सोमवार, अक्तूबर 18, 2010

साहित्य में टूटती शब्दों की मर्यादा

साहित्य को शर्मशार करते हंस और नया ज्ञानोदय
संजय स्वदेश
नेट खंगालते-खंगालते, सहज ही मन में इच्छा हुई कि साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिका हंस पढ़ी जाए। पत्रिका का अक्टूबर,2010 अंक डाउनलोड लिया। करीब एक दशक बाद हंस को पढ़ रहा था। पर यह क्या, एक दशक में काफी बदलावा दिखा। साहित्य की इस प्रतिष्ठित पत्रिका में पटना के रामधारी सिंह दिवाकर की एक कहानी रंडियां शीर्षक से छपी हैं। जिस संवदेना को कहानी का आधार बनाया गया है, उसका तानाबाना गजब का है। पर यथार्थ दिखाने के चक्कर में यह इस शब्द का प्रयोग शर्मशार करने वाला है।
कहानी के एक अंश है-
‘‘आज इस बड़का गांव में रंडिया ही रंडिया है. कहा है लाली यादव, पंडित बटैश झा, पुलकित राय, रघुनाथ भगत और बिसुनलाल तो चले गए दुनिया से, मगर उनके परिवारों से भी रंडियां पंचायत का चुनाव लड़ रही हैं. लाली यादव की परेनियां वाली बहू राधिका यादव, पंडित बटेश झा की बहू ममता झा, पुलिकित राय की पोती चंद्रकला राय... रंडियां ही रंडियां हैं. गांव में, हर उम्र की रंडिया.‘लेखक कहानी मेें जिस मुद्दे को उठाना चाहता है, उसमें सफल है। लेकिन शब्दों की ऐसी अर्मादित शैली उसकी स्तरीयता को निम्म कर देती है। सरस सलिस जैसी पत्रिकाएं ऐसे शब्दों को उपयोग कर जल्द ही लोकप्रियता हासिल कर लेती हैं। लेकिन उनका स्तर साहित्यिक नहीं है। लोग खूब चटकारे लेकर पढ़ते हैं। पर एक उच्च कोटी की साहित्यिक पत्रिका में ऐसे शब्दों का प्रयोग साहित्य की गरिमा निश्चय ही ठेस पहुंचाता है।
ज्ञात हो कि हंस के संस्थापक मुंशी प्रेमचंद थे। मुंशी प्रेमचंद ने अनेक मुद्दों को सरल और सहज शब्दों में बड़े ही प्रभावशाली तरीके से उठाया है। उनके लेखन में देशज शब्दों की भरमार है। इसके बाद भी वे शब्दों की शालीनता बनाये रखते हैं। आज वहीं हंस शब्दों की शालीनता की मार्यादा तोड़ रहा है। भले ही इस दिनों साहित्यिक पत्रिकाओं की संख्या बढ़ी है, लेकिन अमर्यादित शब्दों का प्रयोग पाठकों के बीच लोकप्रियता पाने का सरल माध्यम बनता जा रहा है। यदि आज प्रेमचंद होते तो अपनी स्थापित इस पत्रिका को पढ़ कर निश्चय ही शर्मशार हो जाते।
पिछले दिनों नया ज्ञनोदय के अंक में भी ऐसा ही कुछ हुआ। महात्मा गांधी अंतरराष्टÑीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय के साक्षात्कार में प्रयुक्त एक शब्द को लेकर खूब तूल दिया गया। मजेदार बात यह रही है कि उस पर टीका-टिप्पणी करने वालों ने नया ज्ञानोदय का वह अंक पूरा पढ़ा ही नहीं। जबकि उस अंक में प्रकाशित अन्य कई रचनाओं में अनेक आपत्तिजनक और अमर्यादित शब्दों के प्रयोग किये गए हैं। लेकिन बहस केवल विभूति नारायण के शब्दों पर छिड़ी रही। इससे सबसे ज्यादा लाभ नया ज्ञनोदय को हुआ। स्टॉल पर पत्रिका हाथो-हाथ बिक गई। इसके बाद जिस विषय को विशेषांक बनाया गया, हिंदी साहित्य में उसकी कोई विद्या या परंपरा नहीं रही है। एक साहित्यक पत्रिका को बेवफाई का सुपर विशेषांक निकालना उसी तरह लोकप्रिय होने का राह अपनाना है जैसे इंडिया टूटे, आऊटलुक पिछले कुछ वर्षों में सेक्स सर्वे पर कवर स्टोरी छाप कर क्षणिक लोकप्रियता पाई है।
बेवदुनिया ने कुछ भी लिखने पढ़ने की अजादी दी है। क्योंकि यहां अभी नियंत्रण नहीं है। लिहाजा, इंटरनेट की दुनिया में कई लेखकों की कुंठाएं साफ दिखती है। पत्र-पत्रिकाओं की दुनिया अलग है। यहां यह संयम इस लिए जरूरी है, क्योंकि आज भी इसके पाठकों की दुनिया अगल है। महंगी साहित्यिक पत्रिकाएं खरीदने वाला पाठक इसलिए जेब ठीली नहीं करना चाहता है कि उसे एक यथार्थ मुद्दे को अमर्यादित शब्दों की चांसनी में परोसा मिलता है। ऐसी अपेक्षाएं तो छह रुपये में बिकने वाली सरस सलिल जैसी पत्रिकाओं से पूरी हो सकती है। यदि अश्लीलता ही पढ़ती है तो इससे अच्छा बाबा मस्तराम की किताबे सस्ती।

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