मंगलवार, सितंबर 28, 2010

मन मसोसने का डर...

मन की बात
जिंदगी के किताबों से गुजरों तो सैकड़ों ऐसे किरदार मिलेंगे, जिनसे जेहन में खट्टी-मीठी स्मृतियां ताजी हो जाएंगी। गुलजार की एक शायरी है। किताबों से गुजरों तो कुछ यूं, किरदार मिलते, है, गये वक्त की ड्योढ़ी पर खड़े कुछ यार मिलते है, जिन्हें दिल का विराना समझ कर छोड़ आए थे, वहीं उजड़े हुए सहर में कुछ आसार नजर आते हैं।
शायरी की संवेदना कम नहीं होती है, बस जरूरत होती है, उसे संवदेना के मर्म को समझने के लिए जिसके दर्द से अभिभूत होकर शायर या कवि दो चार पंक्तियां लिख कर मन हल्का करते हैं।
अब नये शहर में हूं। सोचा नहीं था, गांव से दिल्ली, दिल्ली से नागपुर और फिर राजस्थान में कोटा। छोटी उम्र में सपना था पटना में पढ़ा जाए, पर परस्थितियां ऐसी बनी कि सीधे देश की राजधानी में पढऩे का मौका मिला। मौका जल्दी मिला, इसलिए वह बहुत कुछ पीछे छुट गया, जिसे किताबों में पढ़ कर मन में कसक उठती है, काश, गवई जिंदगी का कुछ और हिंसा अपनी ङ्क्षजदंगी से जुड़ा हुआ रहता।
पर बदलते दौर में करियर में ऊचाई पाने की जद्दोजहद जिंदगी को ऐसे जिंदगी की ऐसी करवट बदलवाते रहता है कि वह सब कुछ पीढ़ पीछे होते चला जाता है, जहां से सच्चे सुख की अनुभूति होती है। पर हम भी जानते हैं, यह सब माया है। पद प्रतिष्ठा और पैसे की। पर इसके पीछे मेहनत के साथ जो और कीमत चुक रही है, उसे सोच कर मन में छटपटाहट होती है। मन मसोसने के अलावा कोई उपाय भी नहीं है। अब तक के अनुभव से साबित हो चुका है। अकेले व्यक्तिगत स्थितियां ही व्यक्ति को पेशोपेश में नहीं डालती है। समाजिक, आर्थिक परिवेश की परिस्थितियां बहुत हल्की नहीं होती है। सच कहें तो ये ही इतनी मजबूत है कि इन्हें तोडऩा बूते से बाहर की बात है।
जानकार लोग कहते हैं कि 35 से 40 की उम्र में मीडिल एज क्राइसिस होता है। उनके अनुभव सुन और देखकर डर लगता है। पता नहीं करीब पांच साल बाद मन फिर किस जद्दोजहद में फंसेंगा और उसके बाद जिंदगी किस तरह की मोड लेगी। बस डर इसी बात का है कि हमेशा मन मसोस कर न रहा जाये।

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