सोमवार, अप्रैल 19, 2010

अब तेंदुए पर गड़ी शिकारियों की कातिल नजर

देशभर में पहली तिमाही में मारे गए 291 तेंदुए, विदर्भ में आधे दर्जन से ज्यादा
संजय स्वदेश
नागपुर।
बाघ की खालों और अन्य सामग्री के अवैध व्यापार को रोकने के लिए देशभर में कड़ी सुरक्षा होने के बाद अब शिकारियों की खतरनाक नजर तेंदुए को लग गई है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेंदुए की खाल और हड्डियों की अच्छी खासी मांग है। पर्यावरण प्रेमी और वन्य अधिकारियों का अनुमान है कि हर साल देशभर में करीब 500 तेंदुओं का शिकार होता है। इसमें विदर्भ के जंगलों के तेंदुए भी शामिल हैं। वन विभाग के सूत्रों की मानें तो महाराष्ट्र के जंगल ही नहीं देशभर के जंगलों से तेंदुए उसी तरह से गायब हो रहे हैं, जिस तेजी से बाघ गायब हो रहे थे। लेकिन सरकार का पूरा ध्यान बाघों के संरक्षण पर है। यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि गत तीन वर्ष में देशभर में तेंदुओं की संख्या का आठवां हिस्सा शिकारियों का शिकार बन गया है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेंदुए की खाल की अपेक्षा उनकी हड्डियों की मांग ज्यादा है। खासकर चीन में यह मांग अधिक है। यहां इन हड्डियों का इस्तेमाल दवाएं बनाने में होता है। स्थानीय शिकारी तेंदुए की खाल के लिए करीब 20 से 35 हजार रुपये तक कीमत पाते हैं। बड़े शहरों में सौदा तय होने पर खाल की कीमत 50 हजार रुपये तक भी हो जाती है। वहीं अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसकी कीमत एक लाख रुपये तक पहुंच जाती है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि देश में करीब 8,000 तेंदुए हैं। देश में दिल्ली, उत्तर प्रदेश और हरियाणा तेंदुओं की हड्डियों और खाल के अवैध व्यापार का मुख्य केंद्र माना जाता है।
वन विभाग सूत्रों का कहना है कि इस साल की पहली तिमाही में देश भर में करीब 291 तेंदुए मारे गए हैं। इसमें आधे दर्जन से भी ज्यादा संख्या के तेंदुए विदर्भ के जंगलों के हैं। वर्ष 2009 में 290 और 2008 में 157 तेंदुए मारे गए थे। गत पर जहां एक साल में 290 तेंदुए मारे गए थे, वहीं यह आंकड़ा इस वर्ष की पहली तिमाही में ही पूरी हो गई। मतलब साफ है कि हर दिन कम से कम तेंदुए शिकारियों के हाथ लग रहे हैं। यदि तेंदुए की शिकार की गति इसी तेजी से बढ़ती रही तो आने वाले पांच से सात वर्षों में भारत से तेंदुए की प्रजाति ही समाप्त हो सकती है। जानकारों का कहना है कि बाघों की गणना चलने से वन विभाग के अधिकारी खासे सक्रिय है। इसलिए शिकारियों ने तेंदुओं को शिकार बनाना शुरू कर दिया है। जबकि वन्यजीव (संरक्षण) कानून, 1972 के अुनसार वन क्षेत्र के किसी भी जीव का शिकार अपराध है। पर यह कानून संगठित वन्य जीवन अपराध को रोकने में नकाम साबित हो रहा है।

कोई टिप्पणी नहीं: