बुधवार, अगस्त 07, 2013
फिर कोई नये नाम से मैदान में डटेगा
संजय स्वदेश
करीब डेढ़ दशक पहले जब खबरिया चैनल तेजी से पनपने लगे तब यह चर्चा जोरशोर से हुई कि अब समाचार पत्रों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। वर्तमान हालात देख कर लगता है कि प्रिंट मीडिया ने इन डेढ़ दशक में अपना पांव और मजबूत कर लिया। भारत के समाचार पंजीयक के वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के अनुसार देश में 86754 समाचार प्रकाशित हो रहे हैं। इसमें 16310 समाचार पत्रों का तो बकायदा वार्षिक रिपोर्ट भी जमा की गई। इसमें ढेरों संख्या लुघ पत्र पत्रिकाओं की भी है। समाचार चैनलों के विकास के उतार-चढ़ाव के दौर में समाचार पत्रों की विश्वसनीयता समाप्त नहीं हुई। बड़े घराने के बड़े समाचार पत्र समूहों ने तो अपने संस्करणों को बढ़ाया। नई-नई यूनिटों की भी शुरुआत की। आखिर क्यों? कई मीडिया दिग्गजों ने कहा कि अब कालाधन को मीडिया के माध्यम से ही सफेद किया जाने लगा है। संपादकीय नीति पूरी तरह समाचारपत्रों के मालिकानों के द्वारा ही संचालित हो रहे हैं। मंदी के दौर में भी विज्ञापनों की भरमार रही। इसके अलावा भी अनेक ऐसी परिस्थितियां हैं जिससे मीडिया की साख पर बट्टा तो लगा, लेकिन पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से विचारों के साथ खबरों को जानने की बेचैनी कम नहीं हुई। हां, व्यस्त जिंदगी में अखबारों के एक-एक शब्द पढ़ जाने वाले वैसे पाठक अब बिरले ही बचे हैं। देश में ऐसे परिवारों की संख्या कम नहीं है जिनकी चाय बिना अखबार के हजम होती हो। यह जरूर हुआ कि खबरों के प्रसार चाहे प्रिंट हो या इलेकट्रॉनिक माध्यम इनके समाचारों के प्रति मानवीय सवंदेना कम जरूर हुर्इं। समाचारों के सुर्खियों में आने के बाद भी संबंधित तंत्र की निष्क्रियता जरूर साबित हो गई है। बार-बार खबरों की सुर्खियों से भी कभी-कभार सत्ता तंत्र सचेत नहीं होता है तो भला इसमें मीडिया कहां दोषी है। उसके हाथ में क्या है। पत्रकार की जिम्मेदारी कवरेज तक सीमित है। न्याय-अन्याय का वह निर्धारण नहीं कर सकता है। स्थितियों को बतला भर सकता है। उसका काम है सच को परोसाना। बदलते दौर में भले ही मीडिया में ढेरों बुराइयों का शुमार हुआ हो, लेकिन ढेरों बिसंगतियों के बाद आज भी कई बार मीडिया ने अपनी सार्थकर्ता साबित की। अब समाज की बढ़ती असंवेदनशीलता से दुनिया को हिला देने वाली खबरों की उम्र भी सप्ताह से ज्यादा नहीं होती। तो इसमें मीडिया का क्या दोष। आज अखबार वाले वहीं लिख रहे हैं जो समाज पढ़ना चाहता है। टीवी वाले वही दिखा रहे हैं जो उसका दर्शक देखना चाह रहा है, तो किसको कैसे कटघरे में खड़ा किया जाए। ऐसे पाठक और दर्शकों की संख्या निश्चय ही ज्यादा है। लेकिन इन्हीं सबके बीच ऐसे पाठक भी हैं जो देश-दुनिया के सरोकार को लेकर गंभीर हैं। उनके अंदर एक बेचैनी है, उनके मन मुताबिक मीडिया कंटेंट की। वृहद समाज में ऐसे लघु संख्यक पाठकों की बेचैनी लघु स्तर के समाचार पत्र अच्छी तरह समझते हैं। तभी तो विषम परिस्थितियों में आज ढेरों लघु स्तर की पत्र-पत्रिकाएं वर्षों से निरंतर प्रकाशित हैं। ढेरों ने दम तोड़ दिया। आगे भी तोड़ती रहेंगी। फिर कोई नये नाम को लेकर मैदान में डटेगा। सरोकारों को लेकर बियबान में शोर मचाने जैसे हालात में भी लघु स्तर की पत्र पत्रिकाएं बेईमान समाज में वैसे ही कुंदन की तरह चमकती दमकती रहेगी, जैसे कत्थित कलियुगी समाज में सत्यवादी हरिशचंद का नाम।
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