शुक्रवार, दिसंबर 06, 2013
घसिया की घड़वा में इतिहास की धड़कन
कथा छत्तीसी : बस्तर की घड़वा कला
छत्तीसगढ़ में बस्तर की घडवा कला अथवा ढोकरा कला विश्व प्रसिद्ध है। मिट्टी, मोम और धातु की सम्मिलित है इस कलासाधना से जो सृजित होता है, उसके प्रति मन सहज ही आकर्षित होता है। इसमें कलाकृति धातु की बनती है लेकिन कलाकार उसे मोम में साधता है। बस्तर में मुख्य रूप से से घसिया जनजाति ने घड़वा कला को साधा और शिखर तक पहुँचाया। घसिया के रूप में इस जनजाति को पहचान रियासतकाल में उनके कार्य को ले कर हुई। जानकार कहते हैं कि ये जनजाति दिनो घोड़ों के लिए घास काटने का कार्य किया करती थी। महत्वपूर्ण बात यह है कि घड़वा कला को किसी काल विशेष से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता। मोहनजोदाडो में ईसा से तीन हजार साल पहले प्राप्त एक नृत्य करती लड़की की प्रतिमा लगभग उसी तकनीक पर आधारित है जिसपर बस्तर का घड़वा शिल्प आज कार्य कर रहा है।
प्रसिद्ध घड़वा शिल्पकलाकार जयदेव बघेल ने लिखा है कि बस्तर में इस कला के प्रारंभ के लिए जो मिथक कथा है उसका संबंध आदिमानव और उसकी जिज्ञासाओं से है। जब आदिमानव जंगल में विचरण करता था और शिकार पर आश्रित अपना जीवन निर्वहन किया करता था। इन्ही में से एक आदिमानव की यह कहानी है जो अपने माता-पिता से बिछड़ कर किसी गुफा में रह रहा था। एक दिन उसने पहाड़ पर आग लगी देखी। आग से निकलने वाले रंग तथा चिंगारिया उसे भिन्न प्रतीत हुईं और वह जिज्ञासा वश उस दावानल के निकट चला गया। अब तक आग स्थिर होने लगी थी। वहीं निकट ही उसे एक ठोस आकृति दिखाई पड़ी जो किसी धातु के पिघल कर प्रकृति प्रदत्त किसी सांचे में प्रवेश कर जम जाने के बाद सृजित हुई होगी। यह आकृति उसे अलग और आकर्षित करने वाली लगी। उसे उठा कर वह आदिमानव अपने घर ले आया। उसने इस प्रतिमा के लिए घर का एक हिस्सा साफ किया और इसे सजा कर रखा। इस प्रतिमा के लिए उसका आकर्षण इतना अधिक था कि हमेशा ही वह इसे साफ करता। धीरे धीरे इससे प्रतिमा में चमक आने लगी। कहते हैं इसी चमक से प्रभावित हो कर वह स्वयं को भी चमकाने लगा। मतलब रोज स्नानादि कर सज संवर कर रहने लगा। यह धातु और वह आदिमानव जैसे एक दूसरे के पूरक हो गए थे। समय के साथ दोनो में ही वैशिष्ठता की दमक उभरने लगी थी जिसे ग्रामीणों ने महसूस किया। जब कारण पूछा गया तो इस आदिमानव ने ग्रामीणों को वह जगह दिखाई जहाँ से उसे धातु का यह प्रकृति द्वारा गढा गया टुकड़ा प्राप्त हुआ था। इस स्थान पर सभी ने पाया कि वह दीमक का टीला था, जिसमें आग से पिघला द्रव धातु-द्रव्य प्रवेश कर गया था और उसने वही आकार ले लिया था। उसी स्थल पर मधुमक्खी का छत्ता भी पाया गया जिससे मोम, सांचा और धातु को कलात्मकता देने का आरंभिक ज्ञान उन ग्रामीणों को हुआ होगा। कहते है कि उस आदि कलाकार ने धातु के इस टुकड़े को अपनी मां माना। उसके प्रति श्रद्धा और प्रेम दिखाया। यह भी कहा जाता है कि उस आदिकलाकार ने सबसे पहले अपनी माँ की आकृति बनाने का यत्न किया। धीरे-धीरे वह अपने आसपास की वस्तुओं और पशु-पक्षियों को भी इस कला के माध्यम से मूर्त रूप देने लगा। लिहाजा, कालांतर में इस कला में बाघ, भालू, हिरण, कुत्ता, खरगोश, नाग कछुवा, मछली, पक्षी, गाय, बकरा, बंदर आदि की कृतियां मिलती हैं। इसी तरह विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियाँ घडवा कला के रूप में परिवर्तित होती रहीं। कर्मकोलातादो, मूलकोलातादो, भैरमदेव, भीमादेव, राजारावदेव, दंतेश्वरीदेवी, माता देवी, परदेसीन माता, हिंग्लाजिन देवी, कंकालिन माता आदि की मूर्तियाँ इस कला के विकास के विभिन्न चरणों में सृजित की गई। लाला जगदलपुरी भी अपनी पुस्तक बस्तर इतिहास एवं संस्कृति में उल्लेखित करते हैं कि बस्तर के घड़वा कला कर्मी पहले कुँडरी, कसाँडी, समई, चिमनी और पैंदिया तैयार करते थे। अब लोग देवी देवता, स्त्री पुरुष, हरिण, हाथी, अकुम आदि बनाते आ रहे हैं।
बस्तर की यह कला असाधारण है। इसकी गहराई में उतरने पर किसी न किसी रूप में इतिहास सामने आने लगता है। सिंधु घाटी की सभ्यता अगर धातु की ऐसी प्रतिमाओं की निमार्ती थी तो निश्चित ही इस सभ्यता के नष्ट होने के साथ जो पलायन हुए उनके साथ ही यह कला भी स्थानांतरित हुई होगी। बस्तर में नाग शासकों ने लगभग सात सौ वर्ष तक शासन किया है और इतिहास उनके आगमन का स्थल मध्य एशिया के पश्चात सिंधुघाटी का क्षेत्र ही मानता रहा है। लिहाजा, यह भी अनुमान लगाया जाता है कि इसी प्रक्रिया में यह कला बस्तर की जनजातियों के पास भी पहुंची हो। इन प्रतिमाओं का महापाषाणकालीन सभ्यता से भी संबंध जोड़ कर देखा गया है तो क्या यह माना जा सकता है कि सिंधु घाटी की सभ्यता के काल में ही समानांतर बसे मानव समूहो को भी धातु को गला कर आकृतियाँ देने की यह कला ज्ञात थी जिसमे गोदावरी के तट पस बसे आदिम समूह भी सम्मिलित थे? फिलहाल यह अभी शोध का विषय है।
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संपर्क- संजय स्वदेश
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