सोमवार, दिसंबर 15, 2014

फेसबुकिया फुसफुसाहट के बीच सफल रायपुर साहित्य महोत्सव

संजय स्वदेश रायपुर साहित्य उत्सव संपन्न हुआ। इसकी शुरुआत से लेकर समापन के बाद तक फेसबुक पर तरह तरह के मुद्दे को लेकर फुसफुसाहट जारी है। कोई दमादारी से इसके पक्ष में आवाज उठा रहा है तो कई मित्र छत्तीसगढ़ के कुछ मुद्दों को पैनालिस्टों द्वारा नहीं उठाने को लेकर विधवा विलाप कर रहे हैं। इस आयोजन के पहले और समापन के बाद तक ढेरों ऐसी बातें हैं जो इस समारोह में शामिल होने वाले भी नहीं जान पाए होंगे या दिल्ली से टाइमलाइन पर पोस्ट करने वाले महसूस कर पाए होंगे। जिस दौर में अखबारों के पन्नों से साहित्यिक को लेकर जगह के आकाल पड़ने को लेकर अखबार मालिक व संपादकों को कोसा जाता है, उस दौर में एक ऐसा राज्य साहित्य का एक ऐसा भव्य उत्सव का आयोजन करता है, जिससे न केवल रचनाकार बेहतरीन सम्मान पाता है बल्कि उसे अच्छा मानेदय दिया जाता है, यह कम बड़ी बात नहीं है। हिंदी साहित्य वाले हमेशा पारिश्रमिक को लेक रोना रोते हैं। दिल्ली जैसे महानगर में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में शायद अतिथियों को उतना मानदेय नहीं दिया जाता है जितना की छत्तीसगढ़ सरकार ने दिया। इस पर यह तर्क देकर सरकार को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है कि यह पैसा गरीबों का है, नसबंदी कांड के पीड़ितों को दे दिया जाता तो उनका भला हो जाता। नसबंदी कांड निश्चय ही शर्मनाक घटना थी, लेकिन मामले के प्रकाश में आते ही जिस तरह से प्रशासन ने हरकत में आकर इस पर कार्रवाई की, उससे कई महिलाओं की जान बच गई। उन्हें सरकार ने मुआवजा दिया। उनके बच्चों को सरकार ने गोद ले लिया। 18 साल तक के उम्र तक बेहतरीन अस्पताल में इलाज का पूरा खर्च उठाने का निर्णय लिया। इन सब सकारात्मक चीजों को स्थानीय अखबारों में जगह तो मिल गई, लेकिन बाहरी मीडिया में इसे तब्बजों नहीं मिला। सरकार हर विभाग को अपनी योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए बजट देती है। तो क्या स्वास्थ्य विभाग की लापरवाही से जो मातमी माहौल बना, उसमें सांस्कृतिक विभाग और जनसंपर्क विभाग अपनी जिम्मेदारी और दायित्व को छोड़ दे।
रायपुर साहित्य उत्सव को लेकर सोशल मीडिया में जो बातें आ रही हैं, उसका न कोई ठोस तर्क है न ही विरोध का मजबूत आधार। चूंकि साहित्य का इतना बड़ा आयोजन पहली बार हो रहा था। थोड़ी बहुत चूक की गुजांईश स्वाभाविक है। लेकिन थोड़ी चुक से पूरी साकारात्मक पहल को नाकार देना कहां का न्याय है? दिल्ली में साहित्यिक संगोष्टि होती है तो तब उसमें विरोध करने वाले यह मुद्दा क्यों नहीं उठाते हैं कि हर दिन दिल्ली की सड़कों पर लापरवाही से वाहन चलाने वाले दो-चार लोगों को अकाल मौत की नींद सुला देते हैं। आखिर वहां भी तो आयोजन होते हैं और दिल्ली की सड़कों पर होने वाली मौतें कम बड़ा मुद्दा नहीं है। चलिए इस मौतों को छोड़िए, दुष्कर्म के तो हर दिन मामले दर्ज होते हैं, फिर ए साहित्यकार क्यों नहीं भक्तिकाल और रीतिकाल से साहित्यिक गतिविधियों बहिष्कार या विरोध करते हैं। दिल्ली में महिला सुरक्षा तो बड़ा मुद्दा है। इस मुद्दे को लेकर साहित्यक गतिविधियों में साहित्यकारों का क्या स्टैंड होता है? दरअसल पूरी प्रवृत्ति विरोध करने को लेकर विरोध की मानसिकता की दिखती है। शहर से कार्यक्रम स्थल तक पहुंचने तक इस कार्यक्रम को लेकर जितने होर्डिंग या बोर्ड लेगे थे निश्चय ही उससे कहीं ज्यादा कुर्सियां यहां खाली दिखी। लेकिन जो अतिथि वक्ता आएं, उनसे बातचीत के आधार पर स्थानीय अखबारों ने जो कवरेज और बातों को प्रस्तुत किया, अलगे दो दिनों तक भीड़ बढ़Þती गई। इसके बाद भी कुछ लोगों की यह शिकायत थी कि मंडल में कुर्सियां खाली रही। इसको लेकर एक बात और सुनिए। हर मंडल में दिन एक ही समय पर तीन से चार कार्यक्रम। भव्य आयोजन था। इतने साहित्य प्रेमी कहां से आते। जिन्हें जो विषय पंसद आया वे उसे मंडप में बैठे रहे। हमें एक ही समय में दो मंडपों के कार्यक्रम पसंद आए, लेकिन एक ही मंडप में बैठना पड़ा। यदि दिल्ली में इसी तर्ज पर साहित्य का उत्सव हो तो संभवत हर मंडल में भीड़ उमड पड़े। लेकिन वह कार्यक्रम दिल्ली से बाहर सूरजकुंड में हो तो शायद दर्शकों और श्रोताओं का टोटा पड़ जाता। यहां तो एक छोटे से राज्य के एक छोटी सी राजधानी में बाहर जहां घुमने जाने के लिए भी हिम्मत जुटानी पड़ती है, वहां साहित्य का उत्सव होता है और सीधे सादे छत्तीसगढ़ के मुठ्ठी भर साहित्य प्रेमी इस उत्सव में पहुंचते हैं, यह कम बड़ी बात नहीं है। दिल्ली मुंबई से आए हुए वक्ताओं को तो यहां की ट्रैफिक उनके शहर की तुलना में नागण्य दिखी होगी, लेकिन वह यहां की जनता के लिए ज्यादा है? हर शहर की अपनी क्षमता होती है। एक और चीज तो फेसबुक पर लेकर चर्चा हो रही है कि यहां आने वाले वक्ताओं ने सरकार को नहीं घेरा। मैं स्वयं एक मंडप में उपस्थित था। वहां देखा ही नहीं सुना भी। दिल्ली के एक वक्ता ने तो यहां के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के उद्घाटन में दिए गए वक्तव्यों को लेकर कटघरे में खड़ा करते हुए रियल दुनिया वर्चुअल और ओर वर्चुअल रियल है का बेहतरीन ओर सटिक उदाहरण दिया। इसी मंडल के मंच पर दो अन्य वक्ताओं से भी सत्ता को कटघरे में खड़ा करने वाली बातें सुनने को मिली। कार्यक्रम में अंतिम दिन तो हालत यह थी कि पार्किंग दो पहिया और चार पहिया वाहनों से भरी हुई थी। भीड़ गैर साहित्यकारों की ज्यादा थी। गैर साहित्य प्रेमी इस उत्सव को देखने पहुंचे थे। संभव हो इससे उनमें रुचि जगे ओर अगले बरस के आयोजन में वे सुनने के लिए मंडप में भी बैठ जाएं। उत्सव में बाहर से आए वक्ताओं के बारे में एक और बात। यह साहित्य गैर साहित्यिक आयोजनों में हमेशा होता है। एक आयोजन में उसे विषय से जुड़े सभी साहित्यकारों को तो नहीं बुलाया जा सकता है। जिन्हें बुलाओ, उनके विरोधी गुट हमेशा मुंह फुलाते हैं और जो हवा छोड़ने हैं, वह निश्चय ही आयोजन को असफल करने के लिए होती है। मतलब उन्हें बुलाया जाता तो कार्यक्रम सफल होता। उनके नहीं जाने से ही यह अधूरा रह गया। कोई अतिथि सही है या गलत कभी कभी इसका निर्णय मेजवान पर भी छोड़ना चाहिए। मेहमान तो अपना चरित्र दिखा ही देते हैं। इसके भी उदाहरण है। एक पैनलिस्ट को आमंत्रण मिला तो उसने मेजबान अधिकारी को फोन लगा कर पूछा-कार्यक्रम में मेरी बेटी भी आने वाली है, क्या उसे भी प्लेन का टिकट मिलेगा...अधिकारी महोदय ने अपने अधिनस्त को बोला जो लड़की आना चाहती है, उसके और गेस्ट के सर नेम और उम्र का अंतर आदि सब मिलान कर देखों कि क्या सच में वह अपनी बेटी को ही ला रहा है न...। रायपुर साहित्य उत्सव में बुलाए गए मेहमान वक्ताओं को 25 हजार का मानदेय मिला, प्लेन का किराया भी दिया गया। उस होटल, जिसमें एक रात का किराया कम से कम पांच साढ़े पांच हजार रुपए है, उसमें ठहराया गया। उन्हें खाने की सुविधा मिली। कार्यक्रम स्थल तक लाने ले जाने के लिए एसी कार भी उपलब्ध कराई गई। लेकिन इसमें भी कुछ मेहमान ऐसे थे जो इस बात को लेकर नाराज थे कि होटल में इतनी बेहतरीन सुविधा तो थी, लेकिन लेकिन दारू की व्यवस्था नहीं थी। इसके लिए होटल में थोड़ा बहुत बवाल भी किया। पर होटल वाले ने साफ कह दिया कि उन्हें बस रखने और खिलाने की ही बुकिंग हुई है, पीने के लिए अपना खर्चना पड़ेगा। ऐसी साहित्यिक आयोजनों में विचारों को लेकर वाद प्रतिवाद हमेशा से होता रहा है और होता भी रहेगा। लेकिन यदि कोई सरकार आगे साहित्य के हित में इतना बड़ा आयोजन करती है तो उसे दूसरे मुद्दे को लेकर नाकार देना उचित नहीं लगता है। छोटे से छत्तीसगढ़ ने देश के बड़े साहित्याकरों को बुलाया, इसको लेकर छत्तीसगढ़ का साहित्यप्रेमी गदगद है। इस आयोजन ने भविष्य में एक बेहतरीन साहित्यिक आयोजन की परंपरा का बीज बो दिया। जैसे जयपुर का लिटरेचर फेस्टिवल देश दुनिया में नाम कर चुका हैं, वैसे छत्तीसगढ़ का भी होगा, इतना सपना देखने का हक तो छत्तीसगढ़ को भी बनता है।
नया रायपुर के जिस पुरखौती मुक्तांगन में यह भव्य आयोजन संपन्न हुआ, उस ओर मुख्यमार्ग से जाने वाली करीब सौ मीटर की दिवार पर छत्तीसगढ़ की लोक कला भित्ति चित्र शैली में यहां के राम वन गमन व अन्य पौराणिक लोक कथाओं के प्रसंगों के चित्र बने हैं और उसकी चार लाइन की छोटी सी व्याख्या दी गई है। उसमें दो भित्ति चित्र पर नजर पड़ी। उस की व्याख्या लिखी थी-इधर महीने बाद राजा दक्ष ने एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें पृथ्वी के तमाम महाराज व साधु संतों को आमंत्रित किया गया। किंतु शिव को नहीं बुलाया गया.....इस तरह से राजा दक्ष ने ना चाहते हुए भी सत्ती का विवाह बड़े ही धुमधाम से भगवान शंकर से संपन्न हुआ। आसमान से फूल बरसे...। छत्तीसगढ़ में साहित्य का यह भव्य आयोजन निश्चय ही किसी यज्ञ से कम नहीं था। दिल्ली में बैठ कर इस यज्ञ को नकारने वालों की नाकारात्मक मंशा के बाद भी सफल हुआ। हालांकि यह युग शिव और दक्ष का नहीं है, इसलिए आसमान से फूल तो नहीं बरसे, लेकिन एक संवेदनशील साहित्यकार ने भविष्य में साहित्य की बेहतर संभावनाओं के प्रोत्साहन का आंकलन जरूर कर लिया

मंगलवार, दिसंबर 02, 2014

सुस्त खुफिया और हताश नक्सली

छत्तीसगढ़ नक्सली हमले से एक दिन पहले गुवहाटी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्मार्ट पुलिसिंग की वकालत करते हुए मजबूत देश के लिए मजबूत खुफिया तंत्र होने की बात कही थी। मतलब पीएम यह स्वयं मानते हैं कि अपने देश की खुफिया तंत्र मजबूत नहीं है। यदि खुफिया तंत्र मजबूत हो जाए तो क्या होगा? केंद्र की रिजर्व पुलिस बल राज्य पुलिस के नेतृत्व में कार्य कर रही है। राजनीतिक नेतृत्व नक्सलियों को भटका हुआ भाई कहता है और वे हमारे चुस्त और प्रशिक्षित जवानों पर घात लगा कर हमले कर रहे हैं।
संजय स्वदेश 25 मई वर्ष 2013 में ही नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ के जीरम घाटी में घात लगाकर कांग्रेस के काफिले पर हमला कर दिया। प्रदेश कांग्रेस की पहली पंक्ति के अधिकतर दिग्गजों का नक्सलियों ने हत्या कर दी। नक्सलियों द्वारा राजनीतिक नेतृत्व के सफाये के इस घटना ने देश दुनिया को हिला कर रख दिया। छत्तीसगढ़ सरकार ने थोड़ी सख्ती दिखाई। चुनाव जीतने के बाद फिर बनी भाजपा सरकार ने बस्तर में आईपीएस एसआरपी कल्लूरी को आईजी बना कर पदस्त किया। कल्लूरी वही आईपीएस हैं जिनके डर के कारण नक्सलियों अपनी स्टेट कमेटी को भंग कर दिया। बस्तर में जब से कल्लूरी की पदास्थापना हुई, तब थे नक्सलियों के समर्पण की लाइन लग गई। छत्तीसगढ़ में वर्ष 2012 में 13 और 2013 में मात्र छह नक्सलियों ने सरेंडर किया था। वर्ष 2014 में गत छह महीने में ही समर्पण का आंकड़ा करीब 300 तक पहुंच गया। हर दिन नक्सलियों के सरेंडर की खबरें और सर्चिंग आॅपरेशन से यह लगने लगा था कि नक्सलियों का मनोबल टूटने लगा है। पर 2 नवंबर से नक्सली संगठन पीएलजीए की 14वीं वर्षगांठ पर हताश नक्सलियों ने ग्रामीणों को ढाल बना कर जिस तरह से 14 सीआरपीएफ जवानों की हत्या की, इससे साबित हो गया कि वे अपने लाल अभियान की लौ को मंद नहीं पड़ने देना चाहते हैं। जैसा की हर आतंकी और नक्सली घटना के बाद इस बात का खुलासा होता है कि खुफिया विभाग ने ऐसे हमले की पहले ही चेतावनी दी थी। फिर राजनीतिक गतिलयारें में एक दूसरे पर दोषारोपण कर बाल की खाल निकाले जाते हैं, इस घटना के बाद भी होने लगा है। सात नवंबर को केंद्र सरकार की खुफिया ब्यूरों से समन्वय करने वाली राज्य की खुफिया इकाई ने एक खास अलर्ट जारी किया था कि नक्सली बड़ी घटना की फिराक में हैं। नक्सली खुद को संगठित करने की कोशिशों में लगे हुए हैं। बस्तर क्षेत्र में अपने कमजोर पड़ते वजूद की वजह से वह इस हमले को अंजाम दे सकते हैं। एक के बाद एक नक्सली समर्पण के कारण अपनी ताकत और आत्मवश्विास को हासिल करने के लिए नक्सलियों द्वारा ऐसी बड़ी वारदात की आशंका पहले से ही थी। हालांकि अमूमन खुफिया विभाग की चेतावनी रूटीन की होती है। जानकार कहते हैं कि ऐसे अलर्ट हर महीने भेज कर खुफिया विभाग अपनी जिम्मेदारी से बचती है। सैंकड़ों की संख्या में नक्सली मूवमेंट करते हैं और और प्रशासन को कोई खबर नहीं होती। क्या यह खुफिया तंत्र है। ऐसी नकामियां यह साबित करती है कि खुफिया विभाग में दीमक लग चुका है और इसकी के कारण नक्सली अपनी मकसद में कामयाब हो रहे हैं। खुफिया तंत्र में सच में दीमक लग गया है, इसका एक और उदाहरण देखिए। हाल ही में मीडिया में आई खबरों के अनुसार नक्सलियों के बड़े नेता दक्षिण छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ में 10 से 21 सितंबर तक बैठक-दर-बैठकें करते रहे। इसमें प्रतिबंधित संगठन सीपीआई (माओवादी) के सभी बड़े नेता भी शामिल हुए। झारखंड, ओडिशा, महाराष्टÑ और आंध्रप्रदेश से सारे नक्सली नेता आए। ओरछा के पास घने जंगलों में संगठन का 10वां कांग्रेस किया। अपनी रणनीति पर मंथन कर चलते बने। ऐसा नहीं है कि सुरक्षाकर्मियों को इसकी भनक नहीं थी। छत्तीसगढ़ पुलिस के सभी आला अधिकारियों और केंद्रीय गृहमंत्रालय के आंतरिक सुरक्षा से जुड़े वरिष्ठ अधिकारियों को इसकी जानकारी पहले ही आईबी ने पहुंचा दी थी, मगर बैठक में सुरक्षा के प्रबंध पुख्ता मान लीजिए या फिर कठिन भौगोलिक परिस्थितियों के कारण वहां तक नहीं पहुंच पाने के कारण सुरक्षाकर्मियों के हाथ कुछ ठोस नहीं लग सका। केंद्र को सूचना मिली तो फौरन सीआरपीएफ की नक्सल विरोधी अभियान के फाइटर माने जाने वाले वाले कोबरा कमांडो के बटालियनों को अबूझमाड़ के जंगलों में उतारा गया। दावा किया गया कि सभी संभावित ठिकानों के खाक छाने गए। मगर हाथ कुछ नहीं लगा। इस नक्सली हमले से एक दिन पहले गुवहाटी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्मार्ट पुलिसिंग की वकालत करते हुए मजबूत देश के लिए मजबूत खुफिया तंत्र होने की बात कही थी। मतलब पीएम यह स्वयं मानते हैं कि अपने देश की खुफिया तंत्र मजबूत नहीं है। और इसका खामियाजा उनके बयान के एक दिन बाद छत्तीसगढ़ में देखने को भी मिल गया। देश के सुरक्षा व खुफिया तंत्र से जुड़े सेवानिवृत्त अधिकारियों ने भी मौके-मौके पर इस बात को इस तंत्र की कमजोरी को न केवल स्वीकार किया है, बल्कि यह इसकी मजबूती के लिए सुझाव भी दिए हैं। लेकिन उन्हीं की जुबान बताती है कि यदि खुफिया तंत्र मजबूत हो जाए तो क्या होगा? केंद्र की रिजर्व पुलिस बल राज्य पुलिस के नेतृत्व में कार्य कर रही है। राजनीतिक नेतृत्व नक्सलियों को भटका हुआ भाई कहता है और वे हमारे चुस्त और प्रशिक्षित जवानों पर घात लगा कर हमले कर रहे हैं। जब केंद्र और नक्सल प्रभावित राज्यों में अलग-अलग पार्टियों की सरकार होती है तो ऐसी घटनाओं के बाद हमेशा टकराव सामने आता है। राज्य सरकार कहती है कि केंद्र से सहयोग नहीं मिल रहा है और केंद्र सरकार कहती है कि हमने भरपूर सहयोग दिया है, इसके बाद भी राज्य सरकार दृढ़ता नहीं दिखा रही है। लेकिन छत्तीसगढ़ और केंद्र में सरकार एक ही पार्टी की है। लिहाजा, ठोस कार्रवाई की अपेक्षा तो बनती ही है।

गुरुवार, अक्तूबर 30, 2014

मंदिर में उन्हें ऊपरी वस्त्र खोलकर ही जाना होता था !

मंगलवार, अक्टूबर 28, 2014 ( सोशल मीडिया अपनी भूमिका में असरकारी सिद्ध हो रहा है . ' यह देश हमारा है ' नाम से संचालित फेसबुक पेज इस देश में व्याप्त स्त्री और दलित विरोधी परम्पराओं /रुढियों की तस्वीरें सामने रख रहा है. पिछले दिनों केरल की गैर सवर्ण महिलाओं के खिलाफ १९वी शताब्दी के मध्य तक व्याप्त कुप्रथा की एक तस्वीर इस पेज पर देखने को मिली. इस प्रथा पर स्त्रीवादी काम भी हुए हैं . स्त्रीकाल के पाठकों के लिए 'यह देश हमारा है' से साभार ) स्तन ढकने का अधिकार पाने के लिए केरल में महिलाओं का ऐतिहासिक विद्रोह केरल के त्रावणकोर इलाके, खास तौर पर वहां की महिलाओं के लिए 26 जुलाई का दिन बहुत महत्वपूर्ण है। इसी दिन 1859 में वहां के महाराजा ने अवर्ण औरतों को शरीर के ऊपरी भाग पर कपड़े पहनने की इजाजत दी। अजीब लग सकता है, पर केरल जैसे प्रगतिशील माने जाने वाले राज्य में भी महिलाओं को अंगवस्त्र या ब्लाउज पहनने का हक पाने के लिए 50 साल से ज्यादा सघन संघर्ष करना पड़ा।इस कुरूप परंपरा की चर्चा में खास तौर पर निचली जाति नादर की स्त्रियों का जिक्र होता है क्योंकि अपने वस्त्र पहनने के हक के लिए उन्होंने ही सबसे पहले विरोध जताया। नादर की ही एक उपजाति नादन पर ये बंदिशें उतनी नहीं थीं। उस समय न सिर्फ अवर्ण बल्कि नंबूदिरी ब्राहमण और क्षत्रिय नायर जैसी जातियों की औरतों पर भी शरीर का ऊपरी हिस्सा ढकने से रोकने के कई नियम थे। नंबूदिरी औरतों को घर के भीतर ऊपरी शरीर को खुला रखना पड़ता था। वे घर से बाहर निकलते समय ही अपना सीना ढक सकती थीं। लेकिन मंदिर में उन्हें ऊपरी वस्त्र खोलकर ही जाना होता था।
नायर औरतों को ब्राह्मण पुरुषों के सामने अपना वक्ष खुला रखना होता था। सबसे बुरी स्थिति दलित औरतों की थी जिन्हें कहीं भी अंगवस्त्र पहनने की मनाही थी। पहनने पर उन्हें सजा भी हो जाती थी। एक घटना बताई जाती है जिसमें एक निम्न जाति की महिला अपना सीना ढक कर महल में आई तो रानी अत्तिंगल ने उसके स्तन कटवा देने का आदेश दे डाला।इस अपमानजनक रिवाज के खिलाफ 19 वीं सदी के शुरू में आवाजें उठनी शुरू हुईं। 18 वीं सदी के अंत और 19 वीं सदी के शुरू में केरल से कई मजदूर, खासकर नादन जाति के लोग, चाय बागानों में काम करने के लिए श्रीलंका चले गए। बेहतर आर्थिक स्थिति, धर्म बदल कर ईसाई बन जाने औऱ यूरपीय असर की वजह से इनमें जागरूकता ज्यादा थी और ये औरतें अपने शरीर को पूरा ढकने लगी थीं। धर्म-परिवर्तन करके ईसाई बन जाने वाली नादर महिलाओं ने भी इस प्रगतिशील कदम को अपनाया। इस तरह महिलाएं अक्सर इस सामाजिक प्रतिबंध को अनदेखा कर सम्मानजनक जीवन पाने की कशिश करती रहीं।
यह कुलीन मर्दों को बर्दाश्त नहीं हुआ। ऐसी महिलाओं पर हिंसक हमले होने लगे। जो भी इस नियम की अवहेलना करती उसे सरे बाजार अपने ऊपरी वस्त्र उतारने को मजबूर किया जाता। अवर्ण औरतों को छूना न पड़े इसके लिए सवर्ण पुरुष लंबे डंडे के सिरे पर छुरी बांध लेते और किसी महिला को ब्लाउज या कंचुकी पहना देखते तो उसे दूर से ही छुरी से फाड़ देते। यहां तक कि वे औरतों को इस हाल में रस्सी से बांध कर सरे आम पेड़ पर लटका देते ताकि दूसरी औरतें ऐसा करते डरें। लेकिन उस समय अंग्रेजों का राजकाज में भी असर बढ़ रहा था। 1814 में त्रावणकोर के दीवान कर्नल मुनरो ने आदेश निकलवाया कि ईसाई नादन और नादर महिलाएं ब्लाउज पहन सकती हैं। लेकिन इसका कोई फायदा न हुआ। उच्च वर्ण के पुरुष इस आदेश के बावजूद लगातार महिलाओं को अपनी ताकत और असर के सहारे इस शर्मनाक अवस्था की ओर धकेलते रहे। आठ साल बाद फिर ऐसा ही आदेश निकाला गया। एक तरफ शर्मनाक स्थिति से उबरने की चेतना का जागना और दूसरी तरफ समर्थन में अंग्रेजी सरकार का आदेश। और ज्यादा महिलाओं ने शालीन कपड़े पहनने शुरू कर दिए। इधर उच्च वर्ण के पुरुषों का प्रतिरोध भी उतना ही तीखा हो गया। एक घटना बताई जाती है कि नादर ईसाई महिलाओं का एक दल निचली अदालत में ऐसे ही एक मामले में गवाही देने पहुंचा। उन्हें दीवान मुनरो की आंखों के सामने अदालत के दरवाजे पर अपने अंग वस्त्र उतार कर रख देने पड़े। तभी वे भीतर जा पाईं। संघर्ष लगातार बढ़ रहा था और उसका हिंसक प्रतिरोध भी। सवर्णों के अलावा राजा खुद भी परंपरा निभाने के पक्ष में था। क्यों न होता। आदेश था कि महल से मंदिर तक राजा की सवारी निकले तो रास्ते पर दोनों ओर नीची जातियों की अर्धनग्न कुंवारी महिलाएं फूल बरसाती हुई खड़ी रहें। उस रास्ते के घरों के छज्जों पर भी राजा के स्वागत में औरतों को ख़ड़ा रखा जाता था। राजा और उसके काफिले के सभी पुरुष इन दृष्यों का भरपूर आनंद लेते थे। आखिर 1829 में इस मामले में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया। कुलीन पुरुषों की लगातार नाराजगी के कारण राजा ने आदेश निकलवा दिया कि किसी भी अवर्ण जाति की औरत अपने शरीर का ऊपरी हिस्सा ढक नहीं सकती। अब तक ईसाई औरतों को जो थोड़ा समर्थन दीवान के आदेशों से मिल रहा था, वह भी खत्म हो गया। अब हिंदू-ईसाई सभी वंचित महिलाएं एक हो गईं और उनके विरोध की ताकत बढ़ गई। सभी जगह महिलाएं पूरे कपड़ों में बाहर निकलने लगीं। इस पूरे आंदोलन का सीधा संबंध भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास से भी है। विरोधियों ने ऊंची जातियों के लोगों और उनके दुकानों के सामान को लूटना शुरू कर दिया। राज्य में शांति पूरी तरह भंग हो गई। दूसरी तरफ नारायण गुरु और अन्य सामाजिक, धार्मिक गुरुओं ने भी इस सामाजिक रूढ़ि का विरोध किया। मद्रास के कमिश्नर ने त्रावणकोर के राजा को खबर भिजवाई कि महिलाओं को कपड़े न पहनने देने और राज्य में हिंसा और अशांति को न रोक पाने के कारण उसकी बदनामी हो रही है। अंग्रेजों के और नादर आदि अवर्ण जातियों के दबाव में आखिर त्रावणकोर के राजा को घोषणा करनी पड़ी कि सभी महिलाएं शरीर का ऊपरी हिस्सा वस्त्र से ढंक सकती हैं। 26 जुलाई 1859 को राजा के एक आदेश के जरिए महिलाओं के ऊपरी वस्त्र न पहनने के कानून को बदल दिया गया। कई स्तरों पर विरोध के बावजूद आखिर त्रावणकोर की महिलाओं ने अपने वक्ष ढकने जैसा बुनियादी हक भी छीन कर लिया।

शुक्रवार, सितंबर 05, 2014

जेल और जहालत में आदिवासी

अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के करीब 31 हजार विचाराधीन कैदी बिना सुनवाई के जेल में सड़ रहे हैं। वे पुलिस व कोर्ट की कार्रवाई की भाषा समझ नहीं पाते हैं। कोर्ट उन्हें अच्छा अनुवादक भी उपलब्ध नहीं करा पता है।
संजय स्वदेश भारत के अगले प्रधान न्यायाधीश बनने जा रहे न्यायमूर्ति एच एल दत्तू ने भारतीय न्यायपालिका को विश्व की सर्वश्रेष्ठ न्यायपालिका बताया और इसे उच्च स्तर पर ले जाने की प्रतिबद्धता जाहिर की है। भारतीय न्याय व्यवस्था व्यवस्था में यह कहा जाता है कि भले की गुनाहगार को देरी से सजा हो, लेकिन किसी बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन व्यवहारिक धरातल पर हालात उल्टे हैं। गुनाहगार पैसे और पहुंच के आधार पर कानूनी प्रक्रिया में ऐसा दांव पेंच चलते हैं कि वे जल्द ही बाहर आ जाते हैं। वही ढेरों बेगुनाह जेल में सलाखों के पीछे अपनी कोर्ट की तारीख का इंतजार करते वर्षों गुजार देते हैं। ऐसा कई बार हुआ है जब कोर्ट का निर्णय आया तब तक व्यक्ति बेगुनाही में जेल काटा या फिर जितनी सजा थी, उससे कही ज्यादा साल जेल में गुजार दिए। हाल ही में फाइट फार ह्यूमन राइट्स सोसाइटी की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बिना सुनवाई के अनुसूचित जाति, जनजाति समुदाय के जेल में बंद 31 हजार विचाराधीन कैदियों के मामले को गंभीर मसला बताता। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि इस समस्या के समाधान के लिए सभी राज्यों के गृह सचिवों की छह सप्ताह के अंदर बैठक बुलाई जाए। साथ की कोर्ट ने यह भी कहा है कि मूक दर्शक बने रहने के बजाय उसे केंद्रीय एजेंसी के रूप में काम करके राज्यों से बात करनी चाहिए। संभवत गुलाम भारत में आंदोलनकारियों को छोड़ दे तो ऐसे शायद ही उदाहरण मिले जिसमें अंग्रेजों ने बिना ट्रायल के वर्षों तक विचाराधीन कैदियों से अपनी जेले भरी हो। आज भारत की आजादी के 68 साल बाद भी न्यायिक प्रक्रिया इतनी सहज नहीं बन पाई कि बिना पैसे व पहुंच के साधारण आदमी त्वरित न्याय मिल सके। स्वयं कोर्ट के जज तक यह कह चुके हैं कि देर से मिला न्याय अन्याय जैसा है। छत्तीसगढ़ का जाता मामला है, राज्य सरकार ने आदिवासी प्रकरणों के लिए गठित निर्मला बुच कमेटी ने दर्जनों मामले में उन कैदियों के जमानत का विरोध नहीं करने का सुझाव दिया है जिसमें निर्धन आदिवासी आरोपी मामूली रकम नहीं हुटा पाने के कारण जेल में हैं। शर्मनाक बात यह है कि इन कैदियों में एक ऐसी गरीब आदिवासी महिला आरोपी है, जो हत्या के प्रकरण में विचाराधीन है। विचाराधीन स्थिति में ही वह दस वर्ष जेल में रह चुकी है। अब भला वह दोषमुक्त हो भी जाए तो उसके सामने कौन का भविष्य बचा? ऐसे मामले केवल छत्तीसगढ़ में ही नहीं है। सूचना के अधिकार के अंतर्गत छत्तीसगढ़ की जेलों के विषय में मिली जानकारी के अनुसार जगदलपुर जेल में नक्सली मामलों के 546 विचाराधीन कैदी बंद हैं जिनमे 512 कैदी आदिवासी हैं। दंतेवाड़ा जेल में नक्सली मामलों के 377 विचाराधीन कैदी बंद हैं जिनमे 372 कैदी आदिवासी हैं। कांकेर जेल में नक्सली मामलों के 144 विचाराधीन कैदी बंद हैं जिनमे 134 कैदी आदिवासी हैं। दुर्ग जेल में नक्सली मामलों के 57 विचाराधीन कैदी बंद हैं जिनमे 51 कैदी आदिवासी हैं। नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, झारखंड और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों के केंद्रीय जेलों में बगैर किसी सुनवाई के हजारों आदिवासी बंद हैं। सवाल है कि आखिर समाज का यह वर्ग अपने मौलिक अधिकारों से जुड़े मसले से इतना वंचित क्यों है। सरकार पर यह भी आरोप लगता है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों ने आदिवासियों को यह भी नहीं बताया जाता कि उन्हें किस आधार पर गिरफ्तार किया गया है। संकट भाषा के संप्रेषण का है। आदिवासी अपनी मूल भाषा में बोलते हैं। वे गिरफ्तारी के वक्त या कोर्ट में अपनी बात सही तरीके से कोर्ट को नहीं समझा पाते हैं। और कोर्ट भी उन्हें समझने का सिरदर्द नहीं उठाता है। उन्हें न उनकी भाषा समझने वाला वकील उपलब्ध कराया जाता है ओर न ही अदालतों में ऐसे अनुवादक उपलब्ध है जो आदिवासियों की भाषा को अनुवाद कर माननीय जज महोदय को उनकी बात बता सकें। जेले के नक्सली कैदियों के सरकारी आंकड़ों के आधार पर ही नक्सल समर्थक सरकार को इस बात को लेकर कटघरे में खड़ा करते हैं कि सभी नक्सली आदिवासी हैं या फिर आदिवासी ही नक्सली बन गए हैं। उधर प्रधानमंत्री, गृहमंत्री कहते हैं कि नक्सली लोग देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। जेल के आंकड़े कहते हैं कि आदिवासी ही नक्सली हैं। मतलब है कि देश के आदिवासियों को ही अपने लिए सबसे बड़ा खतरा है। जल, जंगल और जमीन को लेकर आदिवासी हितों की रक्षा के लिए वर्षों से आवाज उठ रही हैं। नक्सली गैर नक्सल आदिवासियों की आड़ लेकर अपना हित साध रहे हैँ। इनके विकास के लिए लाखों करोड़ों की योजनाओं की राशि के खर्च के बाद भी हालात संतोषजनक नहीं हुए। शिक्षा के मामले में आदिवासी क्षेत्रों में अभी भी असंतोषजनक स्थिति में है। आरक्षण के बाद भी हजारों रिक्त आदिवासी पदों के आंकड़े यह साबित भी करते हैं कि शिक्षा की अलख आदिवासी क्षेत्रों से अभी दूर है। नेशनल इंस्टिट्यूट आॅफ एडवांस्ड स्टडीज की ओर से यूनिसेफ के लिए किए गए अध्ययन में बताया गया है कि आदिवासियों को दी जाने वाली शिक्षा का स्तर बहुत दयनीय है। आदिवासी क्षेत्रों में सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं पर बहुत खराब ढंग से अमल किया जा रहा है। लिहाजा, आदिवासियों की स्थिति बदलने के बजाय बदतर होती गई। उनके क्षेत्रों में बाहरी दुनिया के लोगों ने घुसपैठ कर दोहन शुरू किया है। विरोध पर राष्टÑविरोधी कार्यों के आरोप में गिरफ्तार हुए हैं। उनकी अपनी भाषा को न सरकार समझ रही है और न ही कोर्ट।

मंगलवार, अगस्त 05, 2014

स्कूल से घर तक पीटे जा रहे कान्हा

संदर्भ : जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में बदलाव की पहल
महाभारत काल में कान्हा रस्सी से बांधे गए हैं। बच्चों को घरों में बांध कर रखने, उन्हें मारने-पीटने की घटनाएं आज भी जारी है। एकल परिवारों में बच्चों की स्वछंदता समाप्त हो चुकी है। उनसे हर क्षेत्र में अव्वल होने अपेक्षा बढ़ गई है। थोड़ी-थोड़ी बात पर मानसिक व शारीरिक प्रताड़ना घर-घर की बात हो चुकी है।
संजय स्वदेश
शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के बाद यहे बेहद जरूरी है कि बच्चों को हिंसा से संरक्षण का भी मौलिक अधिकार मिले। इसके अभाव में भोले मन वाला बचपन घर और स्कूल में मानसिक व शारीरिक रूप से पीड़ित है। देश दुनिया का कौन सा ऐसा देश है जहां बच्चों पर नियंत्रण के लिए हिंसा का उपयोग नहीं किया गया है। भारत के पौराणिक कथाओं में तो इसके उदाहरण है। भगवान श्रीकृष्ण अपनी नटखट कारनामों से माता यशोदा को इतना तंग करते हैं कि मां कभी कान्हा को रस्सियों से बांध देती हैं, तो कभी ओखली में बांध कर अनुशासित करने का प्रयास करती है। बच्चों को घरों में बांध कर रखने, उन्हें मारने-पीटने की घटनाएं आज भी जारी है। पर चंचल बाल मन की शरारत भला कहां छुटती है। बच्चों की सहज पृवृत्तियां जब माता-पिता या शिक्षक के लिए भारी लगने लगती है तो उनका धैर्य टूट जाता है। वे बच्चों की बाल मनोवृत्ति समझने के इतर उस पर नियंत्रण के लिए हिंसा का रुख अख्तियार कर लेते हैं। जैसे-जैसे समाज विकसित हुआ, एकल परिवार बढ़े। बच्चे एकल परिवार में ही सीमित रहने लगे। उनकी स्वछंदता समाप्त हो गई है। माता-पिता की अपेक्षाओं ने सब कुछ कठोर अनुशासन में बांध दिया है। हर क्षेत्र में बच्चों से परिणाम अव्वल होने अपेक्षा बढ़ गई है। अपेक्षाओं के विपरित होने पर बच्चों के साथ हिंसा आम हो चुकी है। मतलब घर-घर में कान्हा के कान मरोड़ जा रहे हैं। वे पीटे जा रहे हैं। आधुनिक भारत के स्कूलों में अनुशासन का पाठ मार से ही शुरू होती थी।हालांकि जागरूकता बढ़ने के बाद भी हाल के वर्षों में स्कूल में बच्चों को पिटने की घटनाएं कम हुई हैं, लेकिन इससे प्रकरण थाने तक पहुंचने लगे हैं। लिहाजा, शिक्षकों में दंड का भय बढ़ा है। पहले ये मामले थाने तक पहुंचते ही नहीं थे। बच्चों को पीटना शिक्षकों का अघोषित अधिकार था। पीटे जाने के बाद भी बच्चे माता-पिता से इसकी शिकायत नहीं करते थे। उल्टे उनके मन में इस बात का भय होता था कि कहीं शिकायत पर घर में फिर पिटाई न हो जाए। घर की चाहरदिवारी में अपनों से हिंसा के शिकार होने वाले मामले विशेष स्थितियों में ही थाने तक पहुंचते हैं। घर के अपने बच्चों को पिटते हैं तो यह अनुशासन की सीख होती है, और स्कूल में शिक्षक यही कदम उठाता है तो यह अपराध होने लगा है। पर घर हो या स्कूल, बच्चों पर कहीं भी हिंसा है तो अपराध ही। इसी हिंसा को रोकने के लिए सरकार कड़े कानूनों का नया खाका तैयार कर रही है। यह निश्चय ही सराहनीय और स्वागत योग्य कदम है। सरकार जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2000 की जगह नए कानून पर काम कर रही है। पुराने कानूनों के स्थान पर सरकार जुवेनाइल जस्टिस (केयर ऐंड प्रोटेक्शन आॅफ चिल्ड्रन) बिल 2014 पेश करने की तैयारी है। नए कानूनों को सरकार ने बच्चों के अधिकारों और अंतरराष्टÑीय कानूनों को ध्यान में रखकर तैयार किया है। माता-पिता या अभिभावकों या शिक्षकों को अब बच्चों को पीटना या उनकी गलतियों के लिए कोई सजा देना या किसी तरह से प्रताड़ित करना भारी पड़ेगा। बच्चों के खिलाफ ऐसा व्यवहार करने पर आने वाले सालों में पांच साल तक के लिए जेल की सजा हो सकती है। करीब दो वर्ष पहले आई यूनिसेफ के एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के तमाम विकासशील देशों में बच्चों को अनुशासित करने के लिए हिंसा का सहारा लिया जाता है। ऐसा उनके अपने ही घरों में होता है। यह हिंसा शारीरिक, मानसिक या भावनात्मक किसी भी तरह की हो सकती है। दुनिया भर में 2 से 14 साल के आयुवर्ग के हर चार में तीन बच्चों को अनुशासित करने के लिए किसी न किसी तरह की हिंसा का सहारा लिया जाता है। इसी तरह हर चार में तीन बच्चे मनोवैज्ञानिक हिंसा या आक्रामकता के शिकार होते हैं, जबकि हर चार में से दो बच्चों को अनुशासन का पाठ पढ़ाने के लिए शारीरिक सजा दी जाती है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि दुनिया के 33 देशों के निम्न व मध्यम आय वर्ग वाले परिवारों में 2 से 14 साल की आयुवर्ग के बच्चों पर ऐसी हिंसा हुई, जिसमें उनके माता-पिता या अभिभावक शामिल थे। भारत में यही हालात है। यहां घर से लेकर स्कूल तक बच्चे हिंसा से पीड़ित हैं। भारत के शिक्षा दर्शन में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले चिंतक महर्षि अरविंद अपने एक लेख में कहते हैं कि शिक्षक राष्टÑ निर्माण के वे माली हैं जो अपनी मेहनत से इसकी नींव को सींचते हैं। दुर्भाग्य देखिए, आज 21वीं सदी में न ऐसे मेहनत व धैर्य वाले शिक्षक हैं और न गुरुकुल जैसी शिक्षा परंपरा। सब कुछ बदला-बदला। अंतराष्टÑीय स्तर के स्कूल और शिक्षा पद्धति। इसके बाद भी राष्टÑीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के आंकड़ों के अनुसार हाल के वर्षों में बच्चों के साथ स्कूलों में होने वाले दुर्व्यवहार, यौन शोषण, शारीरिक प्रताड़ना के मामलों में तीन गुना बढ़ोतरी हुई है। करीब सात साल पहले 2007 में केंद्रीय महिला व बाल विकास मंत्रालय ने अपने एक सर्वेक्षण रिपोर्ट में बताया था कि स्कूल जाने वाला हर दूसरा बच्चा किसी ने किसी तरह से शारीरिक या मानसिक हिंसा का शिकार हो रहा है। करीब दो दशक पहले बच्चों को स्कूल छोड़ने का सबसे बड़ा कारण शिक्षकों द्वारा पीटे जाने का भय होता था। जब स्कूल से बाहर रहने वाले बच्चों केआंकड़ें बढ़े तो सरकार ने मिड डे मिल के माध्यम से भीड़ बढ़ा दी। सरकारी स्कूलों में शिक्षकों को नई पीढ़ी आ चुकी है, उसने पुराने शिक्षकों की तरह मारपीट कर पढ़ाना छोड़ पढ़ाने से ही मुंह मोड़ लिया है। इसके बाद भी आए दिन किसी स्कूल में बच्चों के पीटे जाने की घटनाएं आ ही जाती है। ऐसी घटनाएं अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों से आती हैं। ऐसे मामलों में प्रकरण भी वहीं दर्ज हुए हैं। जब मारपीट से बच्चे की हालत ज्यादा खराब हुई और अभिभावकों ने इसकी सुध ली। निजी स्कूलों में बेहतर शिक्षा के लिए मोटी फीस देकर बच्चों को पढ़ाने वाले अभिभावक सचेत हैं। लिहाजा, निजी स्कूलों में काफी हद तक शारीरिक हिंसा की घटनाएं कम हुर्इं है। लेकिन सरकारी स्कूलों में हालत सरकार भरोसे ही है।

मंगलवार, जुलाई 29, 2014

सजा के खौफ का सामाजिक संक्रमण

तेजाब हमले में एक साल के अंदर फांसी -संजय स्वदेश
1979-80 में भगलपुर जेल में कैदियों की आंख में तेजाब डाल कर अंधा करने का आंखफोड़वा प्रकरण हुआ। जेल की चाहरदिवारी की यह कू्रर घटना मीडिया माध्यम से समाज तक पहुंची। देश में किसी महिला पर तेजाब फेंकने का पहला मामला 1982 में आया। तकनीक के युग में मीडिया मजबूत हुआ तो दूर दराज की तेजाब हमले की घटनाएं भी सामने आने लगी हैं। खबरों से अपराधी अपराध के तरीके जानने लगे हैं। बदायूं कांड़ के बाद कई महिलाओं के शव हत्या के बाद पेड़ से लटकाएं गये। शायद अपराधियों में सजा के खौफ का सामाजिक संक्रमण की किसी पर तेजाब फेंकने के कू्रर कर्म से रोक सकें।
बीते 25 जुलाई को मध्य प्रदेश के मुरैना जिले की अंबाह तहसील की एक अदालत ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया। एक साल पहले तेजाब डालकर अपनी शादीशुदा कथित प्रेमिका की हत्या करने के मामले में एक युवक को फांसी की सजा सुनाई। फांसी की सजा देते वक्त कोर्ट ने यह टिप्पणी भी की कि इस अपराध के लिए आजीवन कारावास की सजा पर्याप्त नहीं है, इसलिए मृत्युदंड दिया जाता है। इससे मृतक के परिजनों के साथ-साथ समाज की आत्मा भी आहत हुई है। देश में संभवत: यह पहला मामला है, जब किसी व्यक्ति पर तेजाब फेंकने वाले अपराधी को फांसी की सजा कोर्ट ने सुनाई है। इसी दिन सुप्रीम कोर्ट ने तेजाब के हमलों, विशेषकर ठुकराये हुये प्रेमियों द्वारा किये जा रहे ऐसे हमले की बढ़ती घटनाओं पर चिंता व्यक्त करते हुये कहा कि स्थिति दयनीय है। सुप्रीम कोर्ट ने इस समस्या से निबटने के प्रति केंद्र सरकार की सुस्ती पर सवाल उठाया। यह पहला ऐसा मामला नहीं है, जिसमें कोर्ट ने सरकार की उदासीनता पर निशाना साधते हुए उसे कटघरें में खड़ा किया हो। चाहे फटकार जितनी भी पड़े, सरकार की सुस्ती उसी बेरहमी से बनी रही है, जिस बेरहमी कोई अपराधी किसी मासूम के चेहरे पर तेजाब फेंक का उसकी जिदंगी नरक बना देता है। कोर्ट ने इसी दिन तेजाब हमलों की पीड़ितों के पुनर्वास की नीति तैयार करने का भी निर्देश दिया। यह भी कोई पहला निर्देश नहीं है। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने इसी साल 31 मार्च तक तेजाब की खरीद-बिक्री और दूसरे विषाक्त पदार्थों के दुरुपयोग की रोकथाम के लिए राज्य सरकारों को नियम बनाने का निर्देश दिया था। अक्सर कोर्ट के ऐसे आदेश-निर्देश और टिका-टिप्पणी संबंधित प्रकरणों के तारीख वाले दिन के अगले दिन अखबारों में होते हैं। फिर न इस पर कोई चर्चा करता है और न ही कोई पीड़िता की सुध लेता है। पीड़िता की हर दिन की जिंदगी असमान्य अवस्था में कटती है। जो निराश हो चुकी हैं, वे मौत का इंतजार कर रही हैं। जिन्हें अपराधियों को सजा दिलाने का हौसला है, वे आत्मविश्वास से लवरेज होकर बेरहम समाज में अपनी लड़ाई लड़ रही है। ऐसी पीड़िताओं में लक्ष्मी मिशाल है। उसे हर संवेदनशील सैल्यूट करता है। देश के हर राज्य में तेजाबी हमले कई दर्दनाक कहानियों के उदाहरण हैं। विभिन्न रिपोर्ट के अनुसार ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि हर साल देश में करीब एक हजार मासूम तेजाब हमले की शिकार हो रही हैं। लेकिन सरकारी आंकड़ों में यह महज सौ, सवा सौ की होता है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो से ऐसे मामलों का स्पष्ट आंकड़ा नहीं मिल पाता क्योंकि तेजाब हमले का अधिकतर मामला आईपीसी की धारा 307 (हत्या का प्रयास), धारा 320 (गम्भीर चोट पहुंचाना) और धारा 326 (घातक हथियारों से जान-बूझकर प्रहार करके चोट पहुंचाने) के तहत दर्ज किए जाते हैं। लिहाजा, तेजाब हमले के सही आंकड़ें सामने नहीं आ पाते हैं। इसे घटनाओं के खिलाफ लड़ने वाले विभिन्न स्वयंसेवी संगठन उन्हीं घटनाओं का ब्यौरा जुटा पाते हैं, जो किसी तरह मीडिया में आ जाए। देश के दूर दराज में होने वाली ऐसी घटनाएं वहीं तक रह जाती है। हालांकि आजकल मीडिया की सक्रियता के चलते ऐसे मामले राष्टÑीय स्तर की मीडियों की सुर्खियों में आने लगे हैं। लेकिन इस कू्ररता को अंजाम देने वाले अपराधियों के दिन में खौफ नहीं बैठ पा रहा है। आजाद भारत की आजादी का वर्षगांठ की 66वीं सालगिरह सामने हैं। गैर कीजिए, गुलाम भारत और आजादी भारत के अगले तीन दशक में तेजाब फेंकने की बेरहम प्रकरण सामने आने का उल्लेख नहीं मिलता है। गूगल में एशिड फैक्ट्री खोजो तो हिंदी फिल्म की कहानी मिलती है। बताया जाता है कि भारत में किसी महिला पर 1982 में भारत में तेजाब हमले का पहला मामला प्रकाश में आया था। 1979-80 में भगलपुर जेल में कैदियों की आंख में तेजाब डाल कर अंधा करने का आंखफोड़वा प्रकरण हुआ। जेल की चाहरदिवारी की यह कू्रर घटना मीडिया माध्यम से समाज तक पहुंची। संभवत समाज के कुठितज मन वाले अपराधियों ने जान लिया कि बदला लेने का यह भी एक तरीका हो सकता है। अस्सी के दशक देश का वह दौर था जब एक एक नया भारत करवट ले रहा था, धीरे-धीरे विकास की ओर अग्रसर, देश-दुनिया से कदमताल करने की बेताबी के साथ। तब स्वर्णकार तेजाब का उपयोग करते थे। मतलब तेजाब के उपभोक्ताओं का वर्ग एक ही था। धीरे-धीरे देश में वाहन चले। उसमें लगने वाली बैट्री के लिए तेजाब की खपत बढ़ी। उत्पादन भी बढ़ा। लिहाजा, विकास की गति के साथ-साथ जैसे-जैसे तेजाब सर्व सुलभ होते गया, समाज में क्रूरतम सोच रखने वाले इसे अपना हथियार बनाना शुरू किया। यह भी गौर की बात है कि जैसे-जैसे देश ने विकास किया, देश में तेजाब हमले की घटनाएं बढ़ी। तकनीक के युग में मीडिया मजबूत हुआ तो दूर दराज की तेजाब हमले की घटनाएं भी सामने आने लगी हैं। समाज का संवेदनशील तबका इन खबरों से चिंता जताने लगा है। इसके अपराधियों को कठोर सजा के लिए एकजुट स्वर भी उठने लगे हैं। लेकिन कुंठित और कू्रर मानसिकता वाला मन कहां बदल रहा है? वे खबरों से ऐसे अपराध के तरीके जानने लगे हैं। हाल ही में उत्तर प्रदेश के बदायूं कांड को देंखे। दुष्कर्म के बाद हत्या कर शव को पेड़ पर लटकाने की घटना जैसे सुर्खियों में आर्इं, देश के दूसरे हिस्सों में एक के बाद इसी तरह की कई घटनाएं हुर्इं, जिसमें हत्या के बाद शव को पेड़ से लटका दिया गया। एक स्थान के अपराधी के अपराध के तरीके पढ़ कर दूसरे क्षेत्र के अपराधी उससे पे्ररित हो रहे हैं। मतलब यह बीमारी और कू्रर मानसिक का समाजिक सक्रमण है। अपराधियों में कानून की लंबी प्रक्रिया और बच कर निकलने की पूरी संभावना के कारण सजा का खौफ नहीं पल रहा है। मुरैना जिले की अंबाह तहसील कोर्ट ने घटना के एक साल के अंदर फैसला सुना कर भले ही सराहनीय कार्य किया हो, लेकिन दूसरे की जिंदगी नरक बना कर अपनी जिंदगी बचाने के लिए ये अपराधी शीर्ष कोर्ट तक न जाने कितने साल खुली हवा में मौज की सांस लेते रहेंगे और पीड़िता हर दिन नरक भोगती रहेगी। मध्यप्रदेश में 25 जुलाई को निचली अदालत ने तेजाब हमले के दोषी को फांसी की सजा सुनाई और इसके चौथे दिन 28 जुलाई को पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के आरामबाग इलाके में चार लोगों ने एक कॉलेज छात्रा के उपर तेजाब का हमला कर भाग गए। शायद अपराधियों में सजा के खौफ का सामाजिक संक्रमण की किसी पर तेजाब फेंकने के कूृ्रर कर्म से रोक सकें।

मंगलवार, जुलाई 01, 2014

असाढ़ में सूखा : का बरखा जब कृषि सुखानी

-------------------------------------------- यह पहला ऐसा मौका नहीं है जब मानसून ने दगाबाजी की हो। आजाद भारत में दर्जनों बार सूखा पड़ा। लेकिन इससे न कोई सबक लिया गया और न ही इससे निपटने कोई ठोस और सार्थक तैयारी ने मूर्त रूप लिया। मौसम विभाग इस बात का आश्वासन दे रहा है कि जून में हुई बारिश की कमी की भरपाई अगस्त में हो जाएगी। लेकिन अगस्त तक ऐसी राहत रामचरितमानस की पंक्ति-का बरखा जब कृषि सुखानी को चरितार्थ करती है। ----------------------------------------- संजय स्वदेश असाढ़ के दिनों में झमाझम बारिश से तरबतर होते जनजीवन के दृश्यों से साहित्य संसार समृद्ध है। लेकिन व्यवहारिक धरातल पर 21वीं सदी के असाढ़ का मूड़ कुछ अलग है। बीते जून में शेयर बाजार का सूचकांक कुलांचे भरता रहा। इसी महीने के अंतिम दिनों में असम भीषण बारिश के बाद बाढ़ से कराह उठा। लगातार बारिश और बाढ़ से करीब दजर्न भर लोग अकाल काल के ग्रास बन गए। वहीं देश का पश्चिमी हिस्सा आधा असाढ़ गुजरने के बाद भी बारिश की बाट जोह रहा है। मानसून दगा दे गया। जिस आषाड़ में जब तक देश को तरबतर हो जाना चाहिए था, वहां इंद्रदेव के मेघों ने आधी मेहरबानी भी नहीं दिखाई। मानसून के शुरुआती बौछार से अन्नदाता किसान के चेहरे की रौनक बढ़ा दी थी। उम्मीद में किसानों ने खोतों की निराई, बुआई भी कर दी। लेकिन अब पश्चिमी भारत के करीब बीस लाख किसान बारिश की बाट जोहते हुए भविष्य की चिंता में डूब गए हैं। फसल तैयार होने से पहले बीज धरती के गर्भ में ही चौपट हो रही है। इधर केंद्र सरकार ने भी यह घोषणा कर दी कि देश के कुछ हिस्सों में इस बार सूखा पड़ सकता है। महंगाई की मार झेल रही जनता को सरकार ने अगाह कर दिया कि हमे सूखे को लेकर तैयार रहना चाहिए। संयुक्त राष्टÑ नेशनल ओसियनिक एंड एटमोस्फोरिक एडमिनिस्ट्रेशन के आंकड़ों के अनुसार इस वर्ष मई माह इतिहास में सबसे गर्म रहा है। धरती तपती रही। धरती और समुद्र का औसत तापमान 0.74 सेल्सियस अधिक रहा। 20वीं सदी में यह तापमान औसतन 14.8 सेल्सियस रिकॉर्ड किया गया था। इस भीषण गर्मी के बाद मानसून से राहत की उम्मीद थी। लेकिन जून महीने में बारिश के आंकड़ों पर नजर डाले तो पता चलता है कि जून माह में 100 मिमी से कम बारिश केवल दो साल हुई है, लेकिन वह भी इस वर्ष के आंकड़े 43.4 मिमी से अधिक ही रही। 2009 में जून माह में 85.7 मिमी और 1926 में 97.2 मिमी बारिश हुई थी। पिछली सदी में जून माह में सबसे कम बारिश 1905 में हुई थी, जो महज 88.7 मिमी रही थी। कुल मिलाकर अब तक करीब सामान्य से 45 फीसदी कम बारिश हुई है। यह पहला ऐसा मौका नहीं है जब मानसून ने दगाबाजी की हो। आजाद भारत में दर्जनों बार सूखा पड़ा। लेकिन इससे न कोई सबक लिया गया और न ही इससे निपटने कोई ठोस और सार्थक तैयारी ने मूर्त रूप लिया। बड़े-बड़े डैम बने तो उसके दरवाजे तब खुलते हैं, जब पानी की जरूरत नहीं होती है। महाराष्टÑ में हजारों एकड़ जमीन में कपास, सोयाबीन और दूसरी फसलें बो चुके किसान वर्षा के अभाव में नुकसान को लेकर डरे हुए हैं। किसानों ने मानसून की आहट से ही जून महीने की शुरुआत में बुआई के साथ ही उर्वरक और कीटनाशकों का भी खेतों में छिड़काव कर दिया था। अनेक किसानों ने यह कार्य भारी भरकम कर्ज लेकर किया है। अब उनके आंखों के सामने फसल चौपट होने के साथ कर्ज में डूबने का अंधकारमय भविष्य नजर आने लगा है। हालांकि मौसम विभाग इस बात का आश्वासन दे रहा है कि जून में हुई बारिश की कमी की भरपाई अगस्त में हो जाएगी। लेकिन अगस्त तक ऐसी राहत रामचरितमानस की पंक्ति-का बरखा जब कृषि सुखानी को चरितार्थ करती है।

सोमवार, जून 23, 2014

मानव तस्करी की मंडी में मासूम

----------------------------- हर राज्य के अखबारों में बच्चों के गायब होने की खबर किसी ने किसी पन्ने के कोने में झांकती रहती है। देश बड़ा है। आबादी बड़ी है। संभव हो आपके आसपास कोई ऐसा नहीं मिले, जिसके बच्चे होश संभालने से पहले ही गायब हो चुके हो। इसलिए आपको जानकार थोड़ा आश्चर्य होगा, लेकिन हकीकत यह है कि आज देशभर में करीब .आठ सौ गैंग सक्रिय होकर छोटे-छोटे बच्चों को गायब कर मानव तस्करी के धंधे में लगे हैं। यह रिकार्ड सीबीआई का है। --------------------
संजय स्वदेश बीते दिनों केरल पुलिस के 16 अधिकारियों ने झारखंड के 123 बच्चों को केरल से जसीडीह स्टेशन पहुंचाया गया। ये बच्चे मानव तस्करी के जरिए केरल के अनाथालय में पहुंचाया गया था। पिछले वर्ष भी इसी तरह थोक में बच्चों की मानव तस्करी की एक और मामले का पर्दाफाश हुआ था। राजस्थान के भरतपुर रेलवे स्टेशन से 184 बाल मजदूरों को मुक्त करा कर पटना पहुंचाया गया। आए दिन देश के हर राज्य के अखबारों में बच्चों के गायब होने की खबर किसी ने किसी पन्ने के कोने में झांकती रहती हंै। देश बड़ा है। आबादी बड़ी है। संभव हो आपके आसपास कोई ऐसा नहीं मिले, जिसके बच्चे होश संभालने से पहले ही गायब हो चुके हो। इसलिए आपको जानकार थोड़ा आश्चर्य होगा, लेकिन हकीकत यह है कि आज देशभर में करीब आठ सौ गैंग सक्रिय होकर छोटे-छोटे बच्चों को गायब कर मानव तस्करी के धंधे में लगे हैं। यह रिकार्ड सीबीआई का है। मां-बाप का जिगर का जो टुकड़ा दु:खों की हर छांव से बचता रहता है, वह इस गैंग में चंगुल में आने के बाद एक ऐसी दुनिया में गुम हो जाता है, जहां से न बाप का लाड़ रहता है और मां के ममता का आंचल। किसी के अंग को निकाल कर दूसरे में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है, तो किसी को देह के धंधे में झोंक दिया जाता है, तो हजारों मजदूरी की भेंट चढ़ जाते हैं। गुमशुदा होने के समान्य आंकड़ों के अनुसार देश के औसतन हर घंटे में एक बच्चा गायब होता है। मतलब देशभर में चौबीस घंटे में कुल 24 लोगों के जिगर के टुकड़ों को छिन कर जिंदगी के अंधेरे में ढकेल दिया जाता है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 44,000 बच्चे हर साल लापता हो जाते हैं और उनमें से करीब 11,000 का ही पता लग पाता है। भारत में मानव तस्करी को लेकर यूएन की हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत मानव तस्करी का बड़ा बाजार बन चुका है और देश की राजधानी दिल्ली मानव तस्करों की पसंदीदा जगह बनती जा रही है, जहां देश भर से बच्चों और महिलाओं को लाकर ना केवल आसपास के इलाकों बल्कि विदेशों में भी भेजा जा रहा है। वर्ष 2009 से 2011 के बीच लगभग 1,77,660 बच्चे लापता हुए जिनमें से 1,22,190 बच्चों को पता चल सका, जबकि अभी भी 55 हजार से ज्यादा बच्चे लापता हैं जिसमें से 64 फीसदी यानी लगभग 35,615 नाबालिग लड़कियां हैं। वहीं इस बीच करीब 1 लाख 60 हजार महिलाएं लापता हुईं जिनमें से सिर्फ 1 लाख 3 हजार महिलाओं का ही पता चल सका। वहीं लगभग 56 हजार महिलाएं अब तक लापता हैं। रिपोर्ट के मुताबिक साल 2011-12 में एनजीओ की मदद से 1532 बच्चों को बचाया जा सका। वर्ष 2009-2011 के बीच लापता हुए लगभग 3,094 बच्चों का अबतक कोई सुराग नहीं लग पाया है जिनमें से 1,636 लड़कियां हैं तो वहीं इस दौरान गायब हुईं लगभग 3,786 महिलाएं भी अबतक लापता हैं। गायब बच्चों के माता-पिता के आंखों के आंसू सूख चुके हैं। पर उनकी यादें हर दिन टिस मारती है। ऐसी बात नहीं है कि इन तरह के अपराधों के रोकथाम के लिए कानून नहीं है। कानून तो है, पर इसका क्रियान्वयन ठीक से नहीं हो पा रहा है। यदि क्रियान्वयन भी होता है तो इसमें इतनी खामियां हैं कि मानव तस्करों के गिरोह पर मजबूती से नकेल नहीं कसा जा पता है। कई मामलों में तो देखा गया है कि ऐसे कानूनों की जानकारी थाने में तैनात पुलिसवालों को भी नहीं होती है। हालांकि गृहमंत्रालय की विभिन्न इकायों के माध्यम से करीब 225 मानव तस्कर विरोधी इकाइयां सक्रिय हैं। गृह मंत्रालय की मानव तस्करी विरोधी इकाइयों 2011 से अब तक देश भर में 4000 से अधिक बचाव अभियान चलाये और 13742 पीड़ितों को बचाया। साथ ही 7087 मानव तस्करों को गिरफ्तार कराया। जल्द ही 100 और नई ऐसी इकाइयां गठित होने वाली है। लेकिन सरकार की मानव तस्कर विरोधी गतिविधियां जिस गति से सक्रिय है, उससे कई ज्यादा तेज तस्करों का गिरोह हैं। देश और देश के बाहर दूर दराज के गरीब ग्रामीणों व आदिवासी क्षेत्र के बच्चे इसी तरह मानव तस्करी की आग में जलते जा रहे हैं। भारत ने मानव तस्करी रोकने के लिए कई अंतरराष्ट्रीय संधियों को मंजूरी दी है। इनमें संयुक्त राष्ट्र ट्रांसनेशनल संगठित अपराध संधि और महिलाओं और बच्चों की तस्करी से जुडी दक्षेस संधि जैसे समझौते शामिल हैं। इसके अलावा बांग्लादेश के साथ द्विपक्षीय समझौता है। इसके बावजूद बांग्लादेश और नेपाल से लगी अंतरराष्ट्रीय सीमा पर मानव तस्करी जोरों पर होती है। बांग्लादेश और नेपाल से सीमा पार मानव तस्करी में संगठित गिरोह शामिल हैं, लेकिन सफल जांच और मुकदमे के शायद ही ऐसे कोई मामले हों, जो अपराधियों के मन में भय पैदा करते हों। कई बार यह देखा गया है कि मानव तस्करी से निपटने के लिए सीमा रक्षक बलों, राष्ट्रीय महिला आयोग, राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसे आयोगों तथा राज्य की कानून प्रवर्तन एजेंसियों के बीच त्वरित समन्वय और सक्रियता की भी भारी कमी है। जब तक तस्कर पीड़ित मासूमों को अपने परिवार का सदस्य समय कर मानव तस्करों के खिलाफ कार्य करने वाली सरकारी एजेंसियां सक्रिय होकर कार्य नहीं करेंगी, देश में इस काले अमावीय धंधे का थोक बाजार फलता फूलता रहेगा।