शनिवार, दिसंबर 21, 2013

फाइलों के झुरमुटों में अटकी दलहन क्रांति

पीली क्रांति पर ग्रहण संदर्भ : दलहन और तिहलन का घटता उत्पादन बढ़ता आयात //////////////////////////////////////////////////// खास बात : देश में हर साल 30 हजार करोड़ के खाद्य तेल का आयात किया जा रहा है। 90 के दशक में तिलहन के मामले में देश आत्म निर्भरता के करीब था। देश में घरेलू जरूरत का 97 प्रतिशत तक उत्पादन हो रहा था। 2007-2008 से लेकर अब तक कृषि कैलेंडर का अवलोकन करे तो स्वष्ट होता है कि जहां धान, गेहूं, कपास सहित अन्य खाद्यान्नों के उत्पादन का ग्राफ बढ़ा है, वही दलहन तिलहन का उत्पादन घटा है। ////////////////////////////////////////////////////////////////////////////// संजय स्वदेश विकास की रफ्तार में खेती के दरकिनार होने का मुद्दा गाहे-बगाहे सतह पर आता है। मुद्दे में इतनी गर्मी नहीं होती है कि उस पर सरकार कुछ ठोस निर्णय ले। लिहाजा, अन्नादाता पर हमदर्दी के बादल तो खुब गरजते हैं। पर हकीकत में जो होता है, वह उनके लिए संतोषजनक नहीं होता है। इस तरह के ढेरों झंझावातों के बावजूद किसानों ने अपने पसीने से देश का पेट भरने लायक अनाज उगाया है। धान और गेहूं के बाद दलहन और तिलहन जरूरी अनाजों में है। लेकिन करीब एक दशक से दहलन और तिलहन का उत्पादन पर भारी नकारात्मक असर पड़ा है। दशक भर पहले देश में दलहन और तिलहन उत्पादन को लेकर हम दंभ भरते थे। इसे पीली क्रांति की संज्ञा दिया था। लेकिन कब इस क्रांति पर ग्रहण लग गया किसी ने सुध ही नहीं ली। हालात तो यह हैं कि देश में दलहन और तिलहन का आयात बढ़ता जा रहा है। कृषि उत्पादों के आयात शुल्क में कमी देश के किसानों के साथ के साथ मजाक से कम नहीं है। पटरी से उतरी दलहन तिलहन के उत्पादन में वृद्धि के लिए सुझाए गए उपायों पर अमल तो दूर उन्हें फाइलों के झुरमुटों में ही अटका दिया गया है। लिहाजा, हकीकत के उपाय खेतों तक पहुंच नहीं पा रहे हैं। संसद के शीत सत्र में ही एक संसदीय समिति ने इसको लेकर सरकार की आलोचना की है। समिति ने अपनी 46 की रिपोर्ट में दलहन तिलहन के उत्पादन में वृद्धि के लिए दिए सुझाव पर पहल करने की सिफारिश भी की है। कृषि विभाग ने तिलहन और पाम तेल पर राष्ट्रीय मिशन एनएमओ ओपी के संबंध में भी निर्णय नहीं लिया है, जो चिंता का विषय है। सोयाबीन, मुंगफली, मुंग, उड़द और अरहर की खेती के बढ़ावा देकर दलहन और तिलहन के को आकर्षित करने समर्थन मूल्य में वृद्धि कर उन्नत बीज के साथ आधुनिक कृषि तकनीक उपलब्ध करने की जरूरत है। किंतु अफसोस समिति की सिफारिशों पर गौर नहीं किया जा रहा है। दलहन और तिलहन पर यदि समय रहते कारगर कदम नहीं उठाए गए तो आयात में और वृद्धि स्वाभाविक है। फिलहाल देश में हर साल 30 हजार करोड़ के खाद्य तेल का आयात किया जा रहा है। 90 के दशक में तिलहन के मामले में देश आत्म निर्भरता के करीब था। देश में घरेलू जरूरत का 97 प्रतिशत तक उत्पादन हो रहा था। किसानों को तकनीक और बीज के मामले में प्रोत्साहन नहीं मिलने से उत्पादन में गिरावट चली आई। दूसरी और आयात शुल्क में 75 प्रतिशत तक छूट दी जाने लगी, जिससे किसान पिछड़े उत्पादन गिरा और हमारी आत्म निर्भरता धराशायी हो गई है। इसके बाद भी दलहन और तिलहन के मामले अनुदार रवैया अपनाया जा रहा है। यह खतरे की घंटी है। आयात शुल्क घटाने से विदेशी विनिमय का लाभ इंडोनेशिया, मलेशिया, अमरीका और ब्राजील के किसानों को मिल रहा है। यदि दलहन-तिलहन के समर्थन मूल्य पर इजाफा किया जाता है तो आयात घटेगा और देश के किसान लाभान्वित होंगे। राजीव गांधी के शासन काल 1985 में कमोबेश यही स्थिति बनी थी। तब संसद में बहस हुई। बहस का सार था हम पेट्रोल डीजल क्यों खरीदते हैं? तर्क आया दोनों वस्तुओं का उत्पादन देश में नहीं होता है। पर दहलन तिलहन हमारे श्रम का नतीजा है। फौरन कृषि नीति पर बदलाव किया गया। यात्र एक दो वर्ष के अंतराल में हमारी आयात निर्भरता घटने लगी। किंतु डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में इस अनिवार्य मामले में उपेक्षा मिली। 2007-2008 से लेकर अब तक कृषि कैलेंडर का अवलोकन करे तो स्वष्ट होता है धान, गेहूं, कपास सहित अन्य खाद्यान्नों के इस उत्पादन में उतरोत्तर तरक्की कर रहे हैं। बस दलहल तिलहन पिछड़ रहा है। इस सूरत में दलहन और तिलहन के उत्पादन में वृद्धि करने के लिए ठोस पहल किया जाना चाहिए। आयल सीड्स टेक्नालाजी मिशन को हासिल करना आज के दौर में बेहद सरल कार्य है। इस मामले में एक और विसंगति सामने आई है। सोयाबीन के उत्पादन के लिए जेनेटिकल मोडिफाइड कृत्रिम रूप से संवर्धित यानी जीएम सोसाबीन के उत्पादन बढ़ावा दिया जा रहा है। इस प्रजाति के बीज का उत्पादन सामान्य सोयाबीन से 4 से 20 प्रतिशत कम होता है। इस बीज को बढ़ावा देने देश को क्या लाभ होगा इसका खुलासा नहीं किया गया है। आश्चर्य की बा है कि कृत्रिम रूप से संवर्धित बीजों के अन्य उत्पादों का कम विरोध कर चुके है। उसके बाद सोयाबीन को बढ़ावा देना जांच का विषय हो सकता है। सिफारिशी रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि दलहन तिलहन के उत्पादन में आवश्यकता अनुसार उत्पादन के लिए देश में 30 प्रतिशत कृषि रकबे की आवश्यकता पड़ेगी। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, महाराष्ट्र और आंध्र की परंपरागत खेती के साथ अलसी, सोयाबीन, सरसो और तिल की फसल आसानी से उगाई जा सकता है। दलहन और तिलहन के उत्पादन रकबे में वृद्धि से धान और गेहूं की उत्पादन क्षमता प्रभावित होगी। किंतु इससे हमारी आर्थिक व्यवस्था पर बल आने की संभावना नहीं के बराबर होगी। पाम यानी ताड़ बुनियादी तौर से मुरस्थली उपज है। इसके लिए भारत की भूमि को ज्यादा उपयुक्त नहीं माना जाता है। पाम से 10 प्रतिशत अतिरिक्त कार्बन डिस्चार्ज होता है। जो बेहद हानिकारक है। इसलिए खाद तेल के विकल्प के रूप में पाम की जगह सोयाबीन आदि को बढ़ावा देना चाहिए। रिक्त भूमि का उपयोग दलहन और लिए परंपरागत रूप में किया जाता रहा है। इस प्रचलन में लाने के लिए कठिन प्रयास के आवश्यकता ही नहीं है। --------------------------

शनिवार, दिसंबर 14, 2013

अशिक्षा, अपराध के अंधी गलियारे में मुस्लिम

------------------------------ देश और राज्यों में सरकारें बदलती रही, मुसलमानों की बेहतरी के लिए समितियां और आयोग बनते रहे। उनकी सिफारिशों पर बहस मुनासिब होती है मगर देश में मुसलमानों की हालत नहीं बदली। ------------------------------
संजय स्वदेश पेड़ काट कर डाल को सींचने से वृक्ष के जीवन की आशा व्यर्थ है। देश में मुस्लिम आबादी के साथ कुछ ऐसी ही कहानी है। सियासी दांव पर लगे मुस्लिम समाज की बहुसंख्यक लोग शिक्षा और रोजगार में पिछड़ गए हैं। नाकारात्मक माहौल में पल बढ़ कर आपराधिक मामलों में भी पिस रहे हैं। इसलिए कहा जा रहा है कि मुसलमानों की आबादी का जो प्रतिशत देश में है, उससे ज्यादा प्रतिशत जेल में है। कई बार शक के आधार पर पुलिस कार्रवाई और अन्याय के प्रणाली के शिकार मुसलमानों की बड़ी संख्या नाक जेल जाती है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने इस बात को लेकर एक सार्वजनिक बयान दिया कि इस तरह शक के आधार पर मुस्लिम समाज के बेगुनाह लोगों की गिरफ्तारी नहंी की जाए। ऐसे पीड़ितों की अन्याय के खिलाफ इंसाफ की लड़ाई बुलंदी से नहीं उठती है। सिस्टम और परिस्थितियों के कारण उनके मन में द्वेष के बीज अंकुरित हो जाते हैं। सियासी गलियारों में मुसलमानों के हित की वकालत बड़ी चालाकी और लुभावनी तरिके से की जाती है। लेकिन जमीनी स्तर पर कुछ कार्य हुए होते तो आज हालात यह नहीं होते। जबानी जमा खर्च का लाभ बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी तक नहीं पहुंच पाया है। सियासी लाभ के लिए इन पक्ष में दिये जाने वाले बयान सर्व धर्म समभाव की भावना का पोषण भी नहीं करते हैं। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की रही हो, मुस्लिम समाज में शिक्षा, न्याय व अन्य आंकड़े हकीकत बताते हैं। यह आंकड़े ही कहते हैं कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में ही मुस्लिमों की उपस्थिति का प्रतिशत अन्य पिछड़ी जातियों से कमतर है। आजादी के साथ ही मुसलमानों की बेहतरी के लिए चिंता जाहिर की गई और यह चिंता आज भी जाहिर की जा रही है, पर कौम की बड़ी आबादी हमारी सामाजिक और न्याय प्रणाली से आहत है। इसकी मूल वजह मुसलमानों के शिक्षा के प्रतिशत में कमी को कहना गलत नहीं होगा। देश में मुसलमानों के अलावा अन्य कई जातियां अल्प संख्य वर्ग शामिल हैं, जिनकी साक्षरता दर पर संतोष नहीं जताया जा सकता है किंतु उनकी माली हालत मुस्लिमों की तुलना में ज्यादा तेज गति से सुधर रही है। सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार के बाद भी उन्हें थोड़ा बहुत लाभ मिल जा रहा है। मुस्लिम जमात के बच्चों की बुनियादी तालिम मदरसों से शुरू होती है। राष्टÑीय अल्पसंख्यक शिक्षा निगरानी समिति की स्थायी समिति ने मदरसों की बदहाली पर चिंता जाहिर कर चुका है। मदरसों के आधुनिकीकरण के तैयार मॉडल में शिक्षकों को बेहतर वेतन और कंप्यूटरीकरण के लिए वित्तीय वर्ष 2012-2013 में 9905 मदरसों के लिए 182.49 करोड़ की मंजूरी दी गई है। जिसे अमलीजामा पहनाना शेष है। इसलिए फिलहाल इस राहत को दूर के ढोल सुहावने से ज्यादा और कुछ नहीं कहा जा सकता है। बिहार, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, असम, पश्चिम बंगाल और पंजाब में मुसलमानों की आबादी करीब 45 प्रतिशत है। इन राज्यों के साक्षरता प्रतिशत में पश्चिम बंगाल और दिल्ली को छोड़कर अन्य राज्यों में मुसलमानों की साक्षरता प्रतिशत असंतोष कारक है। देश के 374 जिलों में से 67 जिले अल्पसंख्यक बहुल है। सन् 2006 में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के उल्लेखनीय पक्ष में मुसलमानों को कई योजना में लाभ नहीं मिलने की बात बताई थीं। स्वामीनाथन एस अंकलेसरीया की अध्यक्ष रिपोर्ट में भी मुसलमनों की तरक्की को लेकर चर्चा की गई। मुसलमानों की आर्थिक और सामाजिक समृद्धि को लेकर हुई बहस में मुसलमानों का मूल्यांकन कमतर किया जा रहा था किंतु सच्चर कमेटी और स्वामीनाथन रिपोर्ट के दूसरे पक्ष ने मुसलमान के विकास की गति को असंगत बताया। शिक्षा के इतर अपराधिक मामलों के आंकड़ों पर भी गौर करे तो पाएंगे कि हिंसा में मुसलमानों का दखल ज्यादा है। अपराध का वास्ता न्यायालय और पुलिस से पड़ता ही है। पुलिस कार्रवाई की ज्यादती से न्यायालयों के तथ्य में झोल-झाल स्वाभाविक है और इससे अन्याय संभव है। केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन संस्था राष्टÑीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एमसीआरबी) और देश की एक प्रतिष्ठित पत्रिका की रिपोर्ट के अनुसार सेकुलर और कम्युनल सरकारों का रवैया मुसलमानों के प्रति एक समान रहा है। पश्चिम बंगाल में लंबे समय तक वामपंथी शासन रहा है। पश्चिम बंगाल के जेलों में बंद कैदी आधे मुसलमान है। महाराष्टÑ और उत्तर प्रदेश में थोड़ी राहत मिली है। वहां हर तीसरा और चौथा कैदी मुसलमान है। जम्मू-कश्मीर, पांडुचेरी, सिक्किम के अलावा देश के अन्य जेलों में मुसलमानों की आबादी का प्रतिशत ज्यादा है। जनगणना रिपोर्ट 2001 के अनुसार मुसलमानों आबादी देश में 13.4 फीसदी थी और दिसम्बर 11 के एनसीआरबी के आंकड़े के अनुसार जेल में 21 फीसदी मुसलमान 21 फीसदी है। जेल यात्रा के चलते कई मुसलमान परिवार तबाह हो गए। आर्थिक, मानसिक और सामाजिक यातनाओं को झेलने वाले परिवारों की कहानी बड़ी मार्मिक है। किसी भी वारदात के बाद संदेह में बड़ी संख्या में मुसलमानों की गिरफ्तारी हुई। ढेरों मामले हैं जिसमें बेगुनाह मुस्लमान वर्षांे जेल में पिसते रहे। मामला झूठ साबित होने पर रिहा हुए। ऐसे हालात की स्थिति वैसे ही हैं जैसे गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है। इसका दूसरा पक्ष यह भी है देश की अधिकतर आतंकी वारदातों में जो आरोपी पकड़े जाते हैं, वे ज्यादातर मामलो में मुस्लिम निकले हैं। फिर भी व्यक्ति आतंकी की सजा पूरे कौम को नहीं दी जा सकती है। ऐसे पीड़ितों पर सियासत के दिग्गजों ने अधिकतर सहानुभूति के बोल के ही मरहम लगाया है। परिवार को राहत दिलाए जाने की वकालत अनेक राष्ट्रीय स्तर के नेताओं ने की है। पिछले दिनों मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा कि मुसलमान यदि आज पुलिसिया जुल्म के सामने बेबस नजर आता है तो यह कांग्रेस की भी कमजोरी है। वहीं यह भी सच है कि इस मामले में भाजपा की छवि को भी पाक साफ नहीं कहा जा सकता है। पश्चिम बंगाल में माकपा नेता ज्योति बसु का मुख्य मंत्रित्व काल के 30 साल के लिए विख्यात है। मुसलमान अन्याय के मामले में पश्चिम बंगल का ग्राम देश में सर्वाधिक ऊंचा है। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पर भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुखतार अब्बास नकवी ने कहा कि राज्यों इस समस्या को मानवीय आधार पर सुलझाना चाहिए। वहीं मुसलमानों पर पक्षपात पूर्ण कार्रवाई पर पीयूसीएल का आरोप है। सरकारें बदली दल बदला पर मुसलमानों की इस समस्याओं का निराकरण नहीं हुआ। क्योंकि सियात में मुसलमान कौम को मोहरे के रूप इस्तमाल किया जा रह है। गुजरात कांड के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा राज्य सरकार हिदायत देनी पड़ी थी। राज्य में पोटा और टाडा के तहत 280 लोगों को गिरफ्तार किया, जिसमें 279 मुसलमान थे। इसमें से मात्र डेढ़ प्रतिशत को सजा हुआ पोटा के तहत 1031 लोगों को गिरफ्तारी हुई। जिसमें मात्र 13 को सजा हुई। लेने समय तक जारी पुलिसिया कार्रवाई पर अकुंश नहीं लगाया गया है। देश के अमूमन राज्यों में मुसलमानों की यही दशा है। जाहिर से इस समाज में शिक्षा की लौ जैसे ही तेज होगी, समाज की सोच प्रगतिशील होगी। आने वाली पीढ़ी में हिंसा और अपराध की राह को छोड़ अपने घर परिवार और भविष्य को सुखमय बनाने में व्यस्त होगी। इसी से समाज भी मजबूत होगा। देश भी मजबूत होगा। 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शुक्रवार, दिसंबर 06, 2013

घसिया की घड़वा में इतिहास की धड़कन

कथा छत्तीसी : बस्तर की घड़वा कला छत्तीसगढ़ में बस्तर की घडवा कला अथवा ढोकरा कला विश्व प्रसिद्ध है। मिट्टी, मोम और धातु की सम्मिलित है इस कलासाधना से जो सृजित होता है, उसके प्रति मन सहज ही आकर्षित होता है। इसमें कलाकृति धातु की बनती है लेकिन कलाकार उसे मोम में साधता है। बस्तर में मुख्य रूप से से घसिया जनजाति ने घड़वा कला को साधा और शिखर तक पहुँचाया। घसिया के रूप में इस जनजाति को पहचान रियासतकाल में उनके कार्य को ले कर हुई। जानकार कहते हैं कि ये जनजाति दिनो घोड़ों के लिए घास काटने का कार्य किया करती थी। महत्वपूर्ण बात यह है कि घड़वा कला को किसी काल विशेष से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता। मोहनजोदाडो में ईसा से तीन हजार साल पहले प्राप्त एक नृत्य करती लड़की की प्रतिमा लगभग उसी तकनीक पर आधारित है जिसपर बस्तर का घड़वा शिल्प आज कार्य कर रहा है। प्रसिद्ध घड़वा शिल्पकलाकार जयदेव बघेल ने लिखा है कि बस्तर में इस कला के प्रारंभ के लिए जो मिथक कथा है उसका संबंध आदिमानव और उसकी जिज्ञासाओं से है। जब आदिमानव जंगल में विचरण करता था और शिकार पर आश्रित अपना जीवन निर्वहन किया करता था। इन्ही में से एक आदिमानव की यह कहानी है जो अपने माता-पिता से बिछड़ कर किसी गुफा में रह रहा था। एक दिन उसने पहाड़ पर आग लगी देखी। आग से निकलने वाले रंग तथा चिंगारिया उसे भिन्न प्रतीत हुईं और वह जिज्ञासा वश उस दावानल के निकट चला गया। अब तक आग स्थिर होने लगी थी। वहीं निकट ही उसे एक ठोस आकृति दिखाई पड़ी जो किसी धातु के पिघल कर प्रकृति प्रदत्त किसी सांचे में प्रवेश कर जम जाने के बाद सृजित हुई होगी। यह आकृति उसे अलग और आकर्षित करने वाली लगी। उसे उठा कर वह आदिमानव अपने घर ले आया। उसने इस प्रतिमा के लिए घर का एक हिस्सा साफ किया और इसे सजा कर रखा। इस प्रतिमा के लिए उसका आकर्षण इतना अधिक था कि हमेशा ही वह इसे साफ करता। धीरे धीरे इससे प्रतिमा में चमक आने लगी। कहते हैं इसी चमक से प्रभावित हो कर वह स्वयं को भी चमकाने लगा। मतलब रोज स्नानादि कर सज संवर कर रहने लगा। यह धातु और वह आदिमानव जैसे एक दूसरे के पूरक हो गए थे। समय के साथ दोनो में ही वैशिष्ठता की दमक उभरने लगी थी जिसे ग्रामीणों ने महसूस किया। जब कारण पूछा गया तो इस आदिमानव ने ग्रामीणों को वह जगह दिखाई जहाँ से उसे धातु का यह प्रकृति द्वारा गढा गया टुकड़ा प्राप्त हुआ था। इस स्थान पर सभी ने पाया कि वह दीमक का टीला था, जिसमें आग से पिघला द्रव धातु-द्रव्य प्रवेश कर गया था और उसने वही आकार ले लिया था। उसी स्थल पर मधुमक्खी का छत्ता भी पाया गया जिससे मोम, सांचा और धातु को कलात्मकता देने का आरंभिक ज्ञान उन ग्रामीणों को हुआ होगा। कहते है कि उस आदि कलाकार ने धातु के इस टुकड़े को अपनी मां माना। उसके प्रति श्रद्धा और प्रेम दिखाया। यह भी कहा जाता है कि उस आदिकलाकार ने सबसे पहले अपनी माँ की आकृति बनाने का यत्न किया। धीरे-धीरे वह अपने आसपास की वस्तुओं और पशु-पक्षियों को भी इस कला के माध्यम से मूर्त रूप देने लगा। लिहाजा, कालांतर में इस कला में बाघ, भालू, हिरण, कुत्ता, खरगोश, नाग कछुवा, मछली, पक्षी, गाय, बकरा, बंदर आदि की कृतियां मिलती हैं। इसी तरह विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियाँ घडवा कला के रूप में परिवर्तित होती रहीं। कर्मकोलातादो, मूलकोलातादो, भैरमदेव, भीमादेव, राजारावदेव, दंतेश्वरीदेवी, माता देवी, परदेसीन माता, हिंग्लाजिन देवी, कंकालिन माता आदि की मूर्तियाँ इस कला के विकास के विभिन्न चरणों में सृजित की गई। लाला जगदलपुरी भी अपनी पुस्तक बस्तर इतिहास एवं संस्कृति में उल्लेखित करते हैं कि बस्तर के घड़वा कला कर्मी पहले कुँडरी, कसाँडी, समई, चिमनी और पैंदिया तैयार करते थे। अब लोग देवी देवता, स्त्री पुरुष, हरिण, हाथी, अकुम आदि बनाते आ रहे हैं। बस्तर की यह कला असाधारण है। इसकी गहराई में उतरने पर किसी न किसी रूप में इतिहास सामने आने लगता है। सिंधु घाटी की सभ्यता अगर धातु की ऐसी प्रतिमाओं की निमार्ती थी तो निश्चित ही इस सभ्यता के नष्ट होने के साथ जो पलायन हुए उनके साथ ही यह कला भी स्थानांतरित हुई होगी। बस्तर में नाग शासकों ने लगभग सात सौ वर्ष तक शासन किया है और इतिहास उनके आगमन का स्थल मध्य एशिया के पश्चात सिंधुघाटी का क्षेत्र ही मानता रहा है। लिहाजा, यह भी अनुमान लगाया जाता है कि इसी प्रक्रिया में यह कला बस्तर की जनजातियों के पास भी पहुंची हो। इन प्रतिमाओं का महापाषाणकालीन सभ्यता से भी संबंध जोड़ कर देखा गया है तो क्या यह माना जा सकता है कि सिंधु घाटी की सभ्यता के काल में ही समानांतर बसे मानव समूहो को भी धातु को गला कर आकृतियाँ देने की यह कला ज्ञात थी जिसमे गोदावरी के तट पस बसे आदिम समूह भी सम्मिलित थे? फिलहाल यह अभी शोध का विषय है। *************************** संपर्क- संजय स्वदेश

सोमवार, दिसंबर 02, 2013

मीठी चीनी की कड़वी घूंट

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शक्कर उत्पादन को लेकर सरकार को अपने रैवए पर विचार करना चाहिए। गन्ने की पेराई पर मिलर्स का प्रतिबंध निश्चित रूप से दादागिरी है। इसमें सरकार का दखल जरूरी है। कृषकों के हितों का पोषण सरकार की जवाबदारी है। चीनी विवाद मात्र से थोक बाजार में उठान के संकेत मिल चुके हैं। इस असर खुदरा बाजार पर भी पड़ेगा। आलू, प्याज, टमाटर की महंगाई की मार से पस्त जनता को कड़वी शक्कर को मुश्किल से पचाना पड़ेगा।
----------------------------------- संजय स्वदेश महंगाई से जूझ रही जनता को आगामी दिनों में महंगी शक्कर का भी बोझ ढोना पड़ सकता है। इस मामले में केंद्र सरकार और खाद्य मंत्रालय की पहल की सराहना नहीं की जा सकती है। उत्तर प्रदेश में शक्कर मिलर्स ने गन्ने की पेराई बंद कर दी है। गन्ना किसान सरकारी राहत के लिए सड़क पर उतर आए। महाराष्ट्र के सांगली और कोल्हापुर में भी किसानों ने अपने तेवर दिखाए। कर्नाटक के बेलगाम में भी गन्ना किसानों की उग्रता दिखी। हालात देख कर यह सहज अनुमान लगाए जा सकते हैं कि गन्ना किसानों के हाल क्या है। चीनी मिलों की लचर व्यवस्था पर सरकार का अंकुश असफल है। हालत इस बात के भी संकेत दे हैं कि आने वाले दिनों में गन्ने की खेती प्रभावित होगी। लिहाजा, चीनी का उत्पादन घटना तय है। फिलहाल सरकार ने वर्तमान हालत को देखते हुए चीनी उत्पादन में तीन प्रतिशत की कमी होने का संकेत दे दिया है। सरकार, चीनी मिलर्स और गन्ना किसानों का यह संघर्ष आज के नहीं हैं। केंद्र सरकार ने बीमार शक्कर मिलों को जीवन प्रदान करने के लिए ऋण मुक्त ब्याज देने पर विचार किया। लेकिन जिस तरह बीमार मिलो (उद्योगपतियों) की चिंता की गई यदि उस चिंता में किसानों को भी शामिल कर लिया जाता तो, किसानों के आक्रोश पर तत्काल सहानुभूति के छिंटे जरूर पड़ जाते। सरकार का यह कह कर खुश होना उत्पादन की कमी से देश में शक्कर आपूर्ति की समस्या नहीं आएगी, कुशल व्यापार नीति पर बट्टा लगाना जान पड़ता है। यदि हम शक्कर पर आत्मनिर्भर हैं तो निर्यात का पुख्ता इंतजाम किया जाना चाहिए। किसानों को अधिक प्रोत्साहन देना चाहिए। शक्कर का कच्चा माल गन्ना किसानों की सौगात है। कच्चे माल की बुनियाद पर ही उद्योग की स्थापना की जाती है। ऐसे में गन्ना किसानों की मांग को दरकिनार करके बीमार शक्कर मिलों की चिंता उद्योगपतियों पर मेहरबानी से गन्ना किसानों का उग्र होना स्वाभाविक है। भारत शक्कर के उत्पादन और खपत करने दोनों में उस्ताद माना जाता है। दुनिया में ब्राजील के बाद भारत में शक्कर का उत्पादन सबसे ज्यादा है। ऐसे में देश के गन्ना किसान को खुशहाल होना चाहिए, मगर अफसोस गन्ना किसानों को अपनी बदहाली को लेकर सड़कों पर उतरना पड़ता है। लगातार आंदोलन के बाद भी उनकी सुध नहीं ली जाती है। शक्कर उत्पादन को लेकर सरकार को अपने रैवए पर विचार करना चाहिए। गन्ने की पेराई पर मिलर्स का प्रतिबंध निश्चित रूप से दादागिरी है। इसमें सरकार का दखल जरूरी है। कृषकों के हितों का पोषण सरकार की जवाबदारी है। गन्ने की पेराई बंद करने, मिलर्स पर किसानों का करोड़ों रुपए का बकाया, निर्धारित मूल्य पर गन्ने का भुगतान और अन्य कारणों से सरकार द्वारा मिलर्स पर दर्ज कराई गई एफआईआर गतिरोध का मुख्य मुद्दा है। रिपोर्ट पर अपेक्षित कार्रवाई नहीं होने से किसान नाराज हैं और मिलर्स की दबंगई जारी है। इन परिस्थितियों में गन्ना गतिरोध समाप्त होते नहीं दिखता है। पेराई के बंद होने से किसानों की परेशानी बढ़Þ जाएगी। उत्पादन विलंब से शुरू होगा इससे लागत में वृद्धि स्वाभाविक है। जिसका बोझ अंतत: जनता के कंधे पर ही आएगा। पिछले दिनों उत्पादन में कमी की चर्चा मात्र से हाजिर स्टाक में शक्कर की कीमत में एक प्रतिशत के इजाफे से थोक में शक्कर की कीमत 3200 से 3275 रुपए प्रति क्विंटल हो गई। इधर आशंका जाहिर की जा रही है कि आगामी दिनों में शक्कर की दर में तीन प्रतिशत की बढ़Þोतरी हो सकती है। दूसरी तरफ केंद्र सरकार से पहले ही शक्कर के उत्पादन शुल्क पर वृद्धि करने की अपनी मंशा जाहिर कर चुकी है। साथ ही चीनी मिलों को नियंत्रण मुक्त की योजना को प्रस्तुत किया जा चुका है और इसे अमलीजामा पहने की कवायद जारी है। हालांकि इस योजना को अंजाम देने के पीछे उतार-चढ़ाव, आयात-निर्यात में व्याप्त असंतुलन, प्रर्याप्त भंडारण की कमी आदि को महत्वपूर्ण कारण माने जा सकते हैं। प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद (पीएमईएसी) के अध्यक्ष सी रंगराजन की अगुआई वाली समिति ने पिछले साल ही शक्कर से जुड़े हुए दो तरह के नियंत्रण, मसलन-निर्गम प्रणाली और लेवी शक्कर को अविलंब समाप्त करने की सिफारिश की थी। इतना ही नहीं, इस समिति ने शक्कर उधोग पर आरोपित अन्यान्य नियंत्रणों को भी क्रमश: समाप्त करने की बात कही थी। इस मामले पर अभी भी कार्रवाई लंबित है। यदि इस योजना को अमलीजामा पहनाया जाता है तो उसके सुख परिणाम समाने आएंगे इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती है। विनियंत्रण के मामले में देश के सर्वाधिक उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अलावा अन्य 10 राज्यों ने अपनी मंशा से केंद्र को अवगत करा दिया है। इससे विनियंत्रण का रास्ता साफ हो गया है। इस लिहाज से कहा जा सकता है अब गेंद केंद्र के पाले में है। विनियंत्रण को किसानों के पक्ष में माना जा रहा है। वे अपने गन्ने की बिक्री अधिक कीमत देने वाले मिलर्स को बेच सकेंगे। किंतु हरहाल में गन्ने की न्यूनतम मूल्य के निर्धारण में सरकार का दखल होगा। लेकिन सरकार की इस दखल को चीनी मिलर्स की लॉबी अपने पक्ष में प्रभावित करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। विनियंत्रण के लिए हाईलेबल पर लाबिंग की जा रही है। चीनी उद्योग एक प्रकार से विनियंत्रण के पक्ष में है। इससे गन्ने के उत्पादन में स्थिर आने की बात कही जा रही है। इस नीति में एक दूसरा व्यवहारिक पहलू को नजरअंदाज किया जा रहा है। देश के गन्ना किसान मानसून पर आश्रित हैं। गन्ने की उगाई में हुए नुकासन के बाद किसानों द्वारा की गई आत्महत्या के प्ररकणों को भूला नहीं जा सकता है। लिहाजा, विनियंत्रण की संकल्पना को पूर्णरूपेण सही नहीं ठहराया जा सकता है। शक्कर उद्योग पर सरकार का नियंत्रण दो तरीके से किया जाता है। सरकार शक्कर का कोटा तय करती है जिसे खुले बाजार में बेचा जाता है। मिलर्स से उत्पादन का 10 प्रतिशत शक्कर लेवी में ली जाती है। जिसे राशन दुकानों में उपलब्ध कराया जाता है। फिलहाल लेवी की 20 रुपए की शक्कर 13.50 रुपए में बेची जा रही है। किंतु इससे किसानों को राहत मिलने की गुंजाइश कम है। बताया जा रहा है 98 लाख टन शक्कर हमारे मौजूदा स्टाक में है। आगामी वित्तीय वर्ष में हमार उत्पादन 2.44 करोड़ टन के रहने की संभावना है। इससे हमारे कुल उत्पादन में हमको दो से ढाई लाख टन का नुकसान उठाना पड़ सकता है। उत्पादन आंकड़ों के लिहाज से इस परिस्थिति की गणना सामान्य उतार-चढ़ाव के रूप से देखा जाएगा। किंतु देश की आर्थिक समृद्धि और प्रतियोगी नजरिए से नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है। भारतीय चीनी मिल संघ (इस्मा) ने सरकार के दावा को खोखला बताया है। संघ के अनुसार उत्तर प्रदेश के साथ तमिलनाडुु में भी शक्कर उत्पादन में गिरावट की आशंका है। इधर महाराष्ट्र में भी किसानों को असंतोष उजागर हो रहा उत्पादन में गिरावट से चीन के मूल्य में अप्रत्यशित वृद्धि हो सकती है। जिस पर नियंत्रण आसान नहीं होगा। गन्ना किसान और मिलर्स के बीच में सरकार द्वारा निर्धारित 280 रुपए प्रति क्विंटल गन्ने की कीमत विवाद का प्रमुख मुद्दा है। चीनी विवाद मात्र से थोक बाजार में उठान के संकेत मिल चुके हैं। इस असर खुदरा बाजार पर भी पड़ेगा। आलू, प्याज, टमाटर की महंगाई की मार से पस्त जनता को कड़वी शक्कर को मुश्किल से पचाना पड़ेगा। -------------------------------------------------