गुरुवार, फ़रवरी 17, 2011

मीडिया में हल्की गरीब की मौत

संजय स्वदेश

शिक्षण नगरी से प्रसिद्ध राजस्थान के कोटा में के आर.के.पुरम क्षेत्र में 15 फरवरी को एक निमार्णाधिन स्कूल में कार्यरत मजदूर की दो साल की बिटिया पर जेसीबी का पहिया चढ़ गया। काम करते वक्त मजदूर ने मासूम को एक किनारे पर सुलाया हुआ था। उस पर शॉल ओढ़ाया हुआ था। जेसीबी पीछे हो रही थी। ड्राइवर ने समझा यू ही शॉल रखा होगा। अनदेखी की। पहिया मासूम के ऊपर चढ़ा। एक करुण चिख निकली। बिटिया सदा के लिए मौत के आगोश में समा गई। इस दर्दनान खबर को सुनकर मन विचलित हो उठा।
अगले दिन इस समाचार को लेकर समाचार पत्रों का विश्लेषण किया। दो प्रमुख हिंदी दैनिक राजस्थान पत्रिका और दैनिक भास्कर में यह समाचार प्रकाशित हुई। लेकिन इन खबरों के प्लेसमेंट पर दूसरी खबरे भारी थी। अजीब ट्रेजड़ी है। हालात की तरह मजदूरों की मौत भी मीडिया के लिए हल्की हो चली है। जबकि ये दोनों समाचारपत्र सप्ताह भर से रात में खुले में खड़ी कार के कांच फोड़ने वाले किसी कत्थित सिरफिरों की खबर बढ़ा-चढ़ा कर प्रकाशित कर रहे थे। जिस दिन यह समाचार प्रकाशित हुई, उस दिन भी कार की कांच फोड़ने की खबर मजदूर की बेटी की दर्दनाक मौत की खबर पर भारी थी।
इस पर एक मित्र से चर्चा की। उन्होंने बड़े ही बेवाकी से कहा कि यदि इस खबर को अखबार में अच्छे से जगह मिल जाती तो क्या होता मजदूर की बिटिया वापस तो नहीं आती। सही है। पर इस इस बहाने से मजदूरों के हित में एक शानदार मुद्दा को ठाया जा सकता था। आपकों याद हो तो बता दे कि समय-समय पर ऐसी खबरे आती है कि सरकार से कहा जाता है कि विदेशों की तरह अपने देश की सरकार भी उन जगहों पर के्रच या पालना घर की व्यवस्था करें, जहां कामकाजी महिलाएं नौकरी करती हैं। पर इस मांग मे कामकाजी महिलाओं के दायरे में मजदूर महिलाएं नहीं आती है। आए दिन इस पर फीचर आलेख आत हैं। पर भी मजदूर महिलाओं के कार्यस्थल पर इस तरह की अल्पकालीन सुरक्षित व्यवस्था चर्चा तक नहीं होती है।
मीडिया में मौत से जुड़ी खबरों को सनसनी बनाकर परोसना नई बात नहीं। किसी अपराधी की हत्या हो या मौत में अवैध यौन संबंध के ट्विीस्ट हो तो फिर क्या कहने। खबरों के खूब फालोअप आते हैं। पर एक बात यह है कि ऐसी खबरों में दोषियों को दंड देने तक ही फालोआप समाचार आते हैं। लेकिन मीडिया की ओर से ऐसे मामलों के तह में जाकर समस्या के स्थायी समाधान के लिए प्रशासन को निंद से जगाने के प्रयास बहुत ही कम दिखते हैं।
कार्यस्थल पर गरीब मजदूर की बिटिया की दर्दनाक मौत केवल राजस्थान के कोटा में नहीं होती है। जहां मजदूर महिलाएं काम करती हैं और उनके मासूम लाड़ले या लाड़ली वहीं खेलते हैं। जहां उन पर जान का खतरा हमेशा मंडराता रहता है। यदा कदा कभी घटनाएं भी होती है तो प्रशासनिक महकमा छोटी-मोटी कार्रवाईयों की खानापूर्ति कर अपनी जिम्मेदारियों का बोझ हल्का कर लेता है। आम दिनों में मीडिया में मजदूरों के महकमें को लेकर कभी संवेदनशीलता दिखती ही नहीं है। अंतरराष्टÑीय महिला दिवस के मौके पर महिला सशक्तिकरण के नाम पर खूब पेज भरे जाते हैं। ऐसे मौके पर ही मिशन पत्रकारिता के नाम पर महिला मजदूरों के चित्र और उनसे बातचीत पर आधारित कोई खबर प्रकाशित होती है। फिर साल भर के लिए मीडिया इन मजदूर महिलाओं से मुंह मोड़ लेती है।
एक प्रिंस बोरवेल में गिरा, मीडिया ने हल्ला किया। युद्ध स्तर पर बचाव कार्य हुये। प्रिंस सैभाग्यशाली था। मीडिया ने उसकी जान बचा ली। उसके बाद भी कई प्रिंस गड्ढÞे में गिरे। पर पहले प्रिंस के समय की तरह मीडिया शोर नहीं मचाता। विशेष मौके पर प्रिंस की घटना में मीडिया की भूमिका की चर्चा कर वाहवाही ले ली जाती है। लेकिन मजदूरों के बच्चों को कार्यस्थल पर सुरक्षित वतावरण पहुंचाने को लेकर महिला हमेशा शांत ही रहा।
सवाल है कि कोई प्रिंस ऐसे गड्डे में फिर न गिरे, किसी मासूम पर जेसीबी चढ़ कर उसे दर्दनाक मौत के आगोश में न भेजे, इसकों लेकर स्थायी समाधान के लिए सरकार को जगाने की जिम्मेदारी किसकी है? मीडिया यह कह कर अपनी जिम्मेदारियों का पल्ला नहीं झाड़ सकती कि है कि उस पर बजार का दवाब है। यह सही है कि बाजार के दवाब में खबरो का चयन आज की मीडिया की मजबूरी हो गई है। लेकिन बाजार के भूखी खबरों के अलावा भी प्रर्याप्त जगह और समय है, जिसमें लाखों के हित की बात बेवाबी से उठाई जा सके। मजदूरों के हीत की बात करने न किसी मीडिया हाऊस के विज्ञापन बंद होंगे और न ही किसी का दामन दागदार होगा। मजदूरों के हीत के मुद्दे उलूल-जूलूल की खबरों से निश्चय ही गंभीर होंगे। बस इनके मुद्दों को गंभीरता से देखने-समझने की जरुरत भर है।

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