शनिवार, जनवरी 02, 2010

प्यार, कौमार्य और सुप्रीम कोर्ट का फैसला

संजय स्वदेश
दुष्कर्म के एक मामले में उच्चतम न्यायलय का एक महत्पूर्ण निर्णय आया है। दुष्कर्म के आरोप में एक दोषी को यह कह कर निर्दोष करार दे दिया कि पीड़िता ने खुद कौमार्य खोया। खबर प्रकाशित हुई। नये साल के पहले दिन। अंदर के पेज में। छोटे से कॉलम में। नये साल के जश्न में डूब कुछ ही पाठकों का ध्यान इस खबर की ओर गई होगी।
खबर पर ध्यान इसलिए गया क्योंकि शीर्षक में कौमार्य शब्द जुड़ा था। सेक्स की दुनिया से संबंधित हर खबर पर चटकारे लेकर पढ़ा जाता है। कम लोग ही संवेदनशील होते है। जिन्होंने इस खबर को पढ़ी होगी, उन्हें यह जरूर सोचा होगा कि देश के उच्चतम न्यायलय भी कभी-कभी कैसी अनाप-शनाप शब्दों का उल्लेख कोई निर्णय देकर इतिहास बना देता है। फिर चाहे भविष्य में उस निर्णय का उल्लेख कर कितना भी गलत कार्य क्यों न हो।
उच्चतम न्यायल ने एक लड़की के साथ बलात्कार के मामले में दोषी ठहराए जा चुके सुनील नाम के एक शख्त को यह कहते हुए बरी किया कि पीड़िता ने खुद उससे कौमार्य भंग कराया। दूसरे, पिता बेटी के नबालिग होने का प्रमाण नहीं दे पाये। मामला प्यार का था। इसलिए शारीरिक संबंध आपसी राजामंदी से बनी थी। सुनील के वकील ने अदालत को तर्क दिया था कि कौमार्य भंग करते वक्त लड़की ने विरोध नहीं किया था, इसलिए मामला बलात्कार कहा हुआ! यह तो सेक्स हुआ, आपसी राजमंदी का। देश में हर साल सैकड़ों ऐसे मामले दर्ज होते हैं, जब कोई व्यक्ति या युवा किसी लड़की को शादी के हसीन सपने दिखाकर प्यार के खुशनुमे अहसास से बासना की नदी में उतर जाता है। जब उत्साह ठंडा पड़ता है, तो प्यार का रंग फिका दिखने लगता है। प्रेमी प्रेमिका से कतराने लगता है। प्रेम में छली गई, एक बेटी, बहन रोने-कल्पने के बाद सब कुछ भुलाकर नये सिरेसे नई जिंदगी संवारने में जुट जाती है। कुछ खुदकुशी की राह चुनती है। पर नई जिदंगी की राह पर चलने वाली लड़की के दिल में छले जाने की टीस कायम रहती है। जो टिस बर्दास्त नहीं कर पाती हैं, पुलिस तक पहुंच जाती है। ऐसे लड़कियों की जगहंसाई नहीं होनी चाहिए। सम्मान के नजरिये से देखना चहिए। आखिर उसने हिम्मत ही तो की है। प्यार में छले जाने के खिलाफ। ठीक है कि उसके साथ शारीरिक संबंध बनाते वक्त जोर-जबरजस्ती नहीं की गई होगी। पर उसे खुशनुमे एहसासों के साथ आबरू लुटाने के लिए मानसिक रूप से मजबूर तो किया ही जाता है।
प्रेम प्रसंगों में अंतिम लक्ष्य विवाह ही तो होता हैं। मानसिक रूप से आश्वत करके किसी मासूम की इज्जत से खिलवाड़ किस श्रेणी में रखी जाएगी। बाप बेटी को नबालिग साबित करने में नाकाम रहा। इसमें बेटी का क्या दोष। मान भी लेते हैं, लड़की नबालिग नहीं थी, पर उसकी आबरू से खिलवाड़ तो हुआ ही था। देश में ऐसे हजारों मामले हैं, जिसमें विवाह का झांसा देकर कोई न कोई मुंह काला करता है। हवस की आग बुझाकर लड़की को उसके हाल पर छोड़ देता है। समाज में कई मर्द ऐसे हैं जो अपनी मित्र मंडली में लड़की की रजामंदी से उसके साथ बनाये गए संबंधों के बाद उसे ठुकरा देने का संस्मरण सुनाते है। उच्चतम न्यायलय के ऐसे निर्णय ऐसी प्रवृत्ति के लोगों की मानसिकता को मजबूत करेगा। किसी न किसी तरह की झांस में फंस कर मानसिक रूप से किसी न किसी लाडली की आबरू से खिलवाड़ चलता रहेगा।
दुष्कर्म के मामले में वर्षों से यह मांग हो रही थी कि इसकी सुनवाई महिला जज करें। अब जाकर इसके लिए केंद्र सरकार ने मंजूरी दी है। कानून के नये संशोधन के जरिए धारा 376 की घाराओं में सभी अपराधों की सुनवाई महिला जज ही करेगी। गिरफतार व्यक्ति की चिकित्सा जांच तुरंत होगी। पीड़िता का बयान उसके घर जाकर माता-पिता अथवा किसी गेर सरकारी सामाजिक संस्था की मौजूदगी में महिला पुलिस उसके अधिकारी घर जाकर लेगी। सरकार की यह पहल स्वागत योग्य है। अभी तक ऐसे मामलों में कानूनी पेंच ऐसे हैं कि शारीरिक रूप से दुष्कर्म पीड़िता को थाने में रिपोर्ट दर्ज कराने से लेकर अदालत के कटघरे में तरह-तरह के सवाल के वाण फेंके जाते हैं। या यूं कहें कि कोर्ट में जज के सामने फिर से बलात्कार होता हैं। यदि पीड़िता ने मानसिक रूप से इसे सहन करते हुए सवालों का जवाब दे दिया तो शायद दोषी पर आरोप सिदध हो जाए। पर कोर्ट में फिर से पीड़ित होने के डर के कारण अधिकतर मामले दब ही जाते है।
भ्रष्टाचार के अनेक प्रकरण आने के बाद भी देश में न्यायापालिका का सम्मान है। इसके बाद भी विवेक के तर्क की कसौटी पर उच्च और उच्चतम न्यायाल ने कई मामले में ऐसे निर्णय दिए है, जो आसानी से हजम नहीं हुए। अमूमन उच्चतम न्यायालय में मामला निचली अदालतों से होकर जाता है। उच्चतम न्यालय के जज भी नीचली अदालतों से तरक्की पाते हुए नियुक्ति पाते हैं। अनुभव का लंबा सफर साथ रहता है। इसके बाद भी ऐसे प्रकरण में निणर्य निश्चय ही न्यायमूर्ति की मानसिकता पर अंगुली उठाते है। दुष्कर्म के मामले जब भी मीडियां के सुर्खियों में आए, काफी हो हल्ला मचा। कई मामलों में फिल्में तक बन गईं। पर थोड़े दिन बाद लोग सब कुछ भूल जाते है। सुनवाई मंद रफतार से चलती रहती है। जब तक निर्णय आता है, घटना के बारे में लोगों को याद तक नहीं रहता है। इतनी लंबी अवधि तक याद रखना स्वाभाविक भी नहीं है। अदालत सुनाई की लंबी अवधि पर किसी की लगाम नहीं है। अब मीडियां को ऐसे मामलों के लिए लामबंद होकर हो-हल्ला करना चाहिए जिससे एक कोर्ट का निर्णय दूसरे कोर्ट में पलटने का खेल न खेला जाता है और पीड़ित न्याय के लिए तरसता रहता है।

3 टिप्‍पणियां:

Arvind Mishra ने कहा…

किसने किसकी विर्जिनिटी नष्ट की?क्या विर्जिनिटी उभय पक्ष की नहीं होती ? क्या मानव विकास में विरजिनटी भी कभी कोई बड़ा प्रयाण स्थल रही ? जरा सोचे अगर ऐसे वाद न्यायालयों में पहुंचे की माई लार्ड मैं फला का, फला महिला ने शुचिता भंग कर दी ? यह बात उपहास क्यों बने ?

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

आप की बातें सही हैं। लेकिन इस तरह की घटनाओं का दूसरे पहलू भी हैं।
स्त्री-पुरुष संगम का एक परिणाम संतान का आगमन भी हो सकता है। वस्तुतः यह है भी इसीलिए। संतान के आगमन को सामाजिक रूप देना होता है। यही कारण है कि कोमार्य एक समस्या बना हुआ है और विवाह उस का हल।
यहीं से विवाह का झाँसा, आश्वासन और कोमार्य रक्षा की बात आरंभ होती है।
यह बहुत जटिल मामले हैं। समाज को इन्हें हल करने में बहुत समय लगेगा। विधि इन का इलाज अभी तलाश नहीं कर पाई है। वह समाज की समस्याओं से अभी बहुत परे है।

yogendranath dixit ने कहा…

bhaiji aap se kya kahe hamare desh me loktantra hai