मंगलवार, मई 02, 2017

मजबूरी का लाभ ले रव्यापारी वर्ग अपनी जेबे भर रहा है और असली लोकगीत का मार रहा है

लक्ष्मण मुस्तुरिया से संजय स्वेदश की एक बातचीत- अभिभाजित मध्यप्रदेश में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा रही, लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब धीरे-धीरे इस गायन परंपरा को स्वर मंद पड़े. इस परंपरा को फिर से जीवंत करने का श्रेय लक्ष्मण मस्तुरिया के नाम से जाता है. छत्तीसगढ़ के समाज में इनके गीत ऐसे रचे बसे हैं, इसकी कल्पा इस बात से की जा सकती है कि कई बार लोग मस्तुरिया के गीत को कहते हैं कि उनके पूर्वज गाया करते थे. जबकि लक्ष्मण ने तो अभी जीवन के साठ दशक ही पूरे गिए हैं. दो दशक पहले लिखे गीतों में छत्तीसढ़ी बोली के ऐसे स्वर और तत्व हैं जो इस का एहसास ही नहीं कराने देते हैं कि यह महज बीस या तीस बरस पुराने गीत हैं. ऐसा लगता है जैसे यह सदियों से चले आ रहे हों. पुस्तुत है लक्ष्मण मुस्तुरिया से संजय स्वेदश की एक बातचीत-- -आपसे पहले लोकगीत की परंपरा कहां तक कितनी समृद्ध थी -हमसे पहले रामचंद देशमुख होते थे. उन्होंने छत्तीसगढ़ी लोकगीतों पर गहन अध्ययन और कार्य किया. वे इस बात को लेकर बेहद दुखी थे कि लोकगीत खत् म हो गए है. देवार समाज के दो-चार लोग इस कला को बड़ी ही सुस्ती से किसी न किसी तरह से आगे बढ़ा रहे थे. धीरे-धीरे स्थिति ऐसी बनी कि वे गजल गीत गाने लगे. बाद में हालात ऐसे हुए कि वे दो चार दस फिल्मों गीतों को बिगाड़ कर गीत गाने लगे और वही जनमानस में लोकगीत के रूप में प्रचलित होने लगी. राचंद्र देशमुख ने दुखी होकर रचनात्मक कवियों को जोड़ने का काम किया. उनकी रचनाएं आमंत्रित की. वे काम आ गए. यह सिलसिला चला तो छत्तीसगढ़ी लोकगीतों को संजीवनी मिली. -अपने अपनी सबसे लोकप्रिय गीत मोर संग चलो... कब गया था
-सन् 1972 में में यह गीत लिखा थो, मोर संग चलो... इसी समय राजिम में एक काव्य मंच पर प्रस्तुति का मौका मिला. हमें तो यह अनुमान ही नहीं था कि संवेदनशील होकर रचे गए शब्द छत्तीसगढ़ के जनमानस में एक आह्वान गीत बन कर बस जाएगा. वह प्रस्तुति सफल रही. यह गीत क्रांति गीत बन कर जनमानस में बस गई. हालांकि इससे पहले मुझे सबसे पहला मंच जांजगीर में मिला. यहां मंच से मोर धरती के भूइया...गीत की प्रस्तुति दी. अपने इस पहले गीत से ही मुझे लोगों ने अपना लिया. हौसला बढ़ा और लोक गीत लिखने और गाने का सिलसिला चल पड़ा जो अब तक जारी है. -आपकी गीतों में ऐसी क्या खास बातें होती हैं और आज के डिजिटल जमाने में लोकगीतों पर क्या असर पड़ा है -मेरे गीत छत्तीसगढ़ के माटी के गीत हैं. इसके एक-एक शब्द यहां के हैं. इतना ही नहीं हर शब्द अपने आप में एक सार्थक अर्थ का बोध कराते हैं. यही कारण है कि यह जनमानस को सहज ही प्रभावित कर लेते हैं. डिजिटल तकनीक का असर भी लोकगीतों पर पड़ा है. हमारे भी गीत यूट्यूब पर हैं. हालांकि आज के जमाने में कई लोग कुछ भी अंटझंट लिख रहे हैं. लेकिन यह दिल को नहीं छू रहे हैं. कुछ क्षण मनोरंजन जरूर कर देते हैं. लेकिन समाज इसे लंबे समय तक स्वीकार नहीं कर पाता है. आज हालात ऐसे हो गए हैं कि बाजार में कमाने के लिए कुछ व्यापारी वर्ग ने लोकगीतों का उपयोग किया है. उन्होंने हथकंडा अपना कर या कहें कि भ्रम फैला कर द्विअर्थी शब्दों वाले अश्लील गीतों को प्रोत्साहि किया है. हालात तो यह है कि अब यह लोक नए गीतकारों को गीत का प्लॉट देते हैं. लेकिन इससे गीतकारों को नुकसान होता है.कोई कलाकार नहीं चाहता है कि वह वह गंदे गीत लिखे और मां-बहनें सुने. लेकिन मजबूरी का लाभ यह व्यापारी वर्ग ले रहा है, अपनी जेबे भर रहा है और असली लोकगीत का मार रहा है. -आप शिक्षक कैसे बने और शिक्षक का कॅरियर बेहतर रहा या लोक गीत के रचनाकार का? -मैं शिक्षक बनने से पहले ही लोक गीतकार के रूप में लोकप्रिय हो गया था.एक बार दिल्ली से रायगढ़ जाते वक्त ट्रेन में सुरेंद्र बहादुर नाम के शख्स से मुलाकात हो गई. वे मेरे गीतों के कारण मेरे नाम से परिचत थे. बातों ही बातेां में उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं ही लक्ष्मण मस्तुरिया हूं. वे बेहद खुश हुए. वे रायपुर उतरने वाले थे, लेकिन वे साथ-साथ रायगढ़ तक गए. वहां मैं एक कार्यक्रम में हिस्सा लिया, प्रस्तुति दी, वे भी साथ रहे. वहां से साथ ही रायपुर लौटे. रायपुर में उन्होंने मेरी बात राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल से करवाई. स्कूल में इंटरव्यू हुआ और वहां हिंदी पढ़ाने का मौका मिला. पहले छह माह प्रोवेशन रहा. बाद में यह नौकरी पक्की हो गई. राजकुमार कॉलेज में तब कुछ ही बच्चे मुश्किल से चार छह बच्चे ही हिंदी विषय का चयन करते थे, इसलिए यह कक्षा सुनी रहती थी, लेकिन जब मैंने पढ़ाना शुरू किया तो बच्चों की रुचि हिंदी के प्रति बढ़ी. एक से दो साल में ही मेरी कक्षा में 20 से 25 बच्चे हो गए. जहां पहले वे समान्य अंक से पास होते थे, वही बच्चे हिंदी में नब्बे फीसदी अंक तक प्राप्त करने लगे. -रिटायरमेंट के बाद आपने एक पत्रिका शुरू की, यह प्रयोग कितना सफल रहा? इसका कैसा अनुभव रहा? -शिक्षण की सेवा से रिटायरमेंट के बाद सक्रिय रहना था. लोग मुझे लोक गीतों के कारण जानते पहचानते थे. इसलिए मैंरे लोकसूर नाम से एक मासिक पत्रिका शुरू किया. इसमें मूल रूप से छत्तीसगढ़ भाषा में विभिन्न विषयों को समायोजित करने की कोशिश की गई. लेकिन पत्रकारिता के इस क्षेत्र का अनुभव बुरा रहा. जहां-जहां गया, लोगों ने सराहना की, लेकिन पत्रिका के लिए सहयोग देने में पीछे हट गए. दो साल तक इसे चलाया, आगे इसकी निरंतरता बनाए रखना मुश्किल लगा, तो बंद कर दिया. -आपके गीतों में प्रतिरोध के स्वर मिलते हैं. सरकार की ओर से आपको क्या सहयोग मिला -मेरे गाने का 40 गामोफोन रिकार्ड हैँ. लेकिन सरकार ने कभी कोई कार्यक्रम नहीं दिया. हां, सरकार से जुड़े लोगों ने हमसे जरूर गवा लिए. लोकगीतों में हर बात सहज ही आती है. तभी वह असल में लोकगीत है. अब सरकार को जब भी लाभ लेना रहता है, वह नए जमाने के गीतकारों से लोकगीत गवा लेती है. उसमें अपना ही गुणगान करवाती है. लेकिन इसका असर लोकगीतों पर नाकारात्मक पड़ रहा है. नवोदित कलाकार अपने गीतों में हृदय की बात नहीं करते हैं. उनके गीत सहज न हो कर बनावटी होने लगे हैं. यह लोकगीत की सेहत के लिए ठीक नहीं है. -कोई अब आपके बाद नया लक्ष्मण मुस्तुरिया बनना चाहे तो उसे क्या करना चाहिए, उसके लिए क्या सूत्र वाक्त देंगे? -लक्ष्मण मस्तुरिया बनने के लिए लक्ष्मण मस्तुरिया को जनना और पढ़ना जरूरी है. तभी वह इस छत्तीसगढ़ी लोकगीत की पंरपरा को आगे ले जा सकता है. मैंने भी मेहनत की. अपने पूर्ववर्ती कलाकार सुंदर लाल शर्मा को पढ़ा और जाना. उन्होंने सुरदास की रचना को भी स्वर दिया था. इसके साथी संगत का भी काफी गहरा असर पड़ता है. यह मेरा सौभाग्य रहा है कि मुझे हमेशा अच्छी संगत मिली और हौसला बढ़ता रहा, लोकगीत गाता रहा. नई पीढ़ी के रचनाकारों के पास पुराने रचनाकारों के संदेश पढ़ने सुनने समझने का अब समय ही नहीं बचा है. नेट मोबाइल ने वह समय ले लिया है. चुटकुले सुनते हं, चुटकुले भेजेते हैं, सोचने समझने लायक पीढ़ी दिखती नहीं.हालांकि जब मुश्किले बढ़ती है, तब नि दान भी आवश्य होता है. नए लोक भले लोकगीतों के प्रति अपनी रुचि नहीं दिखाते हैं, लेकिन वे हमसे ज्यादा चैतन्य हैं. जिनमें रुचि है वे स्वयं रास्ते तलाश रहे हैं. संघर्ष कर रहे हैं आगे बढ़ रहे हैं.

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