मंगलवार, दिसंबर 21, 2010

पटरियों पर फिर गुर्जरों का कब्जा

पांच प्रतिशत आरक्षण की मांग को लेकर गुर्जरों ने सोमवार को आंदोलन फिर शुरू कर दिया। गुर्जर नेता कर्नल किरोड़ी सिंह के नेतृत्व में हजारों गुर्जरों ने सोमवार की शाम करीब सवा छह बजे भरतपुर जिले में बयाना के पास पीलूकापुरा में रेल पटरियों पर कब्जा कर लिया। इससे दिल्ली-मुम्बई रेल मार्ग बाधित हो गया। सड़क यातायात सुबह से ही बंद है। आंदोलन को देखते हुए क्षेत्र में भारी मात्रा में अतिरिक्त पुलिसबल तैनात है। देर रात मिली जानकारी के अनुसार गुर्जरों ने करीब आधा दर्जन रेल पटरियों को उखाड़ दिया। इस बार भी गुर्जरों न अपने आंदोलन के लिए उसी जगह को चुना है, जहां करीब डेढ़ साल पहले हिंसात्मक आंदोलन कर दिल्ली की राजनीतिक गलियारों तक हलचल मचा दी थी। एक सूचना यह भी आ रही है कि गुर्जर समुदाय के दूसरे गुट के नेता रामवीर सिंह विधूड़ी ने भी कर्नल बैंसला से हाथ मिला कर दौसा में बांदीकुई के पास से आंदोलन वापस ले लिया। इस घोषणा के बाद वहां आए गुर्जर समाज के लोग भी पीलूकापुरा पहुंच गए। यहां पहुंची खबरों के अनुसार कर्नल बैंसला ने सोमवार को दोपहर पड़ोस के गांव रसेरी में अपने समाज के लोगों की सभा को संबोधित किया और कहा कि जब तक गुर्जरों को पांच प्रतिशत आरक्षण नहीं मिलेगा, आंदोलन जारी रहेगा।
भरतपुर संभाग के आयुक्त राजेश्वर सिंह और पुलिस महानिरीक्षक मधुसूदन सिंह की कर्नल और अन्य गुर्जर नेताओं से बातचीत असफल रही। शाम को करीब पांच बजे कर्नल ने रेल पटरियों पर कूच करने का ऐलान किया। इसके बाद गुर्जर समाज के करीब पांच हजार लोग रसेरी से पीलूकापुरा पहुंचे और पटरियों पर बैठ गए। कुछ लोगों ने रेल पटरियां उखाड़ने की भी कोशिश की। कर्नल बैंसला आगे की रणनीति बना रहे हैं और मंगलवार को आंदोलन को तेज करने का ऐलान किया है। इस बार कर्नल के सहयोगी डा. रूपसिंह ने आंदोलन की कमान संभाल ली है।
बयाना से मिली जानाकारी के अनुसार शाम करीब सवा पांच बजे रसेरी गांव से हजारोें गुर्जरों ने भगवान देवनारायण की जय बोलते हुए पीलूकापुरा के लिए कूच किया। गुर्जरों ने रेलवे टैÑक पर बैठकर जोरदार हंगामा किया और सरकार के खिलाफ नारेबाजी की। इस भीड़ में महिलाएं भी बड़ी संख्या में शामिल थी। आंदोलनकारियों ने शाम को रेलवे टैÑक पर अलाव जलाकर जगह जगह धरना दिया। इससे दिल्ली-मुम्बई, आगरा-कोटा, मथुरा-रतलाम और बयाना-जयपुर के बीच रेल यातायात ठप हो गया। आंदोलन को देखते हुए कई गाड़ियों को रेलवे प्रशासन ने इन मार्गों पर गाड़ियों का संचालन रोक दिया। कई गाड़ियां बयाना, भरतपुर, मथुरा, रूपवास, आगरा, हिण्डौन, गंगापुर और सवाईमाधोपुर स्टेशन पर रोक दी गई। कई रेलों का मार्ग बदल दिया गया। रोडवेज प्रशासन ने भी बयाना-हिण्डौन मार्ग पर बसों का संचालन बंद कर दिया।
दौसा से प्राप्त जानकारी के अनुसार अरनिया में रविवार से महापड़ाव पर बैठे दिल्ली के पूर्व विधायक रामवीर विधूड़ी ने गुर्जर समाज की एकता के लिए अपना पड़ाव खत्म कर बैंसला को समर्थन देने की घोषणा की। सवाईमाधोपुर से आई खबर के अनुसार गुर्जर आरक्षण आन्दोलन के कारण मुम्बई-दिल्ली वाया सवाई माधोपुर रेलमार्ग की सभी ट्रेनों को सवाईमाधोपुर से मार्ग परिवर्तन कर रवाना किया गया। अवध एक्सप्रेस तथा बान्द्रा एक्सप्रेस को वाया जयपुर, बांदीकुई होकर निकाला गया। रेल प्रशासन ने दिल्ली-मुम्बई वाया सवाईमाधोपुर मार्ग से निकलने वाली सभी ट्रेनों को अन्य मार्गों से निकाला। इस मार्ग पर ट्रेनों की आवाजाही नहीं होने के कारण सवाईमाधोपुर स्टेशन पर यात्रियों की परेशानियां बढ़ गई हैं।
जयपुर से मिली जानकारी के अनुसार मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने गुर्जर आंदोलन की सूचना पाकर अगले दो दिनों के सभी कार्यक्रम रद्द कर दिया है। सोमवार की देर रात दिल्ली से जयपुर लौट आए। जयपुर पहुंचते ही मुख्यमंत्री ने आला अफसरों के साथ बैठक कर कानून व्यवस्था की समीक्षा की।

बुधवार, दिसंबर 15, 2010

आंकड़ों में उलझी भूख की बेबसी

संजय स्वदेश एक समाचार पत्र में प्रकाशित खबर के मुताबिक देश की जनता को भुखमरी और कुपोषण से बचाने के लिए सरकार नौ तरह की योजनाएं चला रही है। पर बहुसंख्यक गरीबों को इन योजनाओं के बारे में पता नहीं है। गरीब ही क्यों पढ़े-लिखों को भी पता नहीं होगा कि पांच मंत्रालयों पर देश की भुखमरी और कुपोषण से लड़ने की अलग-अलग जिम्मेदारी है। हर साल हजारों करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। इसके जो भी परिणाम आ रहे हैं, वे संतोषजनक नहीं हैं। जिस सरकार की एजेंसियां इन योजनाओं को चला रही है, उसी सरकार की अन्य एजेसियां इसे धत्ता साबित करती है। निजी एजेंसियां तो हमेशा साबित करती रही हैं।

पिछले राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट से यह खुलासा हुआ कि देश के करीब 46 प्रतिशत नौनिहाल कुपोषण की चपेट में हैं। 49 प्रतिशत माताएं खून की कमी से जूझ रही है। इसके अलावा अन्य कई एजेंसियों के सर्वेक्षणों से आए आंकड़ों ने साबित किया कि सरकार देश की जनता को भुखमरी और नौनिहालों को कुपोषण से बचाने के लिए जो प्रयास कर रही है, वह नाकाफी है। मतलब सरकार पूरी तरह से असफल है। आखिर सरकार की पांच मंत्रालयों की नौ योजनाएं कहां चल रही हैं। मीडिया की तमाम खबरों के बाद भी विभिन्न योजनाएं भुखमरी और कुपोषण का मुकाबला करने के बजाय मुंह की खा रही हैं।

वर्ष 2001 में उच्चतम न्यायालय ने भूख और कुपोषण से लड़ाई के लिए 60 दिशा-निर्देश दिये थे। इस निर्देश के एक दशक पूरे होने वाले हैं, पर सब धरे-के धरे रह गये। सरकार न्यायालय के दिशा-निर्देशों को पालन करने में नाकाम रही है। कमजोर आदमी न्यायालय की अवमानना किया होता तो जेल में होता। लेकिन सरकार जब ऐसी लापरवाही दिखाती है तो उच्चतम अदालत विवश होकर तल्ख टिप्पणियों से खीझ निकालती है। कम आश्चर्य की बात नहीं कि सड़ते अनाज पर उच्चतम न्यायाल की तिखी टिप्पणी के बाद भी सरकार बेसुध है। जनता तो बेसुध है ही। नहीं तो सड़ते अनाज पर उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी एक राष्ट्रव्यापी जनआंदोलन को उकसाने के लिए प्रयाप्त थी। गोदामों में हजारो क्विंटल अनाज सड़ने की खबर फिर आ रही है। भूख से बेसुध रियाया को सरकार पर भरोसा भी नहीं है। इस रियाया ने कई आंदोलन और विरोध की गति देखी है। उसे मालूम है कि आंदोलित होने तक उसके पेट में सड़ा अनाज भी नहीं मिलने वाला।
कुछ दिन पहले एक मामले में महिला बाल कल्याण विकास विभाग ने उच्चतम न्यायालय से कहा था कि देश में करीब 59 प्रतिशत बच्चे 11 लाख आंगनवाड़ी केंद्रों के माध्यम से पोषाहार प्राप्त कर रहे हैं। जबकि मंत्रालय की ही एक रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के करीब अस्सी प्रतिशत हिस्सों के नौनिहालों को आंगनबाड़ी केंद्रों का लाभ मिल रहा है। महज 20 प्रतिशत बच्चे ही इस सुविधा से वंचित है।

सरकारी और अन्य एजेंसियों के आंकड़ों के खेल में ऐसे अंतर भी सामान्य हो चुके हैं। सर्वे के आंकड़े हमेशा ही यथार्थ के धरातल पर झूठे साबित हो चुके हैं। मध्यप्रदेश के एक सर्वे में यह बात सामने आई कि एक वर्ष में 130 दिन बच्चों को पोषाहार उपलब्ध कराया जा रहा है, वहीं बिहार में असम में 180 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने की बात कही गई। उड़ीसा में तो एक वर्ष में 240 और 242 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने का दावा किया गया। जबकि सरकार वर्ष में आवश्यक रूप से 300 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने की प्रतिबद्धता जताती है। हकीकत यह है कि पोषाहार की योजना में नियमित अन्यों की आपूर्ति ही नहीं होती है। किसी जिले में कर्मचारियों की कमी की बात कही जाती है तो कहीं से पोषाहार के कच्चे वस्तुओं की आपूर्ति नहीं होने की बात कह जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया जाता है। जब पोषाहार की सामग्री आती है तो नौनिहालों में वितरण कर इतिश्री कर लिया जाता है। सप्ताह भर के पोषाहार की आपूर्ति एक दिन में नहीं की जा सकती है। नियमित संतुलित भोजन से ही नौनिहाल शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनेंगे। पढ़ाई में मन लगेगा।

असम, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के दूर-दराज के क्षेत्रों में कुपोषण और भुखमरी से होने वाली मौतों की खबर तो कई बार मीडिया में आ ही नहीं पाती। जो खबरें आ रही हैं उसे पढ़ते-देखते संवेदनशील मन भी सहज हो चुका है। ऐसी खबरे अब इतनी समान्य हो गई कि बस मन में चंद पल के लिए टिस जरूर उठती है। मुंह से सरकार के विरोध में दो-चार भले बुरे शब्द निकलते हैं। फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है। सब भूल जाते हैं। कहां-क्यों हो रहा है, कोई मतलब नहीं रहता। यह और भी गंभीर चिंता की बात है। फिलहाल सरकारी आंकड़ों के बीच एक हकीकत यह भी है कि आंगनवाड़ी केंद्रों से मिलने वाले भोजन कागजों पर ही ज्यादा पोष्टिक होते हैं। जिनके मन में तनिक भी संवदेनशीलता है, उन्हें हकीकत जानकर यह चिंता होती है कि सूखी रोटी, पतली दाल खाकर गुदड़ी के लालों का कल कैसा होगा?

शुक्रवार, दिसंबर 10, 2010

लालबत्ती की माया

सांसारिक मोहमाया से दूर रहकर ईश्वर की भक्ति में मन लगाने का ज्ञान बांटने वाले, देश के हजारों लोगों के लिए प्रात: स्मरणीय परमपूज्य पाद संतश्री आसारामजीबापू लालबत्ती की माया से नहीं बच पाये। पहले तो प्रशासन ने गुजरात में अवैध कब्जे वाली जमीन से उनका आश्रम तोड़ा। तीन दिन पूर्व जयपुर क्षेत्र से पुलिस ने उनकी गाड़ी से लालबत्ती उतार लिया।

लालबत्ती की माया

सांसारिक मोहमाया से दूर रहकर ईश्वर की भक्ति में मन लगाने का ज्ञान बांटने वाले, देश के हजारों लोगों के लिए प्रात: स्मरणीय परमपूज्य पाद संतश्री आसारामजीबापू लालबत्ती की माया से नहीं बच पाये। पहले तो प्रशासन ने गुजरात में अवैध कब्जे वाली जमीन से उनका आश्रम तोड़ा। तीन दिन पूर्व जयपुर क्षेत्र से पुलिस ने उनकी गाड़ी से लालबत्ती उतार लिया।

सोमवार, दिसंबर 06, 2010

अरविंदबाबू देशमुख प्रतिष्ठान पत्रकार पुरस्कार वितरण उद्या

अरविंदबाबू देशमुख प्रतिष्ठान पत्रकार पुरस्कार वितरण उद्या
नागपूर, ५ डिसेंबर/प्रतिनिधी
अरविंदबाबू देशमुख प्रतिष्ठान पत्रकारिता पुरस्कार वितरण समारंभ ७ डिसेंबरला सायंकाळी ६.३० वाजता वसंतराव देशपांडे सभागृहात आयोजित करण्यात आला आहे. यावेळी विधान परिषदेचे सभापती शिवाजीराव देशमुख, विधानसभा अध्यक्ष दिलीप वळसे-पाटील, मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण आणि उपमुख्यमंत्री अजित पवार प्रमुख पाहुणे म्हणून उपस्थित राहतील.
प्रतिष्ठानतर्फे यंदा २६ पत्रकारांचा पुरस्कार देऊन गौरव करण्यात येणार आहे. यावेळी जीवनगौरव पुरस्कार यवतमाळच्या दैनिक देशदूतचे संपादक शरद आकोलकर यांना प्रदान करण्यात येणार आहे. २० हजार रुपये रोख, स्मृतिचिन्हे व सन्मानचिन्ह असे पुरस्काराचे स्वरुप आहे. कृषी शास्त्रज्ञ गटातील पुरस्कार दिवंगत डॉ. लक्ष्मीकांत कलंत्री यांना जाहीर झाला आहे. अग्रलेखासाठी दैनिक पुण्यनगरीचे वृत्त संपादक सचिन काटे, अमरावतीच्या मानवक्रांती, परिवर्तनचे संपादक सुदाम वानरे यांना पुरस्कार जाहीर झाले आहे. लोकमतच्या अकोला आवृत्तीचे कृषी वार्ताहर
राजरतन शिरसाट यांना प्रथम, सामाजिक लिखाणासाठी भारती टोंगे (दैनिक सकाळ,चंद्रपूर) , आर्थिक विषयांवरील लिखाणासाठी प्रथम पुरस्कार अविनाश दुधे (दै.लोकमत, अमरावती), क्रीडा क्षेत्रात अमरावतीच्या दैनिक हिंदूस्थानचे शरद गढीकर, लोकमत समाचारच्या नागपूर आवृत्तीचे डॉ. राम ठाकूर यांना पुरस्कार जाहीर झाले आहेत.
छायाचित्र - प्रथम पुरस्कार अकोला देशोन्नतीचे विठ्ठल महल्ले, व्यंगचित्रे -देशोन्नती नागपूरचे उमेश चारोळे, इलेक्ट्रॉनिक मिडिया - ईटीव्ही मराठी उमेश अलोणे (अकोला), विकास (शहर) -प्रथम -संजय कुमार (दै. भास्कार), द्वितीय - रघुनाथ लोधी (दैनिक भास्कर) , विकास (ग्रामीण)- प्रथम पुरस्कार विनोद फाटे (दै. सकाळ, बुलढाणा), द्वितीय पुरस्कार - विलास टिपले (दै.लोकसत्ता, वरोरा) सुरेंद्र बेलूरकर (दै. सकाळ, वर्धा) यांना जाहीर झाला आहे.

शनिवार, दिसंबर 04, 2010

कवि के साथ न्याय, कविता का सम्मान

कविताओं पर आने वाले अधिकत्तर कॉमेंट अच्छी लगी, आज की यार्थात है...आदि होती है। लेकिन जिम्मेदार पाठक होने के नाते हमारा फर्ज बनता है कि हम लेखक को वही बताये जो कविता की हकीकत है। आश्चर्य की बात है कि जिस दर्द को जीते हुए कवि उसे शब्दों में पिरोता है, उसे अधिकतर पाठक सहजता से औपचारिक टिप्पणी कर देते हैं। मुझे लगता है न न तो कवि के साथ न्याया है और नहीं कविता का सही सम्मान।

शुक्रवार, दिसंबर 03, 2010

43 हजार में दूसरे पति की हुई पिंकी

नाता प्रथा में पंचायत ने सुनाया फैसलाहां तो यह हुआ फैसला 43 हजार रुपये दो और दुल्हन हुई तुम्हारी। कुछ इसी तरह से एक पति से दूसरे पति तक दुल्हन भेजने की नाता प्रथा आज भी राजस्थान में प्रचलित है। राजीमंदी से यह प्रथा समाज को मान्य भी है। इसके लिए बकायदा पंचायत भी बैठती है। पंचायत के निर्णय को मानने के लिए दोनों पक्षों की एक-एक लड़की को बांध कर पंचायत की बैठक के बीच में रखा जाता है। ऐसा ही एक ताजा मामला राज्य के झालावाड़ जिले के भवानीमंडी में शुक्रवार को सामने आया। पहले किसी और के संग ब्याही गई को दूसरे की दुल्हन बनाना तब मंजूर किया गया, जब उसके पिता को 43 हजार रुपया देना मंजूर किया।
शुक्रवार को क्षेत्र के मैला मैदान में नायक समाज करीब ढाई-तीन सौ लोगों की पंचायत हुई। एक महिला अपने पहले पति को छोड़ दूसरे पति के साथ रहना चाहती है। इसको लेकर हो रहे झगड़े की गुत्थी को सुलझाने के लिए पंचायत ने मंथन किया। रास्ता नाता प्रथा से निकला। समस्या सुलझी। कहीं कोई विवाद नहीं हुआ।
पंचायत में उपस्थित पहले पति के पिता भानपुरा थाना के खेरखेड़ी गांव के निवासी प्रभुलाल ने बताया कि उसके पुत्र राजू की शादी उसके ही थानाक्षेत्र के रामनगर निवासी नंदा के बेटी पिंकी के साथ करीब 12-13 वर्ष पूर्व बचपन में हुई थी। विवाह के बाद उसकी बहु दो चार बार उसके घर भी आई थी। आखिरी बार उसकी बहु एक साल पूर्व घर आई थी। उसके बाद उसके पिता ने उसे बहू को उसके यहां नहीं भेजा। पिंकी को हड़मतियां गांव में मुकेश पुत्र पर्वत नायक के घर नाते दे दी।
सरपंच भवानीराम नायक ने बताया कि जब पिंकी की शादी राजू से हुई थी, तब राजू के पिता ने जो रकम चढ़ाई थी, वह रकम पिंकी के पिता के दिये दहेज के बदले आटे साटे यानी बराबर हो गई। अब पिंकी जहां दूसरी जगह नाते गई है, वह पक्ष पहले पति यानी कि राजू को 43 हजार रुपये हर्जाने के रूप में चुकाएगा। इसके लिए दोनों पक्षों की लिखित में समझौता हुआ। दूसरे पति ने 13 हजार रुपये मौके पर दिये तथा 30 हजार रुपये बैशाख महीने में देने का वायदा किया है।
दो लकड़ियां को बंधन कर रखी गईपंचायत के दौरान दो लकड़ियों को आपस में बांध कर उसे एक शाल में लपेट कर बीचों बीच में रखा हुआ था। समाज के लोगों ने बताया कि यह दो लकड़ियों में एक लकड़ी लड़का पक्ष तथा दूसरी लकड़ी लड़की पक्ष की ओर से लेकर बंधन में कर दिया गया है। पंचायत की कार्रवाई के दौरान उन्हें कुछ भी बोलने का अधिकार नहीं होगा। इस बंधन को मानते हुए दोनों ही पक्षों ने पंचायत के निर्णय पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई। पंचों के
फैसले को दोनों पक्षों को राजीमर्जी से स्वीकारा।

नायक समाज की पंचायत के बीच लाल घेरे में पड़ा बंधन

क्यों होता है झगड़ास्थानीय लोगों का कहना है कि आज भी कई समाज में आज भी बाल विवाह हो रहे हैं। नन्ही उम्र में मासूमों को वैवाहिक बंधन में बांध दिया जाता है। नन्हीं उम्र के विवाहित जोड़े जब बड़े होते हैं, तब उनके विचार आपस में मेल नहीं खाते हैं। इससे बचपन के बंधे रिश्ते में खटाश आ जाती है। इस स्थिति से निपटने के लिए समाज में रास्ता भी निकाला है। जब जोड़े एक दूसरे को पसंद नहीं करते हैं तो लड़की का पिता लड़की की सहमती से लड़की को दूसरी जगह यानी कि किसी दूसरे व्यक्ति के घर भेज देता है। इस प्रथा को नाता प्रथा कहते हैं। इसके बाद पहले पति दूसरे पति पर जो हर्जानापूर्ति का दावा करता है, उसे स्थानीय भाषा में झगड़ा कहा जाता है।
समझौते का रास्ता है यह झगड़ाइस प्रथा का नाम जरूर झगड़ा है। यदि इस पर समाज की मौजूदगी में पंच पटेलों ने अपनी सहमती दे दी तो झगड़ा समझौते में बदल जाता है। एक तरह से दोनों पक्षों में सुलह हो जाती है। इसके बाद पहले पति व उसके ससुराल पक्ष तथा नये पति के परिवार में आपस में इस बात को लेकर झगड़ा फसाद नहीं करने के लिए भी पाबंद किया जाता है। लोगों का कहना है कि इस समझौते को थाना-कचहरी भी मान्य करता है।
लड़की खरीदने में बदली प्रथाकई स्थानीय लोगों का कहना है कि एक तरह से दूसरी विवाह के रूप में प्रचालित यह प्रथा अब नई बीवी खरीदने का रूप ले चुकी है। कई बार लोग लड़की का विवाह जल्दी कर देते हैं। कुछ वर्ष गौना रखते है। इस बीच यदि कोई मालदार आदमी मोटी रकम देकर पत्नी बनाने के लिए राजी है, तो लड़की पक्ष विवाहित बेटी को नाते पर भेज देता है। इसे समाज की बैठक में पिछले लड़के को हर्जाना देकर मान्यता ले ली जाती है। जिनके पास पैसा है वे खूबसूरत लड़की को नाते में खरीद कर लाते हैं।

बुधवार, दिसंबर 01, 2010

भ्रष्टाचार के खिलाफ जगना होगा... जगाना होगा।

भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी ने किसी तरह से स्थानीय स्तर पर बिगुल तो फूंकना ही पड़ेगा। जगना होगा... जगाना होगा। व्यक्तिगत स्तर पर भी लड़ाई लड़ी जा सकती है। हां, जीत धीमी गति से मिलेगी। क्योंकि पिछली पीढ़ी ने भ्रष्टाचार को सह कर बहुत मजबूत कर दिया है। इस मजबूत स्थिति को एक दम से तोड़ना असान नहीं। पर व्यक्तिगत स्तर पर अनेक लोगों की छोटी-सी लड़ाई भी नई पीढ़ी को भ्रष्टमुक्त तंत्र की राह प्रशस्त कर सकती है।

एड्स के मायाजाल के पीछे भी सच

संजय स्वदेश करीब तीन दशक पहले की बात है। अमेरिका में एचआईवी या एड्स का पहला मामला दर्ज हुआ था। तब पूरी दुनिया में इस नई बीमारी से तहलका मच गया था। हर देश इसे रोकने के लिए ऐसे अभियान में जुट गया जैसे कोई महामारी फैल रही हो। महामारी रोकने सरीके अभियान आज भी चल रहे हैैं। करोड़ों रुपये आज भी खर्च हो रहे है। पर अभी तक न इसकी कारगर दवा खोजी जा सकी और न टीका। एड्स निर्मूलन अभियान में भारत समेत दूसरे पिछड़े और गरीब देशों में पहले से व्याप्त दूसरी गं ाीर बीमारियों के प्रति सरकार की गं ाीरता हल्की पड़ गई। टी.वी. कैंसर, हैजा, मलेरिया आदि बीमारियों से आज ाी करोड़े लोग मर रहे है। वहीं दूसरी ओर एड्स से मरने वाले लोगों की इनसे कहीं ज्यादा कम हैैं। पर सरकार का ध्यान एड्स नियंत्रण कार्यक्रम पर अपेक्षाकृत ज्यादा है। पिछले साल ही स्वस्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदौस ने लोकसभा को बताया था कि 1986 से लेकर तब तक 10170 लोगों की मौत एड्स से हुई। उनके बयान के आधार पर औसतन हर साल 500 लोग मर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर हर साल साढ़े तीन लाख से ज्यादा लोग क्षय रोग के समुचित इलाज के अभाव में दम तोड़ देते हैैं। अकाल काल के गाल में समाने वाले कैंसर रोगी भी कमोबेश इतने ही हैैं। 2005-06
में एड्स नियंत्रण पर 533 करोड़ खर्च हुए जबकि क्षय रोग उन्मूलन पर 186 करोड़, कैंसर नियंत्रण पर 69 करोड़। आखिर अभियान के पीछे छिपने वाली इस खौफनाक हकीकत के असली चेहरे को सरकार क्यों नहीं पहचान पा रही है?
एक विचार करने वाली बात यह ाी है कि जब एड्स निर्मूलन अभियान शुरू हुए थे। तब से ही कई प्रसिद्ध चिकित्सों व वैज्ञानिकों ने इसे खारिज किया। आरोप लगा कि एचआईवी एड्स की आड़ में कंडोम बनाने वाली कंपनियां भारी ला ा कमाने के लिए अभियान को हवा दे रही है। पर आरोपियों की आवाज एड्स के इस अभियान में गुम हैै। अभियान के शुरूआती दिनों में ही प्रसिद्ध अमेरिकी वैज्ञानिक कैरी मुलिस ने अभियान पर सवाल खड़ा किया था। संदेह जताने वाले कैरी मुलिस वही जैव रसायन वैज्ञानिक हैं जिन्हें 1993 का नोबेल पुरस्कार मिला। पालिमरेज चेन रिएक्सन तकनीक के विकास का श्रेय इन्हें ही हैं। इसी तकनीक का इस्तेमाल कर वायरस परीक्षण होता हैै। अमेरिकी पत्रिका पेंट हाऊस के सितंबर 1998 अंक में अपने प्रकाशित प्रकाशित लेख में बड़े ही तार्किक तरीके से एड्स की अवधारणा को खंडित किया था। इनके अलावा भी दुनिया के कई बड़े वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया कि मानव स यता के हर कालखंड में किसी न किसी रूप में एड्स जैसी खतरनाक स्वास्थ्य स्थिति का खौफ रहा है। चरक संहिता में एड़स से मिलती-जुलती स्थिति होने का उल्लेख भी मिलता है। वैज्ञानिक दावा करते है कि एड्स अपने आप में कोई बीमारी नहीं है। यह शरीर की ऐसी स्थिति है जिसे मनुष्य की रोग प्रतिरोधि क्षमता नष्ट हो जाती है और वह धीरे-धीरे मौत की ओर अग्रसर हो जाता है।
हालांकि एड्स की स्थिति निश्चय ही गंभीर है। रोकथाम के लिए अभियान चलाया ही जाना चाहिए। मजे की बात यह है कि एड्स नियंत्रण अभियान जितने पैमाने पर चलाया जा रहा है, उस पैमाने पर एचआईवी एड्स पीड़ितों की सं या नहीं है। समय-समय पर जारी होने वाले एचआईवी एड्स से ग्रस्त लोगों की सं या में हमेशा संदिग्ध रही है। किसी साल कहां गया कि भारत एड्स की राजधानी बन रही है। तो कभी रिपोर्ट आई कि यहां एड्स प्रभावित लोगों की सं या में कमी आई है। यह किसी मजेदार पहेली से कम नहीं हैै। एड्स और एचआईवी दोनों अलग-अलग धारणा है। प्रभावित व्यक्ति शायद ही समाज में कभी नजर आए। पर प्रचार इतना हो चुका है कि आज छोटे-छोटे बच्चों के जेहन में जनसंचार माध्यमों ने एड्स की जानकारी डाल दी है। मासून नन्हें-मुन्ने ाी जानने लगे हैं कि सुरक्षित यौन-संबंध के लिए कंडोम जरूरी है। यह स्वाभाविक भी है। जब देश-विदेश की दवा कंपनियों से लेकर हजारों एनजीओ इसके प्रचार-प्रसार में जुटे हो तो इतनी सफलता अपेक्षित है। एक तरह से कहें तो कम समय में इसके बारे में इतना प्रचार हो चुका है जितना की दूसरी बीमारियों के बारे में जागरूकता होनी चाहिए।
अभी भी केंद्र सरकार एड्स नियंत्रण पर हर साल करोड़ रुपये का बजट तय कर रही हैै। राज्य सरकार का बजट अलग होता है। विदेशी अनुदान भी अतिरिक्त हैै। बजट की भारी-भरकम राशि ने जनहीत के दूसरे कार्यों में लगे गैर-सरकारी संस्थाओं के मन में लालच ार दिया। जितना जल्दी एड्स विरोधी कार्यक्रम चलाने के लिए अनुदान मिल जाता है, उतना दूसरे कार्यों के लिए नहीं। लिहाजा, कई संस्थानों ने जनहित में जारी दूसरी परियोजनाओं को छोड़ कर एड्स अभियान का दामन पकड़ लिया है। जितने रुपये अ िायान चलाने के लिए जितनी राशि एनजीओ को मिले, उतनी कम राशि खर्च करके उन लाखों गर्भवती माताओं को बचाया जा सकता हैं, जिन्हें समुचित इलाज की सुविधा नहीं मिल पाती है। डायरिया से ग्रस्त करीब 90 प्रतिशत महिलाओं भी अकाल काल के गाल में समाने से रोका जा सकता है। इतनी भारी भरकम राशि का अगर एक हिस्सा भी ईमानदारी से कुपोषित महिलाओं और बच्चों पर खर्च होता तो एक आज एक ऐसी नई सेहतमंद पीढ़ी जवान होती जो एड्स के खतरे से पहले ही सावधान रहती। पर एड्स नियंत्रण अभियान का जादू कुछ ऐसा छा गया है जिसने देश की बहुसं यक आबादी का ध्यान अपनी ओर खींच लिया है जिससे दूसरी जनस्वास्थ्य की दूसरी सुविधाओं को बेहतर तरीके से उपलब्ध कराने के अभियान पीछे छूट चुके हैं। 1/12/2008

सोमवार, नवंबर 29, 2010

सरोकारों की पत्रकारिता की गुंजाइश

वर्तमान पत्रकारिता जगत की स्थितियां चाहे जैसी भी हो। सरोकारों की पत्रकारिता करने की पूरी गुंजाइश है। प्रबंधन भले ही बाजार के दवाब में कुछ क्षेत्रों में अंकुश लगा दे। पर दूसरे क्षेत्र में अवसर का खुला मैदान भी होता है। बस, सरोकारों की पत्रकारिता करने का बेचैनी बना रहे। यह बेचैनी कही न कहीं आग जरूर लगा देगी।

शुक्रवार, नवंबर 26, 2010

नया अखबार

ऐसा हमेशा होता है जब कोई नया अखबार आता है तो किसी बड़े पत्रकार को बुला लिया जाता है। कोई भी नया अखबार तुरंत नहीं जमता। बाद में निवेश करने वाले और मालिक तुरंत उसका प्रभाव और लाभ चाहते हैं। तब उन्हें लगता है कि जो लोग उनके यहां कार्य कर रहे हैं, वे अच्छे नहीं हैं। जबकि नये अखबार से साथ जुड़े पत्रकार सबसे ज्यादा मेहनत करते हैं। मालिकों की उनकी मेहनत नजर नहीं आती है। जब मेहनत की फसल आती है तो काटने वाले कोई और चले आते हैं। नये पत्रकारों को सिखने के लिए अखबार के लॉचिंग के समय जरूर जुड़ना चाहिए। लेकिन पुराने पत्रकारों ऐसे मौके को मजबूरी में ही भुनाना चाहिए। भड़ास की खबर है। मधुकर उपाध्याय आज समाज के साथ नहीं रहे। श्री मधुकर उपाध्याय जैसे वरिष्ठ और बेहतरीन पत्रकार को आज समाज के साथ अपनी पारी की शुरूआत करनी ही नहीं चाहिए थी।

बुधवार, नवंबर 24, 2010

कितने ऐसे देशद्रोही अधिकारी

गृहमंत्रालय के एक और अधिकारी का पाक जासूस होने का खुलासा है। 1994 बैच के आईएएस अधिकारी रवि इंदर सिंह आंतरिक सुरक्षा विभाग में निदेशक था। इससे पहले भारतीय दूतावास में माधुरी गुप्ता को पाकिस्तान के लिए जासूसी के आरोप में गिरफ्तार किया गया था।
पता नहीं देश में और कितने ऐसे देशद्रोही अधिकारी हैं, जो उच्च व जिम्मेदार पदों पर आसीन हैं। मोटी तनख्वाह और अनेक सुविधाएं लेकर अपने ही देश की जड़े खोद रहे हैं।

मंगलवार, नवंबर 23, 2010

आवेश जरूरी पर यह बुरी चीज है

कभी-कभी आवेश जरूरी है। पर यह बुरी चीज है। आवेश में आकर लोग क्या नहीं कर देते? पर सूझबूझ के साथ आवेश जैसा जोश व्यक्ति को सफलता की राह आसान कर सकता है। आवेश में आकर ही लोग चांद पर थूकने की कोशिश करते हैं। पर तब उनके दिमाग में यह बात नहीं होती है कि बाद में वह थूक उनके ही चेहरे पर गिरेगा।

रविवार, नवंबर 21, 2010

अपरिपक्वों की संगत

सीखाई गई बुद्धि ढ़ाई घड़ी ही काम आती है। अनुभव से जो कुछ प्राप्त होता है, वह कालजयी होती है। नया अनुभय मिला। अपरिपक्वों को अपनी संगत में रखने से कोई लाभ नहीं। इनकी संगत वैसे ही जैसे नीम हकीम खतरा ए जान।

रविवार, नवंबर 07, 2010

मन में कोने में बचपन को जिंदा रखना जरूरी

यदि किसी व्यक्ति के अंदर से साहस खत्म हो जाए तो उसे क्या कहेंगे? गंभीरता से विचार करें। कई बार बच्चे कभी-कभी ऐसे गंभीर सवाल इतनी सहजा से पूछ लेते हैं, कि उसे पूछने का साहब किसी बड़े या उम्रदराज अनुभवी लोगों में नहीं होता है। इस दृष्टिकोण से मुझे लगता है कि हर किसी को अपने अंदर के बचपन को मरने नहीं देना चाहिए। जिसके अंदर बचपन की जिंदादिली है, वह साहसी है। नहीं तो उम्र के साथ अनुभव के बोझ के साथ जीवन में निरसता आ जाती है। बड़ी खुशियों में बड़े लोग मजह मुस्कान से काम चला लेते हैं। लेकिन बच्चे जी भर कर हंसते हुए खुशियों में गोता लगाते है। लिहाजा, बड़ी उम्र और अनुभव में साथ अपने अंदर के बचपने को मरने नहीं देना चाहिए। भले ही समाज किसी बात को लेकर यह क्यों न कहे कि अमुख व्यक्ति बचकना बाते करता हैं। कम से कम समाज के इस ताने से जीवन निरसता के बोझ से तो नहीं दबा रहेगा और खुशियों को निश्चछल भाव से जी भर मनाने में कोई कंजूसी भी नहीं होगी।

संजय स्वदेश फोटो ७/११/२०१०

मंगलवार, नवंबर 02, 2010

निश्चल बचपना की निर्भयता

बचपन में जिस निर्भयता से पटाखे फोड़ते थे, इस उम्र में वह निर्भयता नहीं रही। तो क्या यह मान लिया जाना चाहिए उम्र बढ़ने के साथ निर्भयता खत्म हो जाती है। मुझे लगता है निर्भयता खत्म नहीं होती है। निश्चल बचपन जा चुका होता है। जो लोग अपने अंदर निश्चल बचपन को बचाये रखते हैं वे ऐसे मौके पर ढेरों खुशियां बढ़ोर लेते हैं।

शुक्रवार, अक्तूबर 29, 2010

कंपनी को जमीन मिली,पर पीडि़तों को मुआवजा नहीं


आईओसी आग : एक साल
कंपनी को जमीन मिली,पर पीडि़तों को मुआवजा नहीं
आज से ठीक एक वर्ष पूर्व २९ अक्टूबर, २००९ को जयपुर में आईओसी (इंडियन ऑयल कॉपरपोरेशन) में लगी भीषण हादसे के बाद सरकार ने सबक लेने की सोची है। डिपो को शहर और घनी आबादी से दूर बनाने का निर्णय लिया गया है। लेकिन सीतापुर औद्योगिक क्षेत्र में स्थित आईओसी के डिपो में एक साल पूर्व लगी भीषण आग में मरे ११ लोगों के परिवार अभी भी मुआवजे की वाट जो रहे हैं। घटना के बाद केंद्रीय पेट्रोलियम एवं प्रकृतिक गैस मंत्री मुरली देवड़ा ने पीडि़तों को दस-दस लाख रुपये की राशि देने की घोषणा की थी। लेकिन हादसे के करीब एक साल बाद आईओसी को डिपो बनाने के लिए जमीन तो आवंटित हो गई है। लेकिन पीडि़तों के हाथ में कुछ नहीं आया। निराश पीडि़तों ने गत दिनों पूर्व ही राष्ट्रपति के नाम पत्र लिख कर मुआवजा दिलाने की गुहार लगाई है।
आईओसी डिपो में आग लगने के बाद सरकार ने चीफ टाउन प्लानर की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी। समिति ने सरकार से सिफारिश की थी कि भविष्य में पेट्रोल-डीजल और गैस डिपों का निर्माण शहरी आबादी से करीब तीस किलोमीटर हो। रिपोर्ट के बाद राज्य सरकार ने जिला प्रशासन को शहर से डिपों दूर करने के लिए उचित जमीन तलाशने के आदेश दिये थे। आखिर जमीन मिला। जिला प्रशासन ने फागी में स्थित मोहनपुरा स्थित गांव में पड़ी सरकारी जमीन पर इसके निर्माण का प्रस्ताव सरकार के पास भेजा था। इस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी गई।
आश्चर्य की बात यह है कि समिति ने शहरी आबादी में रहने वाले लोगों की जान की चिंता तो की। लेकिन गांव की निवासियों की तनिक भी चिंता नहीं की। आबादी चाहे शहरी हो या गवई। आईओसी जैसे हादसों से खतरे एक समान होते हैं। ऐसे कार्यों के लिए सरकार को पहले से ही ऐसी जमीन तलाशनी चाहिए थी, जो आबादी से दूर हो। अब जिस जगह आईओसी के नये डिपो बनाने की जगह दी गई। वहां से गांव को हटाया जाएंगा। नये जमीन पर पुरानी कंपनी के नये डिपो बसाने के लिए पुराने वशिंदों को उजाड़ा जाएगा। भविष्य में इस जमीन के आसपास लोगों को नहीं बसने देने की संभावना भी कम है।
दूसरे डिपो भी शहर से बाहर बनेंगेघटना के ठीक एक साल पूरे होने के कुछ दिन पूर्व ही सरकार ने इस मामले में और ठोस पहल करते हुए यह निर्णय लिया कि राज्य में अब कभी भी पेट्रोल और डीजल सहित गैस के डिपो का निर्माण आबादी क्षेत्र में नहीं किया जाएगा। इसके लिए शहर से दूर ही जमीन का आवंटन या मंजूरी दी जाएगी। इस नीति के तहत ही सरकार ने भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड को भी शहर से दूर सांभर के आसलपुर गांव में जमीन का आवंटन करने की योजना बनाई है। इस जमीन को शीघ्र ही अवाप्त करके कंपनी को डिपो के निर्माण के लिए दिया जाएगा। इसी नियम के तहत ही सरकार ने पिछले दिनों हिन्दुस्तान पेट्रोलियम कॉरपोरेशन के डिपो को भी बगरू में आबादी रहित जमीन पर बनाया गया।
सीतापुरा जमीन पर योजना बाकी:सीतापुरा स्थित आईओसी के पुराने डिपो वाली जमीन पर अभी इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन ने कोई योजना को मूर्तरूप नहीं दिया है। जमीन पर क्योंकि अधिकार कंपनी का है, इसलिए सरकार इसमें अपनी दखलंदाजी नहीं कर सकती है। देखना यह है कि अब कंपनी इस जमीन का उपयोग किस काम के लिए करती है।
अदालत में चल रही आईओसी की प्रक्रियाआईओसी में लगी आग को लेकर शहर के सांगानेर सदर थाने में दो एफआईआर दर्ज कराई गई थी। एफआईआर नंबर २४१/०९ जीनस कंपनी और २४२/०९ बीएलएम इन्सीट्यूट की ओर से बीएल मेहरड़ा ने दर्ज कराई। इसके अलावा आदर्शनगर थाने में भी एक एफआईआर नंबर ३३७/०९ दर्ज कराई गई। इसके अलावा अदालती आदेश पर शहर के बजाज नगर थाने में तत्कालीन एसपी पूर्व बीजू जॉर्ज जोसफ, तत्कालीन कलेक्टर कुलदीप रांका और आईजी बीएल सोनी को आरोपी बनाते हुए एफआईआर नंबर ५६०/०९ दर्ज की गई।
एफआईआर नंबर २४१/०९ में कार्रवाई करते हुए पुलिस ने गत २ जुलाई को आईओसी के तत्कालीन जनरल मैनेजर गौतम बोस, तत्कालीन मुख्य ऑपरेशन मैनेजर राजेशकुमार स्याल, सीनियर ऑपरेशन मैनेजर शशांक शेखर, तत्कालीन पाइप लाइन डिवीजन प्रभारी सुमित्रशंकर गुप्ता, तत्कालीन मैनेजर कैलाशशंकर कनोजिया, सीनियर मैनेजर अरुणकुमार पोद्दार, उपप्रबंधक कपिल गोयल, ऑपरेशन ऑफिसर अशोककुमार और चार्जमैन कैलाशनाथ अग्रवाल को गिरफ्तार किया था। इनमें से आरोपी अशोक कुमार को छोड़कर शेष सभी आरोपियों को ७ जुलाई को जमानत मिल चुकी है, जबकि अशोककुमार अभी न्यायिक हिरासत में है। हाईकोर्ट में जमानत पर रिहा इन आठ आरोपियों की जमानत याचिका रद्द करने के लिए याचिका लंबित है तथा आरोपी अशोक कुमार की जमानत याचिका लंबित है। पुलिस ने इन आरोपियों के खिलाफ सांगानेर की निचली अदालत में गत दिनों चालान पेश कर दिया है। वहीं शेष एफआईआर २४२/०९ और ३३७/०९ पर पुलिस जांच कर रही है। जबकि बजाज नगर थाने में दर्ज एफआईआर ५६०/०९ में जांच के दौरान तीन बार अनुसंधान अधिकारी बदले जा चुके हैं। वर्तमान में पुलिस महानिरीक्षक मानवाधिकार मोरिस बाबू प्रकरण की जांच कर रहे हैं।
यूं लगी थी आगघटना के समय डिपो से बीपीसीएल को पाइप लाइन के माध्यम से पेट्रोल और केरोसिन आपूर्ति होती थी। इस कार्य के लिए ऑपरेशन ऑफिसर व तीन चार्जमैन को नियुक्त किया गया था। विभागीय निर्देशानुसार पाइप लाइन ट्रान्सफर के दौरान प्रत्येक स्थान पर वॉल्व ऑपरेशन के लिए दो कर्मचारियों की उपस्थिति आवश्यक होती है, जबकि वहां केवल एक ही कर्मचारी रामनिवास मौजूद था। जिसने हैमर वॉल्व में हैमर आई को फिक्स किए बिना ही डिलीवरी वॉल्व एवं बॉडी वाल्व को खोल दिया, जिससे आग लगी। इसके अलावा जिस टैंक में आग सबसे पहले लगी उसके बाहर लगा ड्रेन वॉटर वॉल्व खुली अवस्था में था, जबकि उसे बंद रहना चाहिए था। टैंक से करीब सवा घंटे से अधिक समय तक पेट्रोल का लीकेज होता रहा। लेकिन इस अवधि के दौरान अधिकारियों ने उसे रोकने का प्रयास नहीं किया। जिससे एक-एक कर सभी ११ टैंकों में आग लग गई। इसके अलावा केन्द्र पर नागरिकों को घटना की चेतावनी देने के लिए पब्लिक एड्रेस सिस्टम का भी पूर्णतया अभाव था। घटना के बाद अधिकारियों ने हाईडेंट और फोम सिस्टम का भी समय पर उपयोग नहीं किया। इसके अलावा टर्मिनल में फायर फाइटिंग सूट, ऑक्सीजन मास्क आदि सुरक्षा उपकरणों का भी अभाव था।
sanjay swadesh

सोमवार, अक्तूबर 25, 2010

पेड न्यूज/हल्ला करने वालों के हाथ में कुछ नहीं, मालिक को पकड़ें

संजय स्वदेश
पेड न्यूज पर लगाम को लेकर चुनावी नियमों की ढील की बात से यह चर्चा फिर गर्म हुई है। महत्वपूर्ण बात यह है कि चुनावी माहौल में ही पेड न्यूज को लेकर सबसे ज्यादा चर्चा होती रही है। पर अब समय के साथ पाठक भी होशियार हो चले हैं। उनके लिए खालिस न्यूज क्या है, इसकी समझ विकसित हो चुकी है। परिणाम सामने हैं। यदि पेड न्यूज का प्रभाव पाठकों पर व्यापकता से पड़ता है तो निश्चय ही कई नेताओं का कायाकल्प हो चुका होता। गत वर्ष महाराष्टÑ विधानसभा चुनाव हुये। निजी अनुभव है, जिन नेताओं ने जमकर पेड न्यूज का सहारा लिया, कुछ को लाभ तो मिला, लेकिन अधिकतर की लुटिया डूबी। हारते ही जनता के बीच के साथ पार्टी में भी किनारे पर आ गये। उससे पहले लोकसभा चुनाव में भी पेड न्यूज का खूब धंधा चला। पर पाठकों पर इसका जादू बहुत कम चला। बदलते पत्रकारिता के माहौल में पेड न्यूज को जनता जानने-पहचानने लगी है। इसलिए इसको लेकर चुनाव आयोग किसी नियम कायदे में ढील न भी दे तो चिंता की बात नहीं है। हां, मीडिया के बहाने ढील पर मीडिया जगत के लिए यह शर्म की बात जरूर है। यदि ऐसा होता है तो पेड न्यूज की मलाई खाने वाले को नुकसान तो होगा ही अखबार मालिकों के धंधे पर भी असर पड़ेगा। पर यह नियम कायदे जो भी बने, पेड न्यूज की वैसे ही चलती रहेगी, जिस तरह से सरकारी महकमे में भ्रष्टाचार रचबस चला है। सतर्कता आयोग के लाख प्रचार के बाद भी भ्रष्टाचार बढ़ते ही गया है। इसी तरह मीडिया में पेड न्यूज का भ्रटाचार भविष्य में और फलेगा-फूलेगा। पर भुगतान के आधार पर शब्दों के माध्यम से खबरों के काले धंधे को हमेशा ही अनैतिक माना जाएगा। महौल चाहे जैसे भी बदले, सैद्धांतिक पत्रकारिता का अस्तित्व कामय रहेगी। इसी अस्तित्व के सहारे पेड न्यूज का धंधा भी फलता-फूलता रहेगा। इसे रोकने की बात हमेशा होती रहेगी। इसमें भी स्टिंग हुए हैं और भी होंगे। कुछ की पोल खुलेगी, कुछ बचेंगे। जब धंधे में यह प्रवृत्ति रचबस कर एक हो गई है तो इसे अलग-थगल करना मुश्किल होगा। पेड न्यूज को केवल राजनैतिक खबरों से जोड़कर देखने की जरूरत नहीं है।
फिलहाल इसके लिए प्रबुद्ध लोग पेड न्यूज को रोकने की पहल कर रहे हैं। शपथ ले रहे हैं कि वे खबरों का कालाधांधा नहीं करेंगे। पर गौर करने वाली बात यह है कि जो पहल करने वाले हैं, उनके हाथ से यह मसला अब निकल चुका है। जब तक उनके हाथ में था कुछ धन बटोरे गए। जब अखबार मालिकों की आंख खुली तो उन्होंने इसे धंधे को सीधे अपने हाथ में ले लिया। पहले से पेड़ न्यूज की कमाई करने वाले पत्रकारों के हाथ में कुछ नहीं बचा तो वे अब एकजुट हुए हैं। शोर मच रहा हंै। पेड न्यूज का गुणा-गणित जान चुके अखबार मालिक नहीं चाहते हैं कि चुनाव के दौरान उनके नियुक्त पत्रकार उसका लाभ लें और वे केवल तमाशा देखें। कई समझदार मालिकों ने तो पेड न्यूज का धंधा करने के लिए चुनाव के पूर्व अखबार लाँच किये। नये संस्करण शुरू हुये। आश्चर्य की बात है कि पेड न्यूज को रोकने के लिए जितनी भी चर्चाएं और कार्यक्रम हो रहे हैं, उसमें पत्रकार ही हिस्सा ले रहे हैं। मान लें कि किसी समाचारपत्र का संपादक यह निर्णय लेता है कि वह पेड न्यूज को नकार देगा। वहीं उस पत्र का मालिक सीधे पेड न्यूज देने वालों से समझौता कर खबर प्रकाशित करने को कहे तो संपादक क्या करेंगे? दरअसल जो संगठन पेड न्यूज को लेकर चिंतित हैं और सेमिनार आदि का आयोजन करवा रहे हैं, उन्हें चाहिए कि वे ऐसे सेमिनार, संगोष्ठियों का वक्ता समाचारपत्रों के मालिकों को बनाये, तो शायद मालिकों को पेड न्यूज पर कुछ मंथन करने का मन बनें।

सोमवार, अक्तूबर 18, 2010

साहित्य में टूटती शब्दों की मर्यादा

साहित्य को शर्मशार करते हंस और नया ज्ञानोदय
संजय स्वदेश
नेट खंगालते-खंगालते, सहज ही मन में इच्छा हुई कि साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिका हंस पढ़ी जाए। पत्रिका का अक्टूबर,2010 अंक डाउनलोड लिया। करीब एक दशक बाद हंस को पढ़ रहा था। पर यह क्या, एक दशक में काफी बदलावा दिखा। साहित्य की इस प्रतिष्ठित पत्रिका में पटना के रामधारी सिंह दिवाकर की एक कहानी रंडियां शीर्षक से छपी हैं। जिस संवदेना को कहानी का आधार बनाया गया है, उसका तानाबाना गजब का है। पर यथार्थ दिखाने के चक्कर में यह इस शब्द का प्रयोग शर्मशार करने वाला है।
कहानी के एक अंश है-
‘‘आज इस बड़का गांव में रंडिया ही रंडिया है. कहा है लाली यादव, पंडित बटैश झा, पुलकित राय, रघुनाथ भगत और बिसुनलाल तो चले गए दुनिया से, मगर उनके परिवारों से भी रंडियां पंचायत का चुनाव लड़ रही हैं. लाली यादव की परेनियां वाली बहू राधिका यादव, पंडित बटेश झा की बहू ममता झा, पुलिकित राय की पोती चंद्रकला राय... रंडियां ही रंडियां हैं. गांव में, हर उम्र की रंडिया.‘लेखक कहानी मेें जिस मुद्दे को उठाना चाहता है, उसमें सफल है। लेकिन शब्दों की ऐसी अर्मादित शैली उसकी स्तरीयता को निम्म कर देती है। सरस सलिस जैसी पत्रिकाएं ऐसे शब्दों को उपयोग कर जल्द ही लोकप्रियता हासिल कर लेती हैं। लेकिन उनका स्तर साहित्यिक नहीं है। लोग खूब चटकारे लेकर पढ़ते हैं। पर एक उच्च कोटी की साहित्यिक पत्रिका में ऐसे शब्दों का प्रयोग साहित्य की गरिमा निश्चय ही ठेस पहुंचाता है।
ज्ञात हो कि हंस के संस्थापक मुंशी प्रेमचंद थे। मुंशी प्रेमचंद ने अनेक मुद्दों को सरल और सहज शब्दों में बड़े ही प्रभावशाली तरीके से उठाया है। उनके लेखन में देशज शब्दों की भरमार है। इसके बाद भी वे शब्दों की शालीनता बनाये रखते हैं। आज वहीं हंस शब्दों की शालीनता की मार्यादा तोड़ रहा है। भले ही इस दिनों साहित्यिक पत्रिकाओं की संख्या बढ़ी है, लेकिन अमर्यादित शब्दों का प्रयोग पाठकों के बीच लोकप्रियता पाने का सरल माध्यम बनता जा रहा है। यदि आज प्रेमचंद होते तो अपनी स्थापित इस पत्रिका को पढ़ कर निश्चय ही शर्मशार हो जाते।
पिछले दिनों नया ज्ञनोदय के अंक में भी ऐसा ही कुछ हुआ। महात्मा गांधी अंतरराष्टÑीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय के साक्षात्कार में प्रयुक्त एक शब्द को लेकर खूब तूल दिया गया। मजेदार बात यह रही है कि उस पर टीका-टिप्पणी करने वालों ने नया ज्ञानोदय का वह अंक पूरा पढ़ा ही नहीं। जबकि उस अंक में प्रकाशित अन्य कई रचनाओं में अनेक आपत्तिजनक और अमर्यादित शब्दों के प्रयोग किये गए हैं। लेकिन बहस केवल विभूति नारायण के शब्दों पर छिड़ी रही। इससे सबसे ज्यादा लाभ नया ज्ञनोदय को हुआ। स्टॉल पर पत्रिका हाथो-हाथ बिक गई। इसके बाद जिस विषय को विशेषांक बनाया गया, हिंदी साहित्य में उसकी कोई विद्या या परंपरा नहीं रही है। एक साहित्यक पत्रिका को बेवफाई का सुपर विशेषांक निकालना उसी तरह लोकप्रिय होने का राह अपनाना है जैसे इंडिया टूटे, आऊटलुक पिछले कुछ वर्षों में सेक्स सर्वे पर कवर स्टोरी छाप कर क्षणिक लोकप्रियता पाई है।
बेवदुनिया ने कुछ भी लिखने पढ़ने की अजादी दी है। क्योंकि यहां अभी नियंत्रण नहीं है। लिहाजा, इंटरनेट की दुनिया में कई लेखकों की कुंठाएं साफ दिखती है। पत्र-पत्रिकाओं की दुनिया अलग है। यहां यह संयम इस लिए जरूरी है, क्योंकि आज भी इसके पाठकों की दुनिया अगल है। महंगी साहित्यिक पत्रिकाएं खरीदने वाला पाठक इसलिए जेब ठीली नहीं करना चाहता है कि उसे एक यथार्थ मुद्दे को अमर्यादित शब्दों की चांसनी में परोसा मिलता है। ऐसी अपेक्षाएं तो छह रुपये में बिकने वाली सरस सलिल जैसी पत्रिकाओं से पूरी हो सकती है। यदि अश्लीलता ही पढ़ती है तो इससे अच्छा बाबा मस्तराम की किताबे सस्ती।

रविवार, अक्तूबर 17, 2010

...क्योंकि रावण अपना चरित्र जानता है


संजय स्वदेश

कथा का तानाबाना तुलसीबाबा ने कुछ ऐसा बुना की रावण रावण बन गया। मानस मध्ययुग की रचना है। हर युग के देशकाल का प्रभाव तत्कालीन समय की रचनाओं में सहज ही परीलक्षित होता है। रावण का पतन का मूल सीता हरण है। पर सीताहरण की मूल वजह क्या है? गंभीरता से विचार करें। कई लेखक, विचारक रावण का पक्ष का उठाते रहे हैं। बुरी पृवत्तियों वाले ढेरों रावण आज भी जिंदा हैं। कागज के रावण फूंकने से इन पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। पर जिस पौराणिक पात्र वाले रावण की बात की जा रही है, उसे ईमानदार नजरिये से देखे। विचार करें। यदि कोई किसी के बहन का नाक काट दे तो भाई क्या करेगा। आज 21वीं सदी में ऐसी घटना किसी भी सच्चे भाई के साथ होगी, तो निश्चय ही प्रतिशोध की आग में धधक उठेगा। फिर मध्य युग में सुर्पनखा के नाम का बदला रामण क्यों नहीं लेता। संभवत्त मध्ययुग के अराजक समाज में तो यह और भी समान्य बात रही होगी।
अपहृत नारी पर अपहरणकर्ता का वश चलता है। रावण ने बलात्कार नहीं किया। सीता की गरीमा का ध्यान रखा। उसे मालूम था कि सीता वनवासी बन पति के साथ सास-श्वसुर के बचनों का पालन कर रही है। इसलिए वैभवशाली लंका में रावण ने सीता को रखने के लिए अशोक बाटिका में रखा। सीता को पटरानी बनाने का प्रस्ताव दिया। लेकिन इसके लिए जबरदस्ती नहीं की। दरअसल का मध्य युग पूरी तरह से सत्ता संघर्ष और नारी के भोगी प्रवृत्ति का युग है। इसी आलोक में तो राजेंद्र यादव हनुमान को पहला आतंकवादी की संज्ञा देते हैं। निश्चय ही कोई किसी के महल में रात में जाये और रात में सबसे खूबसूरत वाटिका को उजाड़े तो उसे क्यों नहीं दंडित किया जाए। रावण ने भी तो यहीं किया। सत्ता संघर्ष का पूरा जंजाल रामायण में दिखता है। ऋषि-मुनि दंडाकारण्य में तपत्या कर रहे थे या जासूसी। रघुकुल के प्रति निष्ठा दिखानेवाले तपस्वी दंडाकारण्य अस्त्र-शस्त्रों का संग्रह क्यों करते थे। उनका कार्य तो तप का है। जैसे ही योद्धा राम यहां आते हैं, उन्हें अस्त्र-शस्त्रों की शक्ति प्रदान करते हैं। उन्हीं अस्त्र-शस्त्रों से राम आगे बढ़ते हैं। मध्ययुग में सत्ता का जो संघर्ष था, वह किसी न किसी रूप में आज भी है। सत्ताधारी और संघर्षी बदले हुए हैं। छल और प्रपंच किसी न किसी रूप में आज भी चल रहे हैं। सत्ता की हमेशा जय होती रही है। राम की सत्ता प्रभावी हुई, तो किसी किसी ने उनके खिलाफ मुंह नहीं खोला। लेकिन जनता के मन से राम के प्रति संदेह नहीं गया। तभी एक धोबी के लांछन पर सीता को महल से निकाल देते हैं। वह भी उस सीता को तो गर्भवती थी। यह विवाद पारिवारीक मसला था। आज भी ऐसा हो रहा है। आपसी रिश्ते के संदेह में आज भी कई महिलाओं को घर से बेघर कर दिया जाता है। फिर राम के इस प्रवृत्ति को रावण की तरह क्यों नहीं देखी जाती है। जबकि इस तरह घर से निकालने के लिए आधुनिक युग में घरेलू हिंसा कानून के तहत महिलाआें को सुरक्षा दे दी गई है। बहन की रक्षा, उनकी मर्यादा हनन करने वालों को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा, पराई नारी को हाथ नहीं लगाने का उज्ज्वल चरित्र तो रावण में दिखता है। लोग कहते भी है कि रावण प्रकांड पंडित था। फिर भी उसका गुणगणान नहीं होता। विभिषण सदाचारी थे। रामभक्त थे। पर उसे कोई सम्मान कहां देता है। सत्ता की लालच में रावण की मृत्यु का राज बताने की सजा मिली। सत्ता के प्रभाव से चाहे जैसा भी साहित्या रचा जाए, इतिहास लिखा जाए। हकीकत को जानने वाला जनमानस उसे कभी मान्यता नहीं देता है। तभी तो उज्ज्वल चरित्र वाले विभिषण आज भी समाज में प्रतिष्ठा के लिए तरसते रहे। सत्ता का प्रभाव था, राम महिमा मंडित हो गए। पिता की अज्ञा मानकर वनवास जाने तक राम के चरित्र पर संदेह नहीं। लेकिन इसके पीछे सत्ता विस्तार की नीति जनहीत में नहीं थी। राम राजा थे। मध्य युग में सत्ता का विस्तार राजा के लक्षण थे। पर प्रकांड पंडित रावण ने सत्ता का विस्तार का प्रयास नहीं किया। हालांकि दूसरे रामायण में देवताओं के साथ युद्ध की बात आती है। पर देवताओं के छल-पंपंच के किस्से कम नहीं हैं।
काश, कागज के रावण फूंकने वाले कम से कम उसके उदत्ता चरित्र से सबक लेते। बहन पर होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए हिम्मत दिखाते। उसकी रक्षा करते। परायी नारी के साथ जबरदस्ती नहीं करते। ऐसी सीख नहीं पीढ़ी को देते। समाज बदलता। मुझे लगता है कि राम चरित्र की असंतुलित शिक्षा का ही प्रभाव है कि 21वीं सदी में भी अनेक महिलाएं जिस पति को देवता मानती है, वहीं उन पर शक करता है, घर से निकालता है। संभवत: यहीं कारण है कि आज धुं-धुं कर जलता हुए रावण के मुंह से चीख निकलने के बजाय हंसी निकलती है। क्योंकि वह जनता है कि जिस लिए उसे जलाया जा रहा है, वह चरित्र उसका नहीं आज के मानव रूपी राम का है।

सोमवार, अक्तूबर 04, 2010

राष्टÑमंडल खेल के समापन के बाद दिखेंगी विकृतियां

राष्टÑमंडल खेल शुरू हो गये। करीब 70 हजार करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। पर यह तो रकम खर्च की है। इसके पीछे जो कुछ नष्ट हुआ है, उसकी कीमत लगाए, तो इससे कहीं ज्यादा होगा। इस खेल के बहाने से भले ही दिल्ली दुल्हन जैसी सजी-धजी हो। पर दुलहन की यह खूबसूरती महज कुछ खास इलाकों तक ही सीमित है। पूर्वी दिल्ली में में खेलगांव बना है। पूर्वी दिल्ली के भजनपुरा हो आइएं, जमीनी हकीकत का अंदाज हो जाएगा। खेल के बहाने दिल्ली से गरीब हटा दिये गये। खबर आ रही है कि अब दिल्ली के घरों में नौकर-चाकर के टोटे पड़ गए हैं। सब्जी-भाजी बेचने वालों को दिल्ली से बाहर निकल गए। बड़े दुकानदारों की चांदी हो गई। किराया बढ़ने से मकान मालिकों की धौंस बढ़ गई। फिलहाल दिल्ली राष्ट्रमंडल खेले के जश्न में डूबी है। पर इसकी बुनियाद में जो अमानवीयता को दबाई गई है, उसके बदनूमा दाग इस खेले के बाद दिखेंगे। किसी जामाने से दिल्ली में एसिायाड़ गेम हुए थे। साऊथ एक्स चमक गया। पर साऊथ एक्स में आपसी भाईचारा गायब हो गया। अनेक तरह के असमाजिक घटाएं साऊथ एक्स से आती रही।
इतिहास गवाह है जहां भी समृद्धि और प्रतिष्ठा के लिए गरीबों का गला घोंटा गया, वहां समृद्धि और प्रतिष्ठा तो आई, पर मानवीय संवेदनाओं को सहेजने वाला समाज खत्म हो गया। विकृत मानासिकता हावी हो गई। ऐसे समाज और संस्कृति में गुजर-बसर करने वाले संवेदनशील भीड़-भाड़ में भी तन्हा रहते हैं। कोसते हैं। राष्टÑमंडल खेल के आयोजन की विकृतियां इसके समापन के बाद दिखेगी।
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शनिवार, अक्तूबर 02, 2010

शास्त्रीजी को भी नमन


संजय स्वदेश
बचपन में में हमारे चाचा ने चाचा नेहरू के बारे में बताया, कि वे बच्चों से बहुत प्रेम करते थे। इसलिए उनका नाम चाचा नेहरू पड़ा। स्कूली किताबों में भी चाचा नेहरू जी के बारे में पढ़ा। कैसे बच्चों के लिए एक गरीब के सारे गुब्बारे खरीद लेते हैं। चाचा ने गांधीजी के बारे में भी बताया। उन्होंने देश का अजाद कराया। अकेले। एक लंगोटी पर। बताया कि जब चंपारण आये थे तब एक महिला को आधे वस्त्र में देखा। मन इतना विचलित हुआ कि ताउम्र एक धोती में गुजार दिया। चाचा ने लाल बहादुर शास्त्रीजी के बारे में बताया। कैसे, नदी तैरकर पढऩे जाते थे।
तीनों महापुरुषों में सबसे ज्यादा प्रभावित चरित्र शास्त्री जी का लगा। बड़ा हुआ तो समझ में आया कि एक प्रधानमंत्री को इतना समय कैसे मिल सकता है कि वह दूसरे कार्यों को दरकिनाार कर बच्चों को प्यार करें। हां, किसी पार्टी, आयोजन या अन्य किसी समारोह में बच्चे हों और वहां उन्हें लाड़-दुलार कर लिया। प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले नेरूरीजी के ये कार्य इतिहास में दर्ज हो गया। जबकि उसके बाद कई नेता हुये जिन्होंने बच्चों को खूब प्यार किया पर उन्हें चचा का वह दर्जा नहीं प्राप्त हो पाया, जिस दरजे पर नेहरूजी है।
गांधी तो राष्टपित तो हो गया। पद से ज्यादा कद। बापू का कद ही इतना बड़ा है कि सब छोटे पड़ गये। पर बापू के दाम पर भी कई छिंटे लगाये गए। पर शास्त्रीजी की क्या गलती? 2 अक्टूबर को जितना लोग बापू को याद करते हैं, उससे तुलना में शास्त्री जी तो कुछ भी याद नहीं किया जाता है। राजघाट सजता-धजता है, भीड़ लगती है, लेकिन शास्त्रीजी की समाधी सूनी रहती है। भूले-बिसरे शास्त्री परिवार या कोई अन्य औपचारिकवश आ जाए तो बात दूसरी है।
दरअसल हमारी प्राथमिक पाठ्यकपुस्तों में शास्त्रीजी संक्षिप्त जीवन का शामिल करना उसी तरह जरूरी होना चाहिए जैसे चाचा नेहरू और गांधी के जीवन प्रसंग शामिल हैं। बाल मन पर ऐसे महापुरुषों के जीवन के प्रसंगों का गहरा असर पड़ता है। शास्त्री के सिर पर बचपनप में ही पिता का साया उठ गया। मां ने संघर्षों से पाला। खुद संघर्ष किया। अपनी योग्याता साबित की। इनके जीवन के प्रसंग बाल विषम परिस्थियों में की मजबूती के साथ डटे रहने का आत्मविश्वास भरते हैं। नेहरू परिवार के संपर्क में आने से कांग्रेस कमेटी काम का मौका मिला। उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रमुख पद पर जाकर उन्होंने जो कुछ किया, उससे उनका कद और बढ़ गया। सरल-सहज और सच्चे व्यक्तित्व का मजबूत प्रभाव इतना था कि उनके प्रधानमंत्रीत्व काल में स्वयं इंदिरा भी भयभीत थी।

कमजोर भारत को जय-जवान और जय किसान के नारे से इतन मजबूत बना दिया कि दुश्मनसेना को मुंह की खानी पड़ी। ताश्कंद में रहस्यम मौत रहस्य ही रह गया। सरकार ने कभी भी शास्त्री जी के मौत के रहस्य को सुलझाने की कोशिश नहीं की। दिल का दौरा पडऩे की हुई मौत कह कर इनकी जीवन का इतिश्री कर दिया गया। जबकि जो व्यक्ति जीवन के विषम परिस्थितियों से जूझते हुए इतना आगे आए वह इतना कमजोर नहीं हो सकता है कि उसे दिल का दौरा आये और वह दुनिया से चल बसे।
ऐसे आदर्श और प्रेरणादायी व्यक्तित्व का उनके जन्मदिवस पर शत, शत नमन है।

शुक्रवार, अक्तूबर 01, 2010

पंचायती फैसले की तरह है कोर्ट का निणर्य

संजय स्वदेशअयोध्या प्रकरण पर रामलला की जमीन में आधे आधे के बटवारे पर मुलायम सिंह का बयान है। फैसले में कानून पर आस्था भारी दिख रही है। भविष्य में इसके कई परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। निश्चय ही कानून के खिलाड़ी इस प्रकरण में फैसले का हवाला देकर उन मामलों में जीत हासिल करने की कोशिश करेंगे, जिसमें किसी दूसरे की जमीन का दबंगई से कब्जा जमाया गया है। कई मामले हैं, जिसमें आस्था के आगे कानून को नरमी दिखानी पड़ी है।
यदि इस मामले में कानून के अनुसार निर्णय दिया जाता तो फैसला पूरी तरह किसी एक समुदाय के पक्ष में जाता। जरा साचिये, फिर देश में क्या होता। उन्नामदी मसूमों के रक्त से खेलते। पर कोर्ट की सूझबूझ और जनता के संयम ने उन्नादियों के मंसबूों पर पानी फेर दिया है। पंचायती निर्णय को स्वीकारने की परंंपरा पुरानी रही है। कोर्ट का निर्णय पंचायती निणर्य की तरह की सबको खुश कर बीच का रास्ता निकालने वाला है।
मुलायम की बात सही है। आस्था कानून पर भारी पड़ी है। पर यह बात को कानून की बुनियाद में भी है कि कई बार जहां काूनन की पेचिदगियां होती है, उसमें अदालत स्व विवेक से भी निर्णय देता है। लेकिन इस निर्णय में कोर्ट ने कई तत्थों को आधार बनाया है। और तीन जजों में फैसला बहुमत से लिया गया है। पर एक निर्णय से एक संकेत तो मिल ही गया है कि गलत मंसूबों के अदालत न्याय देगी और न ही जनता अब उसे प्रश्रय देगी। कम से कम अयोध्या मामले में पूरा देश तो एकमत है ही। निर्णय से पूर्व तनाव भरा जो महौल बना, उसके लिए मीडिया और सरकार कम दोषी नहीं रही है।
दबंग लोग सबक लें...इस फैसले से उन लोगों को भी सबक लेनी चाहिए जो अपने का समाज में प्रभावशाली और बाहुबली मानते हैं। दबे-कुचले की जमीन हथिया लेते हैं। बाबर ने जो गलती की, उसका नतीजा हमने 1992 में देख लिया। जो लोग दूसरे की जीमन हथियाएंगे, जरूरी नहीं कि उनकी आने वाली पीढिय़ां उनके जैसे दबंग रहेगी। कालचक्र में कमजोर, पीडि़त पक्ष की नश्ले भी मजबूत होकर उभरेंगी। वे अपने पूर्वजों पर हुए जुल्म की खोज-खबर लेगी। तब तक जुल्म ढाने वाले दंबंगों की अगली पुश्ते अपने पूर्वजों की गलती से अनजान रहेगी। वह भी मासूम रहेगी। तब क्या होगा। गलती पूर्वजों की सजा सजा पुश्तों को मिले। इसलिए अपने तत्कालीन सुख के लिए दूसरे का हक न मारे। भविष्य में उनकी पुश्ते उनकी लगतियों का बोझ उठाएगी।

गुरुवार, सितंबर 30, 2010

न तूम हारे न हम जीते

आखिर वर्षों इंतजार के बाद अयोध्या प्रकरण में अदालत को निर्णय आ गया। यह कई मायनों में महत्वपूर्ण है। यह इसलिए कि इसमें हर पक्ष को खुश करने की कोशिश है। देश में उत्पन्न माहौल में सधा हुआ निणर्य है। कुल मिलाकर स्थिति न तुम हारे, न हम जीते जैसी है। रामचंद्र भले भले ही रामायण और रामचरित मानस के पात्र हो। लेकिन कोर्ट ने इस आस्था को प्रमाणित कर दिया कि रामचंद्र की पावन जन्मभूमि अयोध्या ही थी।
खैर, यदि कोई पक्ष इस निर्णय के खिलाफ अदालत में नहीं जाए तो फैसले को लगाू कराना अब बहुत ज्यादा मुश्किल नहीं होगा। बेहतर होता कि सुन्न वक्फ बोर्ड या कोई अन्य संगठन अथवा कोई व्यक्ति विशेष इस फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय की की शरण में जाने के बजाय, इस ऐतिहासिक अध्याय को यहीं विराम देकर नई पीढ़ी को शांति और अमन एक एक नया सौगात दे दे।

बुधवार, सितंबर 29, 2010

...फिर कहां कोई पूछेगा अयोध्या को

अयोध्या प्रकरण। इंंतजार खत्म होने को है। कुछ भी हो सकता है। संभवत देश एक नई करवट ले। इस करवट से शायद किसी समुदाय विशेष को चैन न मिले। पर एक बात तो तय-सी दिखती है, प्रकरण उच्चतम न्यायालय जाएगा जरूर। यदि किसी पक्ष को उच्चम न्यायालय की शरण में जाने से देश को 1992 जैसे हालात नहीं देखने को मिले तो अच्छा होगा।
जमाना गुजर चुका है, नई पीढ़ी को न मंदिर चाहिए और न ही मस्जिद। सुख-चैन से रोटी चाहिए। अच्छी पैकेज की नौकरी। एैस की जिंदगी। ऐसी पीढ़ी की एक पौध और आ जाए फिर कहां कोई पूछेगा अयोध्या को।

मंगलवार, सितंबर 28, 2010

बस एक दशक और उलझा रहे अयोध्या मामला..

अयोध्या प्रकरण पर अगले दो दिन में निणर्य आ जाएगा। पिछली बार तय तिथि को निर्णय आना था, उसको लेकर-तरह मन में तरह-तरह की शंकायें थी। मन बुरी तरह से डरा हुआ था। आखिर निर्णय की तिथि स्थगित हुई। मन को काफी सुकून मिला। काश, यह विवाद ऐसे ही करीब एक दशक और खींच जाये, तो शायद विवाद पर किसी तरह की निर्णय की जरूरत ही नहीं पड़े। क्योंकि एक दशक में नई पीढ़ी की दूसरी खेप तैयार हो जाएगी। 1992 में जो पीढ़ी करीब आह दस दस साल की थी, अब आज 25 पार की है। यह पीढ़ी इस विवाद को सचमुच का एक झमेला माानती है। अगले दस वर्ष में जो पीढ़ी तैयार होगी, उसकी सोच पिछले से काफी आगे होगी। 90 के दशक तक के जवाब पूरी तरह से बूढ़ हो चुके रहेंगे। उनकी नई पीढ़ी पर न चलेगी और न ही यह विवाद होगा।

मन मसोसने का डर...

मन की बात
जिंदगी के किताबों से गुजरों तो सैकड़ों ऐसे किरदार मिलेंगे, जिनसे जेहन में खट्टी-मीठी स्मृतियां ताजी हो जाएंगी। गुलजार की एक शायरी है। किताबों से गुजरों तो कुछ यूं, किरदार मिलते, है, गये वक्त की ड्योढ़ी पर खड़े कुछ यार मिलते है, जिन्हें दिल का विराना समझ कर छोड़ आए थे, वहीं उजड़े हुए सहर में कुछ आसार नजर आते हैं।
शायरी की संवेदना कम नहीं होती है, बस जरूरत होती है, उसे संवदेना के मर्म को समझने के लिए जिसके दर्द से अभिभूत होकर शायर या कवि दो चार पंक्तियां लिख कर मन हल्का करते हैं।
अब नये शहर में हूं। सोचा नहीं था, गांव से दिल्ली, दिल्ली से नागपुर और फिर राजस्थान में कोटा। छोटी उम्र में सपना था पटना में पढ़ा जाए, पर परस्थितियां ऐसी बनी कि सीधे देश की राजधानी में पढऩे का मौका मिला। मौका जल्दी मिला, इसलिए वह बहुत कुछ पीछे छुट गया, जिसे किताबों में पढ़ कर मन में कसक उठती है, काश, गवई जिंदगी का कुछ और हिंसा अपनी ङ्क्षजदंगी से जुड़ा हुआ रहता।
पर बदलते दौर में करियर में ऊचाई पाने की जद्दोजहद जिंदगी को ऐसे जिंदगी की ऐसी करवट बदलवाते रहता है कि वह सब कुछ पीढ़ पीछे होते चला जाता है, जहां से सच्चे सुख की अनुभूति होती है। पर हम भी जानते हैं, यह सब माया है। पद प्रतिष्ठा और पैसे की। पर इसके पीछे मेहनत के साथ जो और कीमत चुक रही है, उसे सोच कर मन में छटपटाहट होती है। मन मसोसने के अलावा कोई उपाय भी नहीं है। अब तक के अनुभव से साबित हो चुका है। अकेले व्यक्तिगत स्थितियां ही व्यक्ति को पेशोपेश में नहीं डालती है। समाजिक, आर्थिक परिवेश की परिस्थितियां बहुत हल्की नहीं होती है। सच कहें तो ये ही इतनी मजबूत है कि इन्हें तोडऩा बूते से बाहर की बात है।
जानकार लोग कहते हैं कि 35 से 40 की उम्र में मीडिल एज क्राइसिस होता है। उनके अनुभव सुन और देखकर डर लगता है। पता नहीं करीब पांच साल बाद मन फिर किस जद्दोजहद में फंसेंगा और उसके बाद जिंदगी किस तरह की मोड लेगी। बस डर इसी बात का है कि हमेशा मन मसोस कर न रहा जाये।

मंगलवार, सितंबर 21, 2010

यह जुल्म की इन्तहा नहीं तो क्या है.....?

यह जुल्म की इन्तहा नहीं तो क्या है.....?
21 September, 2010
भीलों पर जुल्म ढाती पुलिस 18 सितंबर को राजस्थान के झालावाड़ में एक दुखद घटना हुई जिसका आज के सामाजिक और राजनीतिक माहौल में विश्लेषण जरूरी है. इस दिन भील समाज की एक नवविवाहिता का कुछ मुस्लिम युवकों ने जबरन अपहरण करके उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म किया. भील समाज ने जब इसका विरोध किया और आरोपियों को पकड़ने की मांग को लेकर धरना प्रदर्शन शुरू किया तो राज्य की पुलिस ने आरोपियों को पकड़ने की बजाय भोले भाले भीलों पर ही जुल्म ढाना शुरू कर दिया. संजय स्वदेश की रिपोर्ट-


रामचरितमानस में तुलसी बाबा शबरी भीलन के भोलेपन का बड़ा ही मनोहारी वर्णन करते हैं। यह भोलेपन में निहित निश्चलता ही है, जो रामचंद्र सहज ही सबरी के जूठे बेर खा लेते हैं। लक्ष्मण में अहंम हैं, तभी तो वे बेर को फेंक देते हैं। रामचरितमानस मध्ययुग का रचित काव्य है। लिहाजा, अनुमान लगाया जा सकता है कि मध्ययुगीन आराजक समाज में सुदूर जंगल की दुनिया से भील सहजता, निच्छल्लता और प्रेम से अतिथियों का स्वागत करते हैं। शबरी के अतित्थ्य भाव की यह मिशाल पूरे भील समुदाय के सादगी का प्रतिबिंब था।

आज जमाने का रंग-ढंग बदल चुका है। विकास की रफ्तार ने भले ही मध्ययुगीन भूगोल और सामाजिक रंगढंग को बदल दिया हो, लेकिन भील समुदाय इस बदले रंगढंग के साथ कदमताल में पीछे रह गये। जंगल खत्म हो गये, तो शहरी वातावरण में ही भीलों ने दबे-सहमे जीना सीख लिया। पर रामचंद्र जैसे सरस स्वभाव वालों की संख्या मध्ययुग की तरह ही नागण्य रही। लक्ष्मण के चरित्र को छोड़ उनकी जैसे ही दबंगई से अभिभूत लोगों की संख्या बढ़ गई। समाज में इनका प्रभाव कायम है। रामचरितमानस में तो लक्ष्मण में शबरी भीलन को हेय भर समझा था, लेकिन आज भी भील दबंगों के दंश को झेलने पर मजबूर हैं। यह दबंग चाहे व्यक्ति हो या कोई संस्था अथवा कोई प्रशासन सभी का व्यवहार भीलों के प्रति रुखा है।

राजस्थान के झालावाड़ जिले में 18 सितंबर को मायके जा रही भील समाज की एक नवविवाहिता को तीन युवकों ने जबरन गाड़ी में बिढ़ाया और उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म किया। जैसे-तैसे तो मामला थाने में दर्ज हो गया। पर जांच में पुलिस की नियत खोटी दिखी। उसने भोले भीलों का बरगलाना चाहा। जब भील समाज के लोगों ने मेडिकल रिपोर्ट की प्रति मांगी, तो पुलिस ने देने से इनकार किया। लिहाजा, भील समाज एकजुट हो गया। करीब डेढ़ हजार भीलों ने सोमवार, 20 सितंबर को मनोहर थाना के खेरखेड़ी माताजी मंदिर में बैठक की। प्रशासन के विरोध में मनोहर थाना में बाजार बंद कराने का निर्णय लिया। हालांकि शांति व्यवस्था की दृष्टि से भील समाज के स्थानीय नेताओं ने इसका विरोध किया, लेकिन बाहर से आए प्रतिनिधियों ने स्थानीय विरोध को दरकिनार कर बाजार तक पहुंच गये। दुष्कर्मियों में एक आरोपी के पिता अमन ट्रांसपोर्ट का कार्यालय नजर आया। उन्होंने देखते-देखते ही उसमें आग लगा दी। भीलों का हुजूम बीनागंज चौराहे पर पहुंच गया। पुलिस ने उन्हें रोकना चाहा, तो दोनों पक्षों की ओर से पत्थरबाजी हुई।

पुलिस अधिकारियों का कहना है कि भील समाज के लोग गोफण से पथराव करने लगे तो पुलिस ने रबड़ की गोलियां चलायी। बात बिगड़ती देख हवाई फायर किए गए। उपद्रवी बने भील मक्के के खेत में घुसकर गोफण चलाने लगे। पुलिस ने आश्रु गैस का सहारा लिया। फिर भी स्थिति नियंत्रण में नहीं आई, तो गोलियों की बौछार कर दी। फायरिंग के बाद पप्पू लाल (20) की घटना स्थल पर ही मृत्यु हो गई। दूसरे ने रात रात सवा आठ बजे के करीब झालावाड़ चिकित्सालय में दम तोड़ा दिया। सूचना यह भी है कि इस घटना के बाद इलाके में मरघट जैसी खामोशी ने पांव पसार लिया। एक ओर तो प्रशासन 24 सितंबर के अदालती फैसले का जबरन हव्वा खड़ा कर शांतिप्रिय माहौल को बिगड़ने से रोकने की तैयारी दिखा रही है, वहीं दूसरी ओर मानवीय संवदेना को तार-तार करने वाली ऐसी घटना हो रही है।

पुलिस की लापरवाही से इस तरह की घटना कोई नई नहीं है। गत कुछ वर्ष के घनाक्रमों का इतिहास खंगाले तो कई उदाहरण मिल जाएंगे, जिसमें किसी कमजोर वर्ग के साथ अन्याय हुआ, पुलिस ने उपेक्षा की। कमजोर वर्ग ने उपेक्षा के विरोध में आवाज उठाई तो उसे बर्बरता से दबा दिया गया। फिलहाल इस दुष्कर्म और गोलीकांड के बाद अब क्या होगा। प्रशासन दो-चार पुलिसकर्मियों को निलंबित कर देगा। नेता बयानों से नेता अपनी मतलब की रोटियां सकेंगे। दोषियों की सजा कब सिद्ध होगी और सजा कब तक मुकर्रर होगी, यह दूर की बात है। राजस्थान की जमी चर्चित भंवरी देवी बलात्कार कांड के दोषियों का क्या हुआ?

भील समाज के युवती के तार-तार हुए आबरु की घटना से भला यह भील समाज प्रशासन की लापरवाही पर क्यों नहीं उग्र होता है। इस उग्रता के पीछे त्वरित न्याय की असफलता है। पूरे प्रकरण को केवल भील समाज की घटना समझ कर विचार करने की जरूरत नहीं है। छोटे-से बड़े मामले में यह देखा गया है कि प्रशासन अन्याय के विरोध के तर्क असानी से सुनता ही नहीं है। जब सुनता है तब तक काफी देर हो चुकी होती है। कई जानें जा चुकी होती हैं। सवााल है कि आखिर पुलिस किसी प्रकरण से संबंधित दस्तावेज शिकायकर्ता को देने से क्यों हिचकती है? आखिर शिकायत के बाद उसे तो इतना हक बनता ही है कि जांच-पड़ताल की गति क्या है और कहां तक पहुंची? अंग्रेजों के जमाने की मानसिता वाली भारतीय पुलिस की चालढाल पर पर तो अनेक बहस हुई पर सरकार ने सुध नहीं लिया। पुलिस की बर्बरता अभी तक बनी हुई है, पर यह बर्बरता भी किस काम की जब यह दुराचारियों के मन में अपना खौफ नहीं बैठा पाई?

यह जुल्म की इन्तहा नहीं तो क्या है....



रामचरित मानस में तुलसी बाबा शबरी भीलन के भोलेपन का बड़ा ही मनोहारी वर्णन करते हैं। यह भोलेपन में निहीत निश्चलता ही है, जो रामचंद्र सहज ही सबरी के जूठे वेर खा लेते हैं। लक्ष्मण में अहंम हैं, तभी तो वे वेर को फेंक देते हैं। रामचरितमानस मध्ययुग का रचित काव्य है। लिहाजा, अनुमान लगाया जा सकता है कि मध्ययुगीन आराजक समाज में सुदूर जंगल की दुनिया से भील सहजता, निच्छल्लता और प्रेम से अतिथियों का स्वागत करते हैं। शबरी के अतित्थ्य भाव की यह मिशाल पूरे भील समुदाय के सादगी का प्रतिबिंब था।
आज जमाने का रंग-ढंग बदल चुका है। विकास की रफ्तार ने भले ही मध्ययुगीन भूगोल और सामाजिक रंगढंग को बदल दिया हो, लेकिन भील समुदाय इस बदले रंगढंग के साथ कदमताल में पीछे रह गये। जंगल खत्म हो गये, तो शहरी वातावरण में ही भलों ने दबे-सहमे जीना सीख लिया। पर रामचंद्र जैसे सरस स्वभाव वालों की संख्या मध्ययुग की तरह ही नागण्य रही। लक्ष्मण के चरित्र को छोड़ उनकी जैसे ही दबंगई से अभिभूत लोगों की संख्या बढ़ गई। समाज में इनका प्रभाव कायम है। रामचरितमानस में तो लक्ष्मण में शबरी भीलन को हेय भर समझा था, लेकिन आज भी भील दबंगों के दंश को झेलने पर मजबूर हैं। यह दबंग चाहे व्यक्ति हो या कोई संस्था अथवा कोई प्रशासन सभी का व्यवहार भीलों के प्रति रुखा है।

ताजा उदाहरण सामने हैं। राजस्थान के झालावाड़ जिले में 18 सितंबर को मायके ज रही भील समाज की एक नवविवाहिता को तीन युवकों ने जबरन गाड़ी में बिढ़ाया और उसके साथ सामुहिक दुष्कर्म किया। जैसे-तैसे तो मामला थाने में दर्ज हो गया। पर जांच में पुलिस की नियत खोटी दिखी। उसने भोले भीलों का बरगलाना चाहा।जब भील समाज के लोगों ने मेडिकल रिपोर्ट की प्रति मांगी, तो पुलिस ने देने से इनकार किया। लिहाजा, भोला भील समाज एकजुट हो गया। करीब डेढ़ हजार भीलों ने सोमवार, 20 सितंबर को मनोहरथाना के खेरखेड़ी माताजी मंदिर में बैठक की। प्रशासन के विरोध में मनोहरथाना में बाजार बंद कराने का निर्णय लिया।
हालांकि शांति व्यवस्था की दृष्टि से भील समाज के स्थानीय नेताओं ने इसका विरोध किया। लेकिन बाहर से आए प्रतिनिधियों ने स्थानीय विरोध को दरकिनार कर बाजार तक पहुंच गये। दुष्कर्मियों में एक आरोपी के पिता अमन ट्रांसपोर्ट का कार्यालय नजर आया। उन्होंने देखते-देखते ही उसमें आग लगा दी। भीलों का हुजूम बीनागंज चौराहे पर पहुंच गया। पुलिस ने उन्हें रोकना चाहा, तो दोनों पक्षों की ओर से पत्थरबाजी हुई।
पुलिस अधिकारियों का कहना है कि भील समाज के लोग गोफण से पथराव करने लगे तो पुलिस रबड़ की गोलियां चलायी। बात बिगड़ी देखे हवाई फायर किए गए। उपद्रवी बने भोले भील मक्के के खेत में घुसकर गोफण चलाने लगे। पुलिस ने आश्रु गैस का सहारा लिया। फिर भी स्थिति नियंत्रण में नहीं आई, तो गोलियों की बौदार कर दी। फायरिंग के बाद पप्पू लाल (20) की घटना स्थल पर ही मृत्यु हो गई। दूसरे ने रात रात सवा आठ बजे के करीब झालावाड़ चिकित्सालय में दम तोड़ा दिया। सूचना यह भी है कि इस घटना के बाद इलाके में मरघट जैसी खामोशी ने पांव पसार लिया।
एक ओर तो प्रशासन 24 सितंबर के अदालती फैसले का जबरन हव्वा खड़ा कर शांतिप्रिय माहौल को बिगड़ने से रोकने की तैयारी दिखा, रही है, वहीं दूसरी ओर मानवीय संवदेना को तार-तार करने वाली ऐसी घटना हो रही है।
पुलिस की लापरवाही से इस तरह की घटना कोई नई नहीं है। गत कुछ वर्ष के घनाक्रमों का इतिहास खंगाले तो कई उदाहरण मिल जाएंगे, जिसमें किसी कमजोर वर्ग के साथ अन्याय हुआ, पुलिस ने उपेक्षा की। कमजोर वर्ग ने उपेक्षा के विरोध में आवाज उठाई तो उसे बर्बरता से दबा दिया गया। फिलहाल इस दुष्कर्म और गोलीकांड के बाद अब क्या होगा। प्रशासन दो-चार पुलिसकर्मियों को निलंबित कर देगा। नेता बयानों से नेता अपनी मतलब की रोटियां सकेंगे। दोषियों की सजा कब सिद्ध होगी और सजा कब तक मुकर्रर होगी, यह दूर की बात है। राजस्थान की जमी चर्चित भंवरी देवी बलात्कार कांड के दोषियों का क्या हुआ? भील समाज के युवती के तार-तार हुए आबरु की घटना से भला यह भील समाज प्रशासन की लापरवाही पर क्यों नहीं उग्र होता है। इस उग्रता के पीछे त्वरित न्याय की असफलता है।
पूरे प्रकरण को केवल भील समाज की घटना समझ कर विचार करने की जरूरत नहीं है। छोटे-से बड़े मामले में यह देखा गया है कि प्रशासन अन्याय के विरोध के तर्क असानी से सुनता ही नहीं है। जब सुनता है तब तक काफी देर हो चुकी होती है। कई जानें जा चुकी होती हैं। सवााल है कि आखिर पुलिस किसी प्रकरण से संबंधित दस्ताबेज शिकायकर्ता को देने से क्यों हिचकती है। आखिर शिकायत के बाद उसे तो इतना हक बनता ही है कि जांच-पड़ताल की गति क्या है और कहां तक पहुंची? अंग्रेजों के जमाने की मानसिता वाली भारतीय पुलिस की चालढाल पर पर तो अनेक बहस हुर्इं। पर सरकार ने सुध नहीं लिया। पुलिस की बर्बरता अभी तक बनी हुई है। पर यह बर्बरता भी किस काम की जब यह दुराचारियों के मन में अपना खौफ नहीं बैठा पाई।

दुखद संयोग देखिये :
1. 20 सितंबर की घटना कमजोर भील समाज के लिए अविस्मरणीय हो जाएगी। 20 सितंबर को दलित समाज पूना पैक्ट में अपने साथ हुये धोखा दिवस के रूप में मनाते हुए गांधीजी को कोशता है। 1932 में इसी तिथि को दलित के हक के लिए ठानी बाबा साहब डा. भीमराव आंबेडकर ने समझौता किया था।
2. अयोध्या मामले में निणर्य आने के ठीक कुछ दिन पहले हुई इस घटना के सभी आरोपी मुस्लिम समुदाय के हैं। पीड़ित शुद्र समुदाय से संबंध रखते हैं।

शनिवार, अगस्त 21, 2010

नक्सलियों ने पुलिस कैम्प फूंका

2 निरपराध लोगों का गला काट डाला
गढ़चिरोली जिले की भामरागढ़ तहसील के मेड़पल्ली स्थित सीआरपीएफ के अस्थायी पुलिस कैम्प को नक्सलियों ने शुक्रवार की देर रात आग के हवाले कर दिया। कुछ दिनों पूर्व ही पुलिस दल ने इस कैम्प को छोड़ दिया था। जबकि भामरागढ़ तहसील के ही 2 निष्पाप ग्रामीणों की भी नक्सलियों ने गला रेतकर निर्मम हत्या कर दी जिससे क्षेत्र के गांवों में दहशत का माहौल बना हुआ है।
पुलिस सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार जिले में नक्सल खोज मुहिम के लिए सीआरपीएफ पुलिस की सहायता ली जा रहीं है। विभिन्न स्थानों पर सीआरपीएफ पुलिस के कैम्प बनाए गए है। पुलिस ने मेड़पल्ली गांव में भी एक कैम्प बनवाया था, लेकिन यह कैम्प कुछ ही दिनों पूर्व पुलिस ने छोड़ दिया था। बीती देर रात 20 से 25 की संख्या में आये बंदूकधारी नक्सलियों ने मेड़पल्ली के पुलिस कैम्प में आकर पूरे कैम्प को आग के हवाले कर दिया। जिसमें पूरा पुलिस कैम्प जलकर ध्वस्त को गया है। वहीं दूसरी एक घटना में पुलिस को बम खोजने के कार्य में मदद करने वाले भामरागढ़ तहसील के ही दो ग्रामीणों की नक्सलियों ने गला रेतकर हत्या कर दी। समाचार के लिखे जाने तक मृत ग्रामीणों के नाम पता नहीं चल पाये है। जबकि क्षेत्र में पुलिस की चौकसी बढ़ा दी गई है।
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शुक्रवार, अगस्त 20, 2010

नक्सलियों ने आदिवासियों के कल्याण के लिए एजेंडा नहीं बनाया : राजकिशोर

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि में नक्सलवाद के औचित्य पर संगोष्ठी
नक्सल आंदोलन कभी आदिवासी आंदोलन नहीं रहा क्योंकि नक्सलियों ने कभी भी आदिवासियों के कल्याण के लिए कोई एजेंडा प्रस्तुत नहीं किया। यह कहना है कि वरिष्ठ पत्रकार व राइटर इन रेजीडेंट राजकिशोर का। वे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि परिसर के गांधी हिल पर आयोजित एक संगोष्ठी में बतौर मुख्य वक्ता अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। राजकिशोर ने कहा कि नक्सलियों ने आदिवासियों को सरकार के खिलाफ भड़काना ही सहज एवं सुलभ समझा है। जबकि माओवादी कोलकाता, अहमदाबाद, मुंबई, मद्रास आदि प्रमुख शहरों के मजदूरों को एकजुट नहीं कर पाये। क्योंकि शहरी मजदूरों को इकट्ठा करना उन्हें मुश्किल लगा। उन्होंने कहा कि जो लोग ऐसा मानते हैं कि जहां विकास नहीं हुआ है, वहां नक्सलवाद पनपता है, वे गलत हैं। क्योंकि उत्तराखंड के कई दुर्गम इलाके, अंडमान निकोबार दीप समूह और बिहार के कई अंचल तथा उड़ीसा के कई क्षेत्रों में विल्कुल भी विकास नहीं हुआ है। फिर भी वहां नक्सलवाद नहीं पनपा है।
लक्ष्य से भटके हैं कम्युनिष्ट
राजकिशोर ने कहा कि जहां अन्याय होगा, वहां हथियार उठेगा। नक्सलवाद कोई नई बात नहीं कह रहा है। इसका उद्गम तब हुआ, जब कम्युनिष्टों ने अपना लक्ष्य छोड़ दिया। 1947 में जब देश आजाद हुआ था, तब कम्युनिस्ट यह नारा लगाते थे- 'यह आजादी झूठी है, देश की जनता भूखी हैÓ। इसी नारे के साथ कम्युनिस्ट इस आजादी को भ्रम माने बैठे रहे। लेकिन जब उन्होंने देखा कि देश का आम आदमी इसी आजादी से खुश है और यही असली आजादी है, तो उन्होंने हिंसा की राह पकड़ ली। नक्सलियों ने सबसे पहले हिंसा की शुरुआत तेलंगाना से की। लेकिन तब की जवाहर लाल नेहरू सरकार ने इस हिंसा का दमन कर दिया। तब कम्युनिस्टों को लगा कि वे अब क्रांति के बिना नहीं रह सकते हैं। लेकिन नेहरू के दमन चक्र से ही कुछ कम्युनिस्ट लोकतांत्रिक रास्ता अपनाने लगे। तब तक सोवियत संघ और चीन के माक्र्सवादी किले की चूले हिलने लगी थीं। इसके बाद कम्युनिस्ट टूट गए।
हिंसा क्रांति की दासी
राजकिशोर ने कहा कि ङ्क्षहसा और प्रतिहिंसा स्वत: स्फूर्त है। इसीलिए कम्युनिष्टों के एक समूह ने चारु मजमूदार के नेतृत्व में हिंसा का रास्ता अपनाया। क्योंकि अतीत में जितनी भी सत्ता की लड़ाई लड़ी गई है, उनका माध्यम हिंसा ही रहा है। क्योंकि हिंसा सत्ता परिवर्तन का पर्याय रहा है। लेकिन इसके बाद भी माक्र्सवाद हिंसा का दर्शन नहीं है। उसका मानना है कि हिंसा क्रांति की दासी है। हिंसा उसका एक छोटा सा हिस्सा है।
बिगड़ चुका है नक्सलवाद का स्वरूप
संगोष्ठी की शुरुआत में प्रास्ताविक वक्तव्य में विवि के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष प्रो. अनिल अंकित राय ने कहा कि सामाजिक मुद्दे ज्वलंत मुद्दे की तरह की समस्या हैं। इसके कारण पहचानने की जरूरत है। आजकल नक्सलवाद राजनीतिक एजेंडा बन गया है। यह समस्या अपने विविध रूप में है और आम व्यक्ति नक्सलवाद के खिलाफ चलाई जा रही सत्ता की गतिविधियों को और नक्सलवादी हिंसा आधारित गतिविधियों को ठीक नहीं मानता है। नक्सलवाद का स्वरूप जो शुरू में था, वह आज के समय में कही न कहीं बिगड़ चुका है। नक्सलवादी नेताओं ने भी इस बात को स्वीकारा है कि उनका नेतृत्व गलत हाथों में है। आदिवासी आदिवासी ही रह गए हैं, जबकि आज सन् 2010 चल रहा है। यह आधुनिकता का दौर है। आज भी आदिवासियों की स्थिति वैसी ही है, जैसे प्राचीन काल में थी। संगोष्ठी में मानव विज्ञान विभाग के अध्यक्ष प्रो. पी.के वैष्णव, नाट्य कला विभाग के अध्यक्ष प्रो. रवि चतुर्वेदी, बौद्ध अध्यनन विभाग के सहायक प्रोफेसर सुरजीत कुमार सिंह और रवि शंकर सिंह, मानव विज्ञान विभाग के सहायक प्रोफेसर वीरेन्द्र यादव, निशिथ राय, विवि के जनसंपर्क अधिकारी बी.एस मिर्गे, अमित विश्वास समेत अन्य कई प्राध्यापक व विद्यार्थी उपस्थित थे।

बुधवार, अगस्त 11, 2010

बाजार की गर्मी से शांत होगी कश्मीर की आग

कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग करने वाला पूरे भारत की ओर से कश्मीर को क्या मिला है। वहां कश्मीर घाटी की हिंसा में मरने स्थानीय लोगों की खबरों हमें नहीं झकझोरती हैं। देश ने केवल यह दावा किया की कश्मीर हमारा है। लेकिन इस दावे के बाद भी पूरा कश्मीर उपेक्षित हो गया। भूख तो पशु भी बर्दाश्त कर सकते हैं, लेकिन उपेक्षा नहीं। फिर भला एक पूरी समुदाय उपेक्षित हो तो उसे अहिंसक होने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है।




संजय स्वदेश
कश्मीर में हिंसा की आग धधक पड़ी है। तरह-तरह की चर्चाओं का दौरा जारी है। कोई राजनीतिक असफलता की बात कह रहा है तो कोई पड़ोसी देश पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई की प्रायोजित रणनीति। हालत जो भी हो, पर इस हिंसा से साबित हो गया है कि कश्मीर की वर्तमान लाकतांत्रित सरकार वहां की जनता की आकांक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाई। अलगाववाद की स्थिति पर काबू पाने के लिए केंद्र सरकार भी विफल रही। इन तमाम चर्चाओं के बीच एक महत्वपूर्ण बात छूट रही है। आईएसआई की गतिविधियों से सभी वाकिफ है। सरकार ने सेना की तैनाती कर इस पर अंकुश लगाने का भी कार्य किया। दूसरी ओर गत एक दशक में कश्मीर की चिंगारी भड़कने की मुख्य वजह क्या थी। अभी तक काबुल से पत्थर फेंकने की घटनाएं आ रही थी। अब भारत में भी हो गई। कहने वाले कह रहे है कि पड़ोसी राज्यों ने जनता को पत्थरबाजी के लिए उकसाया। उसके लिए जनता को पैसे भी उपलब्ध कराये गए। पर इसमें संदेह है। पैसे के लालच में एक व्यक्ति जान जोखिम में डालने की सोच सकता है, लेकिन अमन की चाह रखने वाला पूरा समाज ऐसा नहीं कर सकता है। ईमानदारी से सोच और विचार करने की जरूरत है। कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग करने वाला पूरे भारत की ओर से कश्मीर को क्या मिला है। वहां कश्मीर घाटी की हिंसा में मरने स्थानीय लोगों की खबरों हमें नहीं झकझोरती हैं।
गत दो दशक के समय पर विचार करें। उदारदवाद की हवा जहां-जहां गई, स्थिर समाज सचेत हुआ। सरकार ने इस दौरान ढेरों तरक्की के दावे किये। पर विचार करने वाली बात यह है कि उदारवाद की यह हवा कश्मीर की घाटी में विकास की संतोषजनक गर्माहट पैदा नहीं कर सकी। कश्मीर को केंद्र सरकार ने सेना के अलावा क्या दिया है? जिनती स्थिति सेना के माध्यम से कश्मीर को अपने नियंत्रण में लेने की रही, उतनी ही दृढ़ता वहां बाजार को पहुंचाने में नहीं रही। आप माने या न माने। आज हर समाज में बाजार जीने की बुनियादी जरूरत बन गई है। भले ही इस के रूप अलग-अलग क्यों न हो। लेकिन देश के पिछड़े इलाकों में जहां-जहां बाजार पहुंचा, वहां थोड़ी-बहुत समृद्धि जरूर आई है। विदर्भ में किसानों ने आत्महत्या की। खबरे राष्ट्रीय स्तर पर आईं। पर किसानों की उपज को अच्छा मूल्य देने वाला बाजार वहां भी नहीं पहुंच पाया। ठीक इसी तरह से कश्मीर के होने वाले उत्पादन को हाथों हाथ लेने के लिए बाजार बनाने में सरकार असफल दिख रही है। पर्यटन का व्यवसाय एक सीजन में चलता है। लेकिन इससे उन्हीं लोगों को ज्यादा लाभ है जो झील के आसपास हैं और उनकी अपनी नाव हैं या फिर पर्यटक स्थलों पर जिनकी दुकानें हैं।
बेहतरीन सेव उत्पादन के मामले में कश्मीर अव्वल रहा है। पर वहां के सेव को वहीं बेचने के लिए बाजार उपलब्ध नहीं है। बिचौलिये उनका मुनाफा खाते रहे हैं। कश्मीर के गर्म कपड़ों के क्या कहने, पर जब वे देश के विभिन्न हिस्सों में प्रदर्शनी के लिए जाते हैं, तो तिब्बती शरणार्थियों के गर्म कपड़े उन पर भारी पड़ जाते हैं। ऐसी बात नहीं है कि इन चीजों के उत्पादों को प्रोत्साहन के लिए कोई सरकारी पहल नहीं हुआ है। लेकिन जो पहल हुआ है, वह औपचारिक रूप से। उसकी गति बेहद सुस्त है। इसका लाभ भी एक खास वर्ग तक सीमित हो कर रह गया है।
करीब तीन-चार साल पूर्व पाकिस्तान और भारत के बीच साफ्टा नाम की एक संधि हुई। इस संधि के माध्यम से 773 ऐसी वस्तुओं को सूचीबद्ध किया गया है जिसे पाकिस्तान भारत से निर्यात करेगा। इसमें कई ऐसी चीजे शामिल थीं, जिनका उत्पादन कश्मीर में होता है और उसकी पाकिस्तान में बेहद मांग है। पर कश्मीर की आग में यह संधि जल गई। यह व्यापार दोनों देशों की आपसी राजनीति की ऊपर था। कारण चाहे जो भी हो, समाज की मांग के दवाब में कश्मीर में बाजार ने पांव पसारने की कोशिश भी की, तो सरकारी संरक्षण के कारण उसे प्रोत्साहन नहीं मिला।
गत एक दशक में कश्मीर में बेरोजगारों की एक बड़ी फौज खड़ी हो गई है। पारंपरागत बंदिशों से कश्मीरी समाज की बहुसंख्यक महिलाएं उच्च शिक्षित नहीं हो पाई। महिलाएं भी बेकार हैं। सरकार इनके हाथों में उनके हुनर लायक संतोषजनक काम देने में नाकाम रही। लेकिन इसके लिए केवल राज्य सरकार को ही दोष नहीं दिया जा सकता है। स्थिति की नाजुकता को देखते हुए कश्मीर की जनता में अपना विश्वास बहाल करने के लिए केंद्र सरकार को भी समय-समय पर ताक-झांक करते रहना चाहिए था। लेकिन
लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। लिहाजा, सत्ता की राजनीति को बनाये रखने में कश्मीर के युवा, युवति व महिलाएं आक्रोशित होकर हाथ में पत्थर नहीं उठाते तो क्या करते। दरअसल इस मामले को पूरी तरह से संवेदनशील होकर सोचने की जरूरत है। क्या हम अपने ही घर में पुलिस या सैन्य बलों के साये में रहना पसंद करेंगे? यदि हम ऐसा पंसद नहीं कर सकते हैं तो कश्मीरी भला कैसे करेंगे। यदि यह सुरक्षा साया जरूरी भी था तो जनता की की बदहाली दूर करने और उनमें विश्वास बहाल करने के लिए सैन्य बलों को संरक्षण में ही विकास और रोजगार के ढेरों कार्य हो सकते थे। पर ऐसा हुआ नहीं। सरकार चाहे राज्य की रही हो या केंद्र की। सभी ने केवल इसे भारत का अभिन्न अंग होने का दावा किया। देश के दूसरे राज्यों की जनता ने भी ऐसा ही दावा किया। लेकिन इस दावे के बाद भी पूरा कश्मीर उपेक्षित हो गया। भूख तो पशु भी बर्दाश्त कर सकते हैं, लेकिन उपेक्षा नहीं। फिर भला एक पूरी समुदाय उपेक्षित हो तो उसे अहिंसक होने की अपेक्षा कैसे की जा सकती

मंगलवार, अगस्त 10, 2010

अंधेरे में हो रहा रेती का उत्खनन

2 निरीक्षकों के भरोसे है 38 घाटों की निगरानी
संजय
नागपुर।
गत वर्ष की तुलना में इस वर्ष नागपुर में निर्माण कार्य ज्यादा होने के कारण रेत की भारी मांग है। इस मांग की पूर्ति के लिए रेत माफिया अवैध तरीके से रेतघाटों से रेती का उत्खनन कर रहे हैं। इनके ये काले कारनामे किसी की नजर में न आए, इसके लिए वे रात के अंधेरे का सहारा ले नियमों की धज्जिया उड़ा रहे हैं। इससे उनकी कमाई भी मोटी हो रही है जबकि माइन्स एवं मिनरल एक्ट 1957 के अनुसार रात के समय रेत का उत्खनन नहीं किया जा सकता है, लेकिन अवैध उत्खनन के लिए रात्रिकाल ही बेहतर समय हो रहा है। रेत घाट के माफिये नियम व कानून को ताख पर रख कर यह कार्य कर रहे हैं। रेतमाफियाओं के इस अवैध कार्य में ट्रक वाले भी खूब कमा रहे हैं। जानकारों की मानें तो हर दिन, दिन में 150 से 200 ट्रक रेत का उत्खनन होता है। हर ट्रक ओवरलोड होता है। दिन में जहां रेत ढोने वाले ट्रकों का किराया 2500 से 3000 रुपया है, तो वहीं रात में अवैध उत्खनन के रेत को ढोने के लिए करीब 4000 रुपये किराया वसूला जाता है। अनुमान है कि रात के समय भी हर दिन कम से कम 100 ट्रक रेतों की ढुलाई होती है। ओवरलोडेड ट्रक का नकारात्मक असर सड़कों पर भी पड़ रहा है। रेतीघाट के पास से गुजरने वाली सड़क की जर्जर हालत को देखकर स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है।
हस्तांतरित हो गए निरीक्षक
प्रशासन सब कुछ जानते हुए भी निष्क्रिय है। निष्क्रियता उसकी मजबूरी भी है। नागपुर की 8 तहसीलों में 38 रेती घाटों के उत्खनन कार्यों की निगरानी महज 2 निरीक्षकों के भरोसे है। विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि हमारी मजबूरी है। हम क्या करें, महज 2 निरीक्षक जिले के इतने घाटों पर सही तरीके से निगरानी नहीं रख सकते हैं। ज्ञात हो कि वर्ष 2008 तक विभाग में 10 निरीक्षक थे लेकिन धीरे-धीरे सभी निरीक्षकों का स्थानांतरण हो गया। सूत्रों का यकीन मानें तो निरीक्षकों के हस्तांतरण में रेत उत्खनन माफियाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
96 घाट हुए थे चिन्हित
ज्ञात हो कि खनन विभाग ने वर्ष 2009-10 के लिए रेत उत्खनन के 62 घाटों को मंजूरी दी है। इसमें से महज 22 घाटों की ही नीलामी हुई। इस वर्ष 1 अगस्त 2010 से जुलाई 2011 तक 38 घाटों की नीलामी होनी थी। सूत्रों की मानें तो खान विभाग ने इस वर्ष नागपुर की 8 तहसीलों में 96 घाटों को रेत उत्खनन के लिए चिन्हित किया था। इसका प्रस्ताव भूजल सर्वेक्षण एजेंसी (जीएसडीए) के पास भेजा गया लेकिन जीएसडीए ने महज 62 घाटों से ही रेत उत्खनन कार्य के लिए अनुमति दी। वहीं ग्राम सभा ने केवल 38 घाटों से ही उत्खनन पर अंतिम रूप से सहमति दी लेकिन जिले के दूरवर्ती क्षेत्रों में अवैध उत्खनन कार्य धड़ल्ले से जारी है।
ठेका लेना महंगा, अवैध काम सस्ता
जानकारों का कहना है कि गत वर्ष की तुलना में नागपुर में निर्माण कार्यों की संख्या तेजी से बढऩे से रेत की मांग बढ़ गई है। इस कारण भी रेत के अवैध उत्खनन को प्रोत्साहन मिल रहा है। वहीं दूसरी ओर रेती घाटों की नीलामी के लिए आमंत्रित निविदाओं को भरने वालों की संख्या कम हो रही है। सूत्रों का कहना कि प्रभावशाली ठेकेदार निविदा में लाखों की बोली लगाने के बजाय विभाग के कर्मचारियों व अधिकारियों के साथ साठगांठ कर रेत उत्खनन करना बेहतर समझ रहे हैं। इससे रेतमाफियाओं को मोटा मुनाफा हो रहा है। वहीं दूसरी ओर जो ठेकेदार उत्खनन का ठेका ले रहे हैं, वह एक वैध ठेका की आड़ में दूसरे घाटों में अवैध उत्खनन कर रहे हैं।
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सेक्स क्षमता बढ़ाने की गलतफहमी से गधों पर संकट



'दो बैलों की कथाÓ प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी है। कहानी की शुरुआत में प्रेमचंद गधा पुराण से करते हुए बताते हैं कि कैसे गधा चुपचाप मेहनत करता है और मालिक की मार खाता है। सच कहें तो गधे जैसा मेहनती कोई अन्य पशु नहीं। लेकिन समाज में गधों को लेकर नकारात्मक लोकोक्ति का प्रसार हो गया। खैर बदले दौर में गदहों की उपयोगिता कम हो गई थी। लेकिन आधुनिक जमाने में गधों के प्रति फिर से एक नया समाजिक गलतफहली फैलने से इसकी उपयोगिता बढ़ गई है।
नागपुर। आप माने या न मानें, पर महाराष्ट्र के कुछ स्थानीय खबरों पर यकीन करें तो इन दिनों राज्य के गधों पर भारी संकट मंडरा रहा है। इनकी तस्करी होने लगी है। तस्करी से गधे महाराष्ट्र से पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश में जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि गधों के खून और मांस का उपयोग लैंगिक क्षमता बढ़ाने के लिए होने की गलतफहमी समूचे आंध्रप्रदेश में फैल गई है। इस कारण महाराष्ट्र के गधों पर संकट के बादल मंडरा रहा है। पिछले कुछ महीनों में करीब 50000 हजार गधों को महाराष्ट्र से आंध्रप्रदेश भेजे गए हैं। गधों की तस्करी के लिए कई एजेंट भी सक्रिय हो गए हैं। ये दूर-दराज के गांवों के गधों की चोरी भी करने लगे हैं। परभणी जिले के शहर गंगाखेड़ से पिछले 3 माह में ही करीब 350 गधों की चेारी होने की सूचना है। गंगाखेड़ पुलिस थाने में गधों के लगभग 29 मालिकों ने अपने गधों की चोरी की शिकायत दर्ज कराई है। पुलिस की जांच में गधों की तस्करी का सनसनीखेज मामला उजागर हो चुका है।
स्थानीय लोग कहते हैं कि गुंटूर जिले के बापटला क्षेत्र में गधों का बड़ा बाजार लगता है। आंध्र के लोगों में यह गलतफहमी फैल गई है कि गधों के खून तथा मांस से लैंगिक क्षमता में तेजी से वृद्धि होती है। इसी कारण गधों की मांग बाजार में अचानक बढ़ गई है। आंध्रप्रदेश के बाजारों में गधों का खून 200 रुपये प्रति लिटर तथा मांस 300 रुपये प्रति किलो की दर से बिक रहा है। गधों के खून और मांस की मांग बढऩे के कारण आंध्र में गधों की कमी हो गई है, जिसके कारण अब महाराष्ट्र के गधों पर संकट आ गया है। परभणी जिले की तरह की विदर्भ के यवतमाल जिले से भी गधों की बड़े पैमाने पर आंध्रप्रदेश में तस्करी होने की जानकारी मिली है। यवतमाल के आदिवासी इलाकों के कई नागरिकों के गधे चोरी हो गए हैं। इसके अलावा विदर्भ के अमरावती, पांढरकवड़ा के आंध्रप्रदेश की सीमावर्ती गांवों से भी हालफिलहाल में अनेक गधे चोरी हुए हैं। इसी तरह की खबर परभणी, जालना, औरंगाबाद, किनवट से भी आ रही है। आंध्र में फैले इस समाजिक गलतफहमी से गधों के मालिक परेशान है। गधे चोरी होने से उनकी आर्थिक स्थिति डगमगा गई है।
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सोमवार, अगस्त 09, 2010

लाखों खर्च के बाद भी नहीं घटी आवारा कुत्तों की संख्या

नागपुर। शहर में आवारा कुत्तों की भरमार है। मनपा की मानें तो नागपुर में 54 हजार आवारा कुत्ते हैं। इनकी बढ़ती संख्या रोकने के लिए मनपा की ओर से चलाये जा रहे नसबंदी कार्यक्रम पर करोड़ों रुपये खर्च होने के बाद भी नतीजा कुछ खास नहीं निकला है। नगर में इन दिनों आवारा कुत्तों की भरमार हो गई है। रात के समय दोपहिया वाहनचलाकों के लिए यह सबसे बड़े मुश्किल बने हुए हैं। जैसे ही कोई वाहन चालक गुजरता है इनका झुंड उनकी ओर तेजी से दौड़ता है।
कुत्तों की बढ़ती संख्या पर अंकुश लगाने के लिए मनपा और मनपा की ओर से नियुक्त एनजीओ के दावों की पोल खुल चुकी है। बांबे उच्च न्यायालय की नागपुर खंडपीठ ने वर्ष 2006 में मनपा को पशु जन्म नियंत्रण कार्यक्रम चलाने का निर्देश दिया था। इसके बाद मनपा ने अवारा कुत्तों की नसबंदी पर लाखों खर्च कर उनकी संख्या कम होने का दावा किया है। लेकिन इसके बाद भी नगर के अनेक चौक-चौराहे और गली-मुहल्लों में सैकड़ों आवारा कुत्ते घूमते हुए दिखते हैं। इन अवारा कुत्तो पर नसबंदी होने के कोई निशान भी नहीं हंै। इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस कार्य में कितना भ्रष्टाचार है।
हालांकि मनपा ने कोर्ट में दिये अपने शपथपत्र में कहा था कि पहले शहर में 8300 आवारा कुत्ते थे। बाद में यह संख्या 33000 बताई गई। अब मनपा कह रही है कि वर्ष 2006 से 2008 के बीच इनकी संख्या बढ़कर 53000 के करीब हो चुकी है। ज्ञात हो कि शहर में आवारा कुत्तों की संख्या को नियंत्रण में रखने के लिए उनकी नसबंदी का ठेका पांच गैर सरकारी संगठन आईएसएडब्ल्यू, वाईएमसीए, एसपीसीए और रॉयल वेटनरी सोसाइटी को दिये गये थे। वर्ष 2008 के बाद एनएमसी ने वाईएमसीए और रॉयल वेटरनी सोसाइटी को ही यह ठेका वर्ष 2008 में मिला। आईएसएडब्लयू लक्ष्मीनगर, नेहरू नगर, हनुमान नगर, लकडग़ंज और संतरंजीपुरा जोन के आवारा कुत्तों के नसबंदी की जिम्मेदारी है। बाकी जोन की जिजमेदारी एसपीसीए को है, जिसमें धंतोली, धरमपेठ, मंगलवारी और आसीनगर जोन का समावेश है।
ज्ञात हो कि एक कुत्ते की नसबंदी के लिए मनपा 370 रुपये का टीका लगाती है, इन्हें पकडऩे के एवज में 75 रुपया खर्च किया जाता है। पकडऩे के लिए वाहन और उसमें लगने वाले डीजल भी मनपा की ओर से उपलब्ध कराया जाता है। मनपा के वर्तमान आंकड़े कहते हैं, नगर में 53,928 अवारा कुत्तों की नसबंदी हो चुकी है। इसमें ने से 28720 नर और 25208 मादा कुत्ते हैं। इनके नसबंदी के लिए अब तक करीब 19.95 करोड़ रुपये खर्च किये जा चुके हैं। वाईएमसीए और रॉयल वेटरनी सोसाइटी के सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार अभी हर दिन औसतन 10 से 12 आवारा कुत्तोंं के नसबंदी का कार्य जारी है।

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रविवार, अगस्त 08, 2010

आईएसआई को आतंकवादी संगठन घोषित करें : राजनाथ

घोटालों पर परदा डालना कांग्रेस की पुरानी नीति
कश्मीर समस्या के लिए कांग्रेस ही जिम्मेदार
नागपुर।
पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का आतंकवादी घटनाओं में हाथ होने की बात कई बार उजागर हो चुकी है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को विश्वास में लेकर आईएसआई को आतंकवादी संगठन घोषित करने की मांग भाजपा के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने की।
राजनाथ सिंह ने कहा कि आतंकवाद के पीछे आईएसआई होने की बात विश्व समुदाय के ध्यान में भी आई है। कश्मीर समस्या कांग्रेस की ही देन है। वोट बैंक की राजनीति तथा रचनात्मक नीति नहीं बनाए जाने से कश्मीर समस्या अधिकाधिक उग्र हो रही है। इसका झटका आम आदमी को लग रहा है। इस पर सर्वमान्य हल निकालना जरूरी है लेकिन केंद्र सरकार इसमें असफल साबित हुई है। इन दिनों देशभर में चर्चित कॉमनवेल्थ घोटाले की जांच करने की मांग करते हुए राजनाथ सिंह ने कहा कि कॉमनवेल्थ को हमारा विरोध नहीं है। घोटाला साबित हो चुका है लेकिन जिस ढंग से यह घोटाला उजागर हो रहा है, वह उचित नहीं है। इस संबंध में प्राथमिक जांच कर संबंधित पर कार्रवाई की जानी चाहिए, फिर वह कितना भी बड़ा व्यक्ति क्यों न हो। कांग्रेस इस घोटाले पर परदा डालने का प्रयास कर रही है। कांग्रेस की यह पुरानी नीति है। देश का सम्मान रखते हुए यह स्पर्धा होनी चाहिए, उसके लिए हमारा 100 प्रतिशत सहयोग रहेगा। राजनाथ ने कहा कि देश की एकात्मता व अखंडता कायम रखकर जातिनिहाय जनगणना हो। देशवासियों को डरा रही महंगाई की समस्या को भाजपा ने संसद के दोनों सदनों में उठाकर रखा। देश के गरीबों को न्याय देने के लिए कोई राजनीति न करते हुए चर्चा होनी चाहिए। इस पर अगर मतदान लिया होता तो सरकार की पराजय तय थी। 1970 के बाद पहली बार विपक्ष महंगाई को लेकर इतना आक्रामक था।
रामजन्मभूमि के मुद्दे पर राजनाथ सिंह ने कहा कि प्रभु रामचंद्र इस देश की पहचान हैं। राम मंदिर निर्माण के लिए भाजपा भी प्रतिबद्ध है। भाजपा ने कभी भी इसका राजनीतिक लाभ नहीं उठाया। लेकिन कांग्रेस ने इसका लाभ अच्छी तरह उठाया। राम मंदिर का मुद्दा राजनीतिक नहीं बल्कि राष्ट्रीय मुद्दा है। इसी कारण सभी धर्मियों ने इसकी ओर राष्ट्रीय दृष्टिकोण से देखना चाहिए। स्वतंत्र विदर्भ राज्य के बारे में राजनाथ सिंह ने कहा कि भाजपा ने विदर्भ राज्य का समर्थन किया है। भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने भी यह प्रस्ताव मंजूर किया है। इसका जवाब सत्तारूढ़ कांग्रेस से ही पूछा जाना चाहिए।

गडकरी की तारीफ
राजनाथ सिंह ने भाजपाध्यक्ष नितिन गडकरी की जी भरकर तारीफ करते हुए कहा कि जबर्दस्त कल्पनाशक्ति, निर्माणशीलता, कृतिशीलता तथा किसी समस्या का हल निकालने की कुशलता आदि तमाम गुण गडकरी में मौजूद हैं। उनके यह गुण मुझे तथा कई लोगों को बहुत कम समय में देखने मिले। राजनाथ ने विश्वास जताया कि 'बेस्ट परफार्मंसÓ वाले इस नेता के कारण भाजपा को जल्द ही अच्छे दिन देखने मिलेंगे।

गरीबी रेखा पर सरकार की राय स्पष्ट नहीं


'मीट द प्रेसÓ में नागपुर के पत्रकारों से अनौचारिक चर्चा में ए.बी.बर्धन ने कहा

संजय स्वदेश
नागपुर।
गरीबी रेखा पर सरकार की राय स्पष्ट नहीं है। इस मामले में वह स्वयं भ्रम में हैं कि देश में कितने प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। यह कहना है कि भाकपा के वरिष्ठ नेता ए.बी.बद्र्धन का। वे रविवार की शाम धंतोली स्थित तिलक पत्रकार भवन में पत्रकारों से अनौपचारिकता चर्चा में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि योजना आयोग ने पहले कहा कि देश में कुल आबादी के 47 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं, फिर बाद में कहा गया कि 27 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं। इस आंकड़े को भी सरकार ने रिजेक्ट कर दिया। तेंदुलकर आयोग ने बताया कि देश में 37 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। एन.सी सक्सेना आयोग ने 57 प्रतिशत और कांग्रेस के वर्तमान सांसद अर्जुनसेन गुप्ता आयोग ने बताया कि 77 प्रतिशत लोग गरीब हैं। ये अनाज, तेल, दाल, खरीदने में असमर्थ हैं। ये अपने बच्चों को ठीक से शिक्षा नहीं दे सकते हैं। सभी आकड़ों को सरकार झुठला दिया है। लेकिन अब सरकार यह कोशिश कर रही है कि 37 प्रतिशत की संख्या को मान लिया जाए। महंगाई के खिलाफ वामदल आंदोलन चला रहे हैं। 5 जुलाई को भारत बंद सफल भी रहा। कुछ लोग नुकसान का आंकलन कर रहे हैं लेकिन भूख का आंकलन नहीं हो रहा है। बारिश के बाद महंगाई के विरोध में आंदोलन फिर शुरू होगा।
कहां बह रही है जीडीपी की गंगा?
बर्धन ने कहा कि एपीएल और बीपीएल सिस्टम हटा कर जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) लागू करना चाहिए। यही जनता की जरूरत है। प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि देश का समग्र विकास हो रहा है। जीडीपी बढ़ रहा है। वहीं दूसरी ओर सबसे ज्यादा एनीमिया से ग्रस्त माताएं भारत में हंै। बाल मृत्यु दर में भारत आगे है। फिर यह जीडीपी की ग्रोथ की गंगा कहां बहती है। उन्होंने कहा कि सभी मुद्दों की जननी महंगाई है। सरकार अन्न सुरक्षा कानून बनाने जा रही है। इसकी आजकल बड़ी चर्चा है। महंगाई और अन्न सुरक्षा एक दूसरे से जुड़े हैं। अन्न सुरक्षाकानून में 3 प्रमुख बातें होनी चाहिए। पहली, अन्न सुरक्षा मतलब देश के हर व्यक्ति को यथेष्ठ अन्य मिले। दूसरी, जो अन्न मिले वह पौष्टिक हो और तीसरी, यह सभी के पहुंच की कीमत के अंदर में उपलब्ध हो, जिससे कि हर कोई खरीद सके। यदि अन्न सुरक्षा कानून में इन तीनों चीजों का समावेश हो तभी यह कानून सफल होगा।
सभी तक अन्न पहुंचाने में सरकार को जो खर्च आएगा, वह जीडीपी का कुल 1.9 प्रतिशत होगा। इसका पूरा हिसाब हमने सरकार को दे दिया है। देश में 20 से 25 प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जो जनवितरण प्रणाली ठीक कर भी लिया जाए तो भी वे बाहर से खरीदी कर सकते हैं। 75 प्रतिशत लोगों तक जनवितरण प्रणाली पहुंचनी चाहिए।
कश्मीर का बाजार कहां है?
बर्धन ने कहा कि कश्मीर की समस्या कई मायनों में इन दिनों उलझ गई है। एक ओर कश्मीर घाटी में जहां गोलियां बरस रही हंै, वहीं दूसरी ओर लेह में पानी का कहर बरस रहा है। छोटे से शहर लेह में पानी के बहाव के कोई परंपरागत तरीके नहीं हैं। वहां अभी तक बर्फ ही बरसते रहे हैं। इस कहर में छोटे से शहर के चार से पांच सौ लोगों का गायब हो जाना गंभीर बात है। हम कहते हैं कि कश्मीर देश का अभिन्न अंग है। शरीर के एक हिस्से में जब चोट लगती है, तो दूसरे हिस्से में दर्द होता है। लेकिन कश्मीर मामले में ऐसा नहीं है। हम संवदेनशून्य हो रहे हैं। यदि भारत कश्मीर का ही अंग है तो लोग कश्मीर के प्रति संवेदना प्रकट करें। सबसे पहले तो यह जरूरी है कि कश्मीर से सेना को हटायी जाए। सेना के कारण वहां के रास्ते और बाजार बंद हैं। कश्मीर में सबसे ज्यादा उत्पादन सेब का होता है। लेकिन वहां सेब का बाजार कहां है। कश्मीर के सामान्य आर्थिक जीवन को भी बंद कर दिया गया है। इसे खोलना जरूरी है।
कॉमन वेल्थ के लिए पैसा है, गोदाम बनाने के लिए नहीं
कॉमन वेल्थ गेम की तैयारियों में अनियमितताओं से पता चलता है कि भ्रष्टाचार के मामले अब ओलंपिक तक पहुंच गए हैं। इस गेम के माध्यम से भारत की प्रतिष्ठा दांव पर है। इसलिए यह कामयाब होना चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि भ्रष्टाचारियों पर कोई रोक-टोक न हो। देश की इज्जत मिट्टी में मिलाने वाले भ्रष्टाचारियों को राजा, महाराजा के पद से हटा दिया जाना चाहिए। सरकार कह रही है कि अनाज का उत्पादन इतना है कि अनाज रखने के लिए गोदाम नहीं है। कॉमन वेल्थ गेम में करोड़ों रुपये भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गये लेकिन सरकार के पास अनाज के गोदाम बनवाने के लिए पैसे नहीं है।
बॉक्स में
बिहार चुनाव वाम के साथ लड़ेंगे
बिहार चुनाव में वाम दल एकजुट होकर मैदान में उतरें, इसके लिए सहमति बन रही है। पूरी संभावना है कि चुनाव में वाम दल एक ही होंगे।
नक्सलबाद पर हो सार्थक बातचीत
सरकार समझती है कि नक्सलवाद को केवल हथियार से ही रोका जा सकता है। यह संभव भी नहीं है। एक ओर तो राज्य का आतंक है, वहीं दूसरी ओर नक्सलियों का आतंक। दोनों के बीच में मासूम मर रहे हैं। इसके लिए बातचीत का रास्ता सबसे ज्यादा बेहतर है।

गडकरी से मुलाकात हुई
नितिन गडकरी मुझझे मिलने आए। लेकिन किसी को इस बात का तनिक भी विश्वास नहीं होगा कि हमलोगों ने राजनीति की बातें नहीं की। वे मेरे पुराने मित्र हैं। मेरे पास आए तो केवल व्यक्तिगत बातें होती रहीं। विशेष रूप से उनके चीनी उद्योग पर चर्चा हुई।

किन नेताओं के पीछे है विदर्भ की जनता
पृथक विदर्भ के मुद्दे पर पूछे गए एक सवाल के जवाब में बर्धन ने एक टूक में कहा कि -विदर्भ की जनता तथाकथित विदर्भवादी नेताओं के पीछे है।

शनिवार, अगस्त 07, 2010

मीडिया जरूरत से ज्यादा अहंकार से ग्रस्त


जनसंवाद माध्यम स्वयं तैयार करे 'कोड ऑफ कंडक्टÓ : मृणाल पांडे
राजेंद्र माथुर स्मृति व्याख्यान आयोजित

संजय स्वदेश
नागपुर।
वर्तमान दौर में बदलती स्थितियों में जनसंवाद माध्यम को स्वयं आगे आकर अपना 'कोड ऑफ कंडक्टÓ तैयार करना होगा। यह कहना है वरिष्ठ पत्रकार व प्रसार भारती की अध्यक्ष सुश्री मृणाल पांडे का। वे धंतोली स्थित तिलक पत्रकार भवन में आयोजित राजेंद्र माथुर स्मृति व्याख्यान कार्यक्रम में बतौर मुख्य वक्ता बोल रही थीं। महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा एवं दैनिक भास्कर के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित इस कार्यक्रम का मुख्य विषय राज, समाज और आज का मीडिया था। सुश्री पांडे ने कहा कि गत एक दशक में सबसे बड़ा बदलाव यह हुआ है कि देश में शिखर और तलहटी के बीच की खाई कम हुई है। इसके कई रोचक परिणाम आए हैं। इस दौरान यह पहली बार हुआ है कि चुनाव में जाति का मंथन हुआ। ऐसे जनप्रतिनिधि चुन कर आए, जिन्हें नेहरू के जमाने में चुना जाना संभव नहीं था। माथुर साहब मानते थे कि एक समय के बाद अलग-अलग राजनेता की आवश्यकता होती है। संवाद माध्यम अब पहले से ज्यादा शक्तिशाली भाषायी माध्यम है। पहले अंग्रेजी के पत्रकारों की पूछ थी, लेकिन जैसे-जैसे लोकतंत्र तलहटी तक गया, भाषायी अखबार महत्वपूर्ण हो गए। हिंदी अखबारों की प्रतिष्ठा बढ़ी है, लेकिन इसके साथ ही कुछ गलतफहमी भी हो रही है। मीडिया जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास और अहंकार की भावना से ग्रस्त है, इसे दूर करना आवश्यक है, नहीं तो सरकार नियामक बनाएगी। उन्होंने कहा कि आज जितनी तेजी से जितनी मात्रा में खबरें आती हैं, उस दृष्टि से सभी खबरों पर संपादक की गिद्ध दृष्टि रखना मुश्किल हो गया है।
सुश्री पांडे ने कहा कि अखबार के मार्केटिंग मैनेजर और यूनिट मैनेजर पर भी विज्ञापन की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। उनका नाम भी प्रिंट लाइन में जाना चाहिए, जिससे पाठक भ्रमित विज्ञापनों के बारे में संपादक को दोष न दें। उन्होंने कहा कि हर अखबार में दो खेमे हैं। एक पाठक के हित की बात करने वाला तो दूसरा अखबार के शेयरधारकों का खेमा। दोनों में टकराव है। इसे अखबार को अपने स्तर पर ही निपटना होगा। उन्होंने कहा कि इतना बड़ा त्वरित परिवर्तन अपने जीवन काल में नहीं देखा। इसलिए मीडिया में परिवर्तन आवश्यक हो जाता है।
चैनलों की जल्दीबाजी के विषय पर चर्चा करते हुए सुश्री पांडे ने कहा कि भीड़ में दर्शक और पाठक यह खोज ही लेता है कि कौन का चैनल या अखबार उसके लिए है। उन्होंने कहा कि पाठक और दर्शकों का हित सर्वोपरि है। इसे कानूनी रूप से भी मान्य करना चाहिए। नियामक बनाकर पाठकों को यह बताना चाहिए कि अमुक अखबार किसी पार्टी विशेष का है। उन्होंने कहा कि माध्यम तो बहुत फलफूल रहा है, लेकिन हार्ड न्यूज की उपेक्षा हो रही है। इस न्यूज को लाने वाले की भी उपेक्षा हो रही है। इससे भारी नुकसान हो रहा है। खबरों का पीछा कर, उनकी श्रृंखला चलाने वाले कम हो गए हैं। बहुत ज्यादा सूचना का जखीरा होने से पत्रकारों में आलस आ गया है। नया माध्यम इंटरनेट तो अच्छा है,लेकिन इसकी स्थिति ऐसी है जैसे यह बंदर के हाथ लग गया हो। पहले हम लोग पढ़े थे कि पत्रकारिता हड़बड़ी में रखा गया साहित्य है। इसी तरह से ब्लॉग हड़बड़ी में रचा गया पत्रकारिता है।
तथाकथित 'ऑनर किलिंगÓ की चर्चा करते हुए सुश्री पांडे ने कहा कि यदि ऐसी हत्याओं पर गौर करें तो पाएंगे कि सबसे ज्यादा हत्याएं उस मामले में हुई हैं, जिसमें ऊंची जाति की लड़की ने अपने से छोटी जाति के लड़के के साथ प्रेम विवाह किया। ये घटनाएं साबित कर रही हैं कि इससे समाज बिचलित हो रहा है। इस विषय पर ब्लॉग जगत में खूब चर्चाएं हुईं। अधिकतर ब्लॉग लिखने वालों ने माना कि हत्याएं गलत थीं, लेकिन उनमें लड़की के विचलन पर रोष था। इस तरह के विचलन को सांस्कृति सहमति नहीं मिल रही है। ऐसी घटनाएं बताती हैं कि जो कुछ हो रहा है, उसका एक छोर लोकतांत्रिक राज्य से जुड़ा है। लोकतंत्र अपनी गति को मथ रहा है। लेकिन अनिवार्य चीजों को सहमति देने में देरी कर रहा है। उन्होंने दिल्ली का उदाहरण देते हुए कहा कि राजधानी के आसपास के चार गांव ऐसे हैं जिनमें चालीस मसर्डीज कारें हैं। गांव के जाट समुदाय के लोग अपनी संपत्ति बेच कर अमीर हो गए। लेकिन इससे गांाव के बुजुर्गों को लगा कि उनके साथ से सत्ता निकल गई। पैसे से वे अमीर हो गए, लेकिन उनके पास से वह गौरव निकल गया जिस गौरव का अनुभव जमीन का स्वामी होने से होता था। यह गौर पैसे से नहीं खरीदा जा सकता है। उन्होंने फैशन और जीवनशौली पर खर्च किया, लेकिन पढ़ाई-लिखाई नहीं की। वहीं दूसरी ओर दलित और पिछड़ी जातियों में बदलाव आया है। इस समाज के युवा पढ़ लिख कर सरकारी नौकरियों ने लगे। इससे गांव में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ी है। लड़कियां ऐसे ही लड़कों की ओर आकर्षित हो रही हैं। क्योंकि वे जानती हैं कि ये लड़के लंबे रेस के घोड़े हैं। खाप पंचायतों पर कोर्ट के निर्णय लागू नहीं हो पाते हैं। पर इनके निर्णय मान्य हो रहे हैं। दरअसल दंड विधान भी वहीं से निकलता है। स्वागत भाषण वनराई के विस्वस्त व पूर्व विधायक गिरीश गांधी ने दिया। संचालन डा. प्रमोद शर्मा ने किया। कार्यक्रम में नगर के हर वर्ग के गणमान्य लोग उपस्थित थे।