मंगलवार, जुलाई 29, 2014

सजा के खौफ का सामाजिक संक्रमण

तेजाब हमले में एक साल के अंदर फांसी -संजय स्वदेश
1979-80 में भगलपुर जेल में कैदियों की आंख में तेजाब डाल कर अंधा करने का आंखफोड़वा प्रकरण हुआ। जेल की चाहरदिवारी की यह कू्रर घटना मीडिया माध्यम से समाज तक पहुंची। देश में किसी महिला पर तेजाब फेंकने का पहला मामला 1982 में आया। तकनीक के युग में मीडिया मजबूत हुआ तो दूर दराज की तेजाब हमले की घटनाएं भी सामने आने लगी हैं। खबरों से अपराधी अपराध के तरीके जानने लगे हैं। बदायूं कांड़ के बाद कई महिलाओं के शव हत्या के बाद पेड़ से लटकाएं गये। शायद अपराधियों में सजा के खौफ का सामाजिक संक्रमण की किसी पर तेजाब फेंकने के कू्रर कर्म से रोक सकें।
बीते 25 जुलाई को मध्य प्रदेश के मुरैना जिले की अंबाह तहसील की एक अदालत ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया। एक साल पहले तेजाब डालकर अपनी शादीशुदा कथित प्रेमिका की हत्या करने के मामले में एक युवक को फांसी की सजा सुनाई। फांसी की सजा देते वक्त कोर्ट ने यह टिप्पणी भी की कि इस अपराध के लिए आजीवन कारावास की सजा पर्याप्त नहीं है, इसलिए मृत्युदंड दिया जाता है। इससे मृतक के परिजनों के साथ-साथ समाज की आत्मा भी आहत हुई है। देश में संभवत: यह पहला मामला है, जब किसी व्यक्ति पर तेजाब फेंकने वाले अपराधी को फांसी की सजा कोर्ट ने सुनाई है। इसी दिन सुप्रीम कोर्ट ने तेजाब के हमलों, विशेषकर ठुकराये हुये प्रेमियों द्वारा किये जा रहे ऐसे हमले की बढ़ती घटनाओं पर चिंता व्यक्त करते हुये कहा कि स्थिति दयनीय है। सुप्रीम कोर्ट ने इस समस्या से निबटने के प्रति केंद्र सरकार की सुस्ती पर सवाल उठाया। यह पहला ऐसा मामला नहीं है, जिसमें कोर्ट ने सरकार की उदासीनता पर निशाना साधते हुए उसे कटघरें में खड़ा किया हो। चाहे फटकार जितनी भी पड़े, सरकार की सुस्ती उसी बेरहमी से बनी रही है, जिस बेरहमी कोई अपराधी किसी मासूम के चेहरे पर तेजाब फेंक का उसकी जिदंगी नरक बना देता है। कोर्ट ने इसी दिन तेजाब हमलों की पीड़ितों के पुनर्वास की नीति तैयार करने का भी निर्देश दिया। यह भी कोई पहला निर्देश नहीं है। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने इसी साल 31 मार्च तक तेजाब की खरीद-बिक्री और दूसरे विषाक्त पदार्थों के दुरुपयोग की रोकथाम के लिए राज्य सरकारों को नियम बनाने का निर्देश दिया था। अक्सर कोर्ट के ऐसे आदेश-निर्देश और टिका-टिप्पणी संबंधित प्रकरणों के तारीख वाले दिन के अगले दिन अखबारों में होते हैं। फिर न इस पर कोई चर्चा करता है और न ही कोई पीड़िता की सुध लेता है। पीड़िता की हर दिन की जिंदगी असमान्य अवस्था में कटती है। जो निराश हो चुकी हैं, वे मौत का इंतजार कर रही हैं। जिन्हें अपराधियों को सजा दिलाने का हौसला है, वे आत्मविश्वास से लवरेज होकर बेरहम समाज में अपनी लड़ाई लड़ रही है। ऐसी पीड़िताओं में लक्ष्मी मिशाल है। उसे हर संवेदनशील सैल्यूट करता है। देश के हर राज्य में तेजाबी हमले कई दर्दनाक कहानियों के उदाहरण हैं। विभिन्न रिपोर्ट के अनुसार ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि हर साल देश में करीब एक हजार मासूम तेजाब हमले की शिकार हो रही हैं। लेकिन सरकारी आंकड़ों में यह महज सौ, सवा सौ की होता है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो से ऐसे मामलों का स्पष्ट आंकड़ा नहीं मिल पाता क्योंकि तेजाब हमले का अधिकतर मामला आईपीसी की धारा 307 (हत्या का प्रयास), धारा 320 (गम्भीर चोट पहुंचाना) और धारा 326 (घातक हथियारों से जान-बूझकर प्रहार करके चोट पहुंचाने) के तहत दर्ज किए जाते हैं। लिहाजा, तेजाब हमले के सही आंकड़ें सामने नहीं आ पाते हैं। इसे घटनाओं के खिलाफ लड़ने वाले विभिन्न स्वयंसेवी संगठन उन्हीं घटनाओं का ब्यौरा जुटा पाते हैं, जो किसी तरह मीडिया में आ जाए। देश के दूर दराज में होने वाली ऐसी घटनाएं वहीं तक रह जाती है। हालांकि आजकल मीडिया की सक्रियता के चलते ऐसे मामले राष्टÑीय स्तर की मीडियों की सुर्खियों में आने लगे हैं। लेकिन इस कू्ररता को अंजाम देने वाले अपराधियों के दिन में खौफ नहीं बैठ पा रहा है। आजाद भारत की आजादी का वर्षगांठ की 66वीं सालगिरह सामने हैं। गैर कीजिए, गुलाम भारत और आजादी भारत के अगले तीन दशक में तेजाब फेंकने की बेरहम प्रकरण सामने आने का उल्लेख नहीं मिलता है। गूगल में एशिड फैक्ट्री खोजो तो हिंदी फिल्म की कहानी मिलती है। बताया जाता है कि भारत में किसी महिला पर 1982 में भारत में तेजाब हमले का पहला मामला प्रकाश में आया था। 1979-80 में भगलपुर जेल में कैदियों की आंख में तेजाब डाल कर अंधा करने का आंखफोड़वा प्रकरण हुआ। जेल की चाहरदिवारी की यह कू्रर घटना मीडिया माध्यम से समाज तक पहुंची। संभवत समाज के कुठितज मन वाले अपराधियों ने जान लिया कि बदला लेने का यह भी एक तरीका हो सकता है। अस्सी के दशक देश का वह दौर था जब एक एक नया भारत करवट ले रहा था, धीरे-धीरे विकास की ओर अग्रसर, देश-दुनिया से कदमताल करने की बेताबी के साथ। तब स्वर्णकार तेजाब का उपयोग करते थे। मतलब तेजाब के उपभोक्ताओं का वर्ग एक ही था। धीरे-धीरे देश में वाहन चले। उसमें लगने वाली बैट्री के लिए तेजाब की खपत बढ़ी। उत्पादन भी बढ़ा। लिहाजा, विकास की गति के साथ-साथ जैसे-जैसे तेजाब सर्व सुलभ होते गया, समाज में क्रूरतम सोच रखने वाले इसे अपना हथियार बनाना शुरू किया। यह भी गौर की बात है कि जैसे-जैसे देश ने विकास किया, देश में तेजाब हमले की घटनाएं बढ़ी। तकनीक के युग में मीडिया मजबूत हुआ तो दूर दराज की तेजाब हमले की घटनाएं भी सामने आने लगी हैं। समाज का संवेदनशील तबका इन खबरों से चिंता जताने लगा है। इसके अपराधियों को कठोर सजा के लिए एकजुट स्वर भी उठने लगे हैं। लेकिन कुंठित और कू्रर मानसिकता वाला मन कहां बदल रहा है? वे खबरों से ऐसे अपराध के तरीके जानने लगे हैं। हाल ही में उत्तर प्रदेश के बदायूं कांड को देंखे। दुष्कर्म के बाद हत्या कर शव को पेड़ पर लटकाने की घटना जैसे सुर्खियों में आर्इं, देश के दूसरे हिस्सों में एक के बाद इसी तरह की कई घटनाएं हुर्इं, जिसमें हत्या के बाद शव को पेड़ से लटका दिया गया। एक स्थान के अपराधी के अपराध के तरीके पढ़ कर दूसरे क्षेत्र के अपराधी उससे पे्ररित हो रहे हैं। मतलब यह बीमारी और कू्रर मानसिक का समाजिक सक्रमण है। अपराधियों में कानून की लंबी प्रक्रिया और बच कर निकलने की पूरी संभावना के कारण सजा का खौफ नहीं पल रहा है। मुरैना जिले की अंबाह तहसील कोर्ट ने घटना के एक साल के अंदर फैसला सुना कर भले ही सराहनीय कार्य किया हो, लेकिन दूसरे की जिंदगी नरक बना कर अपनी जिंदगी बचाने के लिए ये अपराधी शीर्ष कोर्ट तक न जाने कितने साल खुली हवा में मौज की सांस लेते रहेंगे और पीड़िता हर दिन नरक भोगती रहेगी। मध्यप्रदेश में 25 जुलाई को निचली अदालत ने तेजाब हमले के दोषी को फांसी की सजा सुनाई और इसके चौथे दिन 28 जुलाई को पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के आरामबाग इलाके में चार लोगों ने एक कॉलेज छात्रा के उपर तेजाब का हमला कर भाग गए। शायद अपराधियों में सजा के खौफ का सामाजिक संक्रमण की किसी पर तेजाब फेंकने के कूृ्रर कर्म से रोक सकें।

मंगलवार, जुलाई 01, 2014

असाढ़ में सूखा : का बरखा जब कृषि सुखानी

-------------------------------------------- यह पहला ऐसा मौका नहीं है जब मानसून ने दगाबाजी की हो। आजाद भारत में दर्जनों बार सूखा पड़ा। लेकिन इससे न कोई सबक लिया गया और न ही इससे निपटने कोई ठोस और सार्थक तैयारी ने मूर्त रूप लिया। मौसम विभाग इस बात का आश्वासन दे रहा है कि जून में हुई बारिश की कमी की भरपाई अगस्त में हो जाएगी। लेकिन अगस्त तक ऐसी राहत रामचरितमानस की पंक्ति-का बरखा जब कृषि सुखानी को चरितार्थ करती है। ----------------------------------------- संजय स्वदेश असाढ़ के दिनों में झमाझम बारिश से तरबतर होते जनजीवन के दृश्यों से साहित्य संसार समृद्ध है। लेकिन व्यवहारिक धरातल पर 21वीं सदी के असाढ़ का मूड़ कुछ अलग है। बीते जून में शेयर बाजार का सूचकांक कुलांचे भरता रहा। इसी महीने के अंतिम दिनों में असम भीषण बारिश के बाद बाढ़ से कराह उठा। लगातार बारिश और बाढ़ से करीब दजर्न भर लोग अकाल काल के ग्रास बन गए। वहीं देश का पश्चिमी हिस्सा आधा असाढ़ गुजरने के बाद भी बारिश की बाट जोह रहा है। मानसून दगा दे गया। जिस आषाड़ में जब तक देश को तरबतर हो जाना चाहिए था, वहां इंद्रदेव के मेघों ने आधी मेहरबानी भी नहीं दिखाई। मानसून के शुरुआती बौछार से अन्नदाता किसान के चेहरे की रौनक बढ़ा दी थी। उम्मीद में किसानों ने खोतों की निराई, बुआई भी कर दी। लेकिन अब पश्चिमी भारत के करीब बीस लाख किसान बारिश की बाट जोहते हुए भविष्य की चिंता में डूब गए हैं। फसल तैयार होने से पहले बीज धरती के गर्भ में ही चौपट हो रही है। इधर केंद्र सरकार ने भी यह घोषणा कर दी कि देश के कुछ हिस्सों में इस बार सूखा पड़ सकता है। महंगाई की मार झेल रही जनता को सरकार ने अगाह कर दिया कि हमे सूखे को लेकर तैयार रहना चाहिए। संयुक्त राष्टÑ नेशनल ओसियनिक एंड एटमोस्फोरिक एडमिनिस्ट्रेशन के आंकड़ों के अनुसार इस वर्ष मई माह इतिहास में सबसे गर्म रहा है। धरती तपती रही। धरती और समुद्र का औसत तापमान 0.74 सेल्सियस अधिक रहा। 20वीं सदी में यह तापमान औसतन 14.8 सेल्सियस रिकॉर्ड किया गया था। इस भीषण गर्मी के बाद मानसून से राहत की उम्मीद थी। लेकिन जून महीने में बारिश के आंकड़ों पर नजर डाले तो पता चलता है कि जून माह में 100 मिमी से कम बारिश केवल दो साल हुई है, लेकिन वह भी इस वर्ष के आंकड़े 43.4 मिमी से अधिक ही रही। 2009 में जून माह में 85.7 मिमी और 1926 में 97.2 मिमी बारिश हुई थी। पिछली सदी में जून माह में सबसे कम बारिश 1905 में हुई थी, जो महज 88.7 मिमी रही थी। कुल मिलाकर अब तक करीब सामान्य से 45 फीसदी कम बारिश हुई है। यह पहला ऐसा मौका नहीं है जब मानसून ने दगाबाजी की हो। आजाद भारत में दर्जनों बार सूखा पड़ा। लेकिन इससे न कोई सबक लिया गया और न ही इससे निपटने कोई ठोस और सार्थक तैयारी ने मूर्त रूप लिया। बड़े-बड़े डैम बने तो उसके दरवाजे तब खुलते हैं, जब पानी की जरूरत नहीं होती है। महाराष्टÑ में हजारों एकड़ जमीन में कपास, सोयाबीन और दूसरी फसलें बो चुके किसान वर्षा के अभाव में नुकसान को लेकर डरे हुए हैं। किसानों ने मानसून की आहट से ही जून महीने की शुरुआत में बुआई के साथ ही उर्वरक और कीटनाशकों का भी खेतों में छिड़काव कर दिया था। अनेक किसानों ने यह कार्य भारी भरकम कर्ज लेकर किया है। अब उनके आंखों के सामने फसल चौपट होने के साथ कर्ज में डूबने का अंधकारमय भविष्य नजर आने लगा है। हालांकि मौसम विभाग इस बात का आश्वासन दे रहा है कि जून में हुई बारिश की कमी की भरपाई अगस्त में हो जाएगी। लेकिन अगस्त तक ऐसी राहत रामचरितमानस की पंक्ति-का बरखा जब कृषि सुखानी को चरितार्थ करती है।