपुर के अगुवा थे। अरूण जेटली भाजपा कार्यालय बैठकर प्रेस की अनौपचारिक ब्रीफिंग करते रहे। वेंकया नायडू, सुषमा स्वराज कुछ दिनों तक खुल्लम-खुल्ला राजनाथ सिंह के खिलाफ प्रचार करते रहे। आखिरी दिनों में एक कॉरपोरेट कंपनी की मध्यस्थता के चलते सुषमा स्वराज और राजनाथ सिंह के बीच पटरी बैठी। अनंत कुमार से भी राजनाथ सिंह किसी तरह पटरी बैठाए रहे। पार्टी विरोधी कार्रवाइयों को जब अध्यक्ष के खिलाफ शीर्ष नेतृत्व हवा दे रहा हो तो क्यों कोई अध्यक्ष पार्टी को सफलता दिला सकता है? फिर राजनाथ सिंह से सफलता की उम्मीद किस खातिर? नितिन गडकरी को अध्यक्ष बनाने में निश्चित तौर पर संघ की भूमिका निर्णायक रही है। सवाल पैदा होता है कि क्या नितिन गडकरी अरूण जेटली और सुषमा स्वराज से काम करा पाएंगे? अरूण जेटली चुनावी पराजय के सबसे जिम्मेदार व्यक्ति हैं। उन्हें आडवाणी की कृपा के चलते राज्यसभा में विपक्ष का नेता बनाए रखा गया है। चुनाव के समय सुषमा स्वराज की भूमिका पर भी सवाल उठाए गए थे।

लोकसभा में सुषमा स्वराज की तुलना में भाजपा के कई नेता वरिष्ठ एंव योग्य हैं। क्या सुषमा स्वराज लालकृष्ण आडवाणी की छत्रछाया से मुक्त होकर काम करने की स्थिति में है? आडवाणी को संसदीय दल का नेता बनाकर और भविष्य में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का अध्यक्ष बनाए रखने की योजना के चलते राजनीतिक रूप से पदोन्नत किया गया है कि क्या गडकरी 2014 में इन्हीं लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर भाजपा को सफलता दिला सकते हैं? यदि आडवाणी रिटायर किए जाते हैं तो उनकी जगह 2014 में भाजपा प्रधानमंत्री के रूप में किसका चेहरा पेश करने वाली है? क्या वह चेहरा लोकसभा में विपक्ष का नेता होने के चलते सुषमा स्वराज का है? क्या सुषमा स्वराज को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गैर भाजपाई आनुषांगिक संगठन स्वीकार कर पाएंगे? क्या नितिन गडकरी को भाजपा भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश करेगी? क्या नितिन गडकरी, नरेंद्र मोदी, प्रेमकुमार धूमल, शिवराज सिंह चैहान, रमण सिंह, सुशील कुमार मोदी आदि क्षेत्रीय क्षत्रपों पर अपनी पकड़ बना पाएंगे? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गलियारे से एक खबर उठती रही है कि जेटली, अनंत कुमार, वेंकैया नायडू, सुषमा स्वराज, आदि को संगठन के कामकाज से बेदखल कर दिया जाएगा।

नितिन गडकरी को सांगठनिक सफलता तभी प्राप्त होगी जब उन्हें जेटली की केटली को फोड़ने का अधिकार प्राप्त रहे। सुषमा स्वराज उनके इशारे पर चलने के लिए मजबूर की जाएं। आडवाणी के चेले-चपाटों को जब भाजपा कार्यलय से दूर कर दिया जाए। यदि नितिन गडकरी को भी भाजपा का अध्यक्ष पद राजनाथ सिंह की तरह ही दिया जाएगा तो गडकरी तीन वर्षों में कोई क्रांति कर देंगे ऐसी अपेक्षा पालना सरासर अन्याय होगा।
क्या संगठन संसदीय दल से अलग होकर पार्टी की क्षमता को बढ़ा पाएगा? जब भी भाजपा में किसी प्रांत के नए नेता को बढ़वा दिया जाता है तो उस प्रांत से पहले से ही स्थापित नेतृत्व को किनारे लगा दिया जाता है। मसलन, राजनाथ सिंह बढ़े तो कल्याण सिंह खात्मा हो गया। नरेंद्र मोदी के उदय ने केशुभाई पटेल को किनारे कर दिया। शिवराज सिंह चैहान ने उमा भारती को पार्टी से बाहर करा दिया। प्रेम कुमार धूमल उदित हुए तो शांताकुमार को शांत हो जाना पडा। वसुंधरा राजे सिंधिया ने भैरो सिंह की पकड़ को खत्म कर दिया। हर्षबर्धन के आगे बढ़ने से मदनलाल खुराना खत्म हो गए। क्या नितिन गडकरी का राष्ट्रीय क्षितिज पर उदय, मुंडे-महाजन युग का अवसान है? वैसे भी महाराष्ट्र भाजपा का कमान संभालने के बाद गडकरी और गोपीनाथ मुंडे के बीच शीतयुद्ध की खबरें आती रही हैं। गडकरी का अध्यक्ष बनना क्या मुंडे पूरी तरह से स्वीकार पाएंगे? कहीं मुंडे भी केशुभाई पटेल और कल्याण सिंह की तरह किनारे न हो जाएं?

भाजपा का उदय सांगठिनक क्षमता की बजाय राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के अल्पसंख्यकवाद की प्रतिक्रिया के चलते हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा के सबसे अधिक प्रभावोत्पादक नेता रहे। वे 1980 से 1986 तक भाजपा के अध्यक्ष थे। इस काल में भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव डालनेवाली शक्ति नहीं बन पाई थी। लालाकृष्ण आडवाणी का पहला कार्यकाल भी भाजपा को विपक्ष की सशक्ततम पार्टी नहीं बना पाया था। भाजपा जिस आंदोलन के चलते सत्ता के समीकरण में अपरिहार्य बनी, वह उसका अपना आंदोलन होने की बजाय विश्व हिंदू परिषद का आंदोलन था। भाजपा का राष्ट्रीय विकास 1989 से 1996 के बीच हुआ। इन सात वर्षों में तीन वर्ष मुरली मनोहर जोशी अध्यक्ष रहे। उन्होंने भी आडवाणी की तरह राष्ट्रीय स्तर पर रथयात्रा की। वे कश्मीर के लाल चैक तक भाजपा का रथ लेकर गए। बावजूद इसके जब कोई भाजपाई आडवाणी और जोशी की तुलना करता है तो वह जोशी को कभी आडवाणी की बराबरी का सम्मान नहीं देता, क्यों? भाजपा सत्ता में आते ही राम जन्मभूमि, धारा 370, समान नागरिक संहिता जैसे अपने मूलभूत मुद्वों को किनारे कर बैठी। भाजपा के संगठन को भी सरकार के समक्ष बौना करने का सुनियोजित प्रयास भी आडवाणी और वाजपेयी के इशारे पर हुआ। जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तब बंगारू लक्ष्मण को अध्यक्ष बनाया जाना उसी तरह की गतिविधि थी जैसे मालिक के सामने दिहाड़ी मजदूर को धर का उत्तरदायित्व सौंप दिया जाए। बंगारू लक्ष्मण, वेंकया नायडू जैसे दिहाड़ियों ने ही भाजपा की सांगठनिक शक्ति को नष्ट कर दिया। अब गड़करी भले गढ़ चढ़ने में कामयाब हो गये हैं लेकिन फतेह कर पायेंगे? इस सवाल का जवाब समय के साथ ही मिलेगा.

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