शुक्रवार, अगस्त 20, 2010

नक्सलियों ने आदिवासियों के कल्याण के लिए एजेंडा नहीं बनाया : राजकिशोर

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि में नक्सलवाद के औचित्य पर संगोष्ठी
नक्सल आंदोलन कभी आदिवासी आंदोलन नहीं रहा क्योंकि नक्सलियों ने कभी भी आदिवासियों के कल्याण के लिए कोई एजेंडा प्रस्तुत नहीं किया। यह कहना है कि वरिष्ठ पत्रकार व राइटर इन रेजीडेंट राजकिशोर का। वे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि परिसर के गांधी हिल पर आयोजित एक संगोष्ठी में बतौर मुख्य वक्ता अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। राजकिशोर ने कहा कि नक्सलियों ने आदिवासियों को सरकार के खिलाफ भड़काना ही सहज एवं सुलभ समझा है। जबकि माओवादी कोलकाता, अहमदाबाद, मुंबई, मद्रास आदि प्रमुख शहरों के मजदूरों को एकजुट नहीं कर पाये। क्योंकि शहरी मजदूरों को इकट्ठा करना उन्हें मुश्किल लगा। उन्होंने कहा कि जो लोग ऐसा मानते हैं कि जहां विकास नहीं हुआ है, वहां नक्सलवाद पनपता है, वे गलत हैं। क्योंकि उत्तराखंड के कई दुर्गम इलाके, अंडमान निकोबार दीप समूह और बिहार के कई अंचल तथा उड़ीसा के कई क्षेत्रों में विल्कुल भी विकास नहीं हुआ है। फिर भी वहां नक्सलवाद नहीं पनपा है।
लक्ष्य से भटके हैं कम्युनिष्ट
राजकिशोर ने कहा कि जहां अन्याय होगा, वहां हथियार उठेगा। नक्सलवाद कोई नई बात नहीं कह रहा है। इसका उद्गम तब हुआ, जब कम्युनिष्टों ने अपना लक्ष्य छोड़ दिया। 1947 में जब देश आजाद हुआ था, तब कम्युनिस्ट यह नारा लगाते थे- 'यह आजादी झूठी है, देश की जनता भूखी हैÓ। इसी नारे के साथ कम्युनिस्ट इस आजादी को भ्रम माने बैठे रहे। लेकिन जब उन्होंने देखा कि देश का आम आदमी इसी आजादी से खुश है और यही असली आजादी है, तो उन्होंने हिंसा की राह पकड़ ली। नक्सलियों ने सबसे पहले हिंसा की शुरुआत तेलंगाना से की। लेकिन तब की जवाहर लाल नेहरू सरकार ने इस हिंसा का दमन कर दिया। तब कम्युनिस्टों को लगा कि वे अब क्रांति के बिना नहीं रह सकते हैं। लेकिन नेहरू के दमन चक्र से ही कुछ कम्युनिस्ट लोकतांत्रिक रास्ता अपनाने लगे। तब तक सोवियत संघ और चीन के माक्र्सवादी किले की चूले हिलने लगी थीं। इसके बाद कम्युनिस्ट टूट गए।
हिंसा क्रांति की दासी
राजकिशोर ने कहा कि ङ्क्षहसा और प्रतिहिंसा स्वत: स्फूर्त है। इसीलिए कम्युनिष्टों के एक समूह ने चारु मजमूदार के नेतृत्व में हिंसा का रास्ता अपनाया। क्योंकि अतीत में जितनी भी सत्ता की लड़ाई लड़ी गई है, उनका माध्यम हिंसा ही रहा है। क्योंकि हिंसा सत्ता परिवर्तन का पर्याय रहा है। लेकिन इसके बाद भी माक्र्सवाद हिंसा का दर्शन नहीं है। उसका मानना है कि हिंसा क्रांति की दासी है। हिंसा उसका एक छोटा सा हिस्सा है।
बिगड़ चुका है नक्सलवाद का स्वरूप
संगोष्ठी की शुरुआत में प्रास्ताविक वक्तव्य में विवि के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष प्रो. अनिल अंकित राय ने कहा कि सामाजिक मुद्दे ज्वलंत मुद्दे की तरह की समस्या हैं। इसके कारण पहचानने की जरूरत है। आजकल नक्सलवाद राजनीतिक एजेंडा बन गया है। यह समस्या अपने विविध रूप में है और आम व्यक्ति नक्सलवाद के खिलाफ चलाई जा रही सत्ता की गतिविधियों को और नक्सलवादी हिंसा आधारित गतिविधियों को ठीक नहीं मानता है। नक्सलवाद का स्वरूप जो शुरू में था, वह आज के समय में कही न कहीं बिगड़ चुका है। नक्सलवादी नेताओं ने भी इस बात को स्वीकारा है कि उनका नेतृत्व गलत हाथों में है। आदिवासी आदिवासी ही रह गए हैं, जबकि आज सन् 2010 चल रहा है। यह आधुनिकता का दौर है। आज भी आदिवासियों की स्थिति वैसी ही है, जैसे प्राचीन काल में थी। संगोष्ठी में मानव विज्ञान विभाग के अध्यक्ष प्रो. पी.के वैष्णव, नाट्य कला विभाग के अध्यक्ष प्रो. रवि चतुर्वेदी, बौद्ध अध्यनन विभाग के सहायक प्रोफेसर सुरजीत कुमार सिंह और रवि शंकर सिंह, मानव विज्ञान विभाग के सहायक प्रोफेसर वीरेन्द्र यादव, निशिथ राय, विवि के जनसंपर्क अधिकारी बी.एस मिर्गे, अमित विश्वास समेत अन्य कई प्राध्यापक व विद्यार्थी उपस्थित थे।

कोई टिप्पणी नहीं: