मंगलवार, जनवरी 03, 2012

एक दिन संपादकीय प्रकाशित नहीं होने से क्या होता

संजय स्वदेश मणिपुर में उग्रवादियों से मिल रही लगातार धमकियों के विरोध में मंगलवार, 3 जनवरी को वहां के अखबारों में संपादकीय प्रकाशित नहीं हुए। आॅल मणिपुर वर्किंग जर्नलिस्ट्स यूनियन के एक प्रवक्ता ने बताया कि विभिन्न गुटों के उग्रवादी अखबारों पर आरोप लगाते हैं कि वे उनके बयानों को जगह नहीं देते हुए उनके विरोधियों से जुड़ी बातों को प्रकाशित करते हैं और इसके लिए ये गुट स्थानीय अखबारों को धमकियां देते हैं।
ऐसी ही एक घटना के तहत एक उग्रवादी गुट ने 2 जनवरी को एक लोकप्रिय दैनिक के परिसर में एक शक्तिशाली ग्रेनेड फेंका था, जिसके साथ एक पत्र भी था। इस पत्र के मुताबिक कि संपादक, यह अंतिम चेतावनी है, अगली बार ग्रेनेड फट जाएगा। प्रवक्ता ने कहा कि यूनियन ने सरकार से मीडिया संस्थानों को उचित सुरक्षा देने को कहा, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई।
इस खबर को पढ़ कर मुझे आश्चर्य हुआ। जिन अलगावादियों के संरक्षण में राष्टÑीय स्तर की मुख्यधारा की खबरे दबा देने वाले मणिपुर के पत्रकारों को जब अपने ऊपर बात आई तो सरकार संरक्षण मांग रहे हैं। केंद्र सरकार से सुरक्षा की गुहार लगा रहे हैं। जबकि हकीकत यह है कि मणिपुर के अधिकतर पत्र किसी न किसी अलगावादी गुटों के संरक्षण में हैं। अखबार संरक्षण पाने वाले अलगावादी गुट के प्रतिस्पर्धी की नकारात्मक खबरें ज्यादा प्रकाशित करता है तो टकराव होना स्वाभाविक है। खूंखार लोगों से दोस्ती में भला प्रेम की नसीहत कहां मिलती है।
वे शांतिपूर्ण विरोध की करना कहां जानते हैं, वे तो सीधे ग्रेनेड फेंक कर अपनी आवाज सुनाना चाहते हैं। यह घटना अखबारों को संरक्षण देने वाले अलगावादी गुटों की आपसी लड़ाई की एक छोटा का उदहारण भर है।
मणिपुर का चौथा खंभा लोकतंत्र का नहीं, अलगावादियों का पाया बना हुआ है। अब एक अलगावादी गुट दूसरे के पाये को तोड़ कर अपना बर्चस्व दिखाना चाहते हैं।
वर्ष 2009 के उतराद्ध में करीब एक सप्ताह मणिपुर प्रवास पर रहा। स्टॉल पर जो भी अखबार मिले, सब खरीद कर गहनता से पढ़ा। अधिकतर अखबार अंग्रेजी के थे, एक दो असमी और बांग्लाभाषा के मिले जिनके संस्करण बाहर से आए थे। वहां से हिंदी का एक भी पत्र प्रकाशित नहीं हो रहा है। कभी-कभार किसी ब्लॉग पर यह चर्चा होती है कि मणिपुर में हिंदी की पत्रिका निकलती है, पर मुझे मणिपुर में कोई पत्र मिला न पत्रिका मिली। संभव है किसी संस्थान का विभाग हिंदी में पत्रिका निकाल कर पूरे मणिपुर स्तर का होने का शाबासी पाता हो। यहां तक की केबल पर हिंदी चैनल नहीं दिखते हैं। डिश टीवी से दिखते हैं, पर डिश टीवी वाले उपभोक्ताओं की संख्या नागण्य हैं।
मणिपुर के अखबारों में बड़ी खबरे चीन से ज्यादा प्रभावित दिखी। इसके दो कारण हो सकते हैं, या तो वहां के पाठक चीन के खबरों में रुचि रखते है या फिर अखबार जानबूझ कर चीन बातों को मणिपुर के लोगों तक पहुंचा रहे हैं, जिससे कि उनकी मनोदशा पूरी तरह चीन के अनुकूल बनी रहे। खुफिया विभाग कह ही चुका है कि मणिपुर समेत पूर्वोत्तर भारत के अलगावादियों को खूब संरक्षण दे रहा है।
यदि आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि पूर्वोत्तर से बाहर के अखबरों में मणिपुर की जितनी भी खबरें आती हैं, वे अधिकतर सैन्य गतिविधियों की होती है या फिर किसी न किसी तरह से केंद्र सरकार के उपेक्षित व्यवहार का उजागर करने वाली वाली रहती है। जो पत्रकारबंधु किसी समाचार पत्र में किसी एजेंसी की खबरें प्रतिदिन देखते होंगे तो निश्चय ही उन्हें इस बात का आभास होगा कि जिस तरह से गैर-हिंदीभाषी क्षेत्र असम, कोलकाता अथावा उत्तर भारत से जम्मू-कश्मीर, पंजाब आदि की खबरें आती है,कभी भी मणिपुर या पूर्वोत्तर राज्यों की खबरें नहीं आती है। घटनापरक या आयोजन की खबरें तो मिलेगी, पर व्यवस्था की हकीकत रू-ब-रू कराने वाली मणिपुर की खबर कभी नहीं आती है?
दरअसल मणिपुर के अखबार ही नहीं चाहते हैं कि उनकी धरती के लोग राष्टÑ की मुख्यधारा की खबरे पढ़ें। यदि उनकी ऐसी मंसा नहीं होती तो मणिपुर के अखबारों में ऐसी खबरें गायब नहीं रहती। राष्टÑ की मुख्यधारा तो छोड़िये राज्य सरकार पूरी तरह से अलगावादियों के सामने पंगु है। सप्ताह भर मणिपुर प्रवास में कभी ऐसी खबर नहीं मिली कि जो जनहित से जुड़ी और विकास के लिए सरकार को प्रेरित करती हो। जिन खुंखार अलगावादियों को मणिपुरी पत्रकारों ने अपनी कलम की धार से डराया नहीं, अब वे उन पर ही ग्रनेड फेंके तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इसके विरोध में यदि पूरे अखबर एक दिन संपादकीय नहीं लिखते हैं तो इससे अलगावादियों हृदय नहीं पसीजने वाला है। उनका एकमात्र मकसद है पूर्वोत्तर की स्वायत्ता।