बाल मुकुंद
हर साल दिल्ली में मैं गणतंत्र दिवस की परेड देखता हूं। फौजियों की बूटों की ताल से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। झांकियों में प्रगति की बानगी देख कर सीना गर्व से फूल जाता है। लेकिन परेड की कुछ बातें समझ में नहीं आतीं। उन भव्य टुकडि़यों में जब हाथी , घोड़े और ऊंटों वाला दस्ता निकलता है , तो उनके पीछे - पीछे कुछ लोग भी दौड़ते हुए चलते हैं।
हालांकि वे भी ठीकठाक यूनिफॉर्म में होते हैं , पर उनका मुख्य काम होता है उन जानवरों की लीद उठाना। आखिर गणतंत्र दिवस की उस भव्य परेड से इन लोगों का क्या वास्ता है ? क्या राजपथ से गुजरते हुए ये लोग भी उसी तरह गर्व महसूस करते होंगे , जिस तरह शक्तिमान टैंक या एलसीए एयरक्राफ्ट पर तन कर खड़ा सलामी देता हुआ सैन्य अधिकारी महसूस करता है ? या राष्ट्रपति के सामने से गुजरती हुई झांकियों में अपनी कला का प्रदर्शन करने वाले कलाकार महसूस करते होंगे ?
लेकिन लीद उठाने वालों के बिना काम भी नहीं चल सकता। आखिर सड़क पर से लीद नहीं उठाई गई तो बाकी टुकडि़यां परेड कैसे करेंगी ? पर कुछ तो ऐसा किया जा सकता है , जिससे वे भी गर्व महसूस करें। यानी एक जोड़ी यूनिफॉर्म , पुलिस वेरिफिकेशन के बाद मिले पहचान पत्र और उस दिन के सफाई भत्ते के अलावा। और कुछ नहीं तो आयोजन समिति उनके लिए कृतज्ञता के दो - चार शब्द ही कह दे।
आपने कभी सोचा है कि हमने सड़क पर से लीद हटाने वाली कोई मशीन क्यों नहीं बनाई ? हमने परमाणु बम बनाने की तकनीक पा ली है , चांद का चक्कर लगा चुके। सड़क पर से धूल - कचरा हटाने वाली मशीनों का भी इंपोर्ट किया गया है। लेकिन इस काम के लिए हमने कोई उपाय नहीं सोचा , क्योंकि अपने कुछ नागरिकों का यह प्रोफाइल और उनका यह काम हमारे गणतंत्र को बेचैन नहीं करता।
परेड की एक और बात समझ में नहीं आती। जब सीमा पर शहीद होने वाले किसी सैनिक की मां या युवा पत्नी को अलंकरण प्रदान करने के लिए राष्ट्रपति के सामने लाया जाता है तो ऐसा मान लिया जाता है कि उस विशेष क्षण में वह स्त्री सिर्फ गर्व का अनुभव करेगी। इसलिए उसके भावुक हो उठने या रो पड़ने की स्थिति में उसे संभालने के लिए उसके साथ कोई परिजन नहीं होता। सिर्फ अकड़ कर चलते हुए वर्दीधारी सजीले एस्कॉर्ट्स होते हैं।
वहां स्टेज पर जाते समय उस असहाय औरत को क्या इस बात की घबराहट नहीं सताती होगी कि उसकी आगे की जिंदगी कैसे कटेगी ? क्या वह अखबारों में आदर्श घोटाले , पीएफ के गबन और मुआवजे के चेक बाउंस होने की खबरें नहीं पढ़ती होगी। वहां स्टेज पर दिए जाने वाले सम्मान से उसका क्या होगा , यदि गांव के सरपंच ने उसका जीना हराम कर रखा हो। यह हमारे गणतंत्र का दूसरा चेहरा है , जो मानता है कि गणतंत्र के उत्सव का अर्थ है स्टेज पर प्रायोजित सम्मान और मशीनी उत्सव। उसमें व्यक्ति और उसकी मानवीय भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं है।
सुना है ताड़देव के विक्टोरिया मेमोरियल ब्लाइंड स्कूल और दादर के कमला मेहता ब्लाइंड स्कूल के बच्चे भी इस बार राज्य गणतंत्र दिवस की परेड में भाग लेने के लिए प्रयास कर रहे हैं। यह सुन कर मन में सवाल उठा कि हमने आज तक गणतंत्र दिवस परेड में विकलांग नागरिकों और बच्चों को क्यों नहीं शामिल कर रखा था। आखिर रिटायर सैन्यकर्मियों को जीप पर और छोटे बहादुर बच्चों को हाथी पर लेकर तो चलते ही हैं। कोई कह सकता है कि गणतंत्र दिवस पर हम अपनी सुंदर चीजें पेश करते हैं। और विकलांग नागरिकों को सुंदर कह कर तो नहीं प्रस्तुत कर सकते। यह व्यक्ति के दिल की ओछी सोच हो सकती है , कोई राष्ट्र ऐसा कैसे सोच सकता है ?
उत्सव का सौंदर्य , यथार्थ को दरकिनार कर नहीं पैदा किया जा सकता। शायद इसी मानसिकता की वजह से एक तरफ जीडीपी बढ़ती है , तो दूसरी ओर भूख से मौतें। हर तरह के लोगों को गणतंत्र के उत्सव में शामिल कर हम दिखा सकते हैं कि यह राष्ट्र अपने प्रत्येक नागरिक को समान महत्व और स्नेह देता है। और हमने उनके लिए कितने तरह के इंतजाम किए हैं।
sabhar : navbharattimes, delhi
शुक्रवार, जनवरी 28, 2011
रविवार, जनवरी 16, 2011
कुपोषण से बचाने के लिए नौ तरह की योजनाएं
संजय स्वदेश
एक समाचार पत्र में प्रकाशित खबर के मुताबिक देश की जनता को भुखमरी और कुपोषण से बचाने के लिए सरकार नौ तरह की योजनाएं चला रही है। पर बहुसंख्यक गरीबों को इन योजनाओं के बारे में पता नहीं है। गरीब ही क्यों पढ़े-लिखों को भी पता नहीं होगा कि पांच मंत्रालयों पर देश की भुखमरी और कुपोषण से लड़ने की अलग-अलग जिम्मेदारी है। हर साल हजारों करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। इसके जो भी परिणाम आ रहे हैं, वे संतोषजनक नहीं हैं। जिस सरकार की एजेंसियां इन योजनाओं को चला रही है, उसी सरकार की अन्य एजेसियां इसे धत्ता साबित करती है। निजी एजेंसियां तो हमेशा साबित करती रही हैं।
पिछले राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट से यह खुलासा हुआ कि देश के करीब 46 प्रतिशत नौनिहाल कुपोषण की चपेट में हैं। 49 प्रतिशत माताएं खून की कमी से जूझ रही है। इसके अलावा अन्य कई एजेंसियों के सर्वेक्षणों से आए आंकड़ों ने साबित किया कि सरकार देश की जनता को भुखमरी और नौनिहालों को कुपोषण से बचाने के लिए जो प्रयास कर रही है, वह नाकाफी है। मतलब सरकार पूरी तरह से असफल है। आखिर सरकार की पांच मंत्रालयों की नौ योजनाएं कहां चल रही हैं। मीडिया की तमाम खबरों के बाद भी विभिन्न योजनाएं भुखमरी और कुपोषण का मुकाबला करने के बजाय मुंह की खा रही हैं।
वर्ष 2001 में उच्चतम न्यायालय ने भूख और कुपोषण से लड़ाई के लिए 60 दिशा-निर्देश दिये थे। इस निर्देश के एक दशक पूरे होने वाले हैं, पर सब धरे-के धरे रह गये। सरकार न्यायालय के दिशा-निर्देशों को पालन करने में नाकाम रही है। कमजोर आदमी न्यायालय की अवमानना किया होता तो जेल में होता। लेकिन सरकार जब ऐसी लापरवाही दिखाती है तो उच्चतम अदालत विवश होकर तल्ख टिप्पणियों से खीझ निकालती है। कम आश्चर्य की बात नहीं कि सड़ते अनाज पर उच्चतम न्यायाल की तिखी टिप्पणी के बाद भी सरकार बेसुध है। जनता तो बेसुध है ही। नहीं तो सड़ते अनाज पर उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी एक राष्ट्रव्यापी जनआंदोलन को उकसाने के लिए प्रयाप्त थी। गोदामों में हजारो क्विंटल अनाज सड़ने की खबर फिर आ रही है। भूख से बेसुध रियाया को सरकार पर भरोसा भी नहीं है। इस रियाया ने कई आंदोलन और विरोध की गति देखी है। उसे मालूम है कि आंदोलित होने तक उसके पेट में सड़ा अनाज भी नहीं मिलने वाला।
कुछ दिन पहले एक मामले में महिला बाल कल्याण विकास विभाग ने उच्चतम न्यायालय से कहा था कि देश में करीब 59 प्रतिशत बच्चे 11 लाख आंगनवाड़ी केंद्रों के माध्यम से पोषाहार प्राप्त कर रहे हैं। जबकि मंत्रालय की ही एक रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के करीब अस्सी प्रतिशत हिस्सों के नौनिहालों को आंगनबाड़ी केंद्रों का लाभ मिल रहा है। महज 20 प्रतिशत बच्चे ही इस सुविधा से वंचित है।
सरकारी और अन्य एजेंसियों के आंकड़ों के खेल में ऐसे अंतर भी सामान्य हो चुके हैं। सर्वे के आंकड़े हमेशा ही यथार्थ के धरातल पर झूठे साबित हो चुके हैं। मध्यप्रदेश के एक सर्वे में यह बात सामने आई कि एक वर्ष में 130 दिन बच्चों को पोषाहार उपलब्ध कराया जा रहा है, वहीं बिहार में असम में 180 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने की बात कही गई। उड़ीसा में तो एक वर्ष में 240 और 242 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने का दावा किया गया। जबकि सरकार वर्ष में आवश्यक रूप से 300 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने की प्रतिबद्धता जताती है। हकीकत यह है कि पोषाहार की योजना में नियमित अन्यों की आपूर्ति ही नहीं होती है। किसी जिले में कर्मचारियों की कमी की बात कही जाती है तो कहीं से पोषाहार के कच्चे वस्तुओं की आपूर्ति नहीं होने की बात कह जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया जाता है। जब पोषाहार की सामग्री आती है तो नौनिहालों में वितरण कर इतिश्री कर लिया जाता है। सप्ताह भर के पोषाहार की आपूर्ति एक दिन में नहीं की जा सकती है। नियमित संतुलित भोजन से ही नौनिहाल शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनेंगे। पढ़ाई में मन लगेगा।
असम, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के दूर-दराज के क्षेत्रों में कुपोषण और भुखमरी से होने वाली मौतों की खबर तो कई बार मीडिया में आ ही नहीं पाती। जो खबरें आ रही हैं उसे पढ़ते-देखते संवेदनशील मन भी सहज हो चुका है। ऐसी खबरे अब इतनी समान्य हो गई कि बस मन में चंद पल के लिए टिस जरूर उठती है। मुंह से सरकार के विरोध में दो-चार भले बुरे शब्द निकलते हैं। फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है। सब भूल जाते हैं। कहां-क्यों हो रहा है, कोई मतलब नहीं रहता। यह और भी गंभीर चिंता की बात है। फिलहाल सरकारी आंकड़ों के बीच एक हकीकत यह भी है कि आंगनवाड़ी केंद्रों से मिलने वाले भोजन कागजों पर ही ज्यादा पोष्टिक होते हैं। जिनके मन में तनिक भी संवदेनशीलता है, उन्हें हकीकत जानकर यह चिंता होती है कि सूखी रोटी, पतली दाल खाकर गुदड़ी के लालों का कल कैसा होगा?
एक समाचार पत्र में प्रकाशित खबर के मुताबिक देश की जनता को भुखमरी और कुपोषण से बचाने के लिए सरकार नौ तरह की योजनाएं चला रही है। पर बहुसंख्यक गरीबों को इन योजनाओं के बारे में पता नहीं है। गरीब ही क्यों पढ़े-लिखों को भी पता नहीं होगा कि पांच मंत्रालयों पर देश की भुखमरी और कुपोषण से लड़ने की अलग-अलग जिम्मेदारी है। हर साल हजारों करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। इसके जो भी परिणाम आ रहे हैं, वे संतोषजनक नहीं हैं। जिस सरकार की एजेंसियां इन योजनाओं को चला रही है, उसी सरकार की अन्य एजेसियां इसे धत्ता साबित करती है। निजी एजेंसियां तो हमेशा साबित करती रही हैं।
पिछले राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट से यह खुलासा हुआ कि देश के करीब 46 प्रतिशत नौनिहाल कुपोषण की चपेट में हैं। 49 प्रतिशत माताएं खून की कमी से जूझ रही है। इसके अलावा अन्य कई एजेंसियों के सर्वेक्षणों से आए आंकड़ों ने साबित किया कि सरकार देश की जनता को भुखमरी और नौनिहालों को कुपोषण से बचाने के लिए जो प्रयास कर रही है, वह नाकाफी है। मतलब सरकार पूरी तरह से असफल है। आखिर सरकार की पांच मंत्रालयों की नौ योजनाएं कहां चल रही हैं। मीडिया की तमाम खबरों के बाद भी विभिन्न योजनाएं भुखमरी और कुपोषण का मुकाबला करने के बजाय मुंह की खा रही हैं।
वर्ष 2001 में उच्चतम न्यायालय ने भूख और कुपोषण से लड़ाई के लिए 60 दिशा-निर्देश दिये थे। इस निर्देश के एक दशक पूरे होने वाले हैं, पर सब धरे-के धरे रह गये। सरकार न्यायालय के दिशा-निर्देशों को पालन करने में नाकाम रही है। कमजोर आदमी न्यायालय की अवमानना किया होता तो जेल में होता। लेकिन सरकार जब ऐसी लापरवाही दिखाती है तो उच्चतम अदालत विवश होकर तल्ख टिप्पणियों से खीझ निकालती है। कम आश्चर्य की बात नहीं कि सड़ते अनाज पर उच्चतम न्यायाल की तिखी टिप्पणी के बाद भी सरकार बेसुध है। जनता तो बेसुध है ही। नहीं तो सड़ते अनाज पर उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी एक राष्ट्रव्यापी जनआंदोलन को उकसाने के लिए प्रयाप्त थी। गोदामों में हजारो क्विंटल अनाज सड़ने की खबर फिर आ रही है। भूख से बेसुध रियाया को सरकार पर भरोसा भी नहीं है। इस रियाया ने कई आंदोलन और विरोध की गति देखी है। उसे मालूम है कि आंदोलित होने तक उसके पेट में सड़ा अनाज भी नहीं मिलने वाला।
कुछ दिन पहले एक मामले में महिला बाल कल्याण विकास विभाग ने उच्चतम न्यायालय से कहा था कि देश में करीब 59 प्रतिशत बच्चे 11 लाख आंगनवाड़ी केंद्रों के माध्यम से पोषाहार प्राप्त कर रहे हैं। जबकि मंत्रालय की ही एक रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के करीब अस्सी प्रतिशत हिस्सों के नौनिहालों को आंगनबाड़ी केंद्रों का लाभ मिल रहा है। महज 20 प्रतिशत बच्चे ही इस सुविधा से वंचित है।
सरकारी और अन्य एजेंसियों के आंकड़ों के खेल में ऐसे अंतर भी सामान्य हो चुके हैं। सर्वे के आंकड़े हमेशा ही यथार्थ के धरातल पर झूठे साबित हो चुके हैं। मध्यप्रदेश के एक सर्वे में यह बात सामने आई कि एक वर्ष में 130 दिन बच्चों को पोषाहार उपलब्ध कराया जा रहा है, वहीं बिहार में असम में 180 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने की बात कही गई। उड़ीसा में तो एक वर्ष में 240 और 242 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने का दावा किया गया। जबकि सरकार वर्ष में आवश्यक रूप से 300 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने की प्रतिबद्धता जताती है। हकीकत यह है कि पोषाहार की योजना में नियमित अन्यों की आपूर्ति ही नहीं होती है। किसी जिले में कर्मचारियों की कमी की बात कही जाती है तो कहीं से पोषाहार के कच्चे वस्तुओं की आपूर्ति नहीं होने की बात कह जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया जाता है। जब पोषाहार की सामग्री आती है तो नौनिहालों में वितरण कर इतिश्री कर लिया जाता है। सप्ताह भर के पोषाहार की आपूर्ति एक दिन में नहीं की जा सकती है। नियमित संतुलित भोजन से ही नौनिहाल शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनेंगे। पढ़ाई में मन लगेगा।
असम, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के दूर-दराज के क्षेत्रों में कुपोषण और भुखमरी से होने वाली मौतों की खबर तो कई बार मीडिया में आ ही नहीं पाती। जो खबरें आ रही हैं उसे पढ़ते-देखते संवेदनशील मन भी सहज हो चुका है। ऐसी खबरे अब इतनी समान्य हो गई कि बस मन में चंद पल के लिए टिस जरूर उठती है। मुंह से सरकार के विरोध में दो-चार भले बुरे शब्द निकलते हैं। फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है। सब भूल जाते हैं। कहां-क्यों हो रहा है, कोई मतलब नहीं रहता। यह और भी गंभीर चिंता की बात है। फिलहाल सरकारी आंकड़ों के बीच एक हकीकत यह भी है कि आंगनवाड़ी केंद्रों से मिलने वाले भोजन कागजों पर ही ज्यादा पोष्टिक होते हैं। जिनके मन में तनिक भी संवदेनशीलता है, उन्हें हकीकत जानकर यह चिंता होती है कि सूखी रोटी, पतली दाल खाकर गुदड़ी के लालों का कल कैसा होगा?
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