मंगलवार, नवंबर 19, 2013

गरीब की देह पर मौत का ट्रायल

संदर्भ : दवा परीक्षण पर केंद्र को सुप्रीम कोर्ट का नोटिस ------------------------------------------------ भारत में दवा परीक्षण का कारोबार करीब एक अरब डालर का है। दवा परीक्षण के दुष्प्रभााव के कारण करीब 12 हजार लोग पीड़ित है। कुछ इतने दर्द में हैं कि वे मौत की दुआएं मांग रहे हैं। सरकारें बगले झांक रही है। मरे हुए लोगों को कोई ढंग के मुआवजे के लिए कहीं कोई बुलंद आवाज नहीं है। शायद सरकार ठीकठाक मुआवजा दिला दे तो मरने वाले के गरीब परिवार के दर्द पर मरहम लग सके। ------------------------------------------------ संजय स्वदेश आंध्र और गुजरात में 2009-10 के दौरान अनैतिक रूप से दवा परीक्षण के मामले में हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और परीक्षण करने वाली संस्था को नोटिस दिया है। जिस दिन कोर्ट ने यह नोटिस जारी किया उसके अगले दिन विदेशी मीडिया ने यह समाचार जारी किया कि विदेशी दवा कंपनियों के लिए भारत में क्लिनीकल ट्रायल सबसे महंगा पड़ रहा है। जबकि अभी तक अधिकतर रपटें यही कह रही थीं कि चीन के बाद भारत में दवा परीक्षण का बेहतरीन माहौल है। इस उपलब्धि में दवा परीक्षण का इतिहास बहुत काला रहा है। सरकारी आंकड़े कहते हैं कि वर्ष 2005 से 2012 के बीच 475 दवाओं के परीक्षण की वजह से 2,644 मरीजों की मौत हुई। सन् 2008 में 288, 2009 में 637 और 2010 में 668 लोगों की मौत हुई है। इस तरह से एक जान की औसत कीमत महज ढाई लाख रुपए आंकी गई। मुआवजा देने वाली कंपनियों में मर्क, क्विनटाइल्स, बेयर, एमजेन, ब्रिस्टल मेयर्स, सानोफी और फाइजर भी शामिल हैं। निश्चय ही मुआवजे के लिए महज ढाई लाख की रकम दूसरे देशों की तुलना में बहुत कम है। मध्यप्रदेश आंध्र प्रदेश में ऐसे गुपचुप दवा परीक्षण से होने वाली मौतों पर काफी हो हल्ला मच चुका है। फिर सुप्रीम कोर्ट के नोटिस के बाद अचानक किसी विदेशी मीडिया के माध्यम से यह प्रचार करना कि भारत में ऐसे परीक्षण महंगा सौदा है, कुछ और संकेत कर रहे हैं। कुछ ही दिन पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने क्लीनिकल परीक्षणों के खिलाफ दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान कहा था कि ये परीक्षण देश की जनता के हित में होने चाहिए और सिर्फ बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिये इसकी इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। जीवन बचाने जैसे सकारात्मक उद्देश्य के साथ दवाओं का परीक्षण तो ठीक है। लेकिन मरीज के परीजनों को अंधेरे में रख कर मरीज के साथ जानलेवा परीक्षण निश्चित रूप से न्यायपूर्ण नहीं कहा जा सकता हैं। अमूमन यह देखा गया है कि दवाओं का परीक्षण मानसीक रूप से कमजोर लोगों पर किया गया। कई बार मानसिक रूप से ठीक लोगों पर भी परीक्षण हुआ, लेकिन उनके परीजनों को इसकी जानकारी नहीं दी गई। इस क्रम ढेरों प्रयोग असफल हुए और ढेरों मौतें भी हुई। ताजी रिपोर्ट तो कहती है कि दवा परीक्षण के दुष्प्रभााव के कारण करीब 12 हजार लोग पीड़ित है। कुछ इतने दर्द में हैं कि वे मौत की दुआएं मांग रहे हैं। सरकारें बगले झांक रही है। मरे हुए लोगों को कोई ढंग के मुआवजे के लिए कहीं कोई बुलंद आवाज नहीं है। शायद सरकार ठीकठाक मुआवजा दिला दे तो मरने वाले के गरीब परिवार के दर्द पर मरहम लग सके। ऐसे पीड़ित परिवारों की इतनी हैसियत नहीं होती है कि वे दवा कंपनियों को कोर्ट में घसीट सकें। विश्व स्वास्थ्य संगठन (ंडब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट के अनुसार सन् 2010 में भारत में क्लिनिकल ट्रायल का कारोबार करीब एक अरब डालर का हो गया है। किंतु मरीजों मरीजों को मौत के मुआवजे के नाम पर केवल खानपूर्ति की जाती रही है। ऐसे मौत में पोस्टमार्टम भी होता है तो उसकी रिपोर्ट ऐसे बनाई जाती है, जिससे दवाओं के प्रयोग की काली हकीकत नहीं होती है। अमूमन दवाओं का प्रयोग गरीब मरीजों पर होते हैं। प्रयोग सफल हो जाए तो मौत उन्हें ताड़पाकर गले लगाती है। यदि दवा का प्रयोग सफल हो जाए तो वही दवा गरीबों को सुलभ नहीं होती है। आंध्र प्रदेश और गुजरात में सन् 2009-10 के दौरान दवा परीक्षणके मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 162 नई दवाओं के परीक्षण पर प्रतिबंध लगाया दिया है। लेकिन केवल प्रतिबंध लगा देने भर से किसी पीड़ित गरीब को कोई न्याय नहीं मिल जाता है। मौत देने वाले ऐसे परीक्षणों में जिम्मेदारी किसकी सुनिश्चित की गई। किसी को कोर्ट ने दंड दिया तो ऐसी खबर नहीं आती। कोई विदेशी मीडिया भले ही भारत में दवा परीक्षण के महंगे होने का यह दवा करें, लेकिन अब तक के परीक्षण के आंकड़े तो यही बता रहे हैं कि भारत बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के लिए पिछले कुछ बरसों से दवाओं के परीक्षण का हब बन चुका है। गरीब मरीज इनके प्रयोग के सबसे सस्ते शिकार हैं। परीक्षण के बारे में उनको कोई जानकारी भी नहीं दी जाती, न ही कोई नियम-कायदे अपनाए जाते हैं। दवा के परीक्षण के खिलाफ सक्रिय संगठनों का दावा है कि देश में ऐसे मौतों का सही अांकड़ा नहीं है। सन् 2010-2012 के मध्य ड्रग कंट्रोलर जनरल ने 1,065 लोगों पर दवा परीक्षण की अनुमति दी। लिहाजा, अनुमति लेकर दवाओं के परीक्षण के दौरान जो मौतें हुई उसके ही अांकड़े सामने आते हैं। जबकि एक दवा के प्रयोग की अनुमति लेकर कंपनियां कई दवाओं का प्रयोग करती हैं। इनमें से कई कंपनियां भारतीय कंपनियों को अपना एजेंसी बनाती है वे खुद चीन, मेलेशिया, सिंगापुर आदि देशों से उनके माध्यम से अपना प्रयोग करवाती हैं, जिससे कि विपरीक्ष स्थिति में वह भारत के कानूनी पचड़े से दूर रहे।

शनिवार, नवंबर 16, 2013

छत्तीसगढ़ की सियासत में वोट कटवा गैंग

संजय स्वदेश छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव घोषणा से पूर्व प्रदेश में तीसरे मोर्चे की जोरशोर से कुलबुलाहट थी। कहा जा रहा था कि तीसरा मोर्चा प्रमुख राजनीतिक दल भाजपा और कांग्रेस का गणित बिगाड़ेगी। लेकिन मजेदार बात यह है कि दो दिन बाद दूसरे चरण का मतदान होना है और तीसरा मोर्चा का कही कोई बजूद ही नजर नहीं आ रहा है। एक दो विधानसभा क्षेत्र छोड़ दे तो न कही पोस्टर दिखा और कहीं कोई रैली। हालात देख कर तो ऐसे ही लग रहा है जैसे हर क्षेत्र में यह कत्थित तीसरे मोर्चे से जुड़े लोग वोट काटवा बन गए हैं। उनके मैदान में होने से दूसरे किसी एक उम्मीदवार को जीत का गणित सुलझता दिख रहा है। अभिभाजित मध्यप्रदेश के विधानसभा में कभी छत्तीसगढ़ क्षेत्र से 15 विधायक भेजने वाले विधायक में अजीत तरक ही शून्यता दिख रही है। चुनाव आयोग के आंकड़े देखें तो छत्तीसगढ़ में दर्जनभर से ज्यादा क्षेत्रीय दल हैं। इसके बाद भी यहां की राजनीतिक में कोई तीसरा दल मजबूती से नहीं उभरा। चुनाव घोषणा से पहले प्रमुख क्षेत्रीय दलों में छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच से तीसरे विकल्प की जोरशोर से चर्चा थी। आज जब सबको सामने आना चाहिए था तो वे अंधेरे में, परदे के पीछे हैं। आपातकाल के दौरान छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा का गठन श्रमिक नेता शंकर गुहा नियोगी ने किया था। नियोगी खुद कभी चुनाव नहीं लड़े लेकिन प्रत्याशी खड़े करते रहे। मोर्चे ने पहली जीत 1985 में दर्ज की जब उसके टिकट पर जनकलाल ठाकुर विधायक निर्वाचित हुए। ठाकुर 1993 में भी जीते। नियोगी की हत्या के बाद मोर्चे की कमान उनकी पत्नी आशा नियोगी ने थामी। लेकिन छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने के बाद मोर्चा अपनी मौजूदगी नहीं दिखा सका। फिलहाल नियोगी की बेटी मुक्तिगुहा नियोगी नगर पंचायत की अध्यक्ष है। लेकिन वह भी कांग्रेस की राजनीतिक करती है। नियोगी के राजनीतिक संघर्ष की विरासत की लौ बुझती दिख रही है। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी भाजपा के एक बागी हीरासिंह मरकाम ने बनाई थी। मरकाम ने 1993 में चुनाव लड़ा और हार गए। वह 1998 में चुनाव जीत गए। लेकिन पृथक छत्तीसगढ़ बनने के बाद वर्ष 2003 और 2008 के विधानसभा चुनाव में वह हार गए। पार्टी का मत प्रतिशत भी घटता गया। दोनों ही चुनावों में पार्टी ने प्रत्याशी उतारे लेकिन उसका खाता नहीं खुला। इस बार गोंडवाना गणतंत्र पार्टी इसलिए चर्चा में आई क्योंकि उसके टिकट पर सक्ती सीट से सक्ती राजघराने के सुरें्रद बहादुर सिंह चुनाव लड़ रहे हैं। कांग्रेस ने उनका टिकट का दावा खारिज कर दिया जिससे नाराज हो कर सिंह गोंडवाना गणतंत्र पार्टी में शामिल हो गए और उसके टिकट पर सक्ती सीट से खड़े हो गए। छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच बिल्कुल नया क्षेत्रीय दल है जिसका गठन भी भाजपा के ही एक बागी ने किया। भाजपा से दो बार विधायक और 4 बार सांसद रहे ताराचंद साहू ने 2008 में छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच का गठन किया। वर्ष 2009 में हुए लोकसभा चुनावों में साहू ने अपने प्रभाव वाले क्षेत्र में भाजपा और कांग्रेस दोनों को कड़ी टक्कर दी थी। इस बार भी उन्होंने करीब 45 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए हैं। लेकिन एक दो विधानसभा क्षेत्रों को छोड़ दे तो कहीं भी यह दल मैदान जंग में कड़ी टक्कर देता नहीं दिख रहा है।

मंगलवार, नवंबर 12, 2013

चेहरा विहीन कांग्रेस,दल विहिन बीजेपी

संजय स्वदेश प्रसिद्ध यूरोपिय लेखक रूडयार्ड किपलिंग की एक कहावत है- भेड़िये को ताकत मिलती है भेड़िया से और भेड़िया को ताकत मिलती है भेड़िये से। भेडिया नेता है भेडिये समूह। जब एक भेडिया भेडियों के आगे नेतृत्व करता हुआ आगे आगे चलता है तो उसका मन इस आत्मविश्वास से लबरेज रहता है कि उसके पीछे उसका पूरा समूह खड़ा है। वहीं समूह में चल रहे भेड़ियों को इस बात का गुमान रहता है कि उसका नेता आगे-आगे चल रहा है। लिहाजा, भेड़ ओर भेड़िये दोनों एक दूसरे के ताकत बने रहते हैं। छत्तीसगढ़ के सियासी समर में इस बार रूडयार्ड की कहावत याद आ गई। छत्तीसगढ़ की फिजाओं में इस बार सियासी नजारा विहंगम है। विधानसभा चुनाव परिणाम का ऊंट किस करवट बैठेगा, यह तो बाद की बात है लेकिन आरोप प्रत्यारोप की सियासत में कांग्रेस को छलिया बताने वाली भाजपा भी सहमी है, तो प्रदेश सरकार को धोखेबाज कह कर भाजपा को घेरने वाली कांग्रेस प्रदेश स्तर पर मजबूत नेतृत्व के अभाव में अंदर ही अंदर डरी हुई है। कहने के लिए तो कांग्रेस की ओर से प्रदेश अध्यक्ष और केंद्रीय कृषि मंत्री डा. चरणदास महंत कांग्रेस का चेहरा हैं। पर सच तो यही है कि खुद को एक शातिर राजनीतिज्ञ समझने वाले महंत प्रदेश स्तर की जनता को पूरी तरह स्वीकार्य नहीं है। कांग्रेस की इस स्थिति से उलट भाजपा की हालत है। रमन सिंह का चेहरा सर्व स्वीकार है। जनता में लोकप्रिय है। जनता फिर से इन्हें सीएम के रूप में देखना चाहती है। लेकिन चुनावी समर में इनके कई उम्मीदवार ऐसे हैं जो जनता को शायद ही हजम हो। लिहाजा वोट देने वाली जनता के सामने दो विकल्प बनते हैं। या तो वह चेहरा देख कर पार्टी के नाम पर इवीएम का बटन दवाएं या फिर उम्मीदवार देख कर। भाजपा की ओर से डा. रमन सिंह को सौम्य चेहरा प्रदेश स्तर की जनता में मन में सहज स्वीकार्य है। लेकिन इस बार चुनावी मैदान में भाजपा के कई ऐसे उम्मीदवार हैं जो जनता को स्वीकार्य नहीं है। लिहाजा, वे खुद अपने दम पर जीत के लिए जनता से मनुहार करने के बजाय डा. रमन सिंह को फिर से सीएम बनाने के नाम पर मतदाताओं के जज्जबात को उभरने की कोशिश में है। चुनाव से पूर्व गुटबाजी में बिखरी कांग्रेस की एकता फिलहाल संतुलित दिख रही है। अजीत जोगी को कांग्रेस आलाकमान से इस चुनाव के लिए मना कर गुटबाजी पर लगाम दे दी। लेकिन स्वास्थ्य कारणों से वह कांग्रेस के पक्ष में लहर बनाने में सफलता पाते नहीं दिख रहे हैं। यह खराब स्वास्थ्य का ही नतीजा है कि पिछले चुनाव की तुलना में इस बार जोगी की सभाएं कम हुई हैं। लिहाजा, कांग्रेस के पास चुनाव जीतने के लिए कुछ खास मुद्दों (विशेष कर बस्तर का जीरम कांड) पर जनता की सहानुभूति की लहर चलने का विकल्प बचता है। पर चुनावी मौसम में सियासी लहर को चलाने की वह कुशलता भी कांग्रेस में दिख नहीं रही है। भाजपा को कांग्रेस से ज्यादा अपनों से मुकाबला दो चुनावों से अपना परचम लहराती आई भाजपा के लिए इस बार समस्या प्रतिद्वन्द्वी कांग्रेस की ओर से कम, खुद अपने ही असंतुष्टों की ओर से ज्यादा पैदा हो रही है। पार्टी हालांकि विकास के दम पर अपनी नैया पार होने की उम्मीद बांधे हुए है ,लेकिन असंतुष्ट स्वर उसे अहसास करा रहे हैं कि उसकी राह आसान नहीं होगी। फिलहाल भाजपा राज्य में बीते 10 साल के दौरान अपने शासनकाल में हुए विकास को गिनाते हुए ओर केंद्र के कुशासन को बताते हुए जनता से वोट मांग रही है। जगह जगह की जनसभाओं में भाजपा के दिग्गज जनता को बता रहे हैं कि छत्तीसगढ़ में धान की खरीदी पूरे देश में एक मिसाल है। यहां की सार्वजनिक वितरण प्रणाली को पूरे देश में सराहा जाता है जिसमें महिलाओं को परिवार का मुखिया बना कर उनका सशक्तिकरण किया गया है। पहले इस राज्य को पलायन वाले राज्य के तौर पर जाना जाता था लेकिन राज्य सरकार ने यहां रोजगार के अवसर सृजित कर इसकी तस्वीर बदल दी है। बागी करुणा का कितना असर हाल ही में भाजपा महिला मोर्चा की पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व सांसद करुणा शुक्ला ने मुख्यमंत्री रमण सिंह के खिलाफ राजनंदगांव सीट से खड़ी कांग्रेस की उम्मीदवार अलका मुदलियार के पक्ष में चुनाव प्रचार कर अपनी नाराजगी खुल कर जाहिर कर दी। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की भतीजी करूणा शुक्ला ने अपनी उपेक्षा से नाराज हो कर इसी साल चुनावों से पहले पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उनका इस्तीफा मंजूर कर लिया है। करूणा ने भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरें्रद मोदी और रमन सिंह दोनों को निशाने पर लेते हुए कथित तौर पर कहा कि गोधरा के बाद राज्य में हुए दंगों के दाग मोदी के दामन से और जीरम घाटी में हुए नक्सली हमले के दाग रमन सिंह के दामन से कभी नहीं धुल सकते। टिकट न मिलने से नाराज दो विधायकों ने तो निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया था। इस पर प्रदेश अध्यक्ष रामसेवक पैकरा ने पूर्व विधायक गणेशराम भगत और राजाराम तोड़ेम सहित कुछ बागियों को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से 6 साल के लिए निलंबित कर दिया। लेकिन करुणा के इस बगावती तेवर से भाजपा पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। उनके नाम पर जनता की भीड़ उमड़ती हो ऐसा कोई करिश्माई व्यक्तित्व उनमें नहीं है। हालांकि करुणा की बगावत को भुनाने के लिए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष चरण दास महंत ने उन्हें कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने का आॅफर दिया था। लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। प्रदेश के कई दिग्गज भाजपाइयों ने तो यहां तक कह दिया कि करुणा शुक्ला के जाने से भाजपा पर केवल एक वोट का अंतर पड़ेगा। करुणा को इस तरह भाव नहीं देने से यह साफ होता है कि राजानीतिक में करुणा शुक्ला का वजूद उनके मामा पूर्व पीएम अटल बिहारी बाजपेयी के कारण था। क्यों शांत हैं जोगी कुनबा कांग्रेस की दिखने वाली एकता के पीछे की कहानी बहुत कम लोग समझ पा रहे होंगे। कांग्रेस आलाकमान ने प्रदेश स्तर पर सबसे बड़े सिरदर्द अजीत जोगी को मना कर बड़ी सफलता पा ली। अंदरखाने के जानकार कहते हैं कि जोगी को राज्य सभा में भेजने का आवश्वासन मिला तो बेटे अमित जोगी ओर पत्नी रेणु जोगी को विधायकी का टिकट के सौदे पर जोगी मान गए। बताते हैं कि पिछले विधानसभा चुनाव में बड़े और छोटे जोगी ने चुनावी मैदान में हुकार भरी थी। लेकिन इस बार अमित जोगी खुद समर में होने के कारण पूरा ध्यान उन्हें भारी मतों से जिताने पर लगा है। स्वास्थ्य कारणों से इस बार अतीज जोगी की सभाएं पिछली चुनाव की तुलना में बहुत कम हुई हैं। छग में कांग्रेस सत्ता का इतिहास छत्तीसगढ़ के वर्ष 2000 में अस्तित्व में आने के बाद से अब तक कांग्रेस की सरकार केवल एक बार ही रही है और पिछले दो विधानसभा चुनावों में सत्ता भाजपा को मिली। राज्य में वर्ष 2008 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 50 सीटें जीती थी, जबकि कांग्रेस को यहां 38 और बहुजन समाज पार्टी को दो सीटें मिली थीं।

मंगलवार, नवंबर 05, 2013

बंगलादेश का बीटी बैगन

****************************** संदर्भ : भारत में नामंजूरी के बाद पड़ोसी देश में बीटी के व्यावसायिक उपयोग की मंजूरी का भारत में असर *******************************
भारत में बीटी के प्रभावों का इतिहास काला है। वर्ष 1996 में बीटी का जीएम बीज भारत आया। उस समय मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में इसकी उगाई की गई। मप्र में इसकी उगाई अहितकर और नुकासनदेह साबित हुआ। महाराष्ट्र में इसकी उगाई 30 हजार हेक्टेयर में की गई। तब फसल बर्बाद होने से 200 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की थी और करोड़ों का नुकसान हुआ था। ************************
संजय स्वदेश कुछ वर्ष पूर्व बीटी बैंगन को लेकर देश में हो हल्ला मचा था। देशभर में जनसुनवाई हुई थी। भारी विरोध को देखते हुए सरकार ने इसके मंजूरी के मंसूबों से मुंह फेर लिया, वही बीटी बैगन अब पड़ोसी देश बंगलादेश के रास्ते भारत में प्रवेश करेगा। बंगलादेश सरकार ने इसे अपने देश में व्यावसायिक खेती के लिए मंजूरी दे दी है। अब बंगलादेश में धड़ल्ले से बीटी बैंगन की खेती होगी। लिहाजा, वहां का बैंगन लुढ़क कर बिना किसी विरोध के भारत भी पहुंचेगा। फिलहाल इस ओर गंभीरता से किसी का ध्यान भी नहीं है। बंगलादेश में बीटी बैंगन की खेती से भारत के लिए खतरे की बात यह है कि दोनों देशों की सीमाएं सांझा है। यदि खेती बांगलादेश के सीमावर्ती खेतों में होगी तो प्रदूषण भारत में भी आएगा। इतना ही नहीं बांग्लादेश से भारत में फल, सब्जियों का काफी आयात किया जाता है। लिहाजा, इस रास्ते भारत की थाली में बीटी बैंगन के लुढ़ने की पूरी संभावना बनती है। इस स्वाभाविक हालात को देखते हुए ही इस बात से इनकार नहीं की जा सकती है कि बीटी बीज के उत्पादक कंपनियों ने भारत में सीधे प्रवेश में असफलता के बाद पड़ोसी देश के रास्ते यहां प्रवेश करने की योजना बनाई होगी। बड़े पैमाने पर धन कमाने की लालसा रखने वाली बीटी बीज उत्पादक कंपनियां अपने छोटे देश के रास्ते भारत में घुसने की कवायद में है। यदि बंगलादेश में बीटी बैंगन की खेती हो रही है तो इसके भारत में प्रवेश में देरी नहीं होगी। फिलहाल बंगलादेश में इसकी व्यावसायिक खेती की हरी झंडी मिलने के बाद भारत में होने वाले प्रभावों को लेकर मीडिया में मौन की स्थिति है। हालांकि इंटरनेट पर दिखी एक समाचार के मुताबिक इस पर विरोध जताते हुए ‘कोलीजन फॉर ए जीएम फ्री इंडिया’ संगठन ने केंद्रीय पर्यावरण एवं वन राज्य मंत्री जयंती नटराजन को पत्र लिखकर कहा है किवो बांग्लादेश की सरकार से बीटी बैंगन की व्यावसायिक खेती की मंजूरी के फैसले पर तुरंत रोक लगाने की मांग करे। बीटी बैंगन के बीज उत्पादक कंपनी मांसेंटो और महिको भारत में कड़े विरोध के बाद मुंह को को खा चुकी है। जब भारत में दाल नहीं गली तो इन कंपनियों ने अपनी लॉबिंग फिलीपींस जैसे देश में किया। वहां भी इन कंपनियों के मंसूबे पर पानी फिर गया। आर्थिक रूप से कमजोर देश बंगलादेश को इस कंपनी ने अपने झांसे में ले लिया। ढाका में महज दो दिन में ही व्यावसायिक खेती मंजूरी मिल गई। बांगलादेश के सीमावर्ती इलाकों के किसाने अपने बीजों का आदान प्रदान भारतीय किसानों से करते हैं। इस रास्ते भारत में मांसेंटो और महिको के मंसूबे थोड़ा या कम जरूर पूरे होते दिख रहे हैं। भारत में बीटी के प्रभावों का इतिहास काला है। वर्ष 1996 में बीटी का जीएम बीज भारत आया। उस समय मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में इसकी उगाई की गई। मप्र में इसकी उगाई अहितकर और नुकासनदेह साबित हुआ। महाराष्ट्र में इसकी उगाई 30 हजार हेक्टेयर में की गई। तब फसल बर्बाद होने से 200 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की थी और करोड़ों का नुकसान हुआ था। भारत के बीटी विरोधियों का तर्क है कि बैसिलस थुरियनजीनिसस (बीटी) नामक एक मृदा जीवाणु से प्राप्त किया जाता है। बीटी बैंगन और बीटी कपास (कॉटन) दोनों में इस विधि का प्रयोग होता है। आनुवांशिक संशोधित फसल (जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलें) यानी ऐसी फसलें जिनके गुणसूत्र में कुछ मामूली से परिवर्तन कर के उनके आकार-प्रकार और गुणवत्ता में मनवांछित स्वरूप प्राप्त किया जा सकता है। वैज्ञानिकों को अब यह ज्ञात है कि प्राकृतिक तौर पर विभिन्न जीन्स को अलग-अलग कार्य बंटे हैं, जैसे, कुछ जीन्स प्रोटीन निर्माण करते हैं तो कुछ रासायनिक प्रक्रिया की देख-रेख करते हैं। मानव शरीर में भी यही प्रक्रिया चलती है। बीटी बैक्टीरिया में एक जीन होता है जो कुछ खास किस्म के लार्वा के विरुद्ध कार्य करता है। यह लार्वा कपास या बैंगन की फसल के लिए हानिकारक होते हैं। लार्वा विरोधी इस कोशिका को कपास या बैंगन के पौधे के डीएनए में कृत्रिम रूप से निषेचित किया जाता है। इस कोशिका के जीन्स में कीटनाशक कोड निहित होता है। कीटाणु जब इस जीन्स से बनी फसलों को खाना शुरू करते हैं, तो वे शीघ्र ही मर जाते हैं। इन जीन्स से निर्मित पौधों पर कीटनाशक मारने वाले छिड़काव का भी विपरीत प्रभाव नहीं होता है। भारत में इससे पूर्व जीएम राइस जैसी फसलों पर प्रयोग हो चुके हैं जिसमें प्रोटीन की अधिक मात्र मौजूद रहती है। इससे पूर्व देश में फसलों के हाइब्रिडाइजेशन भारतीय परिवेश के लिहाज से सही साबित नहीं हुए थे। जिस कारण महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और कई अन्य हिस्सों में फसलों को नुकसान पहुंचा था। 2002 में देश में 55 हजार किसानों ने देश के चार मध्य और दक्षिणी राज्यों में कपास फसल उगाई थी। फसल रोपने के चार माह बाद कपास के ऊपर उगने वाली रुई ने बढ़Þना बंद कर दिया था। इसके बाद पत्तियां गिरने लगीं। अकेले आंध्र प्रदेश में ही कपास की 79 प्रतिशत फसल को नुकसान पहुंचा था। महाराष्टÑ के विदर्भ में तो किसानों ने अधिक उत्पादक के लालच में भारी ब्याज पर ज्यादा कर्ज लेकर खेती की थी। लेकिन जब फसल ने धोखा दे दिया तो कर्ज के तनाव में आत्महत्या करने लगे। विदर्भ में एक के बाद एक किसान आत्महत्या की खबरों ने भारत को अंतरराष्टÑीय स्तर पर सुर्खियों में ला दिया था। जिस समय तब में पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश जहां जहां बीटी बैंगन के भारत में व्यावसायिक प्रयोग की मंजूरी से पूर्व जनसुनवाई कर रहे थे, वहां-वहां विरोध में प्रदर्शन हो रहे थे। कई किसानों ने देसी बीजों से बड़े आकार प्रकार के बैंगनों का अपने खेतों से तोड़ कर लाया और उन्हें बताया कि हमारे देशी बीजों में वह क्षमता है, जिसे किसान अपनी मेहनत से प्रयोगशाला से निकले बीटी बीजों को मात दे खकते हैं। बस किसानों को बेहतर संरक्षण और प्रोत्साहन की दरकार है। ऐसा भी नहीं है कि भारत में बीटी किश्म के बीजों के समर्थक नहीं है। कई वैज्ञानिक बीटी की पैरोकारी भी कर रहे हैं। उनका कहना है कि स्वास्थ्य की दृष्टि से देखें तो अभी तक इसका कोई पुख्ता प्रमाण मौजूद नहीं है कि जीएम फसलों से सेहत को सीधे तौर पर कोई नुकसान पहुंचता हो। हालांकि, यह नुकसान नहीं पहुंचाएगा इस बात की कोई गारंटी भी नहीं है। जीएम फसलों से अनजाने में एलर्जी, एंटीबायटिक विरोध, पोषण की कमी और विषाक्तता (टॉक्सिंस) हो सकती है। इसके बावजूद बीटी समर्थकों का कहना है कि हरेक भूखे पेट तक भोजन पहुंचाने के लिए हमें अपनी पारंपरिक भोजन शैली को ही आधार बनाना होगा। मांसेंटो और महिको भारत ने भारत में केवल बैंगन और कपास की आड़ में ही अपना बाजार नहीं देख रही हैं। ये कंपनियां करीब चार दर्जन खद्यान फसलों के आड़ में अपना करोबार समृद्ध कराना चाहती है। बताया जा रहा है कि गेहूं, बासमती चावल, सेब, केला, पपीता, प्याज, तरबूज, मिर्च, कॉफी और सोयाबीन आदि कुल 41 खद्यान्न फसलों में ये कंपनियां अपना शोध कर रही हैं। ये सभी खद्यान्न फसलों को देश के विभिन्न हिस्सों में भारतीय किसान अपनी मेहनत से भारी मात्रा में उगाते हैं। निश्चित रूप से माहिको और मांसेंटो को भारत केवल बैंगन और कपास के रूप में अपना बाजार नहीं दिख रहा है, उनकी नजर देश के दर्जनों खद्यान्न उत्पादन बीजों पर है। यदि ये एक बार किसी न किसी तरह से देश में घुस गई तो धीरे-धीरे अन्य खद्यान्न उत्पादनों पर अपना एक छत्र राज्य कर लेगी। उसका पर्यावरण पर असर नाकारात्मक पड़े या उसके सेवन करने वाले के शरीर में बीमारी हो, यह सब मुनाफा कमाने वाली कंपनियां भला कहां सोचती हैÞ।