tag:blogger.com,1999:blog-27020781402094405532024-02-19T08:07:50.042+05:00कालचक्रसंजय स्वदेश,
पत्रकारिता के साथ जनसरोकारों में सक्रिय भागीदारीसंजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.comBlogger476125tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-54073535205684772202020-01-31T11:09:00.001+05:002020-01-31T11:15:19.358+05:00उसका, इसका,किसका मीडिया<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjtofKl2nmYHECOVzT-nGmA8IRV-9c0uajIDSdOUFJ2C68am5dFvY_Mur7xcGQCatQPpgCwR3fkSEDr5LKXatFnektYvLz3dyhk6KavK1r-gID_fWOoQ6HwOG9_p2qtbtpZRQISnEAUFLM/s1600/newspapers-by-babasaheb-ambedkar.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjtofKl2nmYHECOVzT-nGmA8IRV-9c0uajIDSdOUFJ2C68am5dFvY_Mur7xcGQCatQPpgCwR3fkSEDr5LKXatFnektYvLz3dyhk6KavK1r-gID_fWOoQ6HwOG9_p2qtbtpZRQISnEAUFLM/s320/newspapers-by-babasaheb-ambedkar.jpg" width="320" height="180" data-original-width="768" data-original-height="431" /></a></div><b>बाबा साहब भीम राव अंबेडकर की प्रकाशित मूकनायक पत्र की 100वीं साल गिरह पर
भारतीय मीडिया की अंबेडकरी परंपरा की राह
संजय स्वदेश
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बाबा साहब भीम राव अंबेडकर ने 31 जनवरी 1920 को मराठी पाक्षिक ‘मूकनायक’ का प्रकाशन प्रारंभ किया था.</b> सौ साल पहले पत्रकारिता पर अंग्रेजी हुकूमत का दबाव था. दबाव से कई चीजे प्रभावित होती थी. सत्ता के खिलाफ बगावत के सूर शब्दों से भी फूटते थे. आजाद भारत में यह दबाव धीरे धीरे मार्केट ने ले लिया. मार्केट का प्रभाव अप्रत्यक्ष ज्यादा है. इस प्रभाव को समझने के बाद बदलाव की बारीकियां समझी जा सकती हैं. यह कोई नई बात नहीं है कि आज जर्नलिज्म में मार्केट के दबाव के कारण अनेक कंटेन्ट प्रभावित होने लगे हैं. यह चर्चा नई नहीं है कि इस मार्केट को नियंत्रित करने वाले कौन हैं, उनका मकसद क्या है, यह समझ कर ही हम पत्रकारिता के सरोकारों की बात कर सकते हैं. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जहां पब्लिक है, वहीं मीडिया है. और जहां मीडिया है, वही मार्केट है.
<b>मतलब साफ </b>है कि पब्लिक मूवमेंट ही मीडिया को ज्यादा प्रभावित करती है. इस मूवमेंट को सुक्ष्म और व्यापकता के स्तर पर समझने की जरूरत है. मीडिया से पब्लिक तभी तक जुडी है जब तक उसके प्रति उसमें भरोसा है. और भरोसा कैसे कायम रहे इसका ट्रैक समाचारों की विश्वसनीयता की निरंतरता है. लेकिन इसके साथ ही इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि मीडिया संस्थानों ने अपने प्रति पब्लिक की विश्वसनीयता का निजी हित में लाभ भी लिया है. इसका खामियाजा भी उसे ही भुगतना पड रहा है. वह खामियाजा है, उसकी साख पर सवाल. साख यानी विश्वसनीयता ही नहीं रहेगी तो मीडिया का मार्केट ही खत्म फिर तो उसे कोई मार्केट नहीं बचा पाएगा. इसलिए विश्वसनीयता की मदकता में भटकी हुए मीडिया संस्थान का जनसरोकारों को स्पर्श करना, उसके मुद्दे को शिद्दत से उठाना वैसे ही मजबूरी है जिस तरह से समुंद्री जहाज का पक्षी लौट कर जहाज पर ही लौटने को मजबूर होता है.
उदारीकरण के दौर के बाद से ही मीडिया का संक्रमण काल चालू हुआ. इंलेक्ट्रॉनिक मीडिया के दौर में कई प्रयोग हुए. तरह तरह की बातें हुई. तब यह कहा गया कि प्रिंट मीडिया का अस्तित्व की खत्म हो जाएगा. जैसे ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साख पर बट्टा लगना शुरू हुआ, पब्लिक ने सुबह छपे हुए अखबार के आखर में प्रमाणिकता देखना शुरू किया. यह सब क्या है. आप इस बात को कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं कि जब हर चीज बदल रही है तो पब्लिक की सोच और उसके परखने की क्षमता और विकसित नहीं हो रही होगी. निश्चत रूप से पब्लिक होशियार हो चुकी है. उसे बहुत देर तक भ्रम में नहीं डाला जा सकता है. वे दौर हवा हो चुके हैं जब सूचनाएं किसी एक के बाद होती थी. अब चंद मीनटों के अंतराल पर हर सूचना लाखों करोडों के पास है. पहली सूचना पाने वाला उसे कुछ क्षण चाहे जितना खेल ले. यदि वह सूचना पब्लिक के बीच तैर गई तब पब्लिक खुद ही उसकी गंभीरता, विश्वसनीयता और सच्चाई परख लेती है. <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgq0aXj7zVe2J7VmJTuk-LtqJNBBGyntoC3aBt0Uva2U0T4w99aC5Om6aJFznMIkab3LInSMUmaf_WpMakN5-kVBvOIjokdxYc7vduheAd5IAUltmR2D87WkCes9BLTGTVvfKXbiuWp18E/s1600/media1.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgq0aXj7zVe2J7VmJTuk-LtqJNBBGyntoC3aBt0Uva2U0T4w99aC5Om6aJFznMIkab3LInSMUmaf_WpMakN5-kVBvOIjokdxYc7vduheAd5IAUltmR2D87WkCes9BLTGTVvfKXbiuWp18E/s320/media1.jpg" width="320" height="210" data-original-width="684" data-original-height="448" /></a></div>
<b>अब सवाल</b> यह है कि फास्ट टैक्ट पर दौडती भागती सूचनाओं के दौर में मीडिया संस्थान किन सूचनाओं पर फोकस कर पब्लिक को प्रभावित करते हैं. यह बात पहले ही कही जा चुकी है कि मीडिया संस्थानों की भी यह मजबूरी है कि वे उसी सूचनाओं को एकजुट कर फोकस करने लगी हैं, जहां सबसे ज्यादा पब्लिक प्रभावित होती है. यह स्थिति अधिकांश मामलों में हैं. यह रेसियो 80 : 20 का हो सकता है. यदि यही रेसियो उलटा होकर 20 : 80 का हो जाए तो पब्लिक खुद ही परख लेगी. दरअसल यह 20 प्रतिशत मार्केट केंद्रीत न्यूज ही मीडिया संस्थानों की संजीवनी है. क्या बिना धन का अखबार निकल सकता है. क्या खालिस खबरों वाली मैगजीन या समाचारपत्र शत प्रतिशत लागत मूल्य पर पाठकों के हाथ तक पहुंच सकते हैं. यहां तो पाठक बाल्टी, टब, चायपत्ति तक के आफर पर अखबर बदल लेते हैं. लेकिन यह भी सच है कि ऐसे पाठकों की संख्या का औसत भी उसी अनुपात में हैं जिस अनुपात में मार्केट की खबरें हैं, जो संजीवनी का काम करती हैं. सैद्धांतिक रूप से भले आप लाख गलत कहें लेकिन इस बात को कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं कि जनसरोकारों की खबरों के लिए कैरियर का काम मार्केट आधारित वहीं 20 प्रतिशत खबरें ही करती हैं.
<b>पत्रकारिता के</b> इस पूरे फलक पर ही हम अंबेडकरवादी पत्रकारिता के सरोकारेां को समझना चाहिए. देश में दलित विमर्श की सैकडों समाचार पत्र व मैगजीन प्रकाशित हुए, कुछ साल चले और बंद हुए. यह बंद होने के कारण आप उनके संचालकों व प्रकाशकों से पूछिए. दर्द छलक आएगा. उन्होंने मुद्दे तो मजबूती से उठाएं, लेकिन मार्केट में उन्हें खींच कर निरंतर गतिशील बनाए रखने के लिए कोई हुक नहीं मिला. अब मार्केट के बीच से गुजरने का रास्ता ही यही है तो आप कर क्या सकते हैं. इसलिए हम चाहे सरोकारों की पत्रकारिता की बात करें या बाबा साहब अंबेडर के विचारधारा आधारित पत्रकारिता की, सर्वाइवल तभी होगा, जब हम फीट रहेंगे और यह फीटनेश की गोलियां चाहे मार्केट से लें या वैध जी के घर से, मूल्य तो चूकाने ही पडेंगे. मर्ज की दवा कडवी भी होती है. बाबा साहब का ‘मूकनायक’ अप्रैल 1923 में बंद हो गया. उसके चार साल बाद 3 अप्रैल 1927 को आंबेडकर ने दूसरा मराठी पाक्षिक ‘बहिष्कृत भारत’ निकाला. वह 1929 तक निकलता रहा. आजादी से पूर्व और बाद प्रकाशन शुरू करने वाले अनेक समाचार पत्र बंद हो गए. कई आज भी चल रहे हैं, चल तभी रहें है जब उन्होंने मार्केट से मदद लेकर अपनी बजट को मेंटेन रखा. हमें यह नहीं भुलना चाहिए कि जंग मरकर नहीं जिंदा रह कर ही जीती जाती है. पत्रकारिता में दलित बहुजन या अंबेडकरवादी विचारधारा को आगे ले जाने की जंग मीडिया मार्केट में जिंदा रह कर ही जीती जा सकती है.<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhVpkPfdmiOKSyELaEcOTfHcOdg1uLV_FU3uwrikpEvljCC4vSKn7qUWl2s6zJWvBnBOLFJ2fLvNEa0JfrfpzfmvaRB3Vdpc38gDdLzj4EhdML3OIOwoeJIw4M1nAlc0SR5esADV5FVqr4/s1600/media2.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhVpkPfdmiOKSyELaEcOTfHcOdg1uLV_FU3uwrikpEvljCC4vSKn7qUWl2s6zJWvBnBOLFJ2fLvNEa0JfrfpzfmvaRB3Vdpc38gDdLzj4EhdML3OIOwoeJIw4M1nAlc0SR5esADV5FVqr4/s320/media2.jpg" width="320" height="240" data-original-width="600" data-original-height="450" /></a></div>
<b>बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर</b> का कहना था कि वंचितों को जागरूक बनाने और उन्हें संगठित करने के लिए उनका अपना स्वयं का मीडिया अति आवश्यक है. इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने 31 जनवरी 1920 को मराठी पाक्षिक ‘मूकनायक’ का प्रकाशन प्रारंभ किया था. ‘मूकनायक’ यानी मूक लोगों का नायक. आज हालात बदल चुके हैं. बाबा साहब के निर्मित संविधान ने मूक को स्वर दे दिया है. संविधान का हक और मार्केट दबाव से बदले समाजिक हालात ने जातियों के मिनार में सुरंग कर दिया है.
बाबा साहब यह मानते थे कि अछूतों के साथ होनेवाले अन्याय के खिलाफ दलित पत्रकारिता ही संघर्ष कर सकती है. स्वयं आंबेडकर की पत्रकारिता कैसे इस सवाल पर मुखर थी, ‘मूकनायक’ के 14 अगस्त 1920 के अंक की संपादकीय में वे लिखते हैं, “कुत्ते-बिल्ली जो अछूतों का भी जूठा खाते हैं, वे बच्चों का मल भी खाते हैं. उसके बाद वरिष्ठों-स्पृश्यों के घरों में जाते हैं तो उन्हें छूत नहीं लगती. वे उनके बदन से लिपटते-चिपटते हैं. उनकी थाली तक में मुंह डालते हैं तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होती. लेकिन यदि अछूत उनके घर काम से भी जाता है तो वह पहले से बाहर दीवार से सटकर खड़ा हो जाता है. घर का मालिक दूर से देखते ही कहता है-अरे-अरे दूर हो, यहां बच्चे की टट्टी डालने का खपड़ा रखा है, तू उसे छूएगा ? तब के समाजिक यथार्थ पर बाबा साहब यह दर्दनाक टिप्पणी आज के बाजार में कितना प्रासंगिक है. समाज में काफी कुछ बदलाव हुआ है. अब यदि ऐसा या इससे कुछ कम भी होता है तो मेन स्ट्रीम मीडिया में <b>खबरें जरूर आती हैं. ये खबरें बडे जनमानस को झकझोरने वाली भी होती है, इसलिए इसका महत्व मीडिया समझ कर उसे प्रसारित भी करता है. <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhR5NVKZ-q4qUCP7K4QbDO5w5o99IlFxY5iUiu5eN5pKIvSVF_6muyMQK5s-zUJe4DBmjq721ZgN6LvwyTxuu0108CC_E7pzYfLYF23KKSzc8ppCJrLBEGfdmrZUsxWMEU9Rsnp5N-jVvc/s1600/sanjay+swadesh+hathua.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhR5NVKZ-q4qUCP7K4QbDO5w5o99IlFxY5iUiu5eN5pKIvSVF_6muyMQK5s-zUJe4DBmjq721ZgN6LvwyTxuu0108CC_E7pzYfLYF23KKSzc8ppCJrLBEGfdmrZUsxWMEU9Rsnp5N-jVvc/s200/sanjay+swadesh+hathua.jpg" width="195" height="200" data-original-width="387" data-original-height="397" /></a></div>
बाबा साहब अंबेडकर के विचारों का फलक बहुत बडा है.</b> हां यह सही है कि उन्होंने वंचित व अछूत वर्ग के लिए दमदारी से हिमाकत की, लेकिन उनका मानवतावादी दष्टिकोण हर वर्ग को छूता है. यह केवल शब्दों का अंतर है. हम जनसरोकारों की पत्रकारिता की बात तो करते हैं, लेकिन जैसे ही उस पर अंबेडरवादी विचारधारा का नाम जोड दिया जाता है, वह जाति विशेष की हो जाती है. दरअसल जनसरोकारों में ही दलित बहुजन, वंचित अछूत आदि सब हैं. आंबेडकर की पत्रकारिता हमें यही सिखाती है कि जाति, वर्ण, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र, लिंग, वर्ग आदि शोषणकारी प्रवृत्तियों के प्रति समाज को आगाह कर उसे इन सारे पूर्वाग्रहों और मनोग्रंथियों से मुक्त करने की कोशिश ईमानदारी से की जानी चाहिए. दरअसल यही मीडिया का मूल मंत्र हैं. एक ही विचारधारा विशेष को लेकर चलने वाले अनेक अखबार किस अंधेरे में गुम हो चुके हैं.संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-87507857026398346782017-08-04T22:41:00.000+05:002017-08-10T22:41:59.964+05:00सेंधमारी की सियासत<b>संजय स्वदेश</b>
लोकतंत्र की आत्मा पक्ष-विपक्ष, सहमति-असहमति से सिंचित होती है. केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार ने जिस तरह से कुछ खास मौके पर विपक्ष के गैर कानूनी इरादों या यूं कहें कि कथित गैर कानूनी कृत्यों पर सरकारी तंत्र के माध्यम से प्रहार कर रही है, उससे यह दुविधा हो गई है कि लोकतंत्र की आत्मा मजबूत हो रही है या कुचली जा रही है. ताजा मामला कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार है और इसी प्रदेश के ऊर्जा मंत्री डी के शिवकुमार के दर्जनों ठिकानों पर आयकर विभाग का है. सरकार की ऐसी एजेंसियों की गतिविधियों पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए तथा ऐसी कार्रवाइयां व्यापक पैमाने पर की जानी चाहिए लेकिन कर्नाटक के जिस रिसॉर्ट को निशाना बनाकर छापा मारा गया है, वहां गुजरात के विधायकों को 8 अगस्त के गुजरात राज्यसभा चुनाव के मद्दे नजर सुरक्षित ठहराया गया था. राज्यसभा के लिए चुनाव घोषित होते ही कांग्रेस विधायकों ने इस्तीफा देना शुरू कर दिये थे और कुछ भाजपा में जा मिले थे. इस गतिविधि को कांग्रेस ने अपने प्रभावी उम्मीदवार अहमद पटेल को राज्यसभा में जाने से रोकने का सत्तारूढ़ पार्टी का इरादा बताया. वहीं भाजपा ने इसे भाजपा ने सामान्य गतिविधि कह कर पल्ला झाड़ने की कोशिश की . गुजरात में पूर्व मुख्यमंत्री शंकर सिंह वाघेला के विद्रोह के बाद प्रदेश की सियासत में हलचल है. यह हलचल आगामी दिनों में भारी उथल-पुथल में बदल जाए तो आश्चर्य नहीं होगा. लेकिन सवाल यह है कि केंद्रीय सत्ता यह सब कुछ विशेष मौके पर क्यों कर रही है? अबकी बार गुजरात से भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह राजसभा में प्रवेश पाना चाहते हैं. छापे की कार्रवाई तो यही साबित कर रहे हैं कि केंद्रीय सत्ता अमित शाह और स्मृति ईरानी को राज्यसभा में आने की राह में किसी तरह का जोखिम नहीं लेना चाहती है. लिहाजा, विपक्षी का मनोबल तोड़ना और उसमें अस्थिरता पैदा करने के लिए यह हथकंडा गैर लोकतांत्रिक लगने लगा है. संसद में भारी हंगामा हुआ. सरकार ने कहा कि इसे राजनीति से न जोड़ा जाए क्योंकि यह कानूनी प्रक्रिया के तहत समान्य कार्रवाई है. लेकिन सरकार करे पास इस सवाल का कोई जवाब या स्पष्टीकरण नहीं है कि छापे से पहले की सारी गतिविधियों के मद्देनजर यह समय कार्रवाई के लिए उचित कैसे ठहराया जा सकता है? बिहार में पूर्व मुख्यमंत्री व राजद प्रमुख लालू प्रसाद के परिवार के सदस्यों पर लक्षित छापों का परिणाम क्या जदयू-भाजपा गठबंधन की सरकार के रूप में सामने नहीं आया है? उत्तराखंड, अरुणाचल में भाजपा द्वारा विधायकों को अपने पाले में करने का खुला खेल सबने देखा. मणिपुर और गोवा में लोकतांत्रिक नियमों व कोर्ट के आदेश को दरकिनार कर सरकारांे के गठन में अनावश्यक चुस्ती-फुर्ती क्यों हुई. बिहार में भी नीतीश कुमार के पुर्न सीएम पद की शपथ पांच बजे शाम को तय कर सुबह दस बजे शपथ दिला दिया गया. एक के बाद एक राजनीतिक संकेत यह साबित करते हैं कि केंदीय सत्ता पूरी तरह विपक्ष की सियासत में सेंधमारी कर रही है. यदि ऐसा ही चलता रहा तो लोकतंत्र की सफलता के लिए मजबूत विपक्ष की बात महज कागजी होगी. संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-72885004494601849832017-07-21T22:42:00.000+05:002017-08-10T22:52:01.883+05:00छत्तीसगढ़ की लोकसंस्कृति में हरेली<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgjYpGctRfseEWM-jiJTfrM1wQ_up0CLOdbKPHtSB-2xlTxsybJZmID0AZ2hkoFECDU-5lafl17sKjZjdB8liMDgzfZbWbFGQmizpi1RI7JlXpgZIxQSkPO_PFG2wp_QxiUIqE3fpz_I48/s1600/sanjay+swadesh+with+gandi+artist+in+raipur.jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgjYpGctRfseEWM-jiJTfrM1wQ_up0CLOdbKPHtSB-2xlTxsybJZmID0AZ2hkoFECDU-5lafl17sKjZjdB8liMDgzfZbWbFGQmizpi1RI7JlXpgZIxQSkPO_PFG2wp_QxiUIqE3fpz_I48/s320/sanjay+swadesh+with+gandi+artist+in+raipur.jpeg" width="240" height="320" data-original-width="1200" data-original-height="1600" /></a></div>छत्तीसगढ़ की लोकसंस्कृति में हरेली को पहला पर्व माना जाता है. ...यह सावन के पहले पखवाडे़ से शुरू होता है. गांवों में कई जगह युवा और बच्चे गेड़ी में दिखते हैं. गेड़ी यानी पांव में डांडा बांध कर चलना, नृत्य करना और लोकगीत को गाना. रायपुर के एक मुख्य सड़क पर उम्र की शतक के करीब वाले एक दादा गेड़ी में नाचते और गाते दिखे तो सहज की ठिठक गया. दो कदम तालमेल की कोशिश नाकाम रही. लोकगीत गाते और नृत्य में जिस उत्साह से चल रहे थे, जैसे अभी-अभी युवा हुए हो. क्या पता कल जब यह कला कितनी रहे या ना रहे, इसे यादगार बनाने के लिए उनके साथ के एक पल को कैमरे में कैद करवा लिया....संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-12411189844658072792017-07-19T02:30:00.000+05:002017-08-10T22:51:46.601+05:00अजीत कुमार की भूली-बिसरी यादें<b>संजय कुमार साह</b>
आज से ठीक बीस बरस पहले जब कॉलेज में एक सीनियर ने पूछा कि अजीत कुमार को जानते हो? हमने कहा-नहीं. तो प्रतिप्रश्न था- फिर क्या पढ़ कर आए हो, बिहार से हो, आठवीं के हिंदी की किताब में उनका यात्रा वृतांत -सफर से वापसी नहीं पढ़े थे क्या?... उन्हें क्या बताते, पास होने लायक ही पढ़े थे. वहीं पता चला कि जिस लेखक कवि की रचना बिहार के आठवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में थी, वह उसी किरोड़ीमल कॉलेज में पढ़ाते हैं, जहां मैंने एडिशन लिया है.. मन गदगद हो गया. लेकिन दो-चार दिन बाद जब टाइम टेबल आया तो मालूम चला कि उन्हें प्रथम वर्ष को पढ़ाने के लिए कक्षाएं नहीं दी गई है. मन मायूस हुआ. सर उसी साल रिटायर भी हो गए. लेकिन प्रथम वर्ष के दौरान स्टॉफरूम में अजीत सर से मेल मुलाकात होती रही. दो-तीन बार उनके घर जाना भी हुआ. मीठी और मुलायम बातों से हमेशा मार्गदर्शन करते रहते. फिर दिल्ली में कॅरियर बनाने के संघर्ष की आपाधापी में अजीत सर से मिलने का मौका नहीं मिला. कई बार मन में ख्याल आया अबकी दिल्ली जाने पर एक बार मुलाकात की जाए. लेकिन दूर से दो दिन के लिए दिल्ली पहंुच कर यह संभव नहीं हो पता...आज सोशल मीडिया से जब उनके निधन का समाचार प्राप्त हुआ तो मन एकाएक स्थित हो गया.<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgVMOhA55aiqW2I9S4wzDY6K_FhDiVVhxBNziSaILBq1bag2-SpAjAb9GLGkeMxODKrVWqQuer_m6LX83No6-jZw36O8DPvBgrVdhASri_HzxFEPvlZHdRnz02ynvgNMXZMHnNUv0WVEXU/s1600/ajit+kumar+sir+kirorimal+college+hindi+poeat+writer+delhi.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgVMOhA55aiqW2I9S4wzDY6K_FhDiVVhxBNziSaILBq1bag2-SpAjAb9GLGkeMxODKrVWqQuer_m6LX83No6-jZw36O8DPvBgrVdhASri_HzxFEPvlZHdRnz02ynvgNMXZMHnNUv0WVEXU/s320/ajit+kumar+sir+kirorimal+college+hindi+poeat+writer+delhi.jpg" width="240" height="320" data-original-width="150" data-original-height="200" /></a></div>
सहज ही उनकी एक पुस्तक ऊसर का ध्यान आया. अजीत सर से ही इसका अर्थ पूछा था-उन्होंने बड़ी ही सहजता से समझाया कि ऊसर वह जमीन होती है, जिस पर कुछ न उगे...अजीत सर हाइकु के भी बेहतरीन रचनाकार थे. हाइकु मूल रूप से जापानी कविता की विधा है. इस पर उनका एक पूरा संग्रह कॉलेज के जमाने में पढ़ा था. उसमें से कोई हाइकु पूरी याद तो नहीं, पर एक हाइकु की अंतिम लाइन आज भी हर संघर्ष में निराशा के अंधेरे से उबरने और आत्मविश्वास की दृढ़ता बनाए रखने की प्रेरणा देती है. वह पंक्ति थी- एक मिनट में एक इंच होती है घोंघे की चाल!
अजीत सर की इन्हीं कुछ भूली-बिसरी स्मृतियों के साथ उन्हें नमन करते हुए विनम्र श्रद्धांजलि.... संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-86551438235574747322017-05-05T23:03:00.000+05:002017-08-10T23:03:58.605+05:00जाति आरक्षण के दो छोर<b>
संजय स्वदेश </b>
जैसे-जैसे सरकारी नौकरियों के अवसर घटते और प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है, आरक्षण का विरोध तेज हो रहा है। जब सोशल मीडिया नहीं था तब सरकार बीच-बीच में आरक्षण के शिगुफे छोड़ती थी, ऐसे में आरक्षण विरोधी चंद घंटे के लिए या कहे तो एक दिवसीय आंदोलन देश के किसी इलाके में दिख जाते थे। मेरिट की दुहाई दी जाती थी। अब सोशल मीडिया आ गया है, तो यहां कई गु्रप आरक्षण को कोसने में लगे हैं। परंपरागत सामाजिक परिवेश के किसी ताने बाने के किसी अंश को लेकर आरक्षण का समर्थन में दो-चार शब्दों की संवेदना नहीं दिखती है। अब सीधे सीधे यह कहा जाने लगा है कि आईएएस का बेटे को आरक्षण क्यों या फिर किसी बड़े दलित या आरक्षित श्रेणी का मंत्री का नाम लेकर कि फलां के बेटे को आरक्षण क्यों मिलनी चाहिए। आज आरक्षण व्यवस्था राष्टÑ के विकास में बाधक है। तरह-तरह के तर्क आदि लेकर आरक्षण को खत्म करने के लिए एक शोर पैदा किया जा रहा है, जो अभी केवल सोशल मीडिया में ही है। कभी-कभी आरक्षण व्यवस्था पर कुठराघात करने के लिए यह भी कहा जाता है कि क्रिकेट में भी आरक्षण दे दो, जो आरक्षित श्रेणी के खिलाड़ी तो उनके लिए ओवर की संख्या घटा दो, चौके को ही छक्का माना लिया जाए। अजब तर्क है या मजाक है। आरक्षण की बुनियाद को लोग न समझते हैं और न ही समझने की कोशिश करते हैं। कभी कहते हैं कि आरक्षण दस वर्ष के लिए था, यह बढ़ते गया, अब हटना चाहिए। लेकिन कभी यह नहीं पढ़ते कि आरक्षण व्यवस्था दस वर्ष तक के लिए इसलिए की गई थी क्योंकि इतने अवधि में आरक्षित जातियों के लोग की हिस्सेदारी सरकार के विभिन्न सेवाओं में हो जाएगी। इन दस वर्षों में यह समाज शैक्षणिक रूप से तैयार ही नहीं था। नो एबल, नो सुटेबल का गेम चला। बाद में बैकलॉग भरा भी नहीं गया। आज जब <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiYUXaqyndg_FGQEA3Wqtah83cVyHpLRSSJyuVpeyqGijCSGF7nZ0D3-Gglq9CNf2RS9EUzsu5n3naJJrAUSG3FT7Bo56Uk5ZKwXJOyfWcb-ZY4InrDe-907TH_lt9M_YeHfNFDQIw_834/s1600/sanjay1.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiYUXaqyndg_FGQEA3Wqtah83cVyHpLRSSJyuVpeyqGijCSGF7nZ0D3-Gglq9CNf2RS9EUzsu5n3naJJrAUSG3FT7Bo56Uk5ZKwXJOyfWcb-ZY4InrDe-907TH_lt9M_YeHfNFDQIw_834/s320/sanjay1.jpg" width="249" height="320" data-original-width="265" data-original-height="341" /></a></div>आरक्षित जातियों के अधिकांश लोग शिक्षा के प्रति सचेत होकर आगे आने लगे हैं तो यह बार-बार कहा जाने लगा है कि इससे राष्टÑ का विकास कमजोर होगा। जबकि हकीकत कुछ और है। आरक्षण अब एक ऐसी झगड़ालू बीवी की तरह हो गई है जिससे तलाक लेने में ही भलाई है। लेकिन जब कोर्ट से तलाक होता है तो निश्चित रूप से पत्नी को कंपनसेशन देना होता है। आरक्षण के अनुपात में यदि सरकारी सेवाओं में आरक्षित जातियों के पद भर दिए जाए तो संभव मामला बन जाए। लेकिन अभी हालात यह है कि केंद्र सरकार के 84 सचिवों में एक भी अनुसूचित जाति या जनजाति से नहीं है। सचिव स्तर का पद ऐसा है तो देश के योजनाओं के क्रियान्वयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यदि घोटाले हो रहे हैं या कोई योजना असफल हो रही है तो यह बात भी समझनी चाहिए कि यह कारनामे कथित मेरिट वालों के जमात की ही है।
कुछ उदाहरण देखिए। डीआरडीओ में आरक्षित वर्ग के वैज्ञानिकों की हिस्सेदारी नहीं है, फिर भी यह संस्था अपने गठन के बाद से रक्षा उपकरणों की जरूरत पूरी करने में असफल रही। एक इनसास रायफल भी बनाया था यह एक विदेशी रायफल एके-74 से महंगी पड़ी और कामयाब नहीं रही। कहने का मतलब यह है कि गैर आरक्षित जाति के लोगों में ही जब प्रतिभा थी तब वे इस क्षेत्र में असफल क्यों नहीं हो गए। देश में ऐसा कोई भी केस नहीं आया जिसमें कोई आरक्षण की सुविधा लेकर डॉक्टर बना हो और आॅपरेशन के दौरान मरीज के पेट में तौलिया का रूई छोड़ दिया हो। कहते हैं कि अफसर के बेटे को अफसर बनने के लिए आरक्षण क्यों चाहिए। एक सर्वे के अनुसार देश को 98 प्रतिशत अफसर ऐसे हैं, जिनके परिवार ने पहली बार आरक्षण का लाभ लिया। गैर आरक्षित श्रेणी के लोग निजी स्तर पर यह स्वयं की जांच पर परख सकते हैं। अपने राज्य के आरक्षण श्रेणी के जिलाधिकारियों के बारे में पता कर सकते हैं कि क्या सच में उनके माता-पिता क्या आरक्षण का लाभ लेकर किसी बड़े पद पर पहुंचे थे। सच सामने आ जाएगा। आरक्षण का बिगुल बजाने वाली भीड़ में अधिकतर लोग वे हैं जो स्वयं कड़ी स्पर्धा से हार रहे हैं। निराशा और कुंठा के लिए आरक्षण पर ठीकरा फोड़ रहे हैं। कहते हैं कि अब कहां है जाति-पाति, ट्रेन में सफर करने वाले, बस में आने जाने वाले किसी की जाति देख कर नहीं बैठते हैं। tऐसे की कुछ गिने चुने तर्क देकर जाति व्यवस्था के टूटने का दावा करते हैं, लेकिन सच तो आए दिन अखबार के सुर्खियों में होता है कि कैसे किसी खास जाति के लोगों ने दलित जाति के दुल्हे के घोड़ी चढ़ने पर पत्थर बरसाये। एक दलित लड़के का गैर दलित कन्या से प्रेम बर्दाश्त नहीं होता। ऐसा होने पर बिहार में घर फूंके गए हैं तो यूपी के शाहजहांपुर में दलित समाज के औरतों को हाईवे पर नग्न परेड कराकर बेंत से मारा गया है। यह मंथन का विषय है कि अब जाति कहां बसती है। जैसे-जैसे समाज विकसित होता गया, देश में जाति भी गांव के चौक चौपालों और मंदिरों से निकल कर प्रतिष्ठित संस्थानों में विराजमान होने लगी है। इस सबके बाद भी देश में आज भी जाति आधारित आरक्षण के दो छोर दिखते हैं। एक छोर पर मैला ढोने वाले और मेहतरों की जमात है तो दूसरी छोर पर मंदिर में पूजा करने वाले और गर्भगृह में जाने वाले की जाति है। यदि सच में जाति का घालमेल होकर इसका अंत हो गया होता तो इन दोनों छोरों पर काम करने वाले आज 21वीं सदी में अपने पेशे की अदला बदली कर चुके होते। मैला ढोने वाले या स्वीपरों की जमात में कोई गैर आरक्षित जाति का कर्मचारी होता और मंदिर का पूजारी आरक्षित श्रेणी के जमात से होता।संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-88016900447820003442017-05-02T22:56:00.000+05:002017-08-10T23:07:35.346+05:00मजबूरी का लाभ ले रव्यापारी वर्ग अपनी जेबे भर रहा है और असली लोकगीत का मार रहा है<b>लक्ष्मण मुस्तुरिया से संजय स्वेदश की एक बातचीत-</b>
<i>अभिभाजित मध्यप्रदेश में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा रही, लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब धीरे-धीरे इस गायन परंपरा को स्वर मंद पड़े. इस परंपरा को फिर से जीवंत करने का श्रेय लक्ष्मण मस्तुरिया के नाम से जाता है. छत्तीसगढ़ के समाज में इनके गीत ऐसे रचे बसे हैं, इसकी कल्पा इस बात से की जा सकती है कि कई बार लोग मस्तुरिया के गीत को कहते हैं कि उनके पूर्वज गाया करते थे. जबकि लक्ष्मण ने तो अभी जीवन के साठ दशक ही पूरे गिए हैं. दो दशक पहले लिखे गीतों में छत्तीसढ़ी बोली के ऐसे स्वर और तत्व हैं जो इस का एहसास ही नहीं कराने देते हैं कि यह महज बीस या तीस बरस पुराने गीत हैं. ऐसा लगता है जैसे यह सदियों से चले आ रहे हों.<b> पुस्तुत है लक्ष्मण मुस्तुरिया से संजय स्वेदश की एक बातचीत--</b></i>
<b>-आपसे पहले लोकगीत की परंपरा कहां तक कितनी समृद्ध थी</b>
-हमसे पहले रामचंद देशमुख होते थे. उन्होंने छत्तीसगढ़ी लोकगीतों पर गहन अध्ययन और कार्य किया. वे इस बात को लेकर बेहद दुखी थे कि लोकगीत खत् म हो गए है. देवार समाज के दो-चार लोग इस कला को बड़ी ही सुस्ती से किसी न किसी तरह से आगे बढ़ा रहे थे. धीरे-धीरे स्थिति ऐसी बनी कि वे गजल गीत गाने लगे. बाद में हालात ऐसे हुए कि वे दो चार दस फिल्मों गीतों को बिगाड़ कर गीत गाने लगे और वही जनमानस में लोकगीत के रूप में प्रचलित होने लगी. राचंद्र देशमुख ने दुखी होकर रचनात्मक कवियों को जोड़ने का काम किया. उनकी रचनाएं आमंत्रित की. वे काम आ गए. यह सिलसिला चला तो छत्तीसगढ़ी लोकगीतों को संजीवनी मिली.
<b>-अपने अपनी सबसे लोकप्रिय गीत मोर संग चलो... कब गया था</b><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj6u4ZPRKZPPXkNCpjRs4Bl4gbqpYWNM1uGC_20GADfnKxiyHd1FXJdPox6wHayOcJ-61b4HMyh_7fWPgQq2QZUa3rkkWipn_n9fEPnBsZetqfsDfJV8C8qWwrGlQ5DUG4YkCYZckYPsoc/s1600/sanjay+swadesh+with+laxman+masturia+famous+lyrice+write+chhattisgarh+raipur.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj6u4ZPRKZPPXkNCpjRs4Bl4gbqpYWNM1uGC_20GADfnKxiyHd1FXJdPox6wHayOcJ-61b4HMyh_7fWPgQq2QZUa3rkkWipn_n9fEPnBsZetqfsDfJV8C8qWwrGlQ5DUG4YkCYZckYPsoc/s320/sanjay+swadesh+with+laxman+masturia+famous+lyrice+write+chhattisgarh+raipur.JPG" width="320" height="240" data-original-width="1600" data-original-height="1200" /></a></div>
-सन् 1972 में में यह गीत लिखा थो, मोर संग चलो... इसी समय राजिम में एक काव्य मंच पर प्रस्तुति का मौका मिला. हमें तो यह अनुमान ही नहीं था कि संवेदनशील होकर रचे गए शब्द छत्तीसगढ़ के जनमानस में एक आह्वान गीत बन कर बस जाएगा. वह प्रस्तुति सफल रही. यह गीत क्रांति गीत बन कर जनमानस में बस गई. हालांकि इससे पहले मुझे सबसे पहला मंच जांजगीर में मिला. यहां मंच से मोर धरती के भूइया...गीत की प्रस्तुति दी. अपने इस पहले गीत से ही मुझे लोगों ने अपना लिया. हौसला बढ़ा और लोक गीत लिखने और गाने का सिलसिला चल पड़ा जो अब तक जारी है.
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-आपकी गीतों में ऐसी क्या खास बातें होती हैं और आज के डिजिटल जमाने में लोकगीतों पर क्या असर पड़ा है</b>
-मेरे गीत छत्तीसगढ़ के माटी के गीत हैं. इसके एक-एक शब्द यहां के हैं. इतना ही नहीं हर शब्द अपने आप में एक सार्थक अर्थ का बोध कराते हैं. यही कारण है कि यह जनमानस को सहज ही प्रभावित कर लेते हैं. डिजिटल तकनीक का असर भी लोकगीतों पर पड़ा है. हमारे भी गीत यूट्यूब पर हैं. हालांकि आज के जमाने में कई लोग कुछ भी अंटझंट लिख रहे हैं. लेकिन यह दिल को नहीं छू रहे हैं. कुछ क्षण मनोरंजन जरूर कर देते हैं. लेकिन समाज इसे लंबे समय तक स्वीकार नहीं कर पाता है. आज हालात ऐसे हो गए हैं कि बाजार में कमाने के लिए कुछ व्यापारी वर्ग ने लोकगीतों का उपयोग किया है. उन्होंने हथकंडा अपना कर या कहें कि भ्रम फैला कर द्विअर्थी शब्दों वाले अश्लील गीतों को प्रोत्साहि किया है. हालात तो यह है कि अब यह लोक नए गीतकारों को गीत का प्लॉट देते हैं. लेकिन इससे गीतकारों को नुकसान होता है.कोई कलाकार नहीं चाहता है कि वह वह गंदे गीत लिखे और मां-बहनें सुने. लेकिन मजबूरी का लाभ यह व्यापारी वर्ग ले रहा है, अपनी जेबे भर रहा है और असली लोकगीत का मार रहा है.
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-आप शिक्षक कैसे बने और शिक्षक का कॅरियर बेहतर रहा या लोक गीत के रचनाकार का?</b>
-मैं शिक्षक बनने से पहले ही लोक गीतकार के रूप में लोकप्रिय हो गया था.एक बार दिल्ली से रायगढ़ जाते वक्त ट्रेन में सुरेंद्र बहादुर नाम के शख्स से मुलाकात हो गई. वे मेरे गीतों के कारण मेरे नाम से परिचत थे. बातों ही बातेां में उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं ही लक्ष्मण मस्तुरिया हूं. वे बेहद खुश हुए. वे रायपुर उतरने वाले थे, लेकिन वे साथ-साथ रायगढ़ तक गए. वहां मैं एक कार्यक्रम में हिस्सा लिया, प्रस्तुति दी, वे भी साथ रहे. वहां से साथ ही रायपुर लौटे. रायपुर में उन्होंने मेरी बात राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल से करवाई. स्कूल में इंटरव्यू हुआ और वहां हिंदी पढ़ाने का मौका मिला. पहले छह माह प्रोवेशन रहा. बाद में यह नौकरी पक्की हो गई. राजकुमार कॉलेज में तब कुछ ही बच्चे मुश्किल से चार छह बच्चे ही हिंदी विषय का चयन करते थे, इसलिए यह कक्षा सुनी रहती थी, लेकिन जब मैंने पढ़ाना शुरू किया तो बच्चों की रुचि हिंदी के प्रति बढ़ी. एक से दो साल में ही मेरी कक्षा में 20 से 25 बच्चे हो गए. जहां पहले वे समान्य अंक से पास होते थे, वही बच्चे हिंदी में नब्बे फीसदी अंक तक प्राप्त करने लगे.
<b>-रिटायरमेंट के बाद आपने एक पत्रिका शुरू की, यह प्रयोग कितना सफल रहा? इसका कैसा अनुभव रहा?</b>
-शिक्षण की सेवा से रिटायरमेंट के बाद सक्रिय रहना था. लोग मुझे लोक गीतों के कारण जानते पहचानते थे. इसलिए मैंरे लोकसूर नाम से एक मासिक पत्रिका शुरू किया. इसमें मूल रूप से छत्तीसगढ़ भाषा में विभिन्न विषयों को समायोजित करने की कोशिश की गई. लेकिन पत्रकारिता के इस क्षेत्र का अनुभव बुरा रहा. जहां-जहां गया, लोगों ने सराहना की, लेकिन पत्रिका के लिए सहयोग देने में पीछे हट गए. दो साल तक इसे चलाया, आगे इसकी निरंतरता बनाए रखना मुश्किल लगा, तो बंद कर दिया.
<b>-आपके गीतों में प्रतिरोध के स्वर मिलते हैं. सरकार की ओर से आपको क्या सहयोग मिला</b>
-मेरे गाने का 40 गामोफोन रिकार्ड हैँ. लेकिन सरकार ने कभी कोई कार्यक्रम नहीं दिया. हां, सरकार से जुड़े लोगों ने हमसे जरूर गवा लिए. लोकगीतों में हर बात सहज ही आती है. तभी वह असल में लोकगीत है. अब सरकार को जब भी लाभ लेना रहता है, वह नए जमाने के गीतकारों से लोकगीत गवा लेती है. उसमें अपना ही गुणगान करवाती है. लेकिन इसका असर लोकगीतों पर नाकारात्मक पड़ रहा है. नवोदित कलाकार अपने गीतों में हृदय की बात नहीं करते हैं. उनके गीत सहज न हो कर बनावटी होने लगे हैं. यह लोकगीत की सेहत के लिए ठीक नहीं है.
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-कोई अब आपके बाद नया लक्ष्मण मुस्तुरिया बनना चाहे तो उसे क्या करना चाहिए, उसके लिए क्या सूत्र वाक्त देंगे?</b>
-लक्ष्मण मस्तुरिया बनने के लिए लक्ष्मण मस्तुरिया को जनना और पढ़ना जरूरी है. तभी वह इस छत्तीसगढ़ी लोकगीत की पंरपरा को आगे ले जा सकता है. मैंने भी मेहनत की. अपने पूर्ववर्ती कलाकार सुंदर लाल शर्मा को पढ़ा और जाना. उन्होंने सुरदास की रचना को भी स्वर दिया था. इसके साथी संगत का भी काफी गहरा असर पड़ता है. यह मेरा सौभाग्य रहा है कि मुझे हमेशा अच्छी संगत मिली और हौसला बढ़ता रहा, लोकगीत गाता रहा. नई पीढ़ी के रचनाकारों के पास पुराने रचनाकारों के संदेश पढ़ने सुनने समझने का अब समय ही नहीं बचा है. नेट मोबाइल ने वह समय ले लिया है. चुटकुले सुनते हं, चुटकुले भेजेते हैं, सोचने समझने लायक पीढ़ी दिखती नहीं.हालांकि जब मुश्किले बढ़ती है, तब नि दान भी आवश्य होता है. नए लोक भले लोकगीतों के प्रति अपनी रुचि नहीं दिखाते हैं, लेकिन वे हमसे ज्यादा चैतन्य हैं. जिनमें रुचि है वे स्वयं रास्ते तलाश रहे हैं. संघर्ष कर रहे हैं आगे बढ़ रहे हैं.संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-7849119418868843762016-10-24T01:30:00.000+05:002017-08-10T23:11:46.863+05:00नई चुनौतियों के समक्ष यूएनओ<b>24 अक्टूबर : संयुक्त राष्ट संघ की 71 वीं वर्षगांठ पर विशेष</b>
<b>संजय स्वदेश </b>
संपूर्ण विश्व का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था संयुक्त राष्टï्र संघ २४ अक्टूबर को अपनी 71वीं वर्षगांठ मना रहा है। अपने सदस्य देशों के कारण दुनिया के सबसे शक्तिशाली माने जाने वाले इस संस्था पर पिछले कई सालों से अविश्वास की छाया पड़ती रही है। कारण यह है अधिनायकवादी मानसिकता से ओतप्रोत इसके सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य देशों ने इस संस्था को अपनी कठपुतनी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। यदि इस संस्था को एक व्यक्ति के रूप में ही मान लिया जाए तो इकसठ साल की उम्र बहुत होती है। अमूमन साठ साल की उम्र पूरी दुनिया में रिटायरमेंट की मानी जाती है। ऐसे में जिस तरह से शांति स्थापना के अपने असली मकसद से यह संस्था दिनों दिन भटकती जा रही है। उस लिहाज से एक बड़ा तबका अब यह मानने लगा है कि इसके उद्देश्य, कार्यक्षेत्र और निहित शक्तियों में अब वह बात नहीं। इसी के चलते इसके संगठनात्मक ढाचे में पिछले कई बर्षों से बदलाव की जरूरत महसूस किया जा रहा है।
देखा जाए तो राष्टï्रसंघ की भूमिका युद्ध की विभीषिका को रोकने में तो नहीं मगर उसके बाद शुरू होती है। युद्ध नीति में मामले में तो यूएनओ वे देश ही सबसे पहले धोखा देते रहें हैं जो इसके आधारभूमि सदस्य हैं और जिन पर इसकी परंपरा का आगे बढ़ाने का विशेष दारोमदार है। इराक पर अमेरिकी हमले के समय तो यह संस्था पूरी तरह से निष्क्रिय साबित हुई। संयुक्त राष्टï्र इराक के तर्कों से अमेरिकी खुफिया रिपोटों की तुलना में कहीं ज्यादा सहमत दिखा। इसके बाद भी अमेरिका ने अपनी मनमानी के सामने इसे बौना साबित कर दिया। नतीजतन संयुक्त राष्ट्र के तमाम शांति प्रयास विफल हुए और युद्ध की रणभेरी के साथ ही इतिहास राष्टï्र संघ के औचित्य और इसके निष्प्रभावी कारवाई का दो अध्याय जुड़ गए। तब दुनिया भर में यह बहत तेज हो गई थी कि क्या अब इस संस्था की जरूरत है। यदि जरूरत है तो इसमें बदलाव की कितनी जरूरत है? इसे लेकर एक लंबी बहस आज भी जार हैं। <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjN0PDlejEm9XTAl5Z6PxCNIpKJP74f44ijrA8Py0LAnr6eGlEwywnz5AynFsblJ900L3rc0MTUTKLa-vcOO8ZD0O4i7brGQqCmL7S190WsLVXBr9U5IOTEYC4selMHChyJuA37BCO4GwU/s1600/uno.jpeg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjN0PDlejEm9XTAl5Z6PxCNIpKJP74f44ijrA8Py0LAnr6eGlEwywnz5AynFsblJ900L3rc0MTUTKLa-vcOO8ZD0O4i7brGQqCmL7S190WsLVXBr9U5IOTEYC4selMHChyJuA37BCO4GwU/s320/uno.jpeg" width="320" height="267" data-original-width="670" data-original-height="560" /></a></div>
संयुक्त राष्ट्र के प्रभाव में आने के लिए सबसे पहली जरूरत तो यह है कि इसे इसके कथित उन पंज प्यारों से आजाद कराया जाए, जो इसे कठपुतनी बनाये हुए हैं। ये पंज प्यारे हैं- अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, रुस और चीन। स्थायी सदस्यों की संख्या बिस्तार की चर्चा होते ही इन देशों ने किसी न किसी रूप में अपनी असहमती जाहिर कर दी। बीते वर्ष में ही इसके विस्तार को लेकर यूएनओ में काफी बहस हुआ था। विस्तार की पूरजोर वकालत तत्कालीन महासचिव कोफी अन्नान ने भी की थी। मगर इसके विस्तार का उपाय संयुक्त राष्टï्र में ही नहीं है। जिससे यह मामला आज भी उलझा हुआ है। अगर इसके बिस्तार का रास्ता है भी तो जटिल ही नहीं नामुमकिन भी है। क्योंकि इसके विघटन का अथवा विस्तार को कोई भी अधिकार स्थायी सदस्यों के पास ही सुरक्षित है। जो किसी भी हालत में अपनी शक्ति का बंटवारा नहीं चाहते हैं। यह उनकी प्रतिष्ठïा का प्रतीक सा बन चुका है। संविधान के मुताबिक यूएनओ में किसी भी प्रकार का बदलाव या कोई नया कानून तब तक प्रभावी नहीं किया जा सकेगा जब तक कि स्थायी सदस्य अपनी सहमती का घोषणा इसकी बैठक में सार्वजनिक रूप से न कर दें। हालांकि अक्सर किसी न किसी मुद्दें पर इन पंज प्यारों में मतभेद होता है, लेकिन स्थायी सदस्याता के मामले पर तो यह हमेशा ही एक दूसरे को समर्थन करते हैं। सुरक्षा परिषद के विस्तार से संबंधित बहस को बार-बार टालने का जो मामला है वह निश्चय ही उसके स्थाई सदस्यों की नीयत में खोट का संकेत देता है। शायद ही राष्टï्र संघ निर्माताओं ने उस समय इस खामी की ओर कुछ ध्यान दिया हो कि शेष विश्व को युद्ध का भय दिखाकर बड़ी चलाकी से कथित समातंवादी राष्टï्र इसकी पूरी मलाई मार ले जाए। इनकी नीयत इतनी खोट निकली कि बाकी के गरीब देशों को यह उनके हिस्से की छाछ तक देने से गुरेज करते हैं। इसी के चलते राष्टï्र संघ महज स्थाई सदस्य देशों की हित चिंतक मात्र बनकर रह गई है। सवाल यह उठता है कि विश्व में देशों के संगठन की अगुवाई चीन, फ्रांस, अमेरिका और इंगलैंड को ही क्यो करें? क्या बाकी के तकरीबन दो सौ देश या उनके प्रतिनिधि इसके हकदार नहीं? शेष दुनिया की कारगुजारियों में इसके सदस्य देश हर तरह से इन स्थाई सदस्यों की मोहताज बनकर ही रह गये हैं। किसी भी देश के पक्ष-विपक्ष में कोई भी रणनीति बगौर इनकी रजामंदी के पास नही हो सकती। स्थाई सदयों की मनमानी क्यूबा, वियतनाम, सोमालिया, यूगोस्लाविया और हालिया इरान-इराक में देखी जा चुकी है। यही कारण है कि संघ की शक्ति के विघटन को लेकर अंतरराष्टï्रीय स्तर पर बहस तेज हो रही है, जिसके मूल में स्थाई सदस्य देशों की भूमिका को लेकर कसमकसाहट सबसे तेज है।
1970 के दशक के अंत में जानबूझ कर इस संस्था को कमजोर बनाने की कोशिर चलती रही है। 1971 में पाकिस्तान से भारत में आए एक करोड़ शरणार्थियों से जुड़े ममाले में संयुक्त राष्टï्र ने कोई कार्रवाई करने के बजाय भारत के खिलाफ ही मतदान कराया। पिछले दशकों में सीमापार से आतंकवाद के संबंध में भी यूएन की ऐसी ही उदासीनता देखने को मिली है। राष्टï्र संघ की मौजूदा स्थितियों से महासचिव कोफी अन्नान खासा खिन्न थे जिसका उन्होंने कई बार सार्वजनिक इजहार किया। जिसके कारण उनके कार्यकाल के अंतिम दिनों में तो अमेरिका ने खुलेआम उनके खिलापऊ में उतर आया था। ऐसा लग रहा था कि उनके खिलाफ महाभियोग लाकर अमेरिका एक नई परंपरा शुरू कर देगा। लेकिन तमाम अटकलों को पार कर आखिर उनकी विदाई हो ही गई। उनकी जगह दक्षिण कोरिया के मून नये महासचिव बने। जिनके सामने सबसे पहली चुनौती उत्तर कोरिया के परमाणु परीक्षण का मामला आया। हालांकि इस पर मून का रुख विश्व जनमत के अनुरूप और सख्त ही रहा, लेकिन वे यादगार Bhuमिका नहीं छोड़ पाए
यह कितना हास्यास्पद है कि २१वीं सदी की दुनिया को बीसवीं सदी के उत्तराद्ध में बना एक संगठन नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है जो खुद में बदलाव नहीं कर पाया। 1945 से अब तक ही दुनिया में बहुत कुछ बदल चुका है। शक्ति संतुलन बदल चुका है। भारत, ब्राजील, जापान और जर्मनी दुनिया के नये ताकतवर देश के रूप में उभरे हैं जो उस समय अगल-अलग कारणों से विश्व परिदृश्य से गायब थे। इन बदली हुई परिस्थितियों में इन देशों का संयुक्त राष्टï्र की गतिविधियों में भागीदारी न बनाना सामंती प्रवृति ही कही जाएगी। दुनिया में यदि लोकतंत्र का भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो स्थाई सदस्यों के हाथों से कठपुतली बने संयुक्त राष्टï्र का आजाद कराना ही होगा। वैसे संयुक्त राष्टï्र संघ की 71वीं वर्षगांठ नई चुनौतियों के साथ आई है। स्थाई सदयों की संख्या बढ़ाने की मुहिम आगामी दिनों में जाहिर तौर पर तेज होगी। संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-62731010895096341942016-10-12T23:15:00.000+05:002017-08-10T23:20:42.879+05:00रावण के पतन का मूल सीता हरण, सीता हरण की मूल वजह क्या है?<b>संजय स्वदेश</b>
कथा का तानाबाना तुलसी ने कुछ ऐसा बुना की रावण रावण बन गया। मानस मध्ययुग की रचना है। हर युग के देशकाल का प्रभाव तत्कालीन समय की रचनाओं में सहज ही परीलक्षित होता है। रावण का पतन का मूल सीता हरण है। पर सीताहरण की मूल वजह क्या है? गंभीरता से विचार करें। कई लेखक, विचारक रावण का पक्ष का उठाते रहे हैं। बुरी पृवत्तियों वाले ढेरों रावण आज भी जिंदा हैं। कागज के रावण फूंकने से इन पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। पर जिस पौराणिक पात्र वाले रावण की बात की जा रही है, उसे ईमानदार नजरिये से देखे। विचार करें। यदि कोई किसी के बहन का नाक काट दे तो भाई क्या करेगा। आज 21वीं सदी में ऐसी घटना किसी भी सच्चे भाई के साथ होगी, तो निश्चय ही प्रतिशोध की आग में धधक उठेगा। फिर मध्य युग में सुर्पनखा के नाम का बदला रामण क्यों नहीं लेता। संभवत्त मध्ययुग के अराजक समाज में तो यह और भी समान्य बात रही होगी।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiVU4UaL9Z4upOJU7xiBok9lsE8sk_zLzRfUKGV7rTyFLX7r31UlzeU816q3PruALt4lM0Paemk8jSTzrDPLRN63SnYuj2K_R3I_V5-CxIRpKoAhwWFS4khY7ZoLczap1C7s5w_4hMpWC4/s1600/sanjay+swadesh.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiVU4UaL9Z4upOJU7xiBok9lsE8sk_zLzRfUKGV7rTyFLX7r31UlzeU816q3PruALt4lM0Paemk8jSTzrDPLRN63SnYuj2K_R3I_V5-CxIRpKoAhwWFS4khY7ZoLczap1C7s5w_4hMpWC4/s320/sanjay+swadesh.jpg" width="251" height="320" data-original-width="759" data-original-height="968" /></a></div>
अपहृत नारी पर अपहरणकर्ता का वश चलता है। रावण ने बलात्कार नहीं किया। सीता की गरीमा का ध्यान रखा। उसे मालूम था कि सीता वनवासी बन पति के साथ सास-श्वसुर के बचनों का पालन कर रही है। इसलिए वैभवशाली लंका में रावण ने सीता को रखने के लिए अशोक बाटिका में रखा। सीता को पटरानी बनाने का प्रस्ताव दिया। लेकिन इसके लिए जबरदस्ती नहीं की। दरअसल का मध्य युग पूरी तरह से सत्ता संघर्ष और नारी के भोगी प्रवृत्ति का युग है। इसी आलोक में तो राजेंद्र यादव हनुमान को पहला आतंकवादी की संज्ञा देते हैं। निश्चय ही कोई किसी के महल में रात में जाये और रात में सबसे खूबसूरत वाटिका को उजाड़े तो उसे क्यों नहीं दंडित किया जाए। रावण ने भी तो यहीं किया। सत्ता संघर्ष का पूरा जंजाल रामायण में दिखता है। ऋषि-मुनि दंडाकारण्य में तपत्या कर रहे थे या जासूसी। रघुकुल के प्रति निष्ठा दिखानेवाले तपस्वी दंडाकारण्य अस्त्र-शस्त्रों का संग्रह क्यों करते थे। उनका कार्य तो तप का है। जैसे ही योद्धा राम यहां आते हैं, उन्हें अस्त्र-शस्त्रों की शक्ति प्रदान करते हैं। उन्हीं अस्त्र-शस्त्रों से राम आगे बढ़ते हैं। मध्ययुग में सत्ता का जो संघर्ष था, वह किसी न किसी रूप में आज भी है। सत्ताधारी और संघर्षी बदले हुए हैं। छल और प्रपंच किसी न किसी रूप में आज भी चल रहे हैं। सत्ता की हमेशा जय होती रही है। राम की सत्ता प्रभावी हुई, तो किसी किसी ने उनके खिलाफ मुंह नहीं खोला। लेकिन जनता के मन से राम के प्रति संदेह नहीं गया। तभी एक धोबी के लांछन पर सीता को महल से निकाल देते हैं। वह भी उस सीता को तो गर्भवती थी। यह विवाद पारिवारीक मसला था। आज भी ऐसा हो रहा है। आपसी रिश्ते के संदेह में आज भी कई महिलाओं को घर से बेघर कर दिया जाता है। फिर राम के इस प्रवृत्ति को रावण की तरह क्यों नहीं देखी जाती है। जबकि इस तरह घर से निकालने के लिए आधुनिक युग में घरेलू हिंसा कानून के तहत महिलाआें को सुरक्षा दे दी गई है। बहन की रक्षा, उनकी मर्यादा हनन करने वालों को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा, पराई नारी को हाथ नहीं लगाने का उज्ज्वल चरित्र तो रावण में दिखता है। लोग कहते भी है कि रावण प्रकांड पंडित था। फिर भी उसका गुणगणान नहीं होता। विभिषण सदाचारी थे। रामभक्त थे। पर उसे कोई सम्मान कहां देता है। सत्ता की लालच में रावण की मृत्यु का राज बताने की सजा मिली। सत्ता के प्रभाव से चाहे जैसा भी साहित्या रचा जाए, इतिहास लिखा जाए। हकीकत को जानने वाला जनमानस उसे कभी मान्यता नहीं देता है। तभी तो उज्ज्वल चरित्र वाले विभिषण आज भी समाज में प्रतिष्ठा के लिए तरसते रहे। सत्ता का प्रभाव था, राम महिमा मंडित हो गए। पिता की अज्ञा मानकर वनवास जाने तक राम के चरित्र पर संदेह नहीं। लेकिन इसके पीछे सत्ता विस्तार की नीति जनहीत में नहीं थी। राम राजा थे। मध्य युग में सत्ता का विस्तार राजा के लक्षण थे। पर प्रकांड पंडित रावण ने सत्ता का विस्तार का प्रयास नहीं किया। हालांकि दूसरे रामायण में देवताओं के साथ युद्ध की बात आती है। पर देवताओं के छल-पंपंच के किस्से कम नहीं हैं। <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjMcoNsYzY_EeqAXpfHnSBlxTT-thy1hKdJz303ymqge7WaDcB7efCQCBXBTGpe3EunNkzxf-rB8LHZtQWCblXySimFQz6pjYWTUqsgDvsSBLQvIQfdxgyMfu5gGPn0UurCg1ix7lbD3rI/s1600/rawan.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjMcoNsYzY_EeqAXpfHnSBlxTT-thy1hKdJz303ymqge7WaDcB7efCQCBXBTGpe3EunNkzxf-rB8LHZtQWCblXySimFQz6pjYWTUqsgDvsSBLQvIQfdxgyMfu5gGPn0UurCg1ix7lbD3rI/s320/rawan.jpg" width="320" height="179" data-original-width="625" data-original-height="350" /></a></div>
काश, कागज के रावण फूंकने वाले कम से कम उसके उदत्ता चरित्र से सबक लेते। बहन पर होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए हिम्मत दिखाते। उसकी रक्षा करते। परायी नारी के साथ जबरदस्ती नहीं करते। ऐसी सीख नहीं पीढ़ी को देते। समाज बदलता। मुझे लगता है कि राम चरित्र की असंतुलित शिक्षा का ही प्रभाव है कि 21वीं सदी में भी अनेक महिलाएं जिस पति को देवता मानती है, वहीं उन पर शक करता है, घर से निकालता है। संभवत: यहीं कारण है कि आज धुं-धुं कर जलता हुए रावण के मुंह से चीख निकलने के बजाय हंसी निकलती है। क्योंकि वह जनता है कि जिस लिए उसे जलाया जा रहा है, वह चरित्र उसका नहीं आज के मानव रूपी राम का है।संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-2686112371055609982016-09-29T23:21:00.000+05:002017-08-10T23:22:17.862+05:00लड़के-लड़की का गुण-अवगणु कौन देखता है? दर्दनाक : शादी के दस साल बाद दहेज में मोटरसाइकिल नहीं मिली तो छपरा में दो बच्चों सहित एक मां को जिंदा जला दी गई! सीवान-गोपालगंज में भी ऐसी घटनाएं आती रहती है। कभी खटिया में बांध कर जला दिया जाता है तो कभी घर से निकाल देने की खबर अखबार में हर दूसरे दिन होती है। अपने यहां बेटी को बोझ समझने वाले बाप हैसियत नहीं होने पर भी दहेज में वह चीज देने का वादा करते हैं जो दे ही नहीं सकते हैं...उधर लड़के अपनी कमाई के बजाय सुसराल से बाइक और चेन पाने के इंतजार में बैठे रहते हैं। लड़के-लड़की का गुण-अवगणु कौन देखता है? संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-82152322026907616022016-07-16T20:35:00.001+05:002016-07-16T20:35:49.198+05:00वर्धा के हिंदी विश्वविद्यालय के अकेले आदिवासी प्रोफेसर पर कुलपति का कहर <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhtiKqVWRD7bZJcZktdFsNb0MDrUUAYIa058BY2AiSLlI0DPQldwTjx2NJrqs8OVp14J5ucvtDhXMcsAMN1iqcJzTg6ONEmM-sep16PvLDN9-HJ1FL1v4ipDnic3DH7CLPq86ax0VVGnEo/s1600/sunil+kumar+suman+asst+profesor+in+mahatma+gandhi+antarrastriya+hindi+vishwavidyalay+wardha+maharastra.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhtiKqVWRD7bZJcZktdFsNb0MDrUUAYIa058BY2AiSLlI0DPQldwTjx2NJrqs8OVp14J5ucvtDhXMcsAMN1iqcJzTg6ONEmM-sep16PvLDN9-HJ1FL1v4ipDnic3DH7CLPq86ax0VVGnEo/s320/sunil+kumar+suman+asst+profesor+in+mahatma+gandhi+antarrastriya+hindi+vishwavidyalay+wardha+maharastra.jpg" width="320" height="214" /></a></div><b>पटना/वर्धा (महाराष्ट)।</b> महाराष्टÑ के वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के हिंदी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग के सहायक प्रोफेसर डॉ. सुनील कुमार का जान-बूझकर किए गए कोलकाता तबादले के खिलाफ हिंदी विश्वविद्यालय परिसर में आंदोलन गरमा गया है। डा. सुनील कुमार सुमन बिहार के उस चंपारण (मोतिहारी)से हैं, जहां दक्षिण अफ्रीका से आए मोहन दास करमचंद गांधी ने देश में पहला पहला आंदोलन शुरू किया। गांधीजी की यह पहली कर्मभूमि है। यहां गांधीजी का आश्रम है। गांधी का एक और आश्रम महाराष्टÑ के वर्धा जिले में हैं। यह भी गांधीजी की कर्मभूमि रही है। इसी कर्मभूमि पर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय स्थित है। गांधी की पहली कर्मभूमि चंपारण के लाल डा.सुनील कुमार सुमन इसी हिंदी विश्वविद्यालय के कुल नब्बे प्रोफेसरों में पहले और एकमात्र आदिवासी प्राध्यापक हैं। लेकिन यहां के पूर्व कुलपति विभूति नारायण राय और और वर्तमान कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्रा ने हमेशा इन्हें अपने निशाने पर रखा। डा. सुमन आदिवासी और दलित मुद्दों के प्रखर आवाज के रूप में सक्रिय रहे। ताजा मामला इनके वर्धा से कोलकाता ट्रांफसर कर प्रताड़ित करने का है। जब शांतिपूर्ण आग्रह के बाद डा. सुमन का धैर्य टूट गया तो डॉ सुनील कुमार शनिवार सुबह विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ भूख हड़ताल पर बैठ गए। उनके समर्थन में पचासों छात्र-छात्राएँ व शोधार्थी भी अनशन पर बैठ गए। विश्वविद्यालय के शिक्षक संघ का भी उन्हें समर्थन हासिल है।
गौरतलब है कि डॉ सुनील कुमार इस विश्वविद्यालय के बेहद लोकप्रिय अध्यापक हैं। वे ऐसे अध्यापक हैं, जो अपने विभाग से इतर दूसरे विभागों-केंद्रों के विद्यार्थियों के बीच भी काफी लोकप्रिय हैं। इसका कारण उनका मृदुभाषी-सहयोगी स्वभाव और छात्रों को हमेशा बेहतर बनने-करने के लिए प्रेरित करने वाली उनकी प्रकृति है। वे इस विश्वविद्यालय के एकमात्र आदिवासी वर्ग के प्राध्यापक हैं। यह गोंडवाना का क्षेत्र हैं, जहाँ लाखों-करोड़ों की संख्या में आदिवासी सदियों से रहते हैं। वर्धा और आसपास के सभी जिलों में भी लाखों की संख्या में आदिवासी हैं। यह इस विश्वविद्यालय के लिए खुशी की बात है कि इस वर्ग का प्राध्यापक यहाँ सेवारत है। डॉ. सुनील कुमार की पहचान राष्ट्रीय स्तर के आदिवासी लेखक-विचारक और एक्टिविस्ट के रूप में प्रतिष्ठित है। विदर्भ के तमाम जिलों तथा देश के कई विश्वविद्यालयों-शहरों के दलित-आदिवासी कार्यक्रमों में डॉ. सुनील कुमार को अतिथि वक्ता के रूप में हमेशा बुलाया जाता है। इन्हें क्षेत्र की जनता द्वारा कई बार गोंडवाना भूषण पुरस्कार, शिक्षण मैत्री सम्मान और समाज भूषण सम्मान जैसे पुरस्कारों से भी नवाजा जा चुका है। लेकिन दु:ख और गहरा अफसोस इस बात का है कि इस विश्वविद्यालय में शुरू से ही उनको जातिगत आधार पर प्रताड़ित किया जाता रहा है। पिछले कुलपति के कार्यकाल में भी ऐसा हुआ और अब भी ऐसा ही हो रहा है। शर्मनाक बात है कि यह उच्च शिक्षा का केंद्र है और यहाँ बौद्धिक लोग रहते हैं। उन्हें अपने जातिगत दुराग्रहों के आधार पर व्यवहार नहीं करना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि उच्च प्रशासनिक पदों पर बैठे लोग भी जातिगत भावना से निर्णय लेते हैं। इसी के तहत डॉ. सुनील कुमार का स्थानांतरण कोलकाता केंद्र पर किया गया है।
अंबेडकर स्टूडेंट्स फोरम खुलकर इस आंदोलन में आ गया है। फोरम का मानना है कि डॉ सुनील कुमार दो साल तक एक फर्जी केस के चक्कर में नौकरी से बाहर रहे, केस-मुकदमा झेला, आर्थिक दिक्कतें सहीं और मानसिक पीड़ा तो झेली ही। फिर साहित्य विभाग में इतने अध्यापकों के रहते हुए डॉ. सुनील कुमार को ही क्यों कोलकाता भेजा जा रहा है? पिछले ममाले में बोम्बे उच्च न्यायालय ने विश्वविद्यालय की ओर से दायर किए गए केस को फजर््ी करार करते हुए विश्वविद्यालय पर ही दस हजार का जुर्माना ढोका था। इतना ही नहीं तत्काल डा सुमन की बहाली का आदेश दिए। इसके बाद भी विश्वविद्यालय प्रशासन ने उन्हें ज्वाइन तो कर वाया लेकिन एक साल तक उनकी जांच करवाते रहे और उन्हें सात महीने तक बैठने तक की कुर्सी और मेज तक नहीं दी गई। यह समाचार लिखे जाने तक डा. सुमन को पिछले दो साल का वेतन भी नहीं दिया गया है।
कुलपति के मुंह पर पोतेंगे कालिख!
यहां धरने पर बैठे वर्धा से ही आए एक आदिवासी युवक ने बताया कि कुलपति गिरीश्वर मिश्रा घोर जातिवादी हैं। पिछले दिनों गिरीश्वर मिश्राा ने यहां जितनी भी नियुक्तियां की, उसमें से एक भी दलित या आदिवासी नहीं है। <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlzwQTF4BcpmYX7yD5QEk97DH780Dcj7kg6qxf67wzXJfmCC6EX04colcgJM0rDxQFfYVGpP3gc3GxjY7fDxwK9amvXJcc6yivhyphenhyphens8wawRTv9H35WJndml0Ch9uEfUSEtwAGF1klUunnM/s1600/girishwar+mishra.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlzwQTF4BcpmYX7yD5QEk97DH780Dcj7kg6qxf67wzXJfmCC6EX04colcgJM0rDxQFfYVGpP3gc3GxjY7fDxwK9amvXJcc6yivhyphenhyphens8wawRTv9H35WJndml0Ch9uEfUSEtwAGF1klUunnM/s200/girishwar+mishra.JPG" width="189" height="200" /></a></div>उन्होंने अपने संगे संबंधियों व रिश्तेदारों को यहां के प्रशासनिक पदों पर बैठा रखा है। यदि इसी तरह तर उनकी दलित और आदिवासी विरोधी गतिविधियां चलती रही तो कभी भी आक्रोशित आदिवासी उनके मुंह पर कालिख पोत सकता है। वीडियो बनाकर मीडिया को जारी कर सकता है।
डर से कुलपति नहीं आए दफ्तर
शनिवार शाम तक डॉ सुनील कुमार के साथ बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएँ और शोधार्थी कुलपति दफ्तर के सामने अनशन पर जमे हुए थे। इस आंदोलन की खबर सुनकर कुलपति अपने दफ्तर ही नहीं आए, घर पर ही रहे। पूरे मामले में जब डा गिरीश्वर मिश्रा से फोन पर संपर्क किया गया तो घंटी जाती रही, लेकिन फोन नहीं उठाया।
समर्थन देने आया आदिवासियों का दल
इस बीच गोंडवाना युवा और महिला जंगोम दल तथा अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद के भीमा आड़े, चन्द्रशेखर मड़ावी, रंजना उइके, कल्पना चिकराम, सुवर्णा वरखड़े, राकेश कुमरे, नगर पार्षद शरद आड़े आदि कुलपति से मिलने आए, उनके आवास पर भी गए, लेकिन उन्हें मिलने नहीं दिया गया। विश्वविद्यालय के कई प्राध्यापक अनशन स्थल पर पहुंचे और डॉ सुनील कुमार के प्रति अपना समर्थन जाहिर किया।
तेज होगा आंदोलन<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhS0_RngbBOwf2sPKGfeyI4LNfvqE-1m0MU-hDxYUtGfHdZEM4jo2tJK1nsPzGWKMfFe4vRw1jaQL_phu2T8mXAeuhLCCFQlbhrU2WnCNVFnSHb7rDji0HOoEf-sv6PsHbVcnM6jZNH38g/s1600/mahatma+gandi+antarastriya+hindi+vishwavidhyalay+wardha+mahrastra.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhS0_RngbBOwf2sPKGfeyI4LNfvqE-1m0MU-hDxYUtGfHdZEM4jo2tJK1nsPzGWKMfFe4vRw1jaQL_phu2T8mXAeuhLCCFQlbhrU2WnCNVFnSHb7rDji0HOoEf-sv6PsHbVcnM6jZNH38g/s320/mahatma+gandi+antarastriya+hindi+vishwavidhyalay+wardha+mahrastra.jpg" width="320" height="177" /></a></div>
देर शाम बातचीत में डा. सुमन सुनील कुमार सुमन ने बताया कि विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा यहां दलित और आदिवासियों को प्रताड़ित करने का यह कोई नया मामला नहीं है। उन्होंने बताया कि यहां के आदिवासी समुदाय काफी अक्रोशित है। उनके समर्थन से आत्मविश्वस बढ़ गया है। डा. सुमन ने बताया कि अभी यह आंदोलन एक चेतावनी भर है। यदि सोमवार तक विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनका स्थानांतरण वापस नहीं लिया तो आंदोलन तेज किया जाएगा।
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संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-21475975769513268002016-07-15T21:17:00.000+05:002016-07-15T21:17:07.655+05:00अन्नदाता की मेहनत से कौन मालामाल<b>संजय स्वदेश</b>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg5PDey8nhob6-v9ZT9yg2FcH7noAXY9Z3Q5KSfrUR243AZcWJQhamHlTlGFWxQwwOFROPj7A4v2RJ_BZvWji1Xh9kXQzqcE4eFmceMVLhukXhJSc8I_em4vmCNYGM5qNepC7dbVc-P5wA/s1600/kheti-kisani-in-bihar-.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg5PDey8nhob6-v9ZT9yg2FcH7noAXY9Z3Q5KSfrUR243AZcWJQhamHlTlGFWxQwwOFROPj7A4v2RJ_BZvWji1Xh9kXQzqcE4eFmceMVLhukXhJSc8I_em4vmCNYGM5qNepC7dbVc-P5wA/s320/kheti-kisani-in-bihar-.jpg" width="320" height="213" /></a></div>
अर्थशास्त्र में मांग और पूर्ति की एक समान्य सी बात बताई जाती है। यदि मांग ज्यादा है तो कीमत भी ज्यादा होगी। यदि कीमत सस्ती होगी, तो आपूर्ति भी काम होगी। अर्थशास्त्र के इस नियम में भले ही बहुसंख्य धंधे फीट बैठते हों, लेकिन खेती-किसानी में यह बात थोड़ी-सी पटरी से उतर जाती है। मांग देखकर यदि किसान किसी अनाज की बुआई करता है और उस वर्ष उसका उत्पादन ज्यादा होता है, तो उस लागत से बहुत ज्यादा इतना भी धन प्राप्त नहीं हो पाता है कि वह कुछ रुपए अपने पास अगली बुआई के खर्च के लिए बचा सके। पूर्ववर्ती और वर्तमान सरकार के किसान हितैषी होने के तमाम दावों के बाद भी अन्नादाता किसानों की परिवारों में के घर वह बरकत नहीं है, जो धन्नासेठों के यहां होती है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा किसानों के आर्थिक स्थिति आंकलन सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2013 के दौरान किसान परिवारों पर कर्ज के आंकड़े एकत्र किये गये और उस दिन देश के हर किसान परिवार पर औसतन लगभग 47 हजार रुपए कर्ज होने का अनुमान लगाया गया है। इस ऋण में संस्थागत संस्थानों तथा सेठ-साहूकारों से लिए गए कर्ज भी शामिल हैं। सर्वेक्षण के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्र के लगभग 52 प्रतिशत किसान परिवारों के कर्ज के बोझ में दबे होने का अनुमान है। कम जोत के किसान परिवार पर कम कर्ज का भार है, जबकि बड़े किसान परिवारों पर अधिक कर्ज है। कम जमीन वाले 41.9 प्रतिशत किसानों पर कर्ज हैं, जबकि 10 हैक्टेयर से अधिक जमीन वाले 78.7 प्रतिशत किसान परिवार कर्जदार हैं। एक हैक्टेयर से कम जमीन वाले किसान परिवार पर औसतन 31,100 रुपए का ऋण है, जबकि 10 हैक्टेयर से अधिक जमीन जोतने वाले किसान परिवार लगभग 2,90,300 रुपए के कर्जदार हैं। एक हैक्टेयर से कम जमीन वाले किसानों ने संस्थागत संस्थानों अर्थात सरकार, सहकारिता समितियों और बैंकों से 15 प्रतिशत कर्ज लिया है, जबकि 10 हैक्टेयर से अधिक जमीन रखने वाले किसानों ने इन संस्थानों से 79 प्रतिशत कर्ज लिया है। राष्ट्रीय स्तर पर किसानों ने 60 प्रतिशत ऋण संस्थागत संस्थानों से लिया है। बैंकों ने 42.9 प्रतिशत ऋण दिया है, जबकि सहकारिता समितियों ने 14.8 प्रतिशत तथा सरकार ने 2.1 प्रतिशत ऋण दिया हुआ है। गैर-संस्थागत संस्थानों या सेठ-साहूकारों ने 25.8 प्रतिशत कर्ज किसानों को दिया है। वर्ष 2013 में किए गए सर्वेक्षण में देश में 9 करोड़ 2 लाख किसान परिवार होने का अनुमान लगाया गया है। लगभग 69 प्रतिशत कृषक परिवारों के पास एक हैक्टेयर से कम जमीन है। केवल 0.4 प्रतिशत किसान परिवारों के पास 10 हैक्टेयर या इससे अधिक जमीन है। राष्ट्रीय स्तर पर 0.1 प्रतिशत किसान परिवार भूमिहीन पाए गए, जबकि 6.7 प्रतिशत परिवारों के पास केवल मकान की ही जमीन थी। यानि कुल 92.6 प्रतिशत किसान परिवारों के पास मकान के अलावा कुछ जमीनें हैं। यह तो रही आंकड़ों की बात। जमीनी हकीकत तो यह है कि छोटे जोत के किसानों को बैंक कर्ज देने से कतराते हैं। यही किसान मोटे ब्याज दर पर सेठ साहूकारों से कर्ज लेकर केसी-किसानी शुरू करते हैं। परिवार के सदस्यों की जरूरतों को काट कर कर्ज भी उतार देते हैं। छोटे किसानों को बैंक कम ब्याज पर कर्ज दे दे तो <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhMTCddCtitG3Td8USTePz6o9fVIFlb5qF1TGO6kUQW8oc0OmwoLmp_UhqjA27d9UspHqUWx3Jp-0HMieMYnRKi5ynEQKsbzwN9Sr-6PNoWJVvK5zyn11L7eCgJupf0BNr-0V8F4RyJimU/s1600/sanjay+kumar_Bihar.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhMTCddCtitG3Td8USTePz6o9fVIFlb5qF1TGO6kUQW8oc0OmwoLmp_UhqjA27d9UspHqUWx3Jp-0HMieMYnRKi5ynEQKsbzwN9Sr-6PNoWJVvK5zyn11L7eCgJupf0BNr-0V8F4RyJimU/s200/sanjay+kumar_Bihar.jpg" width="200" height="200" /></a></div>थोड़ी बहुत खुशियां इनके घरों में भी अठ्खेलियां कर लेती। किसानों के लिए जो योजनाएं और सुविधाएं हैं, वह आसानी से पहुंच नहीं पाती हैं। सरकार यदि बोनस की घोषणा कर भी दे तो उसे लेने-देने की प्रक्रिया में इतनी कठिनाई होती है कि किसान निराश हो जाता है। वहीं इस प्रकियाओं में दलालों की चांदी होती है। छोटे जोत के किसान बिचौलियों के हाथों फंस कर सस्ते में अपनी फसल बेच देते हैं। इससे मुश्किल से ही अपने घर परिवार लायक खर्च जुटा पाते हैं। किसानों की मेहनत पर मालामाल कर्जदेने वाला साहूकार और अनाज खरीदने-बेचने वाले बिचौलिये होते हैं। संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-18880286053104858522016-07-10T21:12:00.000+05:002016-07-15T21:13:52.661+05:00विकास की कुल्हाड़ी से कटेगा बदहाली का पेड़<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjpELEqzn4llXIEF2mhhVhYN1Nuc7QrSgg-iwhZY20KL4ljOEMzKG10KMEZ-OdCABT0xClG6yTFcxBQb4r-A6PC-vGI0YigBnnzdbAkuf-mlQ5ZDVsp6NLOvyXNYNTIiFnI4hOKFWPjwbo/s1600/sanjay+kumar_Bihar.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjpELEqzn4llXIEF2mhhVhYN1Nuc7QrSgg-iwhZY20KL4ljOEMzKG10KMEZ-OdCABT0xClG6yTFcxBQb4r-A6PC-vGI0YigBnnzdbAkuf-mlQ5ZDVsp6NLOvyXNYNTIiFnI4hOKFWPjwbo/s320/sanjay+kumar_Bihar.jpg" width="320" height="320" /></a></div>
<b>संजय स्वदेश</b>
ऐसे कई छोटे व बदहाल देश हैं, जहां गरीबी-कुपोषण और बदहाली को दूर कर विकास की बयार बहाने के लिए भारत कर्ज देती है। लेकिन अपने ही देश में कई ऐसे राज्य हैं जो अपने यहां की बदहाली दूर कर विकास की गंगा बहाने के लिए केंद्र सरकार से फंड के लिए तरसते रहते हैं। बीते सप्ताह बिहार सरकार ने गरीबी से लड़ने के लिए विश्व बैंक से 1937 करोड़ का कर्ज लेने का कारार किया। हमेशा केंद्र सरकार पर निशाना साधने वाली बिहार सरकार के इस कर्ज के लिए केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार गारंट बनी। जब विकास की बात एकल व्यक्ति का हो अथवा परिवार या समाज या राज्य या राष्टÑ की हो तो बिना धन के योजनाओं का क्रियान्वयन महज कोरी कल्पना कहलाएगी। यह अच्छी बात है कि विकास के मुद्दे पर कभी-कभी केंद्र और राज्य की सरकारें एक हो जाती हैं। कितना अच्छा होता कि ऐसा हमेशा होता। विश्व बैंक का कर्ज जल्द मिलता है और उसका क्रियान्वयन बिना भ्रष्टाचार के होता है तो निश्चय ही बिहार के विकास की एक नई क्रांति का आगाज होगा। विश्व बैंक के मुताबिक यह रुपएा ग्रामीणों को स्वयं सहायता समूह बनाने, बाजार व सार्वजनिक सेवाओं तथा वित्तीय सेवाओं तक पहुंच उपलब्ध कराने में खर्च होगा। उन्हें बैंकों तथा अन्य प्रतिष्ठानों के जरिए वित्तीय सहायता मुहैया कराई जाएगी। हमेशा परदे में महिलाओं को सहेजने वाल राज्य के समाज में इन परियोजनाओं में महिलाओं को तबज्जों मिलेगी, यह और भी सराहनीय है। महिला सशक्तिकरण की दिशा ओर यह एक मजबूत कदम होगा। ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी कृषि कार्यों में महिलाओं की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है। लेकिन उस पर मालिकाना हक से वे वंचित हैं। योजना में महिलाओं की स्वामित्व वाली कृषि उत्पाद कंपनियों की स्थापना के लिए मदद मिलेगी, यह सराहनीय है। उम्मीद है कि इससे बिहार की 18 लाख महिलाओं को लाभ मिलेगा। पंचायती चुनाव में महिलाओं की सशक्त भागीदारी के बाद शराबबंदी ने बिहार में महिला जमात के हौसलें बुलंद हैं। घर के मर्दों के सहारे ही सही वे दहलीज से बाहर निकल रही हैं। साइकिल या छात्रवृत्ति का लालच ही सही, बेटियां घर से बाहर निकलीं और पढ़ने लगी। अभी भी उच्च शिक्षा में लड़कियां पिछड़ी हैं, लेकिन हालत देखकर लगत हैं कि स्थिति देर की हैं अंधेर की नहीं। हालात एक दिन में नहीं बदलते हैं। धीरे-धरे ही बिहार में बदहाली और महिला शोषण की मानसिकता की गहरी पैठ बनी है। इसी जड़ें मजबूत हैं। जिस तरह कोई मजबूत और पुराना पेड़ कुल्हाड़ी के धीरे-धीरे के बार से कटता है, वैसे ही बिहार में विकास की कुल्हाड़ी से ही धीरे-धीरे बदहाली के जड़ों पर पड़ने वाले प्रहार इसे काट फेंकेंगे। संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-77259691226619463342016-04-16T21:45:00.000+05:002016-04-16T21:47:12.564+05:00सद्भावना की परंपरा में देरी नहीं लगती <b>पटना का प्रसिद्ध हनुमान मंदिर में रामवनवी के दिन आयोध्या के बाद सबसे ज्यादा भीड़ उमड़ती है। राम के जन्मोत्सव के जय घोष के दौराना मस्जिद में नामाज अता की गई। मुस्लिम भाइयों में हिंदू भाइयों से गले मिलकर सद्भावना का उदहरण पेश की। एक और उदाहरण देखिए। राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय नागपुर में है। यहां के सबसे पुराने पोद्दारेश्वर राम मंदिर से जब रामनवमी पर श्रीराम की झांकी निकते हुए मुस्लिम बाहुल्य इलाके मोमिनपुरा से गुजरती है तो वहां मुस्लिम समुदाय के लोग फूलों की वर्षा कर स्वागत करते हैं। ऐसा केवल रामनवमी के मौके पर ही ऐसा नहीं होता है।
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<a href="http://biharkatha.com"><b>संजय स्वदेश </b></a>
16 अप्रैल को देशभर में रामनवमी की धूम रही, पर गोपालगंज, सीवान और गोपालगंज जिले के ही मीरगंज में रामनवमी पर हिंसक घटनाओं में देशभर इन तीन जगहों को सुर्खियों में ला दिया। रामनवमी को निकली भगवान श्रीराम की शोभा यात्रा के दौरान गोपालगंज तथा मीरगंज नगर में दो पक्ष के लोग आमने-सामने आ गए। दोनों जगह शोभा यात्राओं पर पथराव से माहौल बिगड़ गया। हालांकि, हालात बिगड़ते देख मौके पर भारी संख्या में पहुंची पुलिस ने स्थिति पर काबू पाया। गोपालगंज के ही मीरगंज नगर में भी शोभा यात्रा के मरछिया देवी चौके के पास थाना मोड़ पर पहुंचते ही मस्जिद के समीप कुछ लोगों ने पथराव कर दिया। इससे दोनों पक्ष के लोग आमने-सामने आ गए। पथराव में कई लोग घायल हो गए। यहां हिंसा पर उतारू भीड़ ने सड़क पर आगजनी की तथा शोभा यात्रा में शामिल लोगों के आधा दर्जन बाइक भी फूंक दिए। सिवान में भी कुछ ऐसा ही हुआ। रामनवमी के मौके पर निकाली गई शोभा यात्रा के दौरान सिवान के नवलपुर में दो गुटों के बीच विवाद हो गया। देखते-देखते तोडफोड़ व पथराव होने लगा। असामाजिक तत्वों ने कई गाड़ियों के शीशे भी तोड़ दिए। इस दौरान भीड़ में फायरिंग भी की गई। सिवान के जेपी चौक पर भी दो गुट भिड़ गए। हंगामे की सूचना पाकर डीएम व एसपी ने शहर में फ्लैग मार्च किया। स्थिति पर नियंत्रण के लिए पुलिस ने लाठीचार्ज व हवाई फायरिंग की। शहर में माहौल को शांत कराने के लिए प्रशासन ने कुछ देर के लिए सभी अखाड़ों को रोक दिया। घटना के बाद बजरंग दल के कार्यकर्ता टाउन थाने में पहुंच कर हंगामा करने लगे। करीब तीन घंटे बाद माहौल सामान्य हुआ। फिर, शहर में अखाड़ों का निकलना शुरू हुआ।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhBEkVMDarxrwOgOOGZHt_FTKSxBEwP0tkba71VAdfDVBXnTWNpDTac5jBl5Rta_N-CODif84z7ZMroLweTVraxGfnjFdMkZvu3eSYRcI_BRCp9U7KyOOyTCQZhPuWNVOfahKAkf1cReKQ/s1600/hanuman+mandir+patna.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhBEkVMDarxrwOgOOGZHt_FTKSxBEwP0tkba71VAdfDVBXnTWNpDTac5jBl5Rta_N-CODif84z7ZMroLweTVraxGfnjFdMkZvu3eSYRcI_BRCp9U7KyOOyTCQZhPuWNVOfahKAkf1cReKQ/s320/hanuman+mandir+patna.jpg" /></a></div>
गोपालगंज और सीवान में यह ऐसा पहला मामला नहीं है कि कि जब धार्मिक उत्सवों के दौरान हिंसक झड़प हुर्इं हो। ऐसा हमेशा होता है कि जब कोई स्थानीय उत्सव आने वाला होता है तो थाने में शांति समिति की बैठक होती है। उत्सव को शांतिपूर्ण तरीके से निपटने के लिए आम सहमति बनी है। इसके बाद भी धार्मिक उत्सवों के दौरान हिंसा की घटना समाज में हिलोरे मारते एक बड़े अंतर्कलह का संकेत देती है। यह स्वास्थ समाज के सुंदर भविष्य के लिए ठीक नहीं है। ऐसे मजहबी उपद्रव के बाद हुए मजहबी दंगे के दंश बड़े घातक होते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी टीस चलती रहती है। पिछले कई दंगों का इतिहास खंगाल का देखिए, क्षणिक उन्नाद में उठाये कदम से किसे क्या मिला है?
देश के कई शहरों में ऐसे मौके के कई ऐसे प्रसंग हैं, जो समाजिक सद्भावना के अनूठ मिशाल के रूप में गिनाये जाते हैं। ज्यादा दूर न जाकर इसी रामनवमी के दिन पटना में कुछ अनूठा हुआ। पटना का प्रसिद्ध हनुमान मंदिर में रामवनवी के दिन आयोध्या के बाद सबसे ज्यादा भीड़ उमड़ती है। राम के जन्मोत्सव के जय घोष के दौराना मस्जिद में नामाज अता की गई। मुस्लिम भाइयों में हिंदू भाइयों से गले मिलकर सद्भावना का उदहरण पेश की। एक और उदाहरण देखिए। राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय नागपुर में है। यहां के सबसे पुराने पोद्दारेश्वर राम मंदिर से जब रामनवमी पर श्रीराम की झांकी निकते हुए मुस्लिम बाहुल्य इलाके मोमिनपुरा से गुजरती है तो वहां मुस्लिम समुदाय के लोग फूलों की वर्षा कर स्वागत करते हैं। ऐसा केवल रामनवमी के मौके पर ही ऐसा नहीं होता है। जब विजयदशमी के मौके पर राष्टÑीय स्वयं सेवक संघ की परेड निकलती है तो भी उसका स्वागत मुस्लिम समाज के लोग पुष्प वर्षा से करते हैं। लेकिन सद्भावा की ऐसी तासीर सिवान, गोपालगंज और सारण के क्षेत्र में क्यों नहीं दिखती है। निजी अनुभव है, यहां के युवाओं में बातचीत में महसूस होता है कि धार्मिक जुलूस चाहे किसी भी समुदाय के हो, जब उसे किसी धार्मिक स्थल से गुजरना होता है तब उसकी मानसिकता शक्ति प्रदर्शन की होती है। यह मनोविज्ञान दिमाग में हावी हो जाता है कि हर हाल में अपना मजहब या धर्म दूसरे को दूसरे से ऊंचा और पावरफुल दिखाना है। करीब एक दशक पहले ऐसे हालात नहीं थे। सियासत में जब धार्मिक आधार पर धुव्रीकरण का खेल शुरू हुआ, तब धीरे धीर बिहार में खासकर सारण के बेल्ट की <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjVItAU8iWeOwD6NslvOvcWHlSdynmvAut1hDsjP9xWTpItk8VWiw-1gEWOD1N9dgYdhv4_8F3D2YBPrPT0qTmswjoOJEI7NUvqEQH-iCGjtievWZDBLDDf1H0mIzOHeu7Vd__PfSwXqRg/s1600/sanjay+swadesh.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjVItAU8iWeOwD6NslvOvcWHlSdynmvAut1hDsjP9xWTpItk8VWiw-1gEWOD1N9dgYdhv4_8F3D2YBPrPT0qTmswjoOJEI7NUvqEQH-iCGjtievWZDBLDDf1H0mIzOHeu7Vd__PfSwXqRg/s320/sanjay+swadesh.jpg" /></a></div>जनमानस में धार्मिक वर्चस्व की भावना मजबूत होती गई। यह बीमारी दिमाग में घर कर गई है कि दोनों मजहब वाले एक दूजे के दुश्मन है। लेकिन ऐसा नहीं है कि दोनों मजहबों के का हर बुद्धिजीवी इसी बीमारी से पीड़ित है। दोनों समाज के शिक्षित सम्मानित लोग धर्म का असली मर्म समझते हैं। उन्हें पता है कि सियासत की आंच पर महजब की रोटी अच्छे से सेंकी जाती है। लिहाजा, उन्हें आगे आना चाहिए। एक दूसरे के तीज ज्यौहारों में ऐसे उदाहरण पेश करना चाहिए, जिसे सद्भाव की मिशाल बने। बड़ों की मिशाल नई पीढ़ी के लिए सीख होती है। यह सीख एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक चलती है। यही परंपरा बनती है। कोई तो मिशाल की शुरुआत करे, परंपरा बनते देर नहीं लगेगी। संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-64031897158070484182016-04-03T23:46:00.000+05:002016-04-07T17:21:51.781+05:00...अब और न हो सकड़ पर मौत<b>संजय स्वदेश </b>
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सड़क दुर्घटना में जख्मी लोगों को मदद करने और अस्पताल पहुंचाने वाले लोगों को अब पुलिस या अन्य कोई भी अधिकारी द्वारा जांच के नाम पर परेशान नहीं करने संबंधी केंद्र सरकार के जारी दिशानिर्देशों पर मुहर लगाते हुए एक फरमाना जारी किया है। यह सरकार और सुप्रीम कोर्ट स्वागतयोग्य पहल है। सड़क दुर्घटनाओं में ज्यादातर मौत समय पर चिकित्सा नहीं मिलने के कारण होती है। अधिकतर मामलों में देखा गया है कि हादसों के शिकार खून से लथपथ मदद के लिए तड़पते रहते हैं, देखने वालों की भीड़ जमा हो जाती है, लेकिन कोई आगे आकर झटपट उठा कर अस्पताल जाने की हिम्मत कोई नहीं दिखता है। सबको पुलिस के पचड़े में पड़ने का डर सताता है। ऐसे नजारे देश के हर शहर में देखने को मिल जाएंगे। करीब बीस बरस पहले की बात है। देश की राजधानी दिल्ली में सड़क हादसे के मददगारों में पुलिस का ऐसा खौफ था कि लोग दुर्घटना पीड़ित को भीड़ में घेर कर उसकी बेबशी देखते हुए पुलिस के आने का इंतजार करते रहते थे। एक के बाद एक मौतों के बाद दिल्ली पुलिस ने समाचार पत्रों में इस्तहारे देकर यह अपील की कि आप सड़क हादसे में पीड़ित को पास के अस्पताल पहुंचाए, पुलिस मददगार को परेशान नहीं करेगी। अपील के बाद भी लोगों के मन में खौफ कायम रहा। अब जब सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस द्वारा मददगार का परेशान नहीं करने का स्पष्ट फरमान दे दिया तो मन को सकुन मिलता है। सुप्रीम कोर्ट का यह दिशा निर्देश तब सफल होंगे जब व्यवहारिक रूप से पुलिस लोगों को परेशान नहीं करेगी। हालांकि कोर्ट ने कहा है कि पुलिस मुसीबत के समय दूसरों की मदद करने वाले नेक लोगों को कोई अधिकारी प्रताड़ित न कर सके इसका प्रचार कराए, जिससे सड़क दुर्घटनाओं के पीड़ितों की जिंदगी बचाने वाले लोगों को पुलिस या अन्य अधिकारियों द्वारा प्रताड़ित किए जाने के डर को दूर किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूर्व न्यायाधीश के एस. राधाकृष्णन की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय समिति की सिफारिशों के आधार पर केंद्र सरकार ने पिछले साल सितंबर में ही इस दिशा में दिशानिर्देश जारी कर एक अधिसूचना जारी की थी। समिति की सिफारिश में कहा गया था कि सड़क दुर्घटनाओं के पीड़ितों की जिंदगी बचाने वाले लोगों को पुलिस या अन्य अधिकारियों द्वारा प्रताड़ित किए जाने से डरने की जरूरत नहीं है। <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhudMu1GJYucp3K-vJgvO2LwgxFS1ll5-jaeK-HyLIPUATlgkO1SDFva5fWGZqHSEgrNr82MHOhEgik_vrk4_1mL0alVKVTMTbhXQO6QXfjuPNU5o-D-jDR42wXZUf2trb-MF9qgLaFG_E/s1600/sanjay+swadesh.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhudMu1GJYucp3K-vJgvO2LwgxFS1ll5-jaeK-HyLIPUATlgkO1SDFva5fWGZqHSEgrNr82MHOhEgik_vrk4_1mL0alVKVTMTbhXQO6QXfjuPNU5o-D-jDR42wXZUf2trb-MF9qgLaFG_E/s320/sanjay+swadesh.jpg" /></a></div>
सड़क हादसे में पीड़ित को यदि मददगार पुलिस के डर को दरकिनार कर अस्पताल पहुंचा दे तो उसकी वहां एक दूसरे तरह की कठिनाई शुरू हो जाती है। अस्पताल के कर्मचारी त्वरित इलाज शुरू करने से पहले कागजी फॉरमालटिज पूरी कराने और पुलिस को बुलाने में पर जोर देते हैं। यदि अस्पताल निजी हो तो परेशानी बढ़ जाती है। निजी अस्पताल वालों को इस बात का डर रहता है कि यदि उन्होंने अनजान का इलाज शुरू किया तो उसका खर्च कौन भरेगा। फिर पुलिस की औपचारिकता का अलग झमेला। यह अच्छी बात है कि सरकार ने इस ओर भी ध्यान दिया है। केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से भी सभी पंजीकृत सार्वजनिक एवं निजी अस्पतालों को दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं कि वे सहायता करने वाले व्यक्ति से अस्पताल में घायल व्यक्ति के पंजीकरण और दाखिले के लिए किसी प्रकार के शुल्क की मांग नहीं की जाएगी। अधिसूचना में यह भी प्रावधान है कि घायल की सहायता करने वाला व्यक्ति उसके पारिवारिक सदस्य अथवा रिश्तेदार है तो भी घायल व्यक्ति को तुरंत इलाज शुरू किया जाएगा, भले ही उनसे बाद में शुल्क जमा कराया जाए। लेकिन सवाल यह है कि सरकार और कोर्ट की यह पहल अस्पताल प्रशासन और पुलिस कितनी शिद्दत से अमल करेंगे। जिस तरह सरकार अपनी महत्वकांक्षी योजनाओं पर करोड़ों रुपए खर्च कर प्रचार प्रसार कर जनता तक पहुंचाती है, वैसे ही नई और सराहनीय पहल को भी मजबूत प्रचार प्रसार से जन जन तक पहुंचा कर जनता को जागरुक करना चाहिए, जिससे सड़क हादसे के शिकार त्वरित मेडिकल सुविधा नहीं मिलने के कारण अब और मौत के मुंह में समाने से बच सकें।संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-59563629952868785432016-02-23T23:28:00.000+05:002016-02-23T23:28:04.078+05:00क्या फेसबुक नेशनल मीडिया है!<b>क्या फेसबुक नेशनल मीडिया है!</b>
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संजय स्वदेश</b>
युवा फेसबुकिया मित्र वेद प्रकाश ने अपनी टाइम लाइन पर जो शेयर किया था, वह आप भी जानिए। आपको न्यूज चैनल में कभी ऐसे सुनने को मिला है-कैमरामैन फलां पटेल के साथ मैं फलाना यादव। कैमरामैन फला कुशवाहा के साथ मैं फलाना विश्वकर्मा। मैं फला प्रजापति के साथ फलाना साव। कैमरामैन फलां हुड्डा के साथ मैं फलां निषाद। अगर ये ओबीसी भी मीडिया में नहीं हैं तो कौन है? एससी एसटी तो हो ही नहीं सकते। आपको सुनते होंग कि फलां मिश्रा/द्विवेदी/त्रिवेदी/चतुर्वेदी/पांडे/तिवारी/झा/दूबे/त्रिपाठी/ चौबे/त्यागी/वाजपेयी/कश्यम/शर्मा आदि-आदि..। तो ये दो चार जाति के वर्चस्व वाली मीडिया को देश का नेशनल मीडिया कैसे कहा जा सकता है। लोकतंत्र में कथित चौथाखम्भा में लोकतंत्र कहा है। ये तो ब्रह्मणवादी मीडिया है। हमारे देश का नेशनल मीडिया तो फसबुक है। जहां हर जाति वर्ग के लोग पत्रकार है। यहां कथित नेशनल मीडिया वाले मनुवादी पत्रकार बहुजनों के सामने बौना नजर आ रहे हैं।
वेद प्रकाश के टाइम लाइन पर शेयर इन बातों पर प्रतिक्रिया देते हुए गौरव कुमार पाठक कहते हैं-भाई जल क्यों रहे हो तुम, अगर तुम्हारे अंदर प्रतिभा है तो सामने आओ, दूसरे की बुराई करने से आगे थोरे ही आ जाओगे तुम, प्रतिभा के दम पर पीछे करने कोशिश करो, खुद ब खुद जवाब मिल जाएगा तुम्हे।
फेसबुक की आभासी दुनिया में इस तरह के तर्क-वितर्क कोई नई बात नहीं है। यहां फेसबुक की टाइम लाइन हर किसी के लिए अपना स्वतंत्र मीडिया का प्लेटफार्म है। अपनी बात अपनी मर्जी से रखो, विरोध की अभिव्यक्ति की पूरी आजादी ही नहीं अपितु पूरा स्पेस भी है। समाज की असली जिंदगी में कभी-कभी प्रसंग आने पर यह जरूर सुनने को मिल जाता है कि मीडिया बिक चुकी है। फेसबुक की दुनिया में तो इस बात को लेकर हर दिन चर्चा होती है। यहां तक की मीडिया को लेकर भद्दे भद्दे कॉमेट या गाली गलौच किया जाता है। यहीं यह सवाल उठता है कि यदि मीडिया भ्रष्ट है, बिकाऊ है तो असल समाज में ये लोग हैं कौन? जब मीडिया में हमेशा ही प्रतिभाशाली माने जाने वाले समाज के अभिजात्य वर्ग वालों का कब्जा है और उनका ही नियंत्रण है तो फिर मीडिया का स्तर क्यों गिर रहा है। कई आरक्षण विरोधियों से यह कहते सुना है कि इससे देश बंट गया है। आरक्षण का आधार जाति नहीं आर्थिक होना चाहिए। सवाल है कि जब मीडिया में किसी तरह का आरक्षण नहीं है। इस पेशे में अधिकतर लोग गैर आरक्षित पेशे से हैं तो फिर मीडिया की विश्वसनीयता पर इतना बड़ा संकट कैसे खड़ा हो गया है? गहराई से समझने वाली बात है, जब से सूचना तकनीकी की पहुंच जन जन तक होने लगी है, खबरों की हकीकत समझ में आने लगी है। अब बहुसंख्यक जनता मीडिया के फैलाए भ्रम में नहीं पड़ती है। पिछले साल की ही तो बात है। बिहार की सियासत में मीडिया के दुरुपयोग का बड़ा प्रयोग हुआ था। एक पार्टी विशेष ने प्रिंट मीडिया का इतना स्पेश पहले से ही बुक कर रखा था कि हर जगह वह ही वह दिखती थी। मीडिया के माध्यम से जन जन तक जंगलराज रिटर्न की बात पहुंचाने की कोशिश की गई। लेकिन परिणामों ने यह सिद्ध कर दिया कि मीडिया की गली से निकली इस सियासी भ्रम में जतना नहीं पड़ी। अंदर ही अंदर एक मौन माहौल चलता रहा और उसका परिणाम भी दिखा।
मीडिया संस्थानों का संचालन पूंजीपतियों के बश की ही बात है। बड़ी लागत मामूली करोबारी लगा कर मीडिया का इंपायर नहीं खड़ा कर सकता है। छोटे पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से एक सार्थक पहल तो होती है लेकिन जल्द ही यह पहल थक हाकर कर ठहर जाती है। पहले से महाधीश की तरह जम जमाये मीडिया संस्थानों के कारण यदि मीडिया की विश्वसनीयता संकट में है तो यह चिंता की बात दलित, पिछड़े अथवा बहुजन समाज के लिए नहीं है। जमे जमाये विश्वास से अपना हित साधते रहने वाले मीडिया मालिक इसकी चिंता करें।
संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-31427038959613676982015-11-21T00:27:00.000+05:002015-11-21T00:27:16.543+05:00लालू का पुत्र मोह, उम्मीद की किरण या घातक निर्णय!लालू का पुत्र मोह, उम्मीद की किरण या घातक निर्णय!
नीतीश को कमजोर करके भी चूक गए लालू प्रसाद
<b>संजय स्वदेश </b>
समय से पहले और जरूरत से ज्यादा अगर कोई जिम्ममेदारी किसी को सौंपी जाती है तो सिर्फ चमत्कार से ही सफलता की उम्मीद करनी चाहिए। लालू के दोनों लाल तेजस्वी और तेज प्रताप पर भी यही बात लागू होती है। राजनीति में गहरी दिलचस्पी रखने वाले बुढ़े बुजुर्ग जानते होंगे कि लालू प्रसाद ने कैसे-कैसे राजनीतिक झंझावातों में अपनी सियासी नैया को मजबूती से खेते हुए अपनी चमक बरकरार रखे। जिस प्रदेश में करीब दो दशक तक अस्थिर सरकार की मजबूत परिपाटी रही हो, वहां लालू का दल पांच साल क्या पंद्रह साल तक सत्ता में रहती है। जेल जाने पर उनकी अशिक्षित पत्नी राबड़ी देवी कमान संभाल कर देश ही नहीं दुनिया में असल लोकतंत्र की चरम उदाहरण सी बनती हैं। लोकसभा चुनावों के बाद निष्प्राण हुई राजद में प्राण फूंकने के लिए भले ही लालू प्रसाद यादव ने दिन रात एक कर दिया हो, लेकिन किसी भी जंग के नायक की असली ताकत तो उनके पीछे के प्यादे भी होते हैं। तेजस्वी को उपमुख्यमंत्री बनने से सबसे अधिक निराशा अब्दुल बारी सिद्दीकी के होगी। सिद्दीकी को भले की वित्तमंत्री का पद मिल गया हो, लेकिन उनके चेहरे पर इस मंत्रालय के मिलने की खुशी से ज्यादा एक मलाल की रेखा साफ दिख रही थी। संभवत यह मलाल की रेखा इसलिए उभरी हो क्योंकि उनके हक पर उस लालू प्रसाद का पुत्र मोह भारी पड़ गया, जिसके लिए उन्होंने उनका साथ उस समय तक न हीं छोड़ा, जब लालू की वापसी की उम्मीद खत्म हो गई थी। लालू के जेल जाने के बाद भी वे डट कर पार्टी की मजबूती में जुटे रहे। लोकसभा चुनाव में पहले संकटमोचक कई अपने साथ छोड़ गए। विधानसभा चुनाव वे महागठबंधन से पहले जब पार्टी में मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी को लेकर संशय था, तब अब्दुल बारी सिद्दीकी ने अपनी अप्रत्क्ष रूप से दावेदारी पेश की थी। खैर अभी हालात जो भी हो, लेकिन जिस तरह चुनाव से पूर्व पप्पू यादव ने परिवारबाद को लेकर बागी तेवर दिखाए थे, वह भविष्य में राजद में नहीं दिखेगा, इसकी संभावन से इनकार नहीं किया जा सकता है। पार्टी में भले ही आज कोई कुछ न बोले लेकिन भविष्य में आतंकरिक कलह की संभावना हमेशा बनती है।
इसमें दो राय नहीं कि लोकसभा चुनाव के बाद राजनीति के हाशिए पर आए लालू प्रसाद ने विधानसभा चुनाव में अपने परंपरागत वोट बैंक की जबरर्जस्त वापसी की। माय का दरका वोट बैंक फिर से लालू के साथ जुड़ गया। नई नवेली सरकार के गठन में लालू प्रसाद ने जाने अनजाने में एक ऐतिहासिक चूक कर दी। वे चाहते तो उप मुख्यमंत्री का पद अपने बेटे को दिलाने के बजाय किसी मुस्लिम नेता को दिलाते। फिर क्या था, लालू एक क्षण में देशभर में समाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के पुरोधा बन जाते। बोल बचनों से कोई इतिहास पुरुष नहीं बनता है। आने वाली पीढ़िया किसी नेतृत्व को तब याद करती है, जब उसने व्यवारिक धरातल पर जनमानस पर अपनी छाप छोड़ी हो। नब्बे के दशक में लालू ने पिछड़ों का मनोबल बढ़ा कर निश्चित रूप से जनता पर अपनी छाप छोड़ी, लेकिन इतिहास में ऐसे भी नायक रहे हैं जो महानायक बनने से इसलिए चूक गए क्योंकि वे सही मौके पर पुत्र या परिवार के मोह से जकड़ गए। लालू की राजद की झोली में जब पूरे मुस्लिम कुनबे का जनाधार है, तो यह समाज उनसे इतनी उम्मीद तो कर ही सकता है। याद करिए महाराष्ट्र को जहां बाल ठाकरे के करिश्मे ने शिवसेना और भाजपा को सत्ता की गद्दी तक पहुंचाया था और बाल ठाकरे ने एक रिमोट मुख्यमंत्री बना दिया था। डेढ़ दशक बाद तक शिवसेना सत्ता में नहीं आई। हां, दो दशक बाद आज भाजपा की सरकार में शामिल होकर दोयम दर्जे की स्थिति में है। आज लालू भले ही सरकार को नियंत्रित करें, लेकिन भविष्य में बेटे को सत्ता का शिद्दस्त करने का एक मौका चूकते दिख रहे हैं। एक उदाहरण पंजाब का भी लेते हैं। प्रकाश सिंह बादल प्रतीक रूप से अकाली दल के सवेसर्वा हैं। सरकार में भले ही सारे निर्णय सुखबीर सिंह बादल लेते रहे, लेकिन परिणाम यह हुआ कि चाहकर भी वे अपनी स्वीकार्यता पंजाब में नहीं बना पाए। बिहार के उप मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री की कुर्सी तेजस्वी यादव और तेज प्रताप यादव के लिए राजनीति में न केवल एक अवसर की तरह है, बल्कि एक चुनौती भी है। रोजमर्रा के काम काज को निपटाने के लिए जो प्रशासनिक दक्षता चाहिए होगी, उसका परीक्षण अभी तक लालू के दोनों बेटो में नहीं हो पाया है। वैसे भी ये मंत्री की कुर्सी पर बैठे बिना भी पिता के मार्गदर्शन में काम करते हुए जितना श्रेय ले सकते थे, लेकिन उन्हें सीधे जवाबदेही और बदनामी के लिए तैयार रहना होगा। उप मुख्यमंत्री बनने और मंत्री बनने के पास उनके पास जादू की छड़ी आ गई है। इसमें कोई दो राय नहीं लेकिन इस छड़ी से खरगोश कबूतर हो जाएगा या फिर कबूतर खरगोश, यह कहना मुश्किल है। हर संभावना का अंत शिखर पर पहुंचकर हो जाता है। प्रदेश में सत्ता के एक पग दूर तक पहुंच कर तेजस्वी यादव और तेज प्रताप कौन सी संभावना पैदा करेंगे, इसे हर कोई देखना चाहेगा।
मंत्रालयों के बंटवारे पर गौर करें तो यह साफ होता है कि बिहार में ताजपोशी भले ही नीतीश कुमार की हुई है लेकिन असल पावर कहीं न कहीं राजद के पास है। तेजस्वी को उप मुख्यमंत्री बनाने के साथ ही पीडब्लूडीमंत्री बनाना और तेज प्रताप को भी स्वास्थ्य और सिंचाई जैसा अहम मंत्रालय सौंपना इस बात का साफ संकेत है। यही नहीं, अब्दुल बारी सिद्दीकी को वित्तमंत्री <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjJBuftAPERKGzDU_RL6Ab7PJV1-jDunSO-9sv2X1vtGgytKCz54XfyDqyXc14Thaj2z_U2pR_UeAP4cv4LsfB1qrdxBhbLiylTQR7yxgPob0REO7kUKVEmrEGMR7JR0e4NPwcqnaKuTWA/s1600/sanjay+swadesh.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjJBuftAPERKGzDU_RL6Ab7PJV1-jDunSO-9sv2X1vtGgytKCz54XfyDqyXc14Thaj2z_U2pR_UeAP4cv4LsfB1qrdxBhbLiylTQR7yxgPob0REO7kUKVEmrEGMR7JR0e4NPwcqnaKuTWA/s320/sanjay+swadesh.jpg" /></a></div>बनाकर राजद ने अपना पलड़ा और भारी किया है। इसके अलावा अन्य कई मलाईदार मंत्रालयों को राजद के खाते में दिला कर लालू प्रसाद ने यह साबित कर दिया कि भले ही ताजपोशी नीतीश कुमार की हुई हो, लेकिन असली सत्ता उनकी पार्टी राजद के हाथ में ही रहेगी। लिहाजा, मंत्रियों के क्रियाकलापों पर अपराध की अराजकता का दंश झेल रहे बिहार में सुशासन अब नीतीश की असली परीक्षा होगी। नीतीश निश्चित ही अपने प्रथम व ऐतिहासिक मुख्यमंत्रित्वकाल की तुलना में कमजोर दिख रहे हैं। लिहाजा, ज्यादा उम्मीद तो लालू, तेजस्वी और तेजप्रताप से ही बनेगी।
संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-27578002964253356432015-10-03T22:49:00.001+05:002015-10-03T22:49:15.874+05:00विधायक योग्य होंगे तो सब ठीक होगा<b>संजय स्वदेश</b>
बिहार विधानसभा चुनाव में उम्मीदवारों के मैदान में उतरने से पहले ऐसी उम्मीद थी कि इस का चुनाव पंरपरागत मुद्दों को तोड़ेंगे। जाति की बोल मंद पड़ेगी और विकास का मुद्दा तेज होगा। लेकिन उम्मीदवारों की घोषणा होते-होते और प्रचार प्रसार में आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति ने एक सकारात्मक उम्मीद पर पानी फेर दिया। बिहार में चुनाव जाति से इतर आधारित हो ही नहीं सकते हैं। जहां जाति बाहुल्य मतदाताओं की अनदेखी कर उम्मीदवार उतरे हैं, वहां जाति को ही मुद्दा बनाकर विपक्ष मैदान में मोर्चो खोले हुए है। हालांकि शुरुआत टिकट के बंटवारे से होती है। बिहार के करीब सभी दलों में यही हाल है। जाति का दंश क्या होता है, यह जाति के छुआछूत और भेदभाव वाले ही समझते हैं। जाति ने अयोग्यता को ढंग दिया। महज जाति विशेष के समीकरण को साधने के लिए मंत्रीमंडल में अयोग्य लोग मंत्री भी बने। निश्चय ही इसका असर बिहार की राजनीति में नाकरा त्मक असर दिखा है।
जाति के नासूर की जड़ बिहार की राजनीति में गहराई तक फैली है। लिहाजा एक -दो बार के चुनाव में यह मिथक टूट जाए और विकास के मुद्दे पर आधारित होकर राजनीति की बयार बह जाए, यह इतना सहज भी नहीं है। लेकिन पूर्वर्ती चुनावों की तुलना में इस बार के चुनाव में खास बात यह है कि सोशल मीडिया के माध्यम से जागरुकत जनता क्षेत्र के विशेष के उम्मीदवारों पर कहीं न कहीं यह दबाव बनाती नजर आ रही है कि वह अपने एजेंडे को तय करें कि वह जीत के बाद उस विधानसभा में क्या और कैसे करेगा? हालांकि इस बार सोशल मीडिया में स्वत: चली यह मुहिमअब जमीनी हकीकत पर भी थोड़ा बहुत दिखने लगी है। उम्मीदवार जाति समीकरण को ध्यान में रखते हुए स्थानीय मुद्दे पर बात करने लगे हैं। यह बदलाव का प्रथम चरण है, पर सकारात्मक है। परंपरागत मीडिया ने कभी जनता को इस तरह से झकझोर कर उठाने और जागरूकत करने की तैयारी भी नहीं की। पूर्ववर्ती चुनावों में पेड न्यूज का बोलबाला रहा। लेकिन सोशल मीडिया के खुले मंच ने सबकी पोल खोलनी शुरू कर दी है। दूसरी ओर चुनाव आयोग की धीरे-धीरे बढ़ती सख्ती के दबाव में भी बहुत कुछ बदल रहा है। जाति के नाकारात्मक माहौल के बीच धीरे-धीरे इस तरह के सकारात्मक बदलाव भविष्य के कुछ बेहतर होने के सूचक हैं। <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh3Uecq93jm5HFKzT3Bw7CBMUK43-s5aAXoSZi-e3Ye4HoNMUVgtSKHON4l0ypamC4_rqSJmaBN_eWGHr8zzkT6hPBt4349GB9x37ovHUAL4Bg6P05VN6qkg_W55ue5xg_ajyzvEkabQxE/s1600/bihar+election.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh3Uecq93jm5HFKzT3Bw7CBMUK43-s5aAXoSZi-e3Ye4HoNMUVgtSKHON4l0ypamC4_rqSJmaBN_eWGHr8zzkT6hPBt4349GB9x37ovHUAL4Bg6P05VN6qkg_W55ue5xg_ajyzvEkabQxE/s320/bihar+election.jpg" /></a></div>
जाति आधारित राजनीति पर कुठराघात नहीं होने का एक बड़ा कारण बिहार में मतदान प्रतिशत का कम होना भी है। दूषित राजनीतिक कह कर राजनीति कसे घृणा करने वााले तथा एक मेरे मतदान से क्या होगा कि सोच से मतदान प्रतिशत कम रहा है। इसके अलावा बिहार की एक बड़ी संख्या का पलायन कर बिहार से बाहर जाने का असर भी मतदान पर रहा है। लेकिन इस बार हालात बदलने के आसार है। बिहार के खास पर्व-त्यौहारों के बीच में मतदान की तिथि से शायद फर्क पड़े। दशहरा-दिवाली के लिए प्रवासी लोग जब बिहार लौटेंगे तो निश्चय ही वह मतदान की प्रक्रिया में भी हिस्सा लेंगे। ानता खुद चाहती है कि अब बदलाव हो, इसलिए उम्मीद है कि इस बार मतदान प्रतिशत बढ़ेगा। लेकिन बदलाव का यह नहीं कि किसी दल विशेष की सत्ता उखाड़ कर दूसरे को बैठा देना। विधानसभा स्तर पर निष्क्रिय और जाति की अयोग्य नेताओं को हराना और योग्य तो जीताना ही असली बदलावा होगा। सरकार चाहे किसी की बने। यदि विधायक योग्य होंगे तो निश्चय ही सब कुछ ठीक होगा। संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-31870632610109039382015-09-22T23:15:00.003+05:002015-09-22T23:15:25.178+05:00बिना विधायक बने भी होती है जनता की सेवा <b>संजय स्वदेश <b></b></b>
कहते हैं कि न प्यार और जंग में सब कुछ जायज है। वैसे ही सत्ता की इस जंग में जीत के लिए क्या कुछ नहीं हो रहा है। यह परिपक्व होते लोकतंत्र की पहचान है कि अब कोई भी बड़ा से बड़ा राजनीतिक दल बिहार में अकेले अपने दमखम पर चुनाव मैदान में नहीं उतर सकता है। वोटों के बिखराव के नाम पर सत्ता के लिए गठबंधन सबकी मजबूरी हो चुकी है। जब गठबंधन है तो सीटों के बंटवारे में थोड़ा बहुत समझौता तो करना ही पड़ेगा। पार्टियों ने गठबंधन किया तो बलिदान कार्यकर्ताटों को भी देना पड़ेगा। एनडीए और महागंठबंधन में सीटों के बंटवारे से कई उन कार्यकर्ताओं के सूर बागी हो गए हैं जिनके मनपसंद के दावेदार को टिकट नहीं मिला। एनडीए गठबंधन के टिकट का बंटवारा कार्यकर्ताओं के मनपसंद को दरकिनार कर दिल्ली से हुआ। दावेदारों की जोरअजमाईश आलाकमान के आगे ध्वस्त हो गई। अब तक गठबंधन में अपनी जीत का दावा करने वाले एकाएक अपने सूर बदल कर कहने लगे हैं कि पार्टी हार जाएगी क्योंकि उसके पसंद के उम्मीदवार को टिकट नहीं मिला है। लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि गैर चुनावी दिनों में खासकर एक वर्ष पूर्व जब जो टिकट के दावेदार थे, वे क्षेत्र में सक्रिय होकर लोगों को जोड़ रहे थे। लेकिन वे पार्टी के नाम पर लोगों को ज्यादा से ज्यादा जोड़ने के बजाय वे अपने लिए कार्यकर्ता जोड़ रहे थे। लिहाजा वही लोग अब टिकट से मायूस होने पर गठबंधन विशेष को हार का अफवाह फैलाने लगे हैं। पुराने चुनावों के इतिहास गवाह हैं, टिकट किसी को भी मिले, लेकिन मैदान में आकर पार्टी के बगियों ने पार्टी के उम्मीदवारों के लिए परेशानी खड़ा किया है। किसी की जमानत जब्त होती है तो कोई अच्छा खास वोटों में सेंधमारी कर खुद तो हारता ही है दूसरे को भी हराता है। एक साल बाद फिर चुपके से पार्टी में वापसी भी हो जाती है। पांच साल बाद फिर वे टिकट के दावेदारों में शुमार हो जाते हैं। जनता के सेवा के नाम पर राजनीति का अब फैशन पैशन भी हो चुका है। लेकिन जनता की सेवा करने के लिए विधायक बनना जरूरी नहीं है। विधायक बनने के बाद आप कहेंगे अभी फंड नहीं आया है...फिर कहेंगे हमने तो प्रस्ताव दे दिया है कलेक्टेरियट में लटका है। अन्ना हजारे ने बिना विधायक बने की सरकार में हिला कर रख दिया था।
आप किसी भी जिले के हो, अपने जिले कि किसी अस्पताल में आप बेहतर इलाज की उम्मीद कर सकते हैं क्या? मामूली बात पर डॉक्टर पटना रेफर कर देंगे....तब आपके विधायक और विधायक बन कर विकास की गंगा बहाने का दावा करने वाले उम्मीदवार गैर चुनावी दिनों को क्या करते रहते थे। क्या वे विधानसभा स्तर पर एक मजबूत विपक्ष की भूमिका का निर्वहन कर जनता के अपनी मजबूत पैठ बनाने का कार्य नहंी कर सकते थे। जनता को बेवकूफ समझने वाले को न केवल पार्टी की बेवकूफ बनाती है, बल्कि जनता भी उन्हें सबक सीखती है। संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-2863353244038611562015-09-22T23:14:00.000+05:002015-09-22T23:14:02.150+05:00जात-पात से करवट ले रही बिहार की राजनीति
<b>संजय स्वदेश</b>
आज के युवाओं ने शायद यह सुनी होगी कि एक समय बिहार में बूथ लूट कर चुनाव जीते जाते थे। बाहुबलियों का सहारा लेकर उन बूथों पर कब्जा जमा लिया जाता था, जहां पक्ष में मतदान की उम्मीद नहीं होता थी। बूथ कब्जा कर स्वयं की बैलेट में मुहर लगाकर बॉक्स में डाल लिए जाते थे। तब यह कहा जाता था कि बिहार में जनता वोट कहां देती है। बिहार चुनाव की आहट आते ही अखबारों में बैलेट बनाम बुलेट बहस का प्रमुख विषय होता था। मतदाताओं की मर्जी से मतदान बिहार में सपना होता था। 12 दिसंबर 1990 को टी एन शेषन देश के दसवें मुख्य चुनाव आयुक्त बनें। शेषन ने अपने कार्यकाल में स्वच्छ एवं निष्पक्ष चुनाव सम्पन्न कराने के लिए नियमों का कड़ाई से पालन किया गया जिसके साथ तत्कालीन केन्द्रीय सरकार एवं ढीठ नेताओं के साथ कई विवाद हुए। अपने मौलिक सोच और दूढ़ता ने बिहार चुनाव में कई मिथक टूटे। तब बिना बुलेट मतदान सपना था, आज बूथ लूटना कर सत्ता पाना सपना हो गया है। जब बिहार की लोकतांत्रित प्रकिया में बुलेट का प्रभाव कम हुआ तब जात-पात की राजनीति ने जोर पकड़ लिया। ऐसी बात नहीं है कि नब्बे के दशक से पहले बिहार में जाति की सियासत नहीं होती थी। लेकिन नब्बे के बाद के हर चुनाव में दबे कुचले और पिछड़े तबकों को निडर मानसिकता का बना दिया। सियासत की बिसात पर जाति के मोहरे खड़े किए जाने लगे। लेकिन गत ढ़ाई दशक में हुए चुनाव के बाद अबकी हालात बदले-बदले से नजर आ रहे हैं। जातीय और धार्मिक धु्रवीकरण की आंधी सुस्त पड़ती दिख रही है। हर बार जात पात और विकास के नाम पर लड़े जाने वाले बिहार चुनावों में इस बार राजनीतिक दलों के बीच नई जंग होती दिख रही है। विकास असली मुद्दा बन गया है। पैकेज के बाद पैकेज का प्रहार भले ही राजनीतिक लगे, फिर भी यदि इसका क्रियान्वयन हो तो विकास बिहार का ही होगा, भला जनता का ही होगा। ऐसा लग रहा जाति की बेड़ियों में जकड़ा बिहार अब बदहाली के गर्त से निकलने के लिए कुलबुलाने लगा है। इसके संकेत चुनाव पूर्व के माहौल से मिलने लगा है। यह बिहार के सकारात्मक भविष्य का संकेत है।
बदलते सियासत के चुनावी जुमले में एक और उदाहरण देखें। चुनाव के लिए भाजपा और जेडीयू ने तो दो नए गीत ही लांच कर दिए हैं। भाजपा सांसद और भोजपुरी फिल्मों के सुपरस्टार मनोज तिवारी का गाना-इस बार बीजेपी, एक बार बीजेपी, जात पात से ऊपर की सरकार चाहिए बिजली पानी हर द्वार चाहिए।। सबका विकास सबका प्यार चाहिए, वापस गौरवशाली बिहार चाहिए... क्या संकेत देता है। जदयू भी इसी राह पर चलते हुए मनोज तिवारी की काट के लिए बॉलीवुड गायिका स्नेहा खनवलकर से यह गाना रिकार्ड करवाया है-फिर से एक बार हो, बिहार में बहार हो।। फिर से एक बार हो, नीतीशे एक बार हो।। फिलहाल भाजपा और जदयू दोनों के ये गीत अब गांव -गांव पहुंचने लगे हैं।
बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए जब दिल्ली समेत देश को दूसरे हिस्सों में चुनाव के दौरान बिजली, पानी और सड़क का मुद्दा जब प्रमुखता से चर्चा होता था, तब बिहार के चुनावों में इस मुद्दों पर किसी का ध्यान नहीं रहता है। बदलते हालात और सत्ता के लिए सियासत में जोर अजमाईस से क्या कुछ नया नहीं हो रहा है। हालात बदल रहे हैं। अब सरकार चाहे किसी की भी बनेगी, लेकिन विकास करना सबकी मजबूरी होगी। जनता जागने लगी है, होशियार हो चुकी है। वह जान गई है कि वह जनता है। सत्ता के दंभ में कोई कितना भ चूर क्यों न हो, जनता पांच साल बाद जनता होने का अहसास करा ही देती है। जनता को जनता होने का अहसास का अहसास अब बिहार के सियासी सुरमाओं को डराने लगा है। संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-44282295311964413772015-09-22T23:12:00.002+05:002015-09-22T23:12:32.928+05:00विकास तो सब करेंगे, पर कैसे? किसी पास नहीं रोड़मैप<b>संजय स्वदेश</b>
राजग हो या समाजवादियों के महागठबंधन का कुनबा, हर कोई हर हाल में बिहार की सत्ता पर आसीन होना चाहता है। लेकिन नीति की बात कोई नहीं कर रहा है। एक आदर्श राजनीति का दिया कहीं जलता नहीं दिख रहा है। बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए जब दिल्ली की राजनीति में अमूलचूल परिवर्तन हुए। अरविंद केजरीवाल ने विकास के हर मुद्दे पर चुनाव से पहले अपनी नीति प्रस्तुत की। जनता ने भरोसा जताया और उसे सत्ता सौंपी। कार्यशौली को लेकर भले ही आज दिल्ली में केजरीवाल सरकार की कितनी भी आलोचना हो, लेकिन सच तो यही है कि एक बेहतरीन राजनीति और जनता के बीच अपनी भावी नीतियों के संवाद से आम आदमी पाठी की पैठ बनी। क्या ऐसा ही कुछ बिहार में आपको होता दिख रहा है।
चाहे कोई भी दल हो, हर दल की छोटी से बड़ी जनसभाओं में बस एक दूसरे पर शब्दों के तीर बरसाये जाते हैं। आरोप प्रत्यारोप लगाए जाते हैं। सत्ता में आने के बाद विकास के दावे किये जाते हैं, लेकिन विकास की रूपरेखा क्या होगी, उसे कैसे पूरा करेंगे, इसपर कोई बात करता नहीं दिख रहा है। अभी बिहार की जमीनी हकीकत तो यह है कि जनता दुविधा में है, वह देखों और इंतजार करों की नीति अपना रही है। सबको सुन रही है, समझ रही है, लेकिन अभी अपना मूड नहीं बता रही है। रैली, होर्डिग्स, जनसभाओं से जनता का पूरा मूड नहीं भांपा जा सकता है। यह तो एक कृत्रिम माहौल का माध्यम है। जानने वाले जानते हैं कि होर्डिग्स का फंडा क्या है, जनसभाओं में भीड़ कैसे जुटती है। जो चेहरे भाजपा की रैली की भीड़ में दिखते हैं, वह उसमें से अधिकतर लालू की रैली में भी होते हैं। हवा बना कर, अफवाह उड़ाकर जनता को एक पार्टी विशेष के पक्ष में मतदान का फंडा बिहार में कोई नया नहीं है। बार-बार कोरे आश्वासनों से जनता अजीज आ चुकी है। अब जनता चाहती है कि उसके पास आने वाले नेता, उनकी समस्याओं को सुलझाने का कोरा आश्वासन लेकर आने के बजाय, कोई ठोस कार्य नीति के साथ आए। पर बिहार के चुनाव में ऐसा होता कहां है। जनता यह समझती है कि यह नेताओं के वादों की बरसात है। वादों के साथ जो भी प्रलोभन मिले, उसे स्वीकार करो, क्योंकि फिर ये पांच साल मुंह नहीं दिखाएंगे। इस दौरान अपना चुनावी खर्च और मुनाफा निकालने में व्यस्त रहेंगे।
वर्तमान में बिहार में 18-25 आयु-वर्ग के मतदाताओं की संख्या 28 प्रतिशत है, जबकि 25-35 की उम्र वाले मतदाता 24 प्रतिशत हैं। 18 से 35 साल के इन मतदाताओं की संख्या दो करोड़ के करीब है। युवा मतदाताओं की इस बड़ी जमात को देखकर और इसकी ताकत को भांप कर हर दल यह पहले ही कह चुका है कि टिकट में युवा उम्मीदवारों को तरजीह दी जाएगी। फिलहाल अभी टिकट तो नहीं बंटा है, लेकिन हर दल युवाओं की जमात को अपनी ओर जोड़ने की हर संभव रणनीति में हैं। बिहार में करीब साठ प्रतिशत युवा मतदाताओं को बेहतर रोजगार के अलावा और क्या चाहिए। क्या बिहार में बनने वाली कोई भी सरकार पांच बरस में इतने रोजगार के अवसर पैदा कर देगी कि पलायन नहीं होगा? केवल दावा करने से कुछ नहीं होगा, उन्हें बताना होगा कि इसके लिए राजनीतिक दलों के पास कौन की कार्य योजना है। यही राजनीति का बेहतर मार्ग है। वोटों की खरीद फरोख्त के परिणाम से भविष्य में हर कोई प्रभावित होता है। लेकिन अभी जो राजनीतिक हालात बन रहे हैं, उसके अनुसार जंगलराज पार्ट-2 बनाम कमंडल की स्थिति है। एक ओर जहां एनडीए की जमात लोगों में इस बात का खौफ फैला रहे हैं कि समाजवादियों के महागठबंधन यानी नीतीश लालू के गठजोड़ की सत्ता आई तो बिहार में फिर जंगलराज के हालात होंगे। जिस नीतीश के साथ भाजपा ने कदम से कदम मिलाकर बिहार में विकास की गंगा बहाने का डंका देश दुनिया में बजाया गया, आज उसी नीतीश का पूरा शासनकाल कलंकित हो चुका है। दिगर की बात यह है कि की जदयू-भाजपा गठबंधन में भाजपा के विधायक भी मंत्री थे। सुशील मोदी उप मुख्यमंत्री के पद पर सुशोभित थे। फिर तो नीतीश के जंगलराज की आधी जिम्मेदारी उनकी भी बनती है। लिहाजा, जनता को बरगलाने या भरमाकर सत्ता पाने की हर जुगत जारी है, लेकिन विकास का रोड़मैप किसी के पास नहीं है। -संजय स्वदेश, कार्यकारी संपादक, साप्ताहिक बिहार कथा
0000000000000संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-26423329910813352262015-08-13T23:29:00.000+05:002015-09-22T23:30:05.479+05:00दंगा कराने वाले, बचाने वाले और दंड दिलाने वाले सब एक<b>संजय स्वदेश</b>
चुनाव नजदीक है, हर दल अपना वोट बैंक बढ़ाने में लगे हैं। चुनाव की तारीख घोषणा होने के पहले ही नीतीश सरकार द्वारा गठित एक सदस्यीय भागलपुर सांप्रदायिक दंगा न्यायायिक जांच आयोग ने अपनी रिपोर्ट दे दी। रिपोर्ट जारी भी हो गई। रिपोर्ट के अनुसार सारा दोष कांग्रेस पर मढ़ा गया है। 25 साल पहले 1989-90 में हुए भागलपुर दंगे के लिए तब के कांग्रेस सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया गया है। शीलवर्द्धन सिंह अब अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (प्रशिक्षण) हैं। खुफिया ब्यूरों में वरिष्ठ पद पर आसीन हैं इसके साथ ही। रिपोर्ट में कहा गया है कि उस समय सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार और मुख्य रूप से एसपी (ग्रामीण) शीलवर्द्धन सिंह को दोषी दंगे के लिए दोषी है। रिपोर्ट में तत्कालीन एसपी पर कार्रवाई के लिए अनुशंसा भी की गई है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, भागलपुर शहर और तत्कालीन भागलपुर जिÞले के 18 प्रखंडों के 194 गांवों में दंगों में 1100 से ज्यादा लोग मारे गए थे। लोग बताते हैं कि यह सांप्रदायिक दंगा करीब छह महीने तक चला। मजेदार बात यह है कि नीतीश सरकार की गठित इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट इसी साल फरवरी में सरकार को सौंप दी थी। लेकिन तब सरकार ने इस रिपोर्ट को जारी नहीं किया। इसे अभी जारी करना इस बात का संकेत है कि सरकार इस जांच रिपोर्ट को चुनाव में भुनाना चाहती है।
जानकार बातते हैं कि बिहार में ग्रमाीण एसपी के लिए कोई पद बिहार में नहीं है। लेकिन जब दंगा भड़का तो उसे कथित नियंत्रण के नाम पर यह पद सृजित किया गया। लेकिन जिस अफसर को दंगे रोकने की जिम्मेदारी दी गई, रिपोर्ट के अनुसार सैकड़ों कत्ल ए आम का वहीं हत्यारा निकला।
इस देश में दंगे की आग पर राजनीति की रोटी खूब सेंकी जाती रही है, लेकिन अब वक्त बदल चुका है। सांप्रदायिक भीड़ यदि आक्रोशित होती है, तो उसी भीड़ में आज एक ऐसा वर्ग भी है तो सही हालात को जानता है और उसे संयम करने की कवायद करता है। चुनाव घोषणा से कुछ ही सप्ताह पहले भले ही नीतीश सरकार ने राजनीतिक लाभ लेने के लिए रिपोर्ट सार्वजनिक कर दी हो, लेकिन इस बात की संभावना बहुत कम है कि इसका फायदा वोट बैंक बढ़ाने में मिलेगा। इतने कम समय में सरकार रिपोर्ट में दोषियों पर त्वरित कार्रवाई करें, इसकी संभावना बहुत कम है। इस रिपोर्ट में जिस कामेश्वर यादव नाम के एक व्यक्ति को दोषी ठहराया गया था, उसी कामेश्वर को जब लालू यादव की जनता दल सरकार सत्ता में आई थी तो बरी कर दिया गया था। लेकिन नीतीश कुमार की सरकार आई तो फाइलें दोबारा खुलीं और फिर से मामला दर्ज हुआ और उन्हें सजा हुई। वह आज भी जेल में है। आज लालू, नीतीश और कांग्रेस एक खेमे हैं। दंगा कराने वाले, दंगाई को बचाने वाले और और सजा की बात करने वाले एकजुट है, फिर जनता न्याय की क्या उम्मीद करेगी। संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-22627190824597355322015-07-26T23:32:00.000+05:002015-09-22T23:32:44.651+05:00रेल क्रांसिंग पर हादसे का जिम्मेदार कौन?
<b>संजय स्वदेश</b>
यदि आपको याद हो तो करीब एक साल पहले तेलंगाना के मेडक में मानव रहित क्रॉसिंग पर भी एक दर्दनाक हादसा हुआ था। बच्चों को स्कूल ले जा रही बस एक्सप्रेस ट्रेन से टकरा गई थी और 14 नौनिहाल अकाल काल के गाल में समा गए थे। तब देश भर में मानवरहित रेलफाटकों को लेकर काफी हो हल्ला मचा। मीडिया में भी बसह चली थी। लेकिन क्या हुआ। न सरकार ने सबक लिया और लोग। रेलवे फाटक पार करते हुए एक बार दाये बाये देखकर थोड़ा संयम रख लेने में कौन सी आपदा टूट पड़ती है।
मानवरहित रेलवे क्रांसित पर हादसों का इतिहास पुराना है। अंग्रेजों ने जब रेल पटरियां बिछाई थीं, तब न तो इतनी सड़कें थीं और न जनसंख्या का ऐसा दबाव। शायद इसीलिए उन्होंने कम यातायात वाले मार्गों पर बिना फाटक और चौकीदार के क्रांसिंग को आम लोगों के आने-जाने का रास्ता खोलने का फैसला किया होगा। तब पटरियों पर दौड़ रही ट्रेनों अथवा मालगाड़ियों की संख्या बहुत कम थी। तब के ट्रेनों में कोयले के इंजन होते थे और उनकी स्पीड कम होती थी। तब से अब तक हालात में जमीन-आसमान का परिवर्तन हो गया है। तेज गति से दौड़ने वाले इंजन आ गए हैं। सवारी और मालगाड़ियों की संख्या में कई गुना बढ़ोततरी हो गई है। रेल पटरियों के दोनों ओर की आबादी का घनत्व कई गुना बढ़Þ गया है, लेकिन जानलेवा व्यवस्था अभी भी जस का तस है। यही वजह है कि हमें आए दिन ऐसी दुर्घटनाओं की खबरें पढ़नी पड़ती हैं।
नई दिल्ली में ससंद का जब भी सत्र होता है, करीब करीब हर सत्र में मानवरहित रेलवे क्रासिंग पर होने वाले हादसों को लेकर कोई न कोई सांसद प्रश्नकाल में जरूर सवाल उठाता है। मानसून सत्र में 24 जुलाई को रेलराज्य मंत्री मनोज सिंहा ने एक सवाल के लिखित जवाब में संसद को बताया कि देश में बिना चौकीदार वाले मानवरहित रेलवे समपार (फाटक) की कुल संख्या 10440 है, जिनमें सबसे अधिक 2087 ऐसे समपार पश्चिम रेलवे में हैं। पश्चिम रेलवे में 2087 ऐसे रेलवे क्रांसिंग हैं जबकि उत्तर पश्चिम रेलवे में 1057, उत्तर रेलवे में 1050 और पूर्वोत्तर रेलवे में 1036 रेलक्रांसिंग मानवरहित हैं।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत में ऐसी जानलेवा घटनाएं होती हैं। यूरोप और अमेरिका के विकसित देश भी इस महामारी से ग्रस्त हैं। अमेरिका में हर साल तकरीबन 300 और यूरोप में 400 लोग रेलवे क्रॉसिंग पर मारे जाते हैं। रेलवे क्रॉसिंग पर विश्व इतिहास का अब तक का सबसे बड़ा हादसा 1967 में जर्मनी में हुआ। इसमें एक साथ 97 लोगों की जान गई थी। 2005 में पश्चिमी भारत के शहर नागपुर के पास भी ऐसी ही दिल दहलाने वाली दुर्घटना हुई, जिसमें 55 लोग मारे गए थे। आंकड़े समस्यता की विकरालता को साबित कर रहे हैं। लेकिन यह समस्या स्वयं खत्म भी हो जाएगी ऐसा भी नहीं है। 2011-12 में मानव रहित क्रॉसिंग पर 131 हादसे हुए। इनमें 319 लोग मारे गए, जिसमें 17 रेलकर्मी भी थे। यदि साल का औसत देखें तो पता चलता है कि हमारे एक-तिहाई से ज्यादा दिन इस तरह की दुर्घटनाओं के नाम हो जाते हैं।
अनिल काकोदकर की अगुवाई वाली समिति ने 2012 में सरकार से सिफारिश की थी कि अगले पांच साल में सभी मानव रहित क्रॉसिंग समाप्त की जानी चाहिए। समिति का दावा था कि इससे रेल हादसों में 60 फीसदी की कमी आ सकती है। इस रिपोर्ट को आए तीन से ज्यादा समय बीत चुका है। लेकिन न तब के और न अब की सरकार में इसको लेकर गंभीरता दिखी। समिति की रिपोर्ट की कही कोई आता पता और न ही चर्चा सुनाई दे रही है। हालांकि पिछली बजट में सरकार ने रेल बजट में 5,400 मानव रहित क्रॉसिंग हटाने का संकल्प किया था। लेकिन उसके बाद एक और बजट भी आ गया हुआ क्या? अगले साल एक और बजट आ जाएगा। हादसे होते रहेंगे। सरकार की ओर से ऐसे आश्वासन मिलते हैं फिर सब कुछ वैसा के वैसा ही रहता है। एक अनुमान के तहत मानव रहित रेलवे क्रांसिंग की सुविधा समाप्त करने पर 30,646 करोड़ रुपए का खर्च आएगा। इसकी भरपाई पेट्रोल और डीजल पर उपकर के प्रतिशत के रूप में केंद्रीय सड़क निधि द्वारा किया जाता है। इसके बाद भी हालत जस के तस है। सरकार चाहे किसी भी दल की रही हो लेकिन इस समस्या को निपटने के लिए किसी में भी जबर्दस्त इच्छाशक्ति नहीं दिखी। ऐसे हादसे आए दिन देश के किसी ने किसी हिस्से में होते हैं। हादसे के बाद तत्कालीन जनाक्रोश तो दिखता है, लेकिन आंक्रोश की आग जल्द ही ठंड पड़ जाती है। बिना फाटक वाला रेलवे क्रांसिंग फिर से हादसे का इंतजार करता है। संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-35457127049046382932015-04-09T23:24:00.000+05:002015-09-22T23:50:24.278+05:00जनता को जगाओ, बच्चों को बचाओ
<b>संजय स्वदेश</b>
कुछ दिन पहले संयुक्त राष्ट्र ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि उसके प्रयासों से पिछले दो दशक में दुनिया भर के करीब नौ लाख बच्चों की जिंदगियां बचाई जा सकी हैं लेकिन 2015 तक इस मृत्यु दर में दो तिहाई की कमी का लक्ष्य फिलहाल पूरा होता नहीं दिखता। रिपोर्ट खुलासा करती है कि 1990 में जहां विभिन्न कारणों से दुनिया भर में पांच साल तक की आयु के एक करोड़ 26 लाख बच्चे असमय काल के ग्रास बन गए। वहीं 2012 में यह आंकड़ा 66 लाख पर ही रुक गया। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में पांच साल से कम उम्र के आधे से अधिक बच्चों की मौत अकेले भारत, चीन, कांगो, पाकिस्तान और नाइजीरिया में होती है। बच्चों की इस असामयिक मौत के लिए निमोनिया, मलेरिया और दस्त के साथ कुपोषण को बड़ी वजह बताया गया है। इस अभियान का सबसे सुखद, सराहनीय और उल्लेखनीय पहलू यह है कि बांग्लादेश, इथोपिया, नेपाल, लाइबेरिया, मलावी और तंजानिया जैसे गरीब देश भरसक कोशिश करते हुए 1990 के बाद से अब तक अपने यहां बाल मृत्यु दर में दो तिहाई या उससे अधिक की कमी का लक्ष्य हासिल कर प्रेरक बन गए हैं। ए गरीब देश भारत जैसे विकासोन्मुख देशों के लिए बड़ी प्रेरणा कहे जा सकते हैं जहां दिन-ब-दिन बढ़ÞÞती जनसंख्या के साथ बाल मृत्यु दर सबसे भयावह समस्या बनी हुई है। यूनिसेफ की 2012 की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2011 में वैश्विक स्तर पर इस आयु वर्ग के प्रतिदिन मरने वाले 19000 बच्चों में से करीब चौथाई भारत में मृत्यु का ग्रास बने। यानी हर दिन करीब चार हजार बच्चे मौत के मुंह में समा गए। बाल विकास के नाम पर तमाम सरकारी और गैर-सरकारी योजनाओं की मौजूदगी के बावजूद अपने यहां दुनिया के बाकी देशों की तुलना में सबसे ज्यादा मौतें होना बहुत त्रासद और विचारणीय है। अपने यहां बच्चों की असामयिक मौत के पीछे गरीबी, कुपोषण और अशिक्षा सबसे बड़े कारण माने जाते हैं और इसके लिए अंतत: हमारा शासन तंत्र जिम्मेदार है। भारत में केंद्र और राज्य सरकार के ढेरों ऐसी योजनाएं हैं जिसके माध्यम से सरकारी अमला बच्चों के बेहतर भविष्य का दावा करता हैं, लेकिन हालात यह है कि ऐसी योजनाएं लाखों मासूम तक पहुंचने से पहले भ्रष्टाचार का ग्रास बन जाती है। ये भ्रष्टाचारी कभी यह नहीं सोचते हैं कि जिनके हिस्से की राशि वे भ्रष्टाचार के रूप में लेकर कर अपने घर-परिवार में बच्चों को ऐसो आराम उपलब्ध करा रहे हैं, दरअसल उसकी कीमत किसी दूसरे के गोद के मासूम के मुंह में जाने वाला निवाला है, स्वास्थ्य सुविधाओं समेत अन्य दूसरी योजनाओं के रूप में उनकी जिंदगी है। मासूम बच्चों के लालन-पालन, स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए अनुकूल माहौल बनाने की जिम्मेदारी केवल केंद्र सरकार पर नहीं हैं। केंद्र सरकार के साथ राज्य सरकार के कंधे पर भी यही बोझ है। आज के मासूम बच्चे ही कल के जिम्मेदार नागरिक हैंÑ, जैसा वे वातावरण पाकर बड़े होंगे वैसा ही आने वाले भारत का भविष्य होगा। आज देश में छोटे-बड़े क्षेत्रों में कई क्रूर इंसान मिल जाएंगे। वे असामाजिक तत्वों के दायरे में आएंगे। दरअसल ऐसी प्रवृत्ति उनके बचपन में मिले वातावरण के कारण ही विकसित हुए। समाज की भी ऐसी जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने बीच के भूखे-नंगे और किसी बीमारी से पीड़ित बच्चों की सुध ले। भविष्य संवारने की जिम्मेदारी केवल सरकार और एक परिवार विशेष की नहीं होती है। समाज को इस दिशा के सोचना बेहद जरूरी है कि आज के नौनिहालों के मन में यदि नकारात्मक प्रवृत्ति घर करती है और वे बड़े होकर असामाजिक तत्वों हो जाते हैं। फिर वे उसी समाज को दर्द देंगे। समाजिक-सरकारी उपेक्षा से में पल कर तैयार होने वाले नागरिक इस बात की गारंटी नहीं दिलाते हैं कि वे अपने बचपन में समाजिक और सरकारी उपेक्षा के बदले समाज और देश के साथ कुछ अच्छा करेंगे। राष्टÑीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चलाई जाने वाली योजनाओं की सफलता की रफ्तार बहुत धीमे हैं। क्योंकि इन योजनाओं में समाज का उचित सहयोग नहीं मिल पता है। समाज में माहौल तैयार करने की प्रक्रिया एक वाहन के दो पहिए की तरह है। एक पहिया योजनाओं के क्रियान्वयन करने वाले एजेंसियों हैं तो दूसरा समाज। यह सामूहिक जिम्मेदारी है। 09/04/2015संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-4144763516642125822015-03-26T23:44:00.000+05:002015-09-22T23:44:23.702+05:00मन की माया और प्रेत का साया <b>संजय स्वदेश</b>
नवरात्री के दिनों में ओझ गुनियों के दिन फिर जाते हैं। वे तांत्रिक क्रियाएं करते हैं। इसी दौरान पूजा के नाम पर कथित रूप से भूत पे्रत के साये से ग्रस्त लोगों पूजा पाठ करवाने के नाम पर धन एठते हैं, लेकिन भूत छूमंतर होने का नाम नहीं लेता है। गोपालगंज जिले के लछवार में माता के दरबार में (और भी कई जगह) यहां भूत खेलते हैं। नवरात्र में यहां आने वाले लोगों का मेला लगा रहा। लछवार मंदिर में पूर्वी उत्तर प्रदेश, नेपाल और बिहार के अन्य जिलों से लोग आते हैं। कहने के लिए तो कुछ की बीमारी ठीक होती है तो कुछ वर्षों से यहां आ जा रहे हैं, लेकिन उनकी बीमारी ठीक होने का नाम नहीं ले रही है। यहां आने वाले अधिकर लोग वे हैं जो ओझागुनी से निराश हो चुके होते हैं। वहीं चिकित्सा विज्ञान का कहना है कि भूत खेलना पूरी तरह से मानसिक बीमारी है। इसी का ओझा खुब फायदा उठा रहे हैं। यदि कोई इसका विरोध करता है तो लोग कहते हैं कि यदि भूत पिसाच का साया नहीं रहता तो इन धामों पर इतनी भीड़ क्यों होती हैं और दूर-दूर से लोग क्यों आते हैं...पर कुतर्की यह नहीं समझते हैं कि यहां आने वाले सारे अंधविश्वासी लोगों की सं या जिले की कुल सं या की एक प्रतिशत भी नहीं होती है। फिर तो यहां बिहार भर से लोग आते हैं। इस तरह देखा जाए तो यह सं या बहुत ही कम है और वहीं जब एक जगह इतनी कम सं या जमा होती है तो भीड़ बढ़ जाती है। इससे दूसरे लोगों में विश्वास बढ़ जाता है। दरअसल भूत प्रेम पूरी तरह से मानसिक बीमारी है। इसका साया उन क्षेत्रों में और उन परिवारों में ज्यादा है तो जो अशिक्षित या कम पढ़े लिखे हैं। जो तर्क की कसौटी पर कुछ नहीं देखते हैं। बिहार में भूत पे्रत की साया से ग्रस्त होने वालों में महिलाओं की सं या ज्यादा है। जब यही लोग दूसरे शहर में जाते हैं तो उनका भूत प्रेत का साया अपने आप उतर जाता है। अमूमन शहरों में तो इसका असर ही नहीं रहता है। विज्ञान यह मान चुका है कि भूत प्रेत खेलना या खेलाना यह एक तरह से मानसिक बीमारी है। बीमार में आम बीमारियों के इलाज के लिए समुचित व्यवस्था नहीं है। फिर मानसिक बीमारी के इलाज की बात ही छोड़ दीजिए। देश भर में मनोचिकित्सकों की भारी कमी है। बीमार में तो लोग यह मानने को ही तैयार नहीं होते हैं कि ऐसा भी कोई डॉक्टर होते हैं जो केवल मन के रोग को दूर करते हैं। जबकि मानसिक रोगों को दूर करने की पूरी की पूरी एक वैज्ञानिक तकनीक है।
यह भूत-प्रेत का ही असर है कि आए दिन किसी न किसी को डायन के नाम पर प्रताडि़त होना पड़ता है या फिर कही किसी की हत्या होने की बात सामने आती है। जब पूरी दुनिया विज्ञान के तकनीक के सहारे ढऱों सुविधाओं का उपभोग कर रही है तो वहीं बिहार का एक समाज मन की बीमारी को भूत प्रेत के खौफ में दर दर की ठोकरे खा कर न केवल अपना धन व्यर्थ कर रहा है बल्कि अपना भविष्य भी चौपट कर रहा है। जिनके घर में कोई महिला या पुरुष कथित रूप से भूत प्रेत के साये से ग्रस्त है, यदि उनके सामने विज्ञान की बात करों तो वह सीधे कहते हैं कि जिन पर पड़ती है वही जानते हैं। उनका यह तर्क ठीक है। पर अपनी इस समस्या में पडऩे के बाद वे सच और झूठ को तर्क की कसौटी पर परखने की क्षमता खो देते हैं। जब वे अपने पूरे जीवन में विज्ञान के उत्पन्न दूसरे सुख सुविधाओं का उपभोग कर रहे हैं तो फिर वे मन की इस बीमारी में विज्ञान का सहारा क्यों नहीं लेते हैं। वे यह क्यों नहीं देखते हैं कि शहरों में इस तरह की बीमारी होती ही नहीं है। यदि होती भी है तो वहां डॉक्टरों से इसका समुचित इलाज करवाया जाता है न कि ओझा गुनी का चक्कर लगाया जाता है। सरकार को भी इस ओर ध्यान देने की जरूरत है। बिहार में समाज के इस हालात को देख कर सरकारी अस्पतालों में मनोचिकित्सकों की तैनाती बेहद जरूरी है। जिनके परिवार के लोग भूत प्रेत की मनोविज्ञान में फंस कर ओझा गुनी के चक्कर काट रहे हैं, उन्हें समझाना व्यर्थ है। लेकिन उन्हें देखकर दूसरे लोग उसके चक्कर में पड़ रहे हैं तो यह समाज के उज्ज्वल भविष्य का संकेत भी नहीं है। संजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2702078140209440553.post-10889159881432101392014-12-15T22:25:00.000+05:002014-12-18T22:31:19.572+05:00फेसबुकिया फुसफुसाहट के बीच सफल रायपुर साहित्य महोत्सव<b>संजय स्वदेश</b>
रायपुर साहित्य उत्सव संपन्न हुआ। इसकी शुरुआत से लेकर समापन के बाद तक फेसबुक पर तरह तरह के मुद्दे को लेकर फुसफुसाहट जारी है। कोई दमादारी से इसके पक्ष में आवाज उठा रहा है तो कई मित्र छत्तीसगढ़ के कुछ मुद्दों को पैनालिस्टों द्वारा नहीं उठाने को लेकर विधवा विलाप कर रहे हैं। इस आयोजन के पहले और समापन के बाद तक ढेरों ऐसी बातें हैं जो इस समारोह में शामिल होने वाले भी नहीं जान पाए होंगे या दिल्ली से टाइमलाइन पर पोस्ट करने वाले महसूस कर पाए होंगे। जिस दौर में अखबारों के पन्नों से साहित्यिक को लेकर जगह के आकाल पड़ने को लेकर अखबार मालिक व संपादकों को कोसा जाता है, उस दौर में एक ऐसा राज्य साहित्य का एक ऐसा भव्य उत्सव का आयोजन करता है, जिससे न केवल रचनाकार बेहतरीन सम्मान पाता है बल्कि उसे अच्छा मानेदय दिया जाता है, यह कम बड़ी बात नहीं है। हिंदी साहित्य वाले हमेशा पारिश्रमिक को लेक रोना रोते हैं। दिल्ली जैसे महानगर में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में शायद अतिथियों को उतना मानदेय नहीं दिया जाता है जितना की छत्तीसगढ़ सरकार ने दिया।
इस पर यह तर्क देकर सरकार को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है कि यह पैसा गरीबों का है, नसबंदी कांड के पीड़ितों को दे दिया जाता तो उनका भला हो जाता। नसबंदी कांड निश्चय ही शर्मनाक घटना थी, लेकिन मामले के प्रकाश में आते ही जिस तरह से प्रशासन ने हरकत में आकर इस पर कार्रवाई की, उससे कई महिलाओं की जान बच गई। उन्हें सरकार ने मुआवजा दिया। उनके बच्चों को सरकार ने गोद ले लिया। 18 साल तक के उम्र तक बेहतरीन अस्पताल में इलाज का पूरा खर्च उठाने का निर्णय लिया। इन सब सकारात्मक चीजों को स्थानीय अखबारों में जगह तो मिल गई, लेकिन बाहरी मीडिया में इसे तब्बजों नहीं मिला। सरकार हर विभाग को अपनी योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए बजट देती है। तो क्या स्वास्थ्य विभाग की लापरवाही से जो मातमी माहौल बना, उसमें सांस्कृतिक विभाग और जनसंपर्क विभाग अपनी जिम्मेदारी और दायित्व को छोड़ दे।
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रायपुर साहित्य उत्सव को लेकर सोशल मीडिया में जो बातें आ रही हैं, उसका न कोई ठोस तर्क है न ही विरोध का मजबूत आधार। चूंकि साहित्य का इतना बड़ा आयोजन पहली बार हो रहा था। थोड़ी बहुत चूक की गुजांईश स्वाभाविक है। लेकिन थोड़ी चुक से पूरी साकारात्मक पहल को नाकार देना कहां का न्याय है? दिल्ली में साहित्यिक संगोष्टि होती है तो तब उसमें विरोध करने वाले यह मुद्दा क्यों नहीं उठाते हैं कि हर दिन दिल्ली की सड़कों पर लापरवाही से वाहन चलाने वाले दो-चार लोगों को अकाल मौत की नींद सुला देते हैं। आखिर वहां भी तो आयोजन होते हैं और दिल्ली की सड़कों पर होने वाली मौतें कम बड़ा मुद्दा नहीं है। चलिए इस मौतों को छोड़िए, दुष्कर्म के तो हर दिन मामले दर्ज होते हैं, फिर ए साहित्यकार क्यों नहीं भक्तिकाल और रीतिकाल से साहित्यिक गतिविधियों बहिष्कार या विरोध करते हैं। दिल्ली में महिला सुरक्षा तो बड़ा मुद्दा है। इस मुद्दे को लेकर साहित्यक गतिविधियों में साहित्यकारों का क्या स्टैंड होता है?
दरअसल पूरी प्रवृत्ति विरोध करने को लेकर विरोध की मानसिकता की दिखती है। शहर से कार्यक्रम स्थल तक पहुंचने तक इस कार्यक्रम को लेकर जितने होर्डिंग या बोर्ड लेगे थे निश्चय ही उससे कहीं ज्यादा कुर्सियां यहां खाली दिखी। लेकिन जो अतिथि वक्ता आएं, उनसे बातचीत के आधार पर स्थानीय अखबारों ने जो कवरेज और बातों को प्रस्तुत किया, अलगे दो दिनों तक भीड़ बढ़Þती गई। इसके बाद भी कुछ लोगों की यह शिकायत थी कि मंडल में कुर्सियां खाली रही। इसको लेकर एक बात और सुनिए।
हर मंडल में दिन एक ही समय पर तीन से चार कार्यक्रम। भव्य आयोजन था। इतने साहित्य प्रेमी कहां से आते। जिन्हें जो विषय पंसद आया वे उसे मंडप में बैठे रहे। हमें एक ही समय में दो मंडपों के कार्यक्रम पसंद आए, लेकिन एक ही मंडप में बैठना पड़ा। यदि दिल्ली में इसी तर्ज पर साहित्य का उत्सव हो तो संभवत हर मंडल में भीड़ उमड पड़े। लेकिन वह कार्यक्रम दिल्ली से बाहर सूरजकुंड में हो तो शायद दर्शकों और श्रोताओं का टोटा पड़ जाता। यहां तो एक छोटे से राज्य के एक छोटी सी राजधानी में बाहर जहां घुमने जाने के लिए भी हिम्मत जुटानी पड़ती है, वहां साहित्य का उत्सव होता है और सीधे सादे छत्तीसगढ़ के मुठ्ठी भर साहित्य प्रेमी इस उत्सव में पहुंचते हैं, यह कम बड़ी बात नहीं है। दिल्ली मुंबई से आए हुए वक्ताओं को तो यहां की ट्रैफिक उनके शहर की तुलना में नागण्य दिखी होगी, लेकिन वह यहां की जनता के लिए ज्यादा है? हर शहर की अपनी क्षमता होती है।
एक और चीज तो फेसबुक पर लेकर चर्चा हो रही है कि यहां आने वाले वक्ताओं ने सरकार को नहीं घेरा। मैं स्वयं एक मंडप में उपस्थित था। वहां देखा ही नहीं सुना भी। दिल्ली के एक वक्ता ने तो यहां के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के उद्घाटन में दिए गए वक्तव्यों को लेकर कटघरे में खड़ा करते हुए रियल दुनिया वर्चुअल और ओर वर्चुअल रियल है का बेहतरीन ओर सटिक उदाहरण दिया। इसी मंडल के मंच पर दो अन्य वक्ताओं से भी सत्ता को कटघरे में खड़ा करने वाली बातें सुनने को मिली। कार्यक्रम में अंतिम दिन तो हालत यह थी कि पार्किंग दो पहिया और चार पहिया वाहनों से भरी हुई थी। भीड़ गैर साहित्यकारों की ज्यादा थी। गैर साहित्य प्रेमी इस उत्सव को देखने पहुंचे थे। संभव हो इससे उनमें रुचि जगे ओर अगले बरस के आयोजन में वे सुनने के लिए मंडप में भी बैठ जाएं।
उत्सव में बाहर से आए वक्ताओं के बारे में एक और बात। यह साहित्य गैर साहित्यिक आयोजनों में हमेशा होता है। एक आयोजन में उसे विषय से जुड़े सभी साहित्यकारों को तो नहीं बुलाया जा सकता है। जिन्हें बुलाओ, उनके विरोधी गुट हमेशा मुंह फुलाते हैं और जो हवा छोड़ने हैं, वह निश्चय ही आयोजन को असफल करने के लिए होती है। मतलब उन्हें बुलाया जाता तो कार्यक्रम सफल होता। उनके नहीं जाने से ही यह अधूरा रह गया। कोई अतिथि सही है या गलत कभी कभी इसका निर्णय मेजवान पर भी छोड़ना चाहिए। मेहमान तो अपना चरित्र दिखा ही देते हैं। इसके भी उदाहरण है। एक पैनलिस्ट को आमंत्रण मिला तो उसने मेजबान अधिकारी को फोन लगा कर पूछा-कार्यक्रम में मेरी बेटी भी आने वाली है, क्या उसे भी प्लेन का टिकट मिलेगा...अधिकारी महोदय ने अपने अधिनस्त को बोला जो लड़की आना चाहती है, उसके और गेस्ट के सर नेम और उम्र का अंतर आदि सब मिलान कर देखों कि क्या सच में वह अपनी बेटी को ही ला रहा है न...।
रायपुर साहित्य उत्सव में बुलाए गए मेहमान वक्ताओं को 25 हजार का मानदेय मिला, प्लेन का किराया भी दिया गया। उस होटल, जिसमें एक रात का किराया कम से कम पांच साढ़े पांच हजार रुपए है, उसमें ठहराया गया। उन्हें खाने की सुविधा मिली। कार्यक्रम स्थल तक लाने ले जाने के लिए एसी कार भी उपलब्ध कराई गई। लेकिन इसमें भी कुछ मेहमान ऐसे थे जो इस बात को लेकर नाराज थे कि होटल में इतनी बेहतरीन सुविधा तो थी, लेकिन लेकिन दारू की व्यवस्था नहीं थी। इसके लिए होटल में थोड़ा बहुत बवाल भी किया। पर होटल वाले ने साफ कह दिया कि उन्हें बस रखने और खिलाने की ही बुकिंग हुई है, पीने के लिए अपना खर्चना पड़ेगा।
ऐसी साहित्यिक आयोजनों में विचारों को लेकर वाद प्रतिवाद हमेशा से होता रहा है और होता भी रहेगा। लेकिन यदि कोई सरकार आगे साहित्य के हित में इतना बड़ा आयोजन करती है तो उसे दूसरे मुद्दे को लेकर नाकार देना उचित नहीं लगता है। छोटे से छत्तीसगढ़ ने देश के बड़े साहित्याकरों को बुलाया, इसको लेकर छत्तीसगढ़ का साहित्यप्रेमी गदगद है। इस आयोजन ने भविष्य में एक बेहतरीन साहित्यिक आयोजन की परंपरा का बीज बो दिया। जैसे जयपुर का लिटरेचर फेस्टिवल देश दुनिया में नाम कर चुका हैं, वैसे छत्तीसगढ़ का भी होगा, इतना सपना देखने का हक तो छत्तीसगढ़ को भी बनता है।
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नया रायपुर के जिस पुरखौती मुक्तांगन में यह भव्य आयोजन संपन्न हुआ, उस ओर मुख्यमार्ग से जाने वाली करीब सौ मीटर की दिवार पर छत्तीसगढ़ की लोक कला भित्ति चित्र शैली में यहां के राम वन गमन व अन्य पौराणिक लोक कथाओं के प्रसंगों के चित्र बने हैं और उसकी चार लाइन की छोटी सी व्याख्या दी गई है। उसमें दो भित्ति चित्र पर नजर पड़ी। उस की व्याख्या लिखी थी-इधर महीने बाद राजा दक्ष ने एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें पृथ्वी के तमाम महाराज व साधु संतों को आमंत्रित किया गया। किंतु शिव को नहीं बुलाया गया.....इस तरह से राजा दक्ष ने ना चाहते हुए भी सत्ती का विवाह बड़े ही धुमधाम से भगवान शंकर से संपन्न हुआ। आसमान से फूल बरसे...। छत्तीसगढ़ में साहित्य का यह भव्य आयोजन निश्चय ही किसी यज्ञ से कम नहीं था। दिल्ली में बैठ कर इस यज्ञ को नकारने वालों की नाकारात्मक मंशा के बाद भी सफल हुआ। हालांकि यह युग शिव और दक्ष का नहीं है, इसलिए आसमान से फूल तो नहीं बरसे, लेकिन एक संवेदनशील साहित्यकार ने भविष्य में साहित्य की बेहतर संभावनाओं के प्रोत्साहन का आंकलन जरूर कर लियासंजय स्वदेश Sanjay Swadeshhttp://www.blogger.com/profile/06034000711414727808noreply@blogger.com0