गुरुवार, फ़रवरी 24, 2011

लोगों में भ्रम का भय

ऐसा कई बार होता है, जब सड़क पर कोई दुर्घटना ho जाती है। घायल अचेत या कराहता रहता है। लोगों की भीड़ जमा हो जाती है। लेकिन कोई जल्दी उसे अस्पताल पहुंचाने की जहमत नहीं उठाता है। लोगों में इस भ्रम का भय है कि यदि उन्होंने घायल को अस्पताल पहुंचाया तो पुलिस कारवाई में उन्हें भी घसीटेगी। पुलिस कार्रवाई का इतना डर कि सामने में तपड़ते हुये व्यक्ति के प्राण पखेरू उड़ जाते हैं।
bhaskar ki khabar hain ki चंडीगढ इंडस्ट्रियल एरिया फेज-1 में बुधवार दोपहर हादसे के बाद चौथी क्लास का मुन्ना सड़क पर तड़पता रहा। भीड़ इकट्ठा हुई, लेकिन उसे अस्पताल पहुंचाने के बजाय हंगामा करती रही। भीड़ नाराज थी कि वक्त पर पीसीआर नहीं पहुंची, लेकिन भीड़ में से किसी ने भी मुन्ना को अस्पताल पुहंचाने की जहमत नहीं उठाई। 3 मिनट में स्पॉट पर पहुंचने का दावा करने वाली पीसीआर जिप्सी 30 मिनट बाद पहुंची और मुन्ना को अस्पताल पहुंचाया, लेकिन तब तक उसकी मौत हो चुकी थी।

सोमवार, फ़रवरी 21, 2011

बाहर से लड़ाई लड़े बिहार के ईमानदार पत्रकार

संजय स्वदेश
जीमेल पर चैट के दौरान पटना के एक विद्यार्थी अभिषेक आनंद से कहा - बिहार के मीडिया के बारे में बतायें।
अभिषेक का जवाब था।
क्या बताऊँ..पेपर पढ़ना छोड़ दिया कुछ दिनों से आॅनलाइन अखबार पढता हूँ नितीश जी भगवान हो गए हैं.. हर सुबह बड़ी बड़ी तस्वीरों से दर्शन होता हैं..
.... और अंदर कहीं भी किसी भी पेज पर अगर कहू कि सरकार के खिलाफ कोई आलोचना नहीं होती, तो आश्चर्य नहीं..
लालू कहां गए पता नहीं। कोई नया विपक्ष कब आएगा पता नहीं बिना विपक्ष के लोकतंत्र कि कल्पना आप कीजिये... मीडिया और सत्ता, खास कर बिहार में खेल जारी हैं.. ऐसा बाहर के लोग ही नहीं, कई बिहारी भी ऐसा ही मानते हैं..।
इधर फेसबुकर पर पत्रकार साथी पुष्पकर ने अपने वॉल पर लिखा : - बिहार में सबकुछ ठीक नहीं है .। बिहार की पत्रकारिता को नया रोग लग गया है। खबरें सिरे से गायब हो रही है। कुछ खबरों को लेकर एकदम खामोशी। पिछले कुछ समय की खबरों पर नजÞर डालिए, कई ऐसे उदहारण मिल जायेंगे। ऐसा तो लालू राज में भी नहीं हुआ था। लालू के दवाब के बावजूद बिहार की पत्रकारिता को जंक नहीं लगा था। माना नितीश राज में बिहार में बहुत सुधार हुए हैं लेकिन खबरों का यूँ लापता हो जाना।
इसके साथ ही दिल्ली के एक पत्रकार मित्र रितेश जी बेतियां गये। फोन पर बात हुई। नितिश राज में बिहार कैसा लग रहा है। उन्होंने जो कुछ बताया दिल पसीज उठा। उन्होंने बताया कि उन्हें पिता जी से जुड़ी कुछ प्रशासनिक कार्य के लिए तहसील के चक्कर लगाये पड़े तो उन्हें अहसास हुआ कि बिहार की प्रशासनिक व्यवस्था पर अफसरशाही और टालमटोल कितना हावी है। रितेश जी ने बताया कि वे अपने कार्य के सिलसिलम में उपमुखमंत्री सुशील कुमार मोदी से भी मिले, लेकिन काम नहीं बना। रिश्वत के बिना कोई काम नहीं हो सकता है। उन्होंने बताया कि दिल्ली या दूसरे प्रांतों में बैठ कर जो हम बिहार की हकीकत जान रहे हैं, दरअसल वह हकीकत नहीं है। हकीकत देखना है तो बिहार आकर देख लें। इन सबके अलावा पिछले दिनों अन्य ऐसी कई खबरे आई, जिससे यह साबित हुआ कि सुशासन बाबु के राज में मीडिया पत्रकारिता नहीं कर रही है, बल्कि चारे के लिए मेमने की तरह मिमिया रही है।
किसी जमाने में बिहार में खाटी पत्रकारिता का दौर रहा। मीडिया ने कई मामलों उजागर किये। पत्रकार की रिपोर्ट पर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक भी गई। पर आज पूरा का पूरा माहौल बदला हुआ है। जैसे लालू-राबड़ी राज में बिहार की हकीकत निकल कर राष्टÑीय समाचार पत्रों तक पहुंचती थी, कई मायनों में वैसे हालात आज भी है, लेकिन अब खबरे नहीं आती है। लालू यादव मीडियाकर्मियों से दुर्वयवहार जरुर करते थे। लेकिन मीडिया की आवाज को नीतीश की शासन की तरह नहीं दबाया गया।
लोकतंत्र में जब मजबूत विपक्ष न हो तो यह भूमिका स्वत: मीडिया की बन जाती है। लेकिन खबरें कह रही है कि कमजोर विपक्ष के साथ ही बिहार की मीडिया भी पूरी तरह से कमजोर हो चली है। यदि ऐसा नहीं होता तो 10 फरवरी को पत्रकार/संपादकों के खिलाफ नागरिक सड़कों पर नहीं उतरते। आश्चर्य की बात है कि नागरिकों के इस जनआंदोलनों की खबर को बिहार की मीडिया में स्थान नहीं मिला। हिंदू ने इस आंदोलन एक फोटो प्रकाशित किया। फोटो बिहार की मीडिया की सारी हकीकत बताती है। ... http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/tp-newdelhi/article1329542.ece?sms_ss=facebook&at_xt=4d558bdc4cce7081%2C0 ...

बिहार के पत्रकार मित्र कहते हैं कि कुछ खिलाफ प्रकाशित करने पर धमकी मिलती है। समाचारपत्र का विज्ञापन बंद हो जाता है। मुख्यमंत्री संपादक को हटवा देते हैं। विज्ञापन के दम पर नीतीश सरकार ने विज्ञापन के दम पर मीडिया को पूरी तरह से अपने गिरफ्त में ले लिया है। मीडिया प्रबंधक का लक्ष्य पूरा हो रहा है, तो फिर भला, उनकी नौकरी करने वाले पत्रकार क्या करे। पत्रकार मित्रों की मजबूरी समझ में आती है। लेकिन चुपचाप चैन से बैठना समस्या का समाधान नहीं। बिहार के पत्रकार बिहार की मीडिया में सरकार की खिलाफत नहीं कर सकते है, तो कम से कम राज्य के पेशे के प्रति ईमानदार पत्रकार बाहर की मीडिया के लिए स्वतंत्र लेखन करें। भले ही बिहार की मीडिया नीतीश का नियंत्रण है। इसका मतलब यह नहीं कि देश की मीडिया भी नीतीश के पक्ष में कुछ नहीं बोले, लिखे। बाहर से लड़ाई भी धीरे-धीरे रंग जरूर लाएगी।
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संजय स्वदेश
बिहार के गोपालगंज के मूल निवासी संजय स्वदेश दिल्ली, नागपुर में पत्रकारिता के बाद इन दिनों दैनिक नवज्योति के कोटा संस्करण से जुड़े हैं। इनका मनना है कि पत्रकारिता के लिए चाहे माहौल कैसा भी हो, आज भी मिशन की पत्रकारिता संभव है। देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व पोटर्ल से लिए स्वतंत्र लेखन के साथ जन सरोकारों से भी जुड़े हैं। संपर्क : sanjayinmedia@rediffmail.com

शनिवार, फ़रवरी 19, 2011

त्वरित न्याय की संदेहीत प्रतिबद्धता

न्याय के लिए कितना बजट

संजय स्वदेश

केंद्रीय बजट आने वाला है। मीडिया अपेक्षित बजट पर चर्चा करा रही है। पर इन चर्चाओं में अन्य कई मुद्दों की तरह न्यायापालिका पर खर्च की जाने वाली राशि पर कोई हो-हल्ला नहीं है। एक अकेले न्यायापालिका ही है जिसने कई मौके पर सरकार की जन अनदेखी कदम पर अंकुश लगाने की दिशा में पहल की। न्यायपालिका के दामन पर कई बार भ्रष्टाचार के दाग लगे। इसके बाद भी आम आदमी उच्च और उच्चतम न्यायालय के प्रति विश्वसनीयता बनी हुई है। पर किसी सरकार ने न्यायपालिका को मजबूत करने के लिए कभी अच्छी खासी बजट की व्यवस्था नहीं की। इसका दर्द भी पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय के एक खंडपीठ के बयान में उभरा। खंडपीढ़ ने साफ कहा कि कोई भी सरकार नहीं चाहती कि न्यायपालिका मजबूत हो। यह सही है। देश महंगाई और भ्रष्टाचार की आग में जल रहा है। भ्रष्टारियों के मामले में अदालत में लंबित पड़ रहे हैं। हाल ही में केंद्रीय कानून मंत्री वीरप्पा माइली ने भी बयान दिया था कि केंद्र ने न्यायिक सुधार की दिशा में पहल कर दिया है, जिससे मामलों का जल्द निपटारा होगा। कोई भी केस कोर्ट में तीन साल से ज्यादा नहीं चलेगा। भ्रष्टाचार के मामले में एक साल के अंदर न्याय मिलेगा। यदि ऐसा हो जाए तो तो निश्चय ही भ्रष्टाचारियों में खौफ बढ़ेगा। वर्तमान कानून में भ्रष्टाचारियों को कठोर सजा का प्रावधान नहीं है। त्वरित न्याय की दिशा में फास्ट ट्रैक्क अदालतों के गठन हुए थे। इन पर भी धीरे-धीरे मामलों का बोझ बढ़ता गया। न्याय में देरी की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है। मामलों के लंबे खिंचने से उनके हौसले बुलंद है। सरकार बार-बार देश में न्यायायिक सुधार को लेकर अपनी प्रतिबद्धता की बात दोहरा चुकी है। लेकिन सारा का सारा मामला बजट में आकर अटक जाता है। जिसको लेकर कभी देश में गंभीर बहस नहीं हुई। स्वतंत्र कृषि बजट, दलित बजट आदि की तो खूब मांग उठती है, पर अदालत की मजबूती के लिए गंभीर चर्चा नहीं होती है। इस ओर ध्यान उच्चतम न्यायालय के खंडपीठ के दर्द भरे बयान के बाद ही गया।
भारी भरकम बजट देकर यदि सरकार न्यायपालिका को मजबूत कर दे तो देश में कई समस्याओं का समाधान सहज ही हो जाएगा। देशभर के अदालतों के लाखों मामलों में तारिख पर तारिक मिलती जाती है। जनसंख्या और मामलों के अनुपात में देश में अदालतों की संख्या ऊंट के मुंह में जीरा साबित होती रही है। दरअसल मामलों की बढ़ती संख्या और सरकार की उदासिनता के कारण ही न्यायपालिका का आधारभूत ढांचा ही चरमराने लगा है। रिक्त पद व अदालतों की कम संख्या न्यायापालिका की वर्तमान व्यवस्था में निर्धारित अविध में सरकार त्वरित न्याय की गारंटी नहीं दे सकती है। जिन प्रकरणों से मीडिया ने जोरशोर से उठाया वे भी वर्षों तक सुनवाई में झूलती रही है। दूर-दराज में होने वाले अनेक सनसनीखेज प्रकरणों में पीड़ित दशकों से न्याय की आशा लगाये हैं। प्रकरणों के लंबित होने से तो लोगों के जेहन से यह बात ही निकल जाती है कि कभी कोई वैसा प्रकरण भी हुआ था। अनेक लोग तो न्याय की आश लगाये दुनिया से चल बसे। मामला बंद हो गया। कई लोगों को जवानी में लगाई गई गुहार का न्याय बुढ़ापे तक नहीं मिला। लिहाजा, त्वरित न्याय की मांग हमेशा होती रही है।
पिछले दिनों सरकार ने भी त्वरित न्याय आश्वासन तब दिया जब जब देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक आंदोलन की सुगबुगाहट हुई। प्रमुख शहरों में भ्रष्टाचार के खिलाफ रैली निकली, सीबीसी थॉमस को लेकर सरकार कटघरे में आई। आदर्श सोसायटी घोटाले को लेकर हो हल्ला हुआ। काले धन को स्वदेश वापसी को लेकर सरकार की फजीहत हुई। फिलहाल देश की नजरे वर्ल्ड कप क्रिकेट और आने वाले बजट पर टिकी है। बहुत कम लोगों के जेहन में बजट में न्यायपालिका उपेक्षा को लेकर टिस उभर रही होगी। यदि सरकार ने बजट में न्यायपालिका के लिए खजाना खोला तो निश्चय ही न्यायपालिका को मजबूती मिलेगी। लेकिन पिछली सरकार की परंपरा को देखते हुए ऐसा लगता नहीं कि सरकार न्यायापालिका पर मेहरबान होगी। क्योंकि उसे पता है न्यायपालिका की मजबूती सरकार की मनमानी का अंकुश साबित होगा।
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खैराबादी की याद में सिक्का जारी करे सरकार : मिस्बाही

अल्लामा फÞज़ले हक खैराबादी देश के पहले ऐसे मुस्लिम धर्मगुरु थे, जिन्होंने पहली बार देश में अंग्रेजों के खिलाफा फतवा जारी किया था। इनकी याद में सरकार से सिक्का जारी करने की मांग आजमगढ़ के अलजैयातुल अशर्फिया के अल्लामा मुबारक हुसैन मिस्बाही ने की है। वे शुक्रवार को विज्ञान नगर स्थित जमा मस्जिद में बारावफात के मौके पर पत्रकारों से बातचीत कर रहे थे।
उन्होंने बताया कि करीब 150 साल पहले जन्मे फÞज़ले हक खैराबादी ने उस समय अंग्रेजी हुकूमत की दमनकारी नीतियों से देश की रक्षा करने के लिए सभी मुसलमानों को फिरंगी हुकूमत को जड़ से उखाड़ फेंकने के आह्वान के साथ ही अंग्रेजों के खिलाफ फतवा जारी किया था। वतनपरस्ती की भावना फÞज़ले हक खैराबादी में कूट-कूट कर भरी हुई थी। वतन के प्रति प्यार का ये आलम था कि खुद खैराबादी का जीवन भी अंग्रेजों से संघर्ष करने बीत गया। अपनी जिंदगी के आखरी पलों को कालापानी की सजा में काटते हुए भी देशप्रेम की भावना को जिन्दा रखा। जीवन भर उन्होंने लोगों में देश प्रेम के जज्Þबा फूंका मगर आज देश के आज्Þााद होने के बाद ऐसे देशभक्तों को कोई नामोंनिशान बाकी नहीं है। सरकार भी ऐसे विभू्तियों के सम्मान में कुछ नहीं कर रही है। मिस्बाही ने अल्लामा फÞज़ले हक खैराबादी के जीवन और जीवन दर्शन के बारे में चर्चा करतेर हुए कहा कि वे एक सच्चे मुजाहिद थे।

गुरुवार, फ़रवरी 17, 2011

मीडिया में हल्की गरीब की मौत

संजय स्वदेश

शिक्षण नगरी से प्रसिद्ध राजस्थान के कोटा में के आर.के.पुरम क्षेत्र में 15 फरवरी को एक निमार्णाधिन स्कूल में कार्यरत मजदूर की दो साल की बिटिया पर जेसीबी का पहिया चढ़ गया। काम करते वक्त मजदूर ने मासूम को एक किनारे पर सुलाया हुआ था। उस पर शॉल ओढ़ाया हुआ था। जेसीबी पीछे हो रही थी। ड्राइवर ने समझा यू ही शॉल रखा होगा। अनदेखी की। पहिया मासूम के ऊपर चढ़ा। एक करुण चिख निकली। बिटिया सदा के लिए मौत के आगोश में समा गई। इस दर्दनान खबर को सुनकर मन विचलित हो उठा।
अगले दिन इस समाचार को लेकर समाचार पत्रों का विश्लेषण किया। दो प्रमुख हिंदी दैनिक राजस्थान पत्रिका और दैनिक भास्कर में यह समाचार प्रकाशित हुई। लेकिन इन खबरों के प्लेसमेंट पर दूसरी खबरे भारी थी। अजीब ट्रेजड़ी है। हालात की तरह मजदूरों की मौत भी मीडिया के लिए हल्की हो चली है। जबकि ये दोनों समाचारपत्र सप्ताह भर से रात में खुले में खड़ी कार के कांच फोड़ने वाले किसी कत्थित सिरफिरों की खबर बढ़ा-चढ़ा कर प्रकाशित कर रहे थे। जिस दिन यह समाचार प्रकाशित हुई, उस दिन भी कार की कांच फोड़ने की खबर मजदूर की बेटी की दर्दनाक मौत की खबर पर भारी थी।
इस पर एक मित्र से चर्चा की। उन्होंने बड़े ही बेवाकी से कहा कि यदि इस खबर को अखबार में अच्छे से जगह मिल जाती तो क्या होता मजदूर की बिटिया वापस तो नहीं आती। सही है। पर इस इस बहाने से मजदूरों के हित में एक शानदार मुद्दा को ठाया जा सकता था। आपकों याद हो तो बता दे कि समय-समय पर ऐसी खबरे आती है कि सरकार से कहा जाता है कि विदेशों की तरह अपने देश की सरकार भी उन जगहों पर के्रच या पालना घर की व्यवस्था करें, जहां कामकाजी महिलाएं नौकरी करती हैं। पर इस मांग मे कामकाजी महिलाओं के दायरे में मजदूर महिलाएं नहीं आती है। आए दिन इस पर फीचर आलेख आत हैं। पर भी मजदूर महिलाओं के कार्यस्थल पर इस तरह की अल्पकालीन सुरक्षित व्यवस्था चर्चा तक नहीं होती है।
मीडिया में मौत से जुड़ी खबरों को सनसनी बनाकर परोसना नई बात नहीं। किसी अपराधी की हत्या हो या मौत में अवैध यौन संबंध के ट्विीस्ट हो तो फिर क्या कहने। खबरों के खूब फालोअप आते हैं। पर एक बात यह है कि ऐसी खबरों में दोषियों को दंड देने तक ही फालोआप समाचार आते हैं। लेकिन मीडिया की ओर से ऐसे मामलों के तह में जाकर समस्या के स्थायी समाधान के लिए प्रशासन को निंद से जगाने के प्रयास बहुत ही कम दिखते हैं।
कार्यस्थल पर गरीब मजदूर की बिटिया की दर्दनाक मौत केवल राजस्थान के कोटा में नहीं होती है। जहां मजदूर महिलाएं काम करती हैं और उनके मासूम लाड़ले या लाड़ली वहीं खेलते हैं। जहां उन पर जान का खतरा हमेशा मंडराता रहता है। यदा कदा कभी घटनाएं भी होती है तो प्रशासनिक महकमा छोटी-मोटी कार्रवाईयों की खानापूर्ति कर अपनी जिम्मेदारियों का बोझ हल्का कर लेता है। आम दिनों में मीडिया में मजदूरों के महकमें को लेकर कभी संवेदनशीलता दिखती ही नहीं है। अंतरराष्टÑीय महिला दिवस के मौके पर महिला सशक्तिकरण के नाम पर खूब पेज भरे जाते हैं। ऐसे मौके पर ही मिशन पत्रकारिता के नाम पर महिला मजदूरों के चित्र और उनसे बातचीत पर आधारित कोई खबर प्रकाशित होती है। फिर साल भर के लिए मीडिया इन मजदूर महिलाओं से मुंह मोड़ लेती है।
एक प्रिंस बोरवेल में गिरा, मीडिया ने हल्ला किया। युद्ध स्तर पर बचाव कार्य हुये। प्रिंस सैभाग्यशाली था। मीडिया ने उसकी जान बचा ली। उसके बाद भी कई प्रिंस गड्ढÞे में गिरे। पर पहले प्रिंस के समय की तरह मीडिया शोर नहीं मचाता। विशेष मौके पर प्रिंस की घटना में मीडिया की भूमिका की चर्चा कर वाहवाही ले ली जाती है। लेकिन मजदूरों के बच्चों को कार्यस्थल पर सुरक्षित वतावरण पहुंचाने को लेकर महिला हमेशा शांत ही रहा।
सवाल है कि कोई प्रिंस ऐसे गड्डे में फिर न गिरे, किसी मासूम पर जेसीबी चढ़ कर उसे दर्दनाक मौत के आगोश में न भेजे, इसकों लेकर स्थायी समाधान के लिए सरकार को जगाने की जिम्मेदारी किसकी है? मीडिया यह कह कर अपनी जिम्मेदारियों का पल्ला नहीं झाड़ सकती कि है कि उस पर बजार का दवाब है। यह सही है कि बाजार के दवाब में खबरो का चयन आज की मीडिया की मजबूरी हो गई है। लेकिन बाजार के भूखी खबरों के अलावा भी प्रर्याप्त जगह और समय है, जिसमें लाखों के हित की बात बेवाबी से उठाई जा सके। मजदूरों के हीत की बात करने न किसी मीडिया हाऊस के विज्ञापन बंद होंगे और न ही किसी का दामन दागदार होगा। मजदूरों के हीत के मुद्दे उलूल-जूलूल की खबरों से निश्चय ही गंभीर होंगे। बस इनके मुद्दों को गंभीरता से देखने-समझने की जरुरत भर है।

गुरुवार, फ़रवरी 10, 2011

तो थोड़ा सुकून मिलेगा

खबर है कि मोबाइल पर बात करना महंगा हो सकता है....
जब से मोबाइल पर बातचीत की दर सस्ती हुई है। जिंदगी तेज हो गई है। लोगों को सुकून छिन गया है। अचानक मोबाइल की घंटी दो पल के सुकून में खलल डाल देती है। जब कॉल महत्वपूर्ण और अनावश्यक या सामान्य होता है, तो झुंझलाहट होती है।
क्या यह संभव है कि कॉल दर महंगा होने से आनावश्यक कॉल में कमी आएगी और लोगों को थोड़ा सुकून मिलेगा।

मंगलवार, फ़रवरी 08, 2011

अन्नदाता का ादाता अर्थशास्त्र

अन्नदाता का ादाता अर्थशास्त्र

खेती-किसानी की दुर्दशा ने छोटे किसानों तक को खेती का अर्थशास्त्र समङाा दिया है। आ वह जमाना नहीं रहा, जा किसानों के दरवाजे पर ौाो की जोड़ी जुगााी करती नजर आती थी। ौा की जोड़ी रखना मताा कुछ महीने के काम के एवज में साा भर उन्हें भरपूर भोजन देना। जुताई का यह सौदा किसानों के ािए भारी पड़ चुका है। ौाजोड़ी साा में सिर्फ ६० दिन भी जुताई के काम में नहीं आ रहे हैं। जाकि उसके भरण-पोषण पर साा भर में हजारों रुपए खर्च हो जाता है। पहो ौागाड़ी का उपयोग ज्यादा था, तो यातायात के साधन या वस्तुओं को ढोने का उपयोग करने में होने वााी आमदनी से ौाों के खिााने का खर्च निकाा आता था। किसानों को भी कुछ रुपये ाच जाते थे। ोकिन आ ौागाड़ी का उपयोग कही-कहीं ही नजर आता है। ािहाजा, अधिकर किसानों ने ौाों से मुंह मोड़ ािया। उन्होंने ौा की जगह गाय, भैंस पााना शुरू कर दिया है। गाय, भैंस किसान को साा में करीा ३०० दिन दूध देती है। इसके ााान-पाान पर होने वाा इसके दूध से पूरा होने के ााद किसानों को कुछ ाचत भी हो जाती है। होशियार छोटे किसानों खेतों में जुताई के समय दो-तीन दिन के ािए ट्रैक्टर किराये से ोते हैं। सााभर ौाजोड़ी को पााने की ाजाय यह दो दिन का ट्रैक्टर किराये पर ोना फायदेमंद सााित हुआ है। इसका एक ााभ यह भी देखने को मिाा है कि कई छोटे किसान तो ऐसे हैं, जो खुद खेती नहीं करते हैं, खेती को किराये (ाीज) पर छोड़ देते हैं और खुद नरेगा में मजदूरी करते हैं। इसके साथ ही जिन किसानों के पास ट्रैक्टर है, वे खुद के खेतों में जुताई करते ही हैं और दूसरों की खेती का भी ऑर्डर ोते हैं। ऐसे किसानों का अर्थशास्त्र ादाने ागा है। फिाहाा किसानों का यह अर्थशास्त्र उत्तर भारत में ज्यादा देखने का मिा सकता है। अनेक संगठन और कार्यकर्ता खेतों में ौाों के उपयोग नहीं करने का विरोध कर रहे हैं। ोकिन किसानों ने ट्रैक्टर और ौाों के उपयोग के ााभ-हानि को समङा ािया है। इस अर्थशास्त्र को देशभर के किसानों को भी समङााने की जरुरत है। महाराष्ट्र में विदर्भ किसान आत्महत्या को ोकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में रहा है। ोकिन अभी भी यहां किसानों का ौाों के प्रति मोह नहीं छूटा है। यहीं कारण है कि जा गर्मी के दिनोंं में विदर्भ में सूखा पड़ता है तो चारे का संकट गंभीर हो जाता है। हजारों ौाों को कसाई सस्ते में खरीद ोते हैं। खेती में उपयोग होने वाो ौंा ाूचड़खाने में चो जाते हैं। हााांकि विदर्भ में भी धीरे-धीरे किसान गाय और भैंसों का ााभ समङाने ागे हैं। ोकिन अभी भी ाड़े पैमाने पर गाय का पाान नहीं हो पा रहा है।
महंगाई में ौाों का महत्व
किसानों को तकनीक अधारित खेती कराई जाए। वे ट्रैक्टर का उपयोग करे, ोकिन इसका मताा यह नहीं ौाों उपेक्षा की जाए। गुजरे ज्+ामाने में जा ट्रैक्टर नहीं थे, तो ौाों ने ही अपने खेती का भारी ाोङा उठाने में किसानों का कदम से कदम मिााकर साथ दिया है। भो ही आज यातायात के नये और तेज साधन विकसित हो चुके हों, ोकिन पेट्रोाियम पदार्थों में ागी महंगाई की आग में छोटी दूरी के यातायात में ौागाड़ी के उपयोग को फिर से सुगम किया जा सकता है। इससे न केवा ौा ाूचड़खाने जाने से ाचेंगे, ाकि ोकार हो रहे किसानों की ौा जोड़ी कमाई में ाग जाएगा। वे किसानों को आमदनी कराने के आर्थिक रूप से संाा का कार्य कर सकते हैं। हााांकि उत्तर भारत में किसानों ने ाड़ी तेजी से ट्रैक्टर का उपयोग अपनाया है। ोकिन पेट्रोाियम पदार्थों की ाढ़ी हुई किमतों के कारण आ छोटे किसानों के ािए टै्रक्टर किराये से ोना महंगा पडऩे ागा है। महंगाई की इस मार को देखते हुए आ यह जरूरी हो गया है कि किसान खेती की अर्थशास्त्र में आ गाय-भैंसों के साथ ौाों को फिर से शामिा करें। ोकिन इसके ािए उन ाोगों का सहयोग अपेक्षित है जो छोटी दूरी की समान ढुााई में वाहनों का प्रयोग करते हैं। वे तेज गति की ााचा छोड़ यदि ौागाड़ी को ही तरहजीह देने ागे तो इससे न केवा किसानों के दिन फिरेंगे, ाकि ौा भी ाूचड़खाने में जोन से ाचेंगे।
हर राज्य में स्वतंत्र कृषि अभियांत्रिकी विभाग जरूरी
वर्षों से चाी आ रही है राज्य और केंद्र सरकार की कृषि ईकाइ किसानों को ाहुत ज्यादा भाा नहीं कर पाई। इसािए हर राज्य में आधुनिक और हानि रहीत खेती को प्रोत्सहन के ािए हर राज्य में स्वतंत्र कृषि अभियांत्रिकी विभाग का गठन जरूर हो गया है। जो समय-समय किसानों को खेती से संांधित जानकारी उपाध कराये। मौसम की वैज्ञानिकता को ाताये। जिससे कि किसान मानसून पूर्व ाारिश को मानसून का पानी समङा कर ङाांसे में न आये। उसे सटीम जानकारी मिो। हााांकि तमिानाडु सरकार ने स्वतंत्र रूप से कृषि अभियांत्रिकी विभाग का गठन किया है। इसके परिणाम भी अच्छे आए हैं। इससे किसानों को ााभ मिाा है। मध्यप्रदेश, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश में भी इसे स्वतंत्र विभाग ानाने की कवायद चा रही है। यदि हर राज्य इस तरह का स्वतंत्र विभाग गठित करें, तो किसानों का अर्थशात्र और मजाूत होगा। -संजय स्वदेश