रविवार, जनवरी 31, 2010

हम आम आदमी दर्द समझने नाकाम : सुप्रीम कोर्ट

संजय स्वदेश
वैश्वीकरण और उदारीकरण के दौर में ऐसा लगता है कि दुनिया का सबसे बड़े लोकतंत्र का अंतिम न्यायालय भी न्याययिक प्रक्रिया में आम आदमी के प्रति सहानुभूति खोता जा रहा है। देश की सबसे बड़ी न्यायालय सुप्रीम कोर्ट की यह आलोचना करने वाला कोई और नहीं बल्कि स्वयं सुप्रीम कोर्ट ही है। न्यायमूर्ति जी.एस. सिंघवी और ए.के गांगुली की खंडपीठ ने पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के एक आदेश की चुनौति में सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत की यह आलोचना की।
दो-तीन दिन पहले की बात है, सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीश गांगुली ने रविन्द्र नाथ टैगोर के एक कथन का उदाहरण देते हुए कहा कि वैश्वीकरण और उदारीकरण से हालत ऐसे हो गए हैं जिसमें लोग पागलों की तरह पश्चिमी जीवन शैली की ओर भाग रहे हैं। न्यायमूर्ति गांगुली ने कहा कि हमारी न्याय प्रणाली में आम आदमी धीरे-धीरे सरकते हुए हासिये पर आ गए है। अदालती प्रक्रिया आम आदमी की स्थिति और धौर्य को नहीं समझ पाती है। यह स्थिति संवैधानिक रूप से उत्पन्न हुई है। यदि कोई इस स्थिति को बदलना चाहता है तो उसे देश के नजदीक से देखना चाहिए। इसके लिए देश का भ्रमण करने की भी जरूरत है। न्यायमूर्ति गांगुली ने कहा कि हमारे संविधान का बुनियादी आकार आम आदमी के बदल गया है। संविधान इन्हीं आम आदमी पर शासन के लिए नहीं बना है। पर वैश्वीकरण और उदारीकरण के दौर में आम आदमी अनेक समस्याओं के बोझ से लदा हुआ है, जिससे वह विकास की मुख्यधारा से जुडऩे के बजाय हाशिये पर चला गया है।

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

अजब सी बात है.