रविवार, अगस्त 18, 2013

...तो कौन हरचरना जन गण मन गाएगा

आजाद भारत के छह दशक में ऐसे कई मौके आए जब कई जिम्मेदार हस्तियोंं ने राष्टÑध्वज को अपमान किया। लेकिन उसे मानवीय भूल समझ कर अनदेखी कर दी गई। कई राज्यों के सिनेमाघर में फिल्म शुरू होने से पहले लहराते तिरंगे के चलचित्र के साथ राष्टÑगान चलाया जाता है। लोग सम्मान में खड़े होते, कई बैठे रहते हैं। विकसित भारत में राष्टÑध्वज और राष्टÑगान के प्रति तेजी से घटते सम्मान के माहौल में यदि दलित समुदाय राष्टÑध्वज के लिए कमर कसते हैं, लड़ने मरने के लिए तैयार हैं, तो उस पर भृकुटी तानने वाले निश्चित रूप से गलत हैं। यदि ऐसे लोगों का दमन किया गया तो ने फिर कभी कोई फट्टा सुथन्ना हरचरना जन गण मन नहीं गाएगा।
संजय स्वदेश हिंदी के प्रसिद्ध कवि घुवीर सहाय की राष्ट्रगीत पर एक कविता की कुछ पक्तियों पर गौर करें-जनगण मन में कौन वो भाग्य विधाता है। फटा सुथन्ना पहने जिसके गुण हरचरना गाता है...कविता के इस अंश का प्रसंग इस लिए किया जा रहा है कि आजाद भारत के सम्मान व गर्व के प्रतीक राष्टÑध्वज के लिए न जाने देश को कितनी कुर्बानी देनी पड़ी उसी तिरंगे के शान में खड़े होने वाले फटे सुथन्ने हरचरना एक दलित की उस बिहार राज्य में हत्या कर दी जाती है जहां कि स्वतंत्र वीरों ने गोली खाकर तिरंगे को गिरने दिया। बिहार के सासाराम में 67वें स्वतंत्रता दिवस के दिन दलितों पर जैसा जुल्म ढाया गया उससे फिर सवाल खड़ा हो गया है कि क्या अंग्रेजों से मिली आजादी सभी देशवासियों से लिए थी। सासाराम के बद्दी गांव में दलितों का संत रविदास मंदिर के सामने स्वतंत्रता दिवस पर तिरंगा फहराना ऊंची जाति वालों को इतना नागवार गुजरा कि पत्थर से मारकर एक की हत्या कर दी। हमले में 40 लोग जख्मी हुए हैं। कत्थित सर्वण समुदाय के लोगों की भीड़ ने स्कूली बच्चों को भी नहीं छोड़ा। सड़कों पर दलित बच्चों पर हमले हुए। जो बच्चे घरों में थे उन्हें छत से नीचे फेंक दिया गया। पुलिसकर्मियों पर आरोप है कि उन्होंने इस हमले की अनदेखी की। जख्मी लोगों में ज्यादातर बुजुर्ग, बच्चे और महिलाएं शामिल हैं। बताया गया कि गंभीर रूप से जख्मी लोगों को पटना के पीएमसीएच हॉस्पिटल में शिफ्ट किया गया। मीडिया की मुख्यधारा से यह समाचार गायब है। आॅनलाइन मीडिया में ऐसे समाचार की चर्चा है। सवर्ण समुदाय वाले प्रभाव के माने जाने वाले बद्दी गांव में 15 दिन पहले से ही तनाव का माहौल था। गांव में सवर्ण समुदाय के लोगों ने यह निर्णय लिया था कि स्वतंत्रता सेनानी निशांत सिंह की मूर्ति लगाई जाएगी और वहीं के रविदास मंदिर प्रवेश द्वार के सामने प्लॉट पर तिरंगा फहराएंगे। इसी जगह पर 15 अगस्त के दिन दलित समुदाय के लोग तिरंगा लहराने गए थे। मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए प्रशासन ने दोनों पक्षों के साथ बैठक की थी। प्रशासन के इस पहल से भी गतिरोध और तनाव में कोई कमी नहीं आई। जमाना बदल चुका है, अब वे दिन नहीं रहे जब दलित घुड़कियों पर चुप हो जाया करते थे। आज सीने पर गोली खा कर अपनी मान मर्यादा की रक्षा के लिए मरने से पीछे नहीं हटते हैं। देश में हुई ऐसे अनेक घटना इस बात को साबित भी कर चुकी है। जब सवर्ण समुदाय ने यह निर्णय ले लिया कि उस जगह पर स्वतंत्रता सेनानी निशांत सिंह की मूर्ति के सामने वे तिरंगा लहराएंगे। तो दलित समुदाय के लोगों ने भी इनके डर से पीछे नहीं हटने का फैसला किया था। लिहाजा, यह टकराव स्वाभाविक था। हिन्दुस्तान की धरती पर समय-समय दलित समुदाय ने भी कई महान और साहसी लोगों को जन्म दिया है, जिन्होंने अपने बल पर अंग्रेजी हुकूमत के दांत खट्टे कर दिए थे। बिहार और झारखण्ड की धरती पर बिरसा मुंडा को भगवान का दर्जा अगर दिया जाता है तो उसके पीछे एक बहुत बड़ी वजह भी है कि मात्र 25 साल की उम्र में उन्होंने लोगों को एकत्रित कर एक ऐसे आंदोलन का संचालन किया जिसने देश की स्वतंत्रता में अहम योगदान दिया। जिस हिंदू वर्ण व्यवस्था से जन्म सवर्ण समुदाय ने आदिवासियों और दलितों को अपनी बराबरी का दर्जा नहीं दिया, उसके एक बड़े समुदाय को बिरसा मुंडा ने आदिवासी समाज में एकता लाकर देश में धर्मांतरण को रोका और दमन के खिलाफ आवाज उठाई। वीरांगना झल्लकारी बाई के योगदानों को इतिहास में उतनी जगह नहीं मिली जितनी कि वह हकदार थी। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में दलित समुदाय के ऐसे अनगिनत योद्धा हैं जिन्होंने आजादी के लिए अपनी जान की कुर्बानी दी। लिहाजा, इस समुदाय को भी राष्टÑध्वज लहराने में उतना ही फक्र महसूस होता है जितना दूसरे समुदाय को। आजाद भारत के छह दशक में ऐसे कई मौके आए जब कई जिम्मेदार हस्तियोंं ने राष्टÑध्वज को अपमान किया। लेकिन उसे मानवीय भूल समझ कर अनदेखी कर दी गई। कई राज्यों के सिनेमाघर में फिल्म शुरू होने से पहले लहराते तिरंगे के चलचित्र के साथ राष्टÑगान चलाया जाता है। ढेरों लोग सम्मान में खड़े होते, कई बैठे रहते हैं। विकसित भारत में राष्टÑध्वज और राष्टÑगान के प्रति तेजी से घटते सम्मान के माहौल में यदि दलित समुदाय राष्टÑध्वज के लिए कमर कसते हैं, लड़ने मरने के लिए तैयार हैं, तो उस पर भृकुटी तानने वाले निश्चित रूप से गलत हैं। यदि ऐसे लोगों का दमन किया गया तो ने फिर कभी कोई फट्टा सुथन्ना हरचरना जन गण मन नहीं गाएगा।

बुधवार, अगस्त 07, 2013

फिर कोई नये नाम से मैदान में डटेगा

संजय स्वदेश करीब डेढ़ दशक पहले जब खबरिया चैनल तेजी से पनपने लगे तब यह चर्चा जोरशोर से हुई कि अब समाचार पत्रों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। वर्तमान हालात देख कर लगता है कि प्रिंट मीडिया ने इन डेढ़ दशक में अपना पांव और मजबूत कर लिया। भारत के समाचार पंजीयक के वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के अनुसार देश में 86754 समाचार प्रकाशित हो रहे हैं। इसमें 16310 समाचार पत्रों का तो बकायदा वार्षिक रिपोर्ट भी जमा की गई। इसमें ढेरों संख्या लुघ पत्र पत्रिकाओं की भी है। समाचार चैनलों के विकास के उतार-चढ़ाव के दौर में समाचार पत्रों की विश्वसनीयता समाप्त नहीं हुई। बड़े घराने के बड़े समाचार पत्र समूहों ने तो अपने संस्करणों को बढ़ाया। नई-नई यूनिटों की भी शुरुआत की। आखिर क्यों? कई मीडिया दिग्गजों ने कहा कि अब कालाधन को मीडिया के माध्यम से ही सफेद किया जाने लगा है। संपादकीय नीति पूरी तरह समाचारपत्रों के मालिकानों के द्वारा ही संचालित हो रहे हैं। मंदी के दौर में भी विज्ञापनों की भरमार रही। इसके अलावा भी अनेक ऐसी परिस्थितियां हैं जिससे मीडिया की साख पर बट्टा तो लगा, लेकिन पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से विचारों के साथ खबरों को जानने की बेचैनी कम नहीं हुई। हां, व्यस्त जिंदगी में अखबारों के एक-एक शब्द पढ़ जाने वाले वैसे पाठक अब बिरले ही बचे हैं। देश में ऐसे परिवारों की संख्या कम नहीं है जिनकी चाय बिना अखबार के हजम होती हो। यह जरूर हुआ कि खबरों के प्रसार चाहे प्रिंट हो या इलेकट्रॉनिक माध्यम इनके समाचारों के प्रति मानवीय सवंदेना कम जरूर हुर्इं। समाचारों के सुर्खियों में आने के बाद भी संबंधित तंत्र की निष्क्रियता जरूर साबित हो गई है। बार-बार खबरों की सुर्खियों से भी कभी-कभार सत्ता तंत्र सचेत नहीं होता है तो भला इसमें मीडिया कहां दोषी है। उसके हाथ में क्या है। पत्रकार की जिम्मेदारी कवरेज तक सीमित है। न्याय-अन्याय का वह निर्धारण नहीं कर सकता है। स्थितियों को बतला भर सकता है। उसका काम है सच को परोसाना। बदलते दौर में भले ही मीडिया में ढेरों बुराइयों का शुमार हुआ हो, लेकिन ढेरों बिसंगतियों के बाद आज भी कई बार मीडिया ने अपनी सार्थकर्ता साबित की। अब समाज की बढ़ती असंवेदनशीलता से दुनिया को हिला देने वाली खबरों की उम्र भी सप्ताह से ज्यादा नहीं होती। तो इसमें मीडिया का क्या दोष। आज अखबार वाले वहीं लिख रहे हैं जो समाज पढ़ना चाहता है। टीवी वाले वही दिखा रहे हैं जो उसका दर्शक देखना चाह रहा है, तो किसको कैसे कटघरे में खड़ा किया जाए। ऐसे पाठक और दर्शकों की संख्या निश्चय ही ज्यादा है। लेकिन इन्हीं सबके बीच ऐसे पाठक भी हैं जो देश-दुनिया के सरोकार को लेकर गंभीर हैं। उनके अंदर एक बेचैनी है, उनके मन मुताबिक मीडिया कंटेंट की। वृहद समाज में ऐसे लघु संख्यक पाठकों की बेचैनी लघु स्तर के समाचार पत्र अच्छी तरह समझते हैं। तभी तो विषम परिस्थितियों में आज ढेरों लघु स्तर की पत्र-पत्रिकाएं वर्षों से निरंतर प्रकाशित हैं। ढेरों ने दम तोड़ दिया। आगे भी तोड़ती रहेंगी। फिर कोई नये नाम को लेकर मैदान में डटेगा। सरोकारों को लेकर बियबान में शोर मचाने जैसे हालात में भी लघु स्तर की पत्र पत्रिकाएं बेईमान समाज में वैसे ही कुंदन की तरह चमकती दमकती रहेगी, जैसे कत्थित कलियुगी समाज में सत्यवादी हरिशचंद का नाम।