शुक्रवार, मई 05, 2017

जाति आरक्षण के दो छोर

संजय स्वदेश जैसे-जैसे सरकारी नौकरियों के अवसर घटते और प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है, आरक्षण का विरोध तेज हो रहा है। जब सोशल मीडिया नहीं था तब सरकार बीच-बीच में आरक्षण के शिगुफे छोड़ती थी, ऐसे में आरक्षण विरोधी चंद घंटे के लिए या कहे तो एक दिवसीय आंदोलन देश के किसी इलाके में दिख जाते थे। मेरिट की दुहाई दी जाती थी। अब सोशल मीडिया आ गया है, तो यहां कई गु्रप आरक्षण को कोसने में लगे हैं। परंपरागत सामाजिक परिवेश के किसी ताने बाने के किसी अंश को लेकर आरक्षण का समर्थन में दो-चार शब्दों की संवेदना नहीं दिखती है। अब सीधे सीधे यह कहा जाने लगा है कि आईएएस का बेटे को आरक्षण क्यों या फिर किसी बड़े दलित या आरक्षित श्रेणी का मंत्री का नाम लेकर कि फलां के बेटे को आरक्षण क्यों मिलनी चाहिए। आज आरक्षण व्यवस्था राष्टÑ के विकास में बाधक है। तरह-तरह के तर्क आदि लेकर आरक्षण को खत्म करने के लिए एक शोर पैदा किया जा रहा है, जो अभी केवल सोशल मीडिया में ही है। कभी-कभी आरक्षण व्यवस्था पर कुठराघात करने के लिए यह भी कहा जाता है कि क्रिकेट में भी आरक्षण दे दो, जो आरक्षित श्रेणी के खिलाड़ी तो उनके लिए ओवर की संख्या घटा दो, चौके को ही छक्का माना लिया जाए। अजब तर्क है या मजाक है। आरक्षण की बुनियाद को लोग न समझते हैं और न ही समझने की कोशिश करते हैं। कभी कहते हैं कि आरक्षण दस वर्ष के लिए था, यह बढ़ते गया, अब हटना चाहिए। लेकिन कभी यह नहीं पढ़ते कि आरक्षण व्यवस्था दस वर्ष तक के लिए इसलिए की गई थी क्योंकि इतने अवधि में आरक्षित जातियों के लोग की हिस्सेदारी सरकार के विभिन्न सेवाओं में हो जाएगी। इन दस वर्षों में यह समाज शैक्षणिक रूप से तैयार ही नहीं था। नो एबल, नो सुटेबल का गेम चला। बाद में बैकलॉग भरा भी नहीं गया। आज जब
आरक्षित जातियों के अधिकांश लोग शिक्षा के प्रति सचेत होकर आगे आने लगे हैं तो यह बार-बार कहा जाने लगा है कि इससे राष्टÑ का विकास कमजोर होगा। जबकि हकीकत कुछ और है। आरक्षण अब एक ऐसी झगड़ालू बीवी की तरह हो गई है जिससे तलाक लेने में ही भलाई है। लेकिन जब कोर्ट से तलाक होता है तो निश्चित रूप से पत्नी को कंपनसेशन देना होता है। आरक्षण के अनुपात में यदि सरकारी सेवाओं में आरक्षित जातियों के पद भर दिए जाए तो संभव मामला बन जाए। लेकिन अभी हालात यह है कि केंद्र सरकार के 84 सचिवों में एक भी अनुसूचित जाति या जनजाति से नहीं है। सचिव स्तर का पद ऐसा है तो देश के योजनाओं के क्रियान्वयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यदि घोटाले हो रहे हैं या कोई योजना असफल हो रही है तो यह बात भी समझनी चाहिए कि यह कारनामे कथित मेरिट वालों के जमात की ही है। कुछ उदाहरण देखिए। डीआरडीओ में आरक्षित वर्ग के वैज्ञानिकों की हिस्सेदारी नहीं है, फिर भी यह संस्था अपने गठन के बाद से रक्षा उपकरणों की जरूरत पूरी करने में असफल रही। एक इनसास रायफल भी बनाया था यह एक विदेशी रायफल एके-74 से महंगी पड़ी और कामयाब नहीं रही। कहने का मतलब यह है कि गैर आरक्षित जाति के लोगों में ही जब प्रतिभा थी तब वे इस क्षेत्र में असफल क्यों नहीं हो गए। देश में ऐसा कोई भी केस नहीं आया जिसमें कोई आरक्षण की सुविधा लेकर डॉक्टर बना हो और आॅपरेशन के दौरान मरीज के पेट में तौलिया का रूई छोड़ दिया हो। कहते हैं कि अफसर के बेटे को अफसर बनने के लिए आरक्षण क्यों चाहिए। एक सर्वे के अनुसार देश को 98 प्रतिशत अफसर ऐसे हैं, जिनके परिवार ने पहली बार आरक्षण का लाभ लिया। गैर आरक्षित श्रेणी के लोग निजी स्तर पर यह स्वयं की जांच पर परख सकते हैं। अपने राज्य के आरक्षण श्रेणी के जिलाधिकारियों के बारे में पता कर सकते हैं कि क्या सच में उनके माता-पिता क्या आरक्षण का लाभ लेकर किसी बड़े पद पर पहुंचे थे। सच सामने आ जाएगा। आरक्षण का बिगुल बजाने वाली भीड़ में अधिकतर लोग वे हैं जो स्वयं कड़ी स्पर्धा से हार रहे हैं। निराशा और कुंठा के लिए आरक्षण पर ठीकरा फोड़ रहे हैं। कहते हैं कि अब कहां है जाति-पाति, ट्रेन में सफर करने वाले, बस में आने जाने वाले किसी की जाति देख कर नहीं बैठते हैं। tऐसे की कुछ गिने चुने तर्क देकर जाति व्यवस्था के टूटने का दावा करते हैं, लेकिन सच तो आए दिन अखबार के सुर्खियों में होता है कि कैसे किसी खास जाति के लोगों ने दलित जाति के दुल्हे के घोड़ी चढ़ने पर पत्थर बरसाये। एक दलित लड़के का गैर दलित कन्या से प्रेम बर्दाश्त नहीं होता। ऐसा होने पर बिहार में घर फूंके गए हैं तो यूपी के शाहजहांपुर में दलित समाज के औरतों को हाईवे पर नग्न परेड कराकर बेंत से मारा गया है। यह मंथन का विषय है कि अब जाति कहां बसती है। जैसे-जैसे समाज विकसित होता गया, देश में जाति भी गांव के चौक चौपालों और मंदिरों से निकल कर प्रतिष्ठित संस्थानों में विराजमान होने लगी है। इस सबके बाद भी देश में आज भी जाति आधारित आरक्षण के दो छोर दिखते हैं। एक छोर पर मैला ढोने वाले और मेहतरों की जमात है तो दूसरी छोर पर मंदिर में पूजा करने वाले और गर्भगृह में जाने वाले की जाति है। यदि सच में जाति का घालमेल होकर इसका अंत हो गया होता तो इन दोनों छोरों पर काम करने वाले आज 21वीं सदी में अपने पेशे की अदला बदली कर चुके होते। मैला ढोने वाले या स्वीपरों की जमात में कोई गैर आरक्षित जाति का कर्मचारी होता और मंदिर का पूजारी आरक्षित श्रेणी के जमात से होता।

मंगलवार, मई 02, 2017

मजबूरी का लाभ ले रव्यापारी वर्ग अपनी जेबे भर रहा है और असली लोकगीत का मार रहा है

लक्ष्मण मुस्तुरिया से संजय स्वेदश की एक बातचीत- अभिभाजित मध्यप्रदेश में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा रही, लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब धीरे-धीरे इस गायन परंपरा को स्वर मंद पड़े. इस परंपरा को फिर से जीवंत करने का श्रेय लक्ष्मण मस्तुरिया के नाम से जाता है. छत्तीसगढ़ के समाज में इनके गीत ऐसे रचे बसे हैं, इसकी कल्पा इस बात से की जा सकती है कि कई बार लोग मस्तुरिया के गीत को कहते हैं कि उनके पूर्वज गाया करते थे. जबकि लक्ष्मण ने तो अभी जीवन के साठ दशक ही पूरे गिए हैं. दो दशक पहले लिखे गीतों में छत्तीसढ़ी बोली के ऐसे स्वर और तत्व हैं जो इस का एहसास ही नहीं कराने देते हैं कि यह महज बीस या तीस बरस पुराने गीत हैं. ऐसा लगता है जैसे यह सदियों से चले आ रहे हों. पुस्तुत है लक्ष्मण मुस्तुरिया से संजय स्वेदश की एक बातचीत-- -आपसे पहले लोकगीत की परंपरा कहां तक कितनी समृद्ध थी -हमसे पहले रामचंद देशमुख होते थे. उन्होंने छत्तीसगढ़ी लोकगीतों पर गहन अध्ययन और कार्य किया. वे इस बात को लेकर बेहद दुखी थे कि लोकगीत खत् म हो गए है. देवार समाज के दो-चार लोग इस कला को बड़ी ही सुस्ती से किसी न किसी तरह से आगे बढ़ा रहे थे. धीरे-धीरे स्थिति ऐसी बनी कि वे गजल गीत गाने लगे. बाद में हालात ऐसे हुए कि वे दो चार दस फिल्मों गीतों को बिगाड़ कर गीत गाने लगे और वही जनमानस में लोकगीत के रूप में प्रचलित होने लगी. राचंद्र देशमुख ने दुखी होकर रचनात्मक कवियों को जोड़ने का काम किया. उनकी रचनाएं आमंत्रित की. वे काम आ गए. यह सिलसिला चला तो छत्तीसगढ़ी लोकगीतों को संजीवनी मिली. -अपने अपनी सबसे लोकप्रिय गीत मोर संग चलो... कब गया था
-सन् 1972 में में यह गीत लिखा थो, मोर संग चलो... इसी समय राजिम में एक काव्य मंच पर प्रस्तुति का मौका मिला. हमें तो यह अनुमान ही नहीं था कि संवेदनशील होकर रचे गए शब्द छत्तीसगढ़ के जनमानस में एक आह्वान गीत बन कर बस जाएगा. वह प्रस्तुति सफल रही. यह गीत क्रांति गीत बन कर जनमानस में बस गई. हालांकि इससे पहले मुझे सबसे पहला मंच जांजगीर में मिला. यहां मंच से मोर धरती के भूइया...गीत की प्रस्तुति दी. अपने इस पहले गीत से ही मुझे लोगों ने अपना लिया. हौसला बढ़ा और लोक गीत लिखने और गाने का सिलसिला चल पड़ा जो अब तक जारी है. -आपकी गीतों में ऐसी क्या खास बातें होती हैं और आज के डिजिटल जमाने में लोकगीतों पर क्या असर पड़ा है -मेरे गीत छत्तीसगढ़ के माटी के गीत हैं. इसके एक-एक शब्द यहां के हैं. इतना ही नहीं हर शब्द अपने आप में एक सार्थक अर्थ का बोध कराते हैं. यही कारण है कि यह जनमानस को सहज ही प्रभावित कर लेते हैं. डिजिटल तकनीक का असर भी लोकगीतों पर पड़ा है. हमारे भी गीत यूट्यूब पर हैं. हालांकि आज के जमाने में कई लोग कुछ भी अंटझंट लिख रहे हैं. लेकिन यह दिल को नहीं छू रहे हैं. कुछ क्षण मनोरंजन जरूर कर देते हैं. लेकिन समाज इसे लंबे समय तक स्वीकार नहीं कर पाता है. आज हालात ऐसे हो गए हैं कि बाजार में कमाने के लिए कुछ व्यापारी वर्ग ने लोकगीतों का उपयोग किया है. उन्होंने हथकंडा अपना कर या कहें कि भ्रम फैला कर द्विअर्थी शब्दों वाले अश्लील गीतों को प्रोत्साहि किया है. हालात तो यह है कि अब यह लोक नए गीतकारों को गीत का प्लॉट देते हैं. लेकिन इससे गीतकारों को नुकसान होता है.कोई कलाकार नहीं चाहता है कि वह वह गंदे गीत लिखे और मां-बहनें सुने. लेकिन मजबूरी का लाभ यह व्यापारी वर्ग ले रहा है, अपनी जेबे भर रहा है और असली लोकगीत का मार रहा है. -आप शिक्षक कैसे बने और शिक्षक का कॅरियर बेहतर रहा या लोक गीत के रचनाकार का? -मैं शिक्षक बनने से पहले ही लोक गीतकार के रूप में लोकप्रिय हो गया था.एक बार दिल्ली से रायगढ़ जाते वक्त ट्रेन में सुरेंद्र बहादुर नाम के शख्स से मुलाकात हो गई. वे मेरे गीतों के कारण मेरे नाम से परिचत थे. बातों ही बातेां में उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं ही लक्ष्मण मस्तुरिया हूं. वे बेहद खुश हुए. वे रायपुर उतरने वाले थे, लेकिन वे साथ-साथ रायगढ़ तक गए. वहां मैं एक कार्यक्रम में हिस्सा लिया, प्रस्तुति दी, वे भी साथ रहे. वहां से साथ ही रायपुर लौटे. रायपुर में उन्होंने मेरी बात राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल से करवाई. स्कूल में इंटरव्यू हुआ और वहां हिंदी पढ़ाने का मौका मिला. पहले छह माह प्रोवेशन रहा. बाद में यह नौकरी पक्की हो गई. राजकुमार कॉलेज में तब कुछ ही बच्चे मुश्किल से चार छह बच्चे ही हिंदी विषय का चयन करते थे, इसलिए यह कक्षा सुनी रहती थी, लेकिन जब मैंने पढ़ाना शुरू किया तो बच्चों की रुचि हिंदी के प्रति बढ़ी. एक से दो साल में ही मेरी कक्षा में 20 से 25 बच्चे हो गए. जहां पहले वे समान्य अंक से पास होते थे, वही बच्चे हिंदी में नब्बे फीसदी अंक तक प्राप्त करने लगे. -रिटायरमेंट के बाद आपने एक पत्रिका शुरू की, यह प्रयोग कितना सफल रहा? इसका कैसा अनुभव रहा? -शिक्षण की सेवा से रिटायरमेंट के बाद सक्रिय रहना था. लोग मुझे लोक गीतों के कारण जानते पहचानते थे. इसलिए मैंरे लोकसूर नाम से एक मासिक पत्रिका शुरू किया. इसमें मूल रूप से छत्तीसगढ़ भाषा में विभिन्न विषयों को समायोजित करने की कोशिश की गई. लेकिन पत्रकारिता के इस क्षेत्र का अनुभव बुरा रहा. जहां-जहां गया, लोगों ने सराहना की, लेकिन पत्रिका के लिए सहयोग देने में पीछे हट गए. दो साल तक इसे चलाया, आगे इसकी निरंतरता बनाए रखना मुश्किल लगा, तो बंद कर दिया. -आपके गीतों में प्रतिरोध के स्वर मिलते हैं. सरकार की ओर से आपको क्या सहयोग मिला -मेरे गाने का 40 गामोफोन रिकार्ड हैँ. लेकिन सरकार ने कभी कोई कार्यक्रम नहीं दिया. हां, सरकार से जुड़े लोगों ने हमसे जरूर गवा लिए. लोकगीतों में हर बात सहज ही आती है. तभी वह असल में लोकगीत है. अब सरकार को जब भी लाभ लेना रहता है, वह नए जमाने के गीतकारों से लोकगीत गवा लेती है. उसमें अपना ही गुणगान करवाती है. लेकिन इसका असर लोकगीतों पर नाकारात्मक पड़ रहा है. नवोदित कलाकार अपने गीतों में हृदय की बात नहीं करते हैं. उनके गीत सहज न हो कर बनावटी होने लगे हैं. यह लोकगीत की सेहत के लिए ठीक नहीं है. -कोई अब आपके बाद नया लक्ष्मण मुस्तुरिया बनना चाहे तो उसे क्या करना चाहिए, उसके लिए क्या सूत्र वाक्त देंगे? -लक्ष्मण मस्तुरिया बनने के लिए लक्ष्मण मस्तुरिया को जनना और पढ़ना जरूरी है. तभी वह इस छत्तीसगढ़ी लोकगीत की पंरपरा को आगे ले जा सकता है. मैंने भी मेहनत की. अपने पूर्ववर्ती कलाकार सुंदर लाल शर्मा को पढ़ा और जाना. उन्होंने सुरदास की रचना को भी स्वर दिया था. इसके साथी संगत का भी काफी गहरा असर पड़ता है. यह मेरा सौभाग्य रहा है कि मुझे हमेशा अच्छी संगत मिली और हौसला बढ़ता रहा, लोकगीत गाता रहा. नई पीढ़ी के रचनाकारों के पास पुराने रचनाकारों के संदेश पढ़ने सुनने समझने का अब समय ही नहीं बचा है. नेट मोबाइल ने वह समय ले लिया है. चुटकुले सुनते हं, चुटकुले भेजेते हैं, सोचने समझने लायक पीढ़ी दिखती नहीं.हालांकि जब मुश्किले बढ़ती है, तब नि दान भी आवश्य होता है. नए लोक भले लोकगीतों के प्रति अपनी रुचि नहीं दिखाते हैं, लेकिन वे हमसे ज्यादा चैतन्य हैं. जिनमें रुचि है वे स्वयं रास्ते तलाश रहे हैं. संघर्ष कर रहे हैं आगे बढ़ रहे हैं.