मंगलवार, सितंबर 21, 2010

यह जुल्म की इन्तहा नहीं तो क्या है.....?

यह जुल्म की इन्तहा नहीं तो क्या है.....?
21 September, 2010
भीलों पर जुल्म ढाती पुलिस 18 सितंबर को राजस्थान के झालावाड़ में एक दुखद घटना हुई जिसका आज के सामाजिक और राजनीतिक माहौल में विश्लेषण जरूरी है. इस दिन भील समाज की एक नवविवाहिता का कुछ मुस्लिम युवकों ने जबरन अपहरण करके उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म किया. भील समाज ने जब इसका विरोध किया और आरोपियों को पकड़ने की मांग को लेकर धरना प्रदर्शन शुरू किया तो राज्य की पुलिस ने आरोपियों को पकड़ने की बजाय भोले भाले भीलों पर ही जुल्म ढाना शुरू कर दिया. संजय स्वदेश की रिपोर्ट-


रामचरितमानस में तुलसी बाबा शबरी भीलन के भोलेपन का बड़ा ही मनोहारी वर्णन करते हैं। यह भोलेपन में निहित निश्चलता ही है, जो रामचंद्र सहज ही सबरी के जूठे बेर खा लेते हैं। लक्ष्मण में अहंम हैं, तभी तो वे बेर को फेंक देते हैं। रामचरितमानस मध्ययुग का रचित काव्य है। लिहाजा, अनुमान लगाया जा सकता है कि मध्ययुगीन आराजक समाज में सुदूर जंगल की दुनिया से भील सहजता, निच्छल्लता और प्रेम से अतिथियों का स्वागत करते हैं। शबरी के अतित्थ्य भाव की यह मिशाल पूरे भील समुदाय के सादगी का प्रतिबिंब था।

आज जमाने का रंग-ढंग बदल चुका है। विकास की रफ्तार ने भले ही मध्ययुगीन भूगोल और सामाजिक रंगढंग को बदल दिया हो, लेकिन भील समुदाय इस बदले रंगढंग के साथ कदमताल में पीछे रह गये। जंगल खत्म हो गये, तो शहरी वातावरण में ही भीलों ने दबे-सहमे जीना सीख लिया। पर रामचंद्र जैसे सरस स्वभाव वालों की संख्या मध्ययुग की तरह ही नागण्य रही। लक्ष्मण के चरित्र को छोड़ उनकी जैसे ही दबंगई से अभिभूत लोगों की संख्या बढ़ गई। समाज में इनका प्रभाव कायम है। रामचरितमानस में तो लक्ष्मण में शबरी भीलन को हेय भर समझा था, लेकिन आज भी भील दबंगों के दंश को झेलने पर मजबूर हैं। यह दबंग चाहे व्यक्ति हो या कोई संस्था अथवा कोई प्रशासन सभी का व्यवहार भीलों के प्रति रुखा है।

राजस्थान के झालावाड़ जिले में 18 सितंबर को मायके जा रही भील समाज की एक नवविवाहिता को तीन युवकों ने जबरन गाड़ी में बिढ़ाया और उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म किया। जैसे-तैसे तो मामला थाने में दर्ज हो गया। पर जांच में पुलिस की नियत खोटी दिखी। उसने भोले भीलों का बरगलाना चाहा। जब भील समाज के लोगों ने मेडिकल रिपोर्ट की प्रति मांगी, तो पुलिस ने देने से इनकार किया। लिहाजा, भील समाज एकजुट हो गया। करीब डेढ़ हजार भीलों ने सोमवार, 20 सितंबर को मनोहर थाना के खेरखेड़ी माताजी मंदिर में बैठक की। प्रशासन के विरोध में मनोहर थाना में बाजार बंद कराने का निर्णय लिया। हालांकि शांति व्यवस्था की दृष्टि से भील समाज के स्थानीय नेताओं ने इसका विरोध किया, लेकिन बाहर से आए प्रतिनिधियों ने स्थानीय विरोध को दरकिनार कर बाजार तक पहुंच गये। दुष्कर्मियों में एक आरोपी के पिता अमन ट्रांसपोर्ट का कार्यालय नजर आया। उन्होंने देखते-देखते ही उसमें आग लगा दी। भीलों का हुजूम बीनागंज चौराहे पर पहुंच गया। पुलिस ने उन्हें रोकना चाहा, तो दोनों पक्षों की ओर से पत्थरबाजी हुई।

पुलिस अधिकारियों का कहना है कि भील समाज के लोग गोफण से पथराव करने लगे तो पुलिस ने रबड़ की गोलियां चलायी। बात बिगड़ती देख हवाई फायर किए गए। उपद्रवी बने भील मक्के के खेत में घुसकर गोफण चलाने लगे। पुलिस ने आश्रु गैस का सहारा लिया। फिर भी स्थिति नियंत्रण में नहीं आई, तो गोलियों की बौछार कर दी। फायरिंग के बाद पप्पू लाल (20) की घटना स्थल पर ही मृत्यु हो गई। दूसरे ने रात रात सवा आठ बजे के करीब झालावाड़ चिकित्सालय में दम तोड़ा दिया। सूचना यह भी है कि इस घटना के बाद इलाके में मरघट जैसी खामोशी ने पांव पसार लिया। एक ओर तो प्रशासन 24 सितंबर के अदालती फैसले का जबरन हव्वा खड़ा कर शांतिप्रिय माहौल को बिगड़ने से रोकने की तैयारी दिखा रही है, वहीं दूसरी ओर मानवीय संवदेना को तार-तार करने वाली ऐसी घटना हो रही है।

पुलिस की लापरवाही से इस तरह की घटना कोई नई नहीं है। गत कुछ वर्ष के घनाक्रमों का इतिहास खंगाले तो कई उदाहरण मिल जाएंगे, जिसमें किसी कमजोर वर्ग के साथ अन्याय हुआ, पुलिस ने उपेक्षा की। कमजोर वर्ग ने उपेक्षा के विरोध में आवाज उठाई तो उसे बर्बरता से दबा दिया गया। फिलहाल इस दुष्कर्म और गोलीकांड के बाद अब क्या होगा। प्रशासन दो-चार पुलिसकर्मियों को निलंबित कर देगा। नेता बयानों से नेता अपनी मतलब की रोटियां सकेंगे। दोषियों की सजा कब सिद्ध होगी और सजा कब तक मुकर्रर होगी, यह दूर की बात है। राजस्थान की जमी चर्चित भंवरी देवी बलात्कार कांड के दोषियों का क्या हुआ?

भील समाज के युवती के तार-तार हुए आबरु की घटना से भला यह भील समाज प्रशासन की लापरवाही पर क्यों नहीं उग्र होता है। इस उग्रता के पीछे त्वरित न्याय की असफलता है। पूरे प्रकरण को केवल भील समाज की घटना समझ कर विचार करने की जरूरत नहीं है। छोटे-से बड़े मामले में यह देखा गया है कि प्रशासन अन्याय के विरोध के तर्क असानी से सुनता ही नहीं है। जब सुनता है तब तक काफी देर हो चुकी होती है। कई जानें जा चुकी होती हैं। सवााल है कि आखिर पुलिस किसी प्रकरण से संबंधित दस्तावेज शिकायकर्ता को देने से क्यों हिचकती है? आखिर शिकायत के बाद उसे तो इतना हक बनता ही है कि जांच-पड़ताल की गति क्या है और कहां तक पहुंची? अंग्रेजों के जमाने की मानसिता वाली भारतीय पुलिस की चालढाल पर पर तो अनेक बहस हुई पर सरकार ने सुध नहीं लिया। पुलिस की बर्बरता अभी तक बनी हुई है, पर यह बर्बरता भी किस काम की जब यह दुराचारियों के मन में अपना खौफ नहीं बैठा पाई?

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