शुक्रवार, जनवरी 31, 2020
उसका, इसका,किसका मीडिया
बाबा साहब भीम राव अंबेडकर की प्रकाशित मूकनायक पत्र की 100वीं साल गिरह पर
भारतीय मीडिया की अंबेडकरी परंपरा की राह
संजय स्वदेश
बाबा साहब भीम राव अंबेडकर ने 31 जनवरी 1920 को मराठी पाक्षिक ‘मूकनायक’ का प्रकाशन प्रारंभ किया था. सौ साल पहले पत्रकारिता पर अंग्रेजी हुकूमत का दबाव था. दबाव से कई चीजे प्रभावित होती थी. सत्ता के खिलाफ बगावत के सूर शब्दों से भी फूटते थे. आजाद भारत में यह दबाव धीरे धीरे मार्केट ने ले लिया. मार्केट का प्रभाव अप्रत्यक्ष ज्यादा है. इस प्रभाव को समझने के बाद बदलाव की बारीकियां समझी जा सकती हैं. यह कोई नई बात नहीं है कि आज जर्नलिज्म में मार्केट के दबाव के कारण अनेक कंटेन्ट प्रभावित होने लगे हैं. यह चर्चा नई नहीं है कि इस मार्केट को नियंत्रित करने वाले कौन हैं, उनका मकसद क्या है, यह समझ कर ही हम पत्रकारिता के सरोकारों की बात कर सकते हैं. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जहां पब्लिक है, वहीं मीडिया है. और जहां मीडिया है, वही मार्केट है.
मतलब साफ है कि पब्लिक मूवमेंट ही मीडिया को ज्यादा प्रभावित करती है. इस मूवमेंट को सुक्ष्म और व्यापकता के स्तर पर समझने की जरूरत है. मीडिया से पब्लिक तभी तक जुडी है जब तक उसके प्रति उसमें भरोसा है. और भरोसा कैसे कायम रहे इसका ट्रैक समाचारों की विश्वसनीयता की निरंतरता है. लेकिन इसके साथ ही इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि मीडिया संस्थानों ने अपने प्रति पब्लिक की विश्वसनीयता का निजी हित में लाभ भी लिया है. इसका खामियाजा भी उसे ही भुगतना पड रहा है. वह खामियाजा है, उसकी साख पर सवाल. साख यानी विश्वसनीयता ही नहीं रहेगी तो मीडिया का मार्केट ही खत्म फिर तो उसे कोई मार्केट नहीं बचा पाएगा. इसलिए विश्वसनीयता की मदकता में भटकी हुए मीडिया संस्थान का जनसरोकारों को स्पर्श करना, उसके मुद्दे को शिद्दत से उठाना वैसे ही मजबूरी है जिस तरह से समुंद्री जहाज का पक्षी लौट कर जहाज पर ही लौटने को मजबूर होता है.
उदारीकरण के दौर के बाद से ही मीडिया का संक्रमण काल चालू हुआ. इंलेक्ट्रॉनिक मीडिया के दौर में कई प्रयोग हुए. तरह तरह की बातें हुई. तब यह कहा गया कि प्रिंट मीडिया का अस्तित्व की खत्म हो जाएगा. जैसे ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साख पर बट्टा लगना शुरू हुआ, पब्लिक ने सुबह छपे हुए अखबार के आखर में प्रमाणिकता देखना शुरू किया. यह सब क्या है. आप इस बात को कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं कि जब हर चीज बदल रही है तो पब्लिक की सोच और उसके परखने की क्षमता और विकसित नहीं हो रही होगी. निश्चत रूप से पब्लिक होशियार हो चुकी है. उसे बहुत देर तक भ्रम में नहीं डाला जा सकता है. वे दौर हवा हो चुके हैं जब सूचनाएं किसी एक के बाद होती थी. अब चंद मीनटों के अंतराल पर हर सूचना लाखों करोडों के पास है. पहली सूचना पाने वाला उसे कुछ क्षण चाहे जितना खेल ले. यदि वह सूचना पब्लिक के बीच तैर गई तब पब्लिक खुद ही उसकी गंभीरता, विश्वसनीयता और सच्चाई परख लेती है.
अब सवाल यह है कि फास्ट टैक्ट पर दौडती भागती सूचनाओं के दौर में मीडिया संस्थान किन सूचनाओं पर फोकस कर पब्लिक को प्रभावित करते हैं. यह बात पहले ही कही जा चुकी है कि मीडिया संस्थानों की भी यह मजबूरी है कि वे उसी सूचनाओं को एकजुट कर फोकस करने लगी हैं, जहां सबसे ज्यादा पब्लिक प्रभावित होती है. यह स्थिति अधिकांश मामलों में हैं. यह रेसियो 80 : 20 का हो सकता है. यदि यही रेसियो उलटा होकर 20 : 80 का हो जाए तो पब्लिक खुद ही परख लेगी. दरअसल यह 20 प्रतिशत मार्केट केंद्रीत न्यूज ही मीडिया संस्थानों की संजीवनी है. क्या बिना धन का अखबार निकल सकता है. क्या खालिस खबरों वाली मैगजीन या समाचारपत्र शत प्रतिशत लागत मूल्य पर पाठकों के हाथ तक पहुंच सकते हैं. यहां तो पाठक बाल्टी, टब, चायपत्ति तक के आफर पर अखबर बदल लेते हैं. लेकिन यह भी सच है कि ऐसे पाठकों की संख्या का औसत भी उसी अनुपात में हैं जिस अनुपात में मार्केट की खबरें हैं, जो संजीवनी का काम करती हैं. सैद्धांतिक रूप से भले आप लाख गलत कहें लेकिन इस बात को कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं कि जनसरोकारों की खबरों के लिए कैरियर का काम मार्केट आधारित वहीं 20 प्रतिशत खबरें ही करती हैं.
पत्रकारिता के इस पूरे फलक पर ही हम अंबेडकरवादी पत्रकारिता के सरोकारेां को समझना चाहिए. देश में दलित विमर्श की सैकडों समाचार पत्र व मैगजीन प्रकाशित हुए, कुछ साल चले और बंद हुए. यह बंद होने के कारण आप उनके संचालकों व प्रकाशकों से पूछिए. दर्द छलक आएगा. उन्होंने मुद्दे तो मजबूती से उठाएं, लेकिन मार्केट में उन्हें खींच कर निरंतर गतिशील बनाए रखने के लिए कोई हुक नहीं मिला. अब मार्केट के बीच से गुजरने का रास्ता ही यही है तो आप कर क्या सकते हैं. इसलिए हम चाहे सरोकारों की पत्रकारिता की बात करें या बाबा साहब अंबेडर के विचारधारा आधारित पत्रकारिता की, सर्वाइवल तभी होगा, जब हम फीट रहेंगे और यह फीटनेश की गोलियां चाहे मार्केट से लें या वैध जी के घर से, मूल्य तो चूकाने ही पडेंगे. मर्ज की दवा कडवी भी होती है. बाबा साहब का ‘मूकनायक’ अप्रैल 1923 में बंद हो गया. उसके चार साल बाद 3 अप्रैल 1927 को आंबेडकर ने दूसरा मराठी पाक्षिक ‘बहिष्कृत भारत’ निकाला. वह 1929 तक निकलता रहा. आजादी से पूर्व और बाद प्रकाशन शुरू करने वाले अनेक समाचार पत्र बंद हो गए. कई आज भी चल रहे हैं, चल तभी रहें है जब उन्होंने मार्केट से मदद लेकर अपनी बजट को मेंटेन रखा. हमें यह नहीं भुलना चाहिए कि जंग मरकर नहीं जिंदा रह कर ही जीती जाती है. पत्रकारिता में दलित बहुजन या अंबेडकरवादी विचारधारा को आगे ले जाने की जंग मीडिया मार्केट में जिंदा रह कर ही जीती जा सकती है.
बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का कहना था कि वंचितों को जागरूक बनाने और उन्हें संगठित करने के लिए उनका अपना स्वयं का मीडिया अति आवश्यक है. इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने 31 जनवरी 1920 को मराठी पाक्षिक ‘मूकनायक’ का प्रकाशन प्रारंभ किया था. ‘मूकनायक’ यानी मूक लोगों का नायक. आज हालात बदल चुके हैं. बाबा साहब के निर्मित संविधान ने मूक को स्वर दे दिया है. संविधान का हक और मार्केट दबाव से बदले समाजिक हालात ने जातियों के मिनार में सुरंग कर दिया है.
बाबा साहब यह मानते थे कि अछूतों के साथ होनेवाले अन्याय के खिलाफ दलित पत्रकारिता ही संघर्ष कर सकती है. स्वयं आंबेडकर की पत्रकारिता कैसे इस सवाल पर मुखर थी, ‘मूकनायक’ के 14 अगस्त 1920 के अंक की संपादकीय में वे लिखते हैं, “कुत्ते-बिल्ली जो अछूतों का भी जूठा खाते हैं, वे बच्चों का मल भी खाते हैं. उसके बाद वरिष्ठों-स्पृश्यों के घरों में जाते हैं तो उन्हें छूत नहीं लगती. वे उनके बदन से लिपटते-चिपटते हैं. उनकी थाली तक में मुंह डालते हैं तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होती. लेकिन यदि अछूत उनके घर काम से भी जाता है तो वह पहले से बाहर दीवार से सटकर खड़ा हो जाता है. घर का मालिक दूर से देखते ही कहता है-अरे-अरे दूर हो, यहां बच्चे की टट्टी डालने का खपड़ा रखा है, तू उसे छूएगा ? तब के समाजिक यथार्थ पर बाबा साहब यह दर्दनाक टिप्पणी आज के बाजार में कितना प्रासंगिक है. समाज में काफी कुछ बदलाव हुआ है. अब यदि ऐसा या इससे कुछ कम भी होता है तो मेन स्ट्रीम मीडिया में खबरें जरूर आती हैं. ये खबरें बडे जनमानस को झकझोरने वाली भी होती है, इसलिए इसका महत्व मीडिया समझ कर उसे प्रसारित भी करता है.
बाबा साहब अंबेडकर के विचारों का फलक बहुत बडा है. हां यह सही है कि उन्होंने वंचित व अछूत वर्ग के लिए दमदारी से हिमाकत की, लेकिन उनका मानवतावादी दष्टिकोण हर वर्ग को छूता है. यह केवल शब्दों का अंतर है. हम जनसरोकारों की पत्रकारिता की बात तो करते हैं, लेकिन जैसे ही उस पर अंबेडरवादी विचारधारा का नाम जोड दिया जाता है, वह जाति विशेष की हो जाती है. दरअसल जनसरोकारों में ही दलित बहुजन, वंचित अछूत आदि सब हैं. आंबेडकर की पत्रकारिता हमें यही सिखाती है कि जाति, वर्ण, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र, लिंग, वर्ग आदि शोषणकारी प्रवृत्तियों के प्रति समाज को आगाह कर उसे इन सारे पूर्वाग्रहों और मनोग्रंथियों से मुक्त करने की कोशिश ईमानदारी से की जानी चाहिए. दरअसल यही मीडिया का मूल मंत्र हैं. एक ही विचारधारा विशेष को लेकर चलने वाले अनेक अखबार किस अंधेरे में गुम हो चुके हैं.
शुक्रवार, अगस्त 04, 2017
सेंधमारी की सियासत
संजय स्वदेश
लोकतंत्र की आत्मा पक्ष-विपक्ष, सहमति-असहमति से सिंचित होती है. केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार ने जिस तरह से कुछ खास मौके पर विपक्ष के गैर कानूनी इरादों या यूं कहें कि कथित गैर कानूनी कृत्यों पर सरकारी तंत्र के माध्यम से प्रहार कर रही है, उससे यह दुविधा हो गई है कि लोकतंत्र की आत्मा मजबूत हो रही है या कुचली जा रही है. ताजा मामला कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार है और इसी प्रदेश के ऊर्जा मंत्री डी के शिवकुमार के दर्जनों ठिकानों पर आयकर विभाग का है. सरकार की ऐसी एजेंसियों की गतिविधियों पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए तथा ऐसी कार्रवाइयां व्यापक पैमाने पर की जानी चाहिए लेकिन कर्नाटक के जिस रिसॉर्ट को निशाना बनाकर छापा मारा गया है, वहां गुजरात के विधायकों को 8 अगस्त के गुजरात राज्यसभा चुनाव के मद्दे नजर सुरक्षित ठहराया गया था. राज्यसभा के लिए चुनाव घोषित होते ही कांग्रेस विधायकों ने इस्तीफा देना शुरू कर दिये थे और कुछ भाजपा में जा मिले थे. इस गतिविधि को कांग्रेस ने अपने प्रभावी उम्मीदवार अहमद पटेल को राज्यसभा में जाने से रोकने का सत्तारूढ़ पार्टी का इरादा बताया. वहीं भाजपा ने इसे भाजपा ने सामान्य गतिविधि कह कर पल्ला झाड़ने की कोशिश की . गुजरात में पूर्व मुख्यमंत्री शंकर सिंह वाघेला के विद्रोह के बाद प्रदेश की सियासत में हलचल है. यह हलचल आगामी दिनों में भारी उथल-पुथल में बदल जाए तो आश्चर्य नहीं होगा. लेकिन सवाल यह है कि केंद्रीय सत्ता यह सब कुछ विशेष मौके पर क्यों कर रही है? अबकी बार गुजरात से भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह राजसभा में प्रवेश पाना चाहते हैं. छापे की कार्रवाई तो यही साबित कर रहे हैं कि केंद्रीय सत्ता अमित शाह और स्मृति ईरानी को राज्यसभा में आने की राह में किसी तरह का जोखिम नहीं लेना चाहती है. लिहाजा, विपक्षी का मनोबल तोड़ना और उसमें अस्थिरता पैदा करने के लिए यह हथकंडा गैर लोकतांत्रिक लगने लगा है. संसद में भारी हंगामा हुआ. सरकार ने कहा कि इसे राजनीति से न जोड़ा जाए क्योंकि यह कानूनी प्रक्रिया के तहत समान्य कार्रवाई है. लेकिन सरकार करे पास इस सवाल का कोई जवाब या स्पष्टीकरण नहीं है कि छापे से पहले की सारी गतिविधियों के मद्देनजर यह समय कार्रवाई के लिए उचित कैसे ठहराया जा सकता है? बिहार में पूर्व मुख्यमंत्री व राजद प्रमुख लालू प्रसाद के परिवार के सदस्यों पर लक्षित छापों का परिणाम क्या जदयू-भाजपा गठबंधन की सरकार के रूप में सामने नहीं आया है? उत्तराखंड, अरुणाचल में भाजपा द्वारा विधायकों को अपने पाले में करने का खुला खेल सबने देखा. मणिपुर और गोवा में लोकतांत्रिक नियमों व कोर्ट के आदेश को दरकिनार कर सरकारांे के गठन में अनावश्यक चुस्ती-फुर्ती क्यों हुई. बिहार में भी नीतीश कुमार के पुर्न सीएम पद की शपथ पांच बजे शाम को तय कर सुबह दस बजे शपथ दिला दिया गया. एक के बाद एक राजनीतिक संकेत यह साबित करते हैं कि केंदीय सत्ता पूरी तरह विपक्ष की सियासत में सेंधमारी कर रही है. यदि ऐसा ही चलता रहा तो लोकतंत्र की सफलता के लिए मजबूत विपक्ष की बात महज कागजी होगी.
शुक्रवार, जुलाई 21, 2017
छत्तीसगढ़ की लोकसंस्कृति में हरेली
छत्तीसगढ़ की लोकसंस्कृति में हरेली को पहला पर्व माना जाता है. ...यह सावन के पहले पखवाडे़ से शुरू होता है. गांवों में कई जगह युवा और बच्चे गेड़ी में दिखते हैं. गेड़ी यानी पांव में डांडा बांध कर चलना, नृत्य करना और लोकगीत को गाना. रायपुर के एक मुख्य सड़क पर उम्र की शतक के करीब वाले एक दादा गेड़ी में नाचते और गाते दिखे तो सहज की ठिठक गया. दो कदम तालमेल की कोशिश नाकाम रही. लोकगीत गाते और नृत्य में जिस उत्साह से चल रहे थे, जैसे अभी-अभी युवा हुए हो. क्या पता कल जब यह कला कितनी रहे या ना रहे, इसे यादगार बनाने के लिए उनके साथ के एक पल को कैमरे में कैद करवा लिया....
बुधवार, जुलाई 19, 2017
अजीत कुमार की भूली-बिसरी यादें
संजय कुमार साह
आज से ठीक बीस बरस पहले जब कॉलेज में एक सीनियर ने पूछा कि अजीत कुमार को जानते हो? हमने कहा-नहीं. तो प्रतिप्रश्न था- फिर क्या पढ़ कर आए हो, बिहार से हो, आठवीं के हिंदी की किताब में उनका यात्रा वृतांत -सफर से वापसी नहीं पढ़े थे क्या?... उन्हें क्या बताते, पास होने लायक ही पढ़े थे. वहीं पता चला कि जिस लेखक कवि की रचना बिहार के आठवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में थी, वह उसी किरोड़ीमल कॉलेज में पढ़ाते हैं, जहां मैंने एडिशन लिया है.. मन गदगद हो गया. लेकिन दो-चार दिन बाद जब टाइम टेबल आया तो मालूम चला कि उन्हें प्रथम वर्ष को पढ़ाने के लिए कक्षाएं नहीं दी गई है. मन मायूस हुआ. सर उसी साल रिटायर भी हो गए. लेकिन प्रथम वर्ष के दौरान स्टॉफरूम में अजीत सर से मेल मुलाकात होती रही. दो-तीन बार उनके घर जाना भी हुआ. मीठी और मुलायम बातों से हमेशा मार्गदर्शन करते रहते. फिर दिल्ली में कॅरियर बनाने के संघर्ष की आपाधापी में अजीत सर से मिलने का मौका नहीं मिला. कई बार मन में ख्याल आया अबकी दिल्ली जाने पर एक बार मुलाकात की जाए. लेकिन दूर से दो दिन के लिए दिल्ली पहंुच कर यह संभव नहीं हो पता...आज सोशल मीडिया से जब उनके निधन का समाचार प्राप्त हुआ तो मन एकाएक स्थित हो गया.
सहज ही उनकी एक पुस्तक ऊसर का ध्यान आया. अजीत सर से ही इसका अर्थ पूछा था-उन्होंने बड़ी ही सहजता से समझाया कि ऊसर वह जमीन होती है, जिस पर कुछ न उगे...अजीत सर हाइकु के भी बेहतरीन रचनाकार थे. हाइकु मूल रूप से जापानी कविता की विधा है. इस पर उनका एक पूरा संग्रह कॉलेज के जमाने में पढ़ा था. उसमें से कोई हाइकु पूरी याद तो नहीं, पर एक हाइकु की अंतिम लाइन आज भी हर संघर्ष में निराशा के अंधेरे से उबरने और आत्मविश्वास की दृढ़ता बनाए रखने की प्रेरणा देती है. वह पंक्ति थी- एक मिनट में एक इंच होती है घोंघे की चाल!
अजीत सर की इन्हीं कुछ भूली-बिसरी स्मृतियों के साथ उन्हें नमन करते हुए विनम्र श्रद्धांजलि....
शुक्रवार, मई 05, 2017
जाति आरक्षण के दो छोर
संजय स्वदेश
जैसे-जैसे सरकारी नौकरियों के अवसर घटते और प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है, आरक्षण का विरोध तेज हो रहा है। जब सोशल मीडिया नहीं था तब सरकार बीच-बीच में आरक्षण के शिगुफे छोड़ती थी, ऐसे में आरक्षण विरोधी चंद घंटे के लिए या कहे तो एक दिवसीय आंदोलन देश के किसी इलाके में दिख जाते थे। मेरिट की दुहाई दी जाती थी। अब सोशल मीडिया आ गया है, तो यहां कई गु्रप आरक्षण को कोसने में लगे हैं। परंपरागत सामाजिक परिवेश के किसी ताने बाने के किसी अंश को लेकर आरक्षण का समर्थन में दो-चार शब्दों की संवेदना नहीं दिखती है। अब सीधे सीधे यह कहा जाने लगा है कि आईएएस का बेटे को आरक्षण क्यों या फिर किसी बड़े दलित या आरक्षित श्रेणी का मंत्री का नाम लेकर कि फलां के बेटे को आरक्षण क्यों मिलनी चाहिए। आज आरक्षण व्यवस्था राष्टÑ के विकास में बाधक है। तरह-तरह के तर्क आदि लेकर आरक्षण को खत्म करने के लिए एक शोर पैदा किया जा रहा है, जो अभी केवल सोशल मीडिया में ही है। कभी-कभी आरक्षण व्यवस्था पर कुठराघात करने के लिए यह भी कहा जाता है कि क्रिकेट में भी आरक्षण दे दो, जो आरक्षित श्रेणी के खिलाड़ी तो उनके लिए ओवर की संख्या घटा दो, चौके को ही छक्का माना लिया जाए। अजब तर्क है या मजाक है। आरक्षण की बुनियाद को लोग न समझते हैं और न ही समझने की कोशिश करते हैं। कभी कहते हैं कि आरक्षण दस वर्ष के लिए था, यह बढ़ते गया, अब हटना चाहिए। लेकिन कभी यह नहीं पढ़ते कि आरक्षण व्यवस्था दस वर्ष तक के लिए इसलिए की गई थी क्योंकि इतने अवधि में आरक्षित जातियों के लोग की हिस्सेदारी सरकार के विभिन्न सेवाओं में हो जाएगी। इन दस वर्षों में यह समाज शैक्षणिक रूप से तैयार ही नहीं था। नो एबल, नो सुटेबल का गेम चला। बाद में बैकलॉग भरा भी नहीं गया। आज जब आरक्षित जातियों के अधिकांश लोग शिक्षा के प्रति सचेत होकर आगे आने लगे हैं तो यह बार-बार कहा जाने लगा है कि इससे राष्टÑ का विकास कमजोर होगा। जबकि हकीकत कुछ और है। आरक्षण अब एक ऐसी झगड़ालू बीवी की तरह हो गई है जिससे तलाक लेने में ही भलाई है। लेकिन जब कोर्ट से तलाक होता है तो निश्चित रूप से पत्नी को कंपनसेशन देना होता है। आरक्षण के अनुपात में यदि सरकारी सेवाओं में आरक्षित जातियों के पद भर दिए जाए तो संभव मामला बन जाए। लेकिन अभी हालात यह है कि केंद्र सरकार के 84 सचिवों में एक भी अनुसूचित जाति या जनजाति से नहीं है। सचिव स्तर का पद ऐसा है तो देश के योजनाओं के क्रियान्वयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यदि घोटाले हो रहे हैं या कोई योजना असफल हो रही है तो यह बात भी समझनी चाहिए कि यह कारनामे कथित मेरिट वालों के जमात की ही है।
कुछ उदाहरण देखिए। डीआरडीओ में आरक्षित वर्ग के वैज्ञानिकों की हिस्सेदारी नहीं है, फिर भी यह संस्था अपने गठन के बाद से रक्षा उपकरणों की जरूरत पूरी करने में असफल रही। एक इनसास रायफल भी बनाया था यह एक विदेशी रायफल एके-74 से महंगी पड़ी और कामयाब नहीं रही। कहने का मतलब यह है कि गैर आरक्षित जाति के लोगों में ही जब प्रतिभा थी तब वे इस क्षेत्र में असफल क्यों नहीं हो गए। देश में ऐसा कोई भी केस नहीं आया जिसमें कोई आरक्षण की सुविधा लेकर डॉक्टर बना हो और आॅपरेशन के दौरान मरीज के पेट में तौलिया का रूई छोड़ दिया हो। कहते हैं कि अफसर के बेटे को अफसर बनने के लिए आरक्षण क्यों चाहिए। एक सर्वे के अनुसार देश को 98 प्रतिशत अफसर ऐसे हैं, जिनके परिवार ने पहली बार आरक्षण का लाभ लिया। गैर आरक्षित श्रेणी के लोग निजी स्तर पर यह स्वयं की जांच पर परख सकते हैं। अपने राज्य के आरक्षण श्रेणी के जिलाधिकारियों के बारे में पता कर सकते हैं कि क्या सच में उनके माता-पिता क्या आरक्षण का लाभ लेकर किसी बड़े पद पर पहुंचे थे। सच सामने आ जाएगा। आरक्षण का बिगुल बजाने वाली भीड़ में अधिकतर लोग वे हैं जो स्वयं कड़ी स्पर्धा से हार रहे हैं। निराशा और कुंठा के लिए आरक्षण पर ठीकरा फोड़ रहे हैं। कहते हैं कि अब कहां है जाति-पाति, ट्रेन में सफर करने वाले, बस में आने जाने वाले किसी की जाति देख कर नहीं बैठते हैं। tऐसे की कुछ गिने चुने तर्क देकर जाति व्यवस्था के टूटने का दावा करते हैं, लेकिन सच तो आए दिन अखबार के सुर्खियों में होता है कि कैसे किसी खास जाति के लोगों ने दलित जाति के दुल्हे के घोड़ी चढ़ने पर पत्थर बरसाये। एक दलित लड़के का गैर दलित कन्या से प्रेम बर्दाश्त नहीं होता। ऐसा होने पर बिहार में घर फूंके गए हैं तो यूपी के शाहजहांपुर में दलित समाज के औरतों को हाईवे पर नग्न परेड कराकर बेंत से मारा गया है। यह मंथन का विषय है कि अब जाति कहां बसती है। जैसे-जैसे समाज विकसित होता गया, देश में जाति भी गांव के चौक चौपालों और मंदिरों से निकल कर प्रतिष्ठित संस्थानों में विराजमान होने लगी है। इस सबके बाद भी देश में आज भी जाति आधारित आरक्षण के दो छोर दिखते हैं। एक छोर पर मैला ढोने वाले और मेहतरों की जमात है तो दूसरी छोर पर मंदिर में पूजा करने वाले और गर्भगृह में जाने वाले की जाति है। यदि सच में जाति का घालमेल होकर इसका अंत हो गया होता तो इन दोनों छोरों पर काम करने वाले आज 21वीं सदी में अपने पेशे की अदला बदली कर चुके होते। मैला ढोने वाले या स्वीपरों की जमात में कोई गैर आरक्षित जाति का कर्मचारी होता और मंदिर का पूजारी आरक्षित श्रेणी के जमात से होता।
मंगलवार, मई 02, 2017
मजबूरी का लाभ ले रव्यापारी वर्ग अपनी जेबे भर रहा है और असली लोकगीत का मार रहा है
लक्ष्मण मुस्तुरिया से संजय स्वेदश की एक बातचीत-
अभिभाजित मध्यप्रदेश में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा रही, लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब धीरे-धीरे इस गायन परंपरा को स्वर मंद पड़े. इस परंपरा को फिर से जीवंत करने का श्रेय लक्ष्मण मस्तुरिया के नाम से जाता है. छत्तीसगढ़ के समाज में इनके गीत ऐसे रचे बसे हैं, इसकी कल्पा इस बात से की जा सकती है कि कई बार लोग मस्तुरिया के गीत को कहते हैं कि उनके पूर्वज गाया करते थे. जबकि लक्ष्मण ने तो अभी जीवन के साठ दशक ही पूरे गिए हैं. दो दशक पहले लिखे गीतों में छत्तीसढ़ी बोली के ऐसे स्वर और तत्व हैं जो इस का एहसास ही नहीं कराने देते हैं कि यह महज बीस या तीस बरस पुराने गीत हैं. ऐसा लगता है जैसे यह सदियों से चले आ रहे हों. पुस्तुत है लक्ष्मण मुस्तुरिया से संजय स्वेदश की एक बातचीत--
-आपसे पहले लोकगीत की परंपरा कहां तक कितनी समृद्ध थी
-हमसे पहले रामचंद देशमुख होते थे. उन्होंने छत्तीसगढ़ी लोकगीतों पर गहन अध्ययन और कार्य किया. वे इस बात को लेकर बेहद दुखी थे कि लोकगीत खत् म हो गए है. देवार समाज के दो-चार लोग इस कला को बड़ी ही सुस्ती से किसी न किसी तरह से आगे बढ़ा रहे थे. धीरे-धीरे स्थिति ऐसी बनी कि वे गजल गीत गाने लगे. बाद में हालात ऐसे हुए कि वे दो चार दस फिल्मों गीतों को बिगाड़ कर गीत गाने लगे और वही जनमानस में लोकगीत के रूप में प्रचलित होने लगी. राचंद्र देशमुख ने दुखी होकर रचनात्मक कवियों को जोड़ने का काम किया. उनकी रचनाएं आमंत्रित की. वे काम आ गए. यह सिलसिला चला तो छत्तीसगढ़ी लोकगीतों को संजीवनी मिली.
-अपने अपनी सबसे लोकप्रिय गीत मोर संग चलो... कब गया था
-सन् 1972 में में यह गीत लिखा थो, मोर संग चलो... इसी समय राजिम में एक काव्य मंच पर प्रस्तुति का मौका मिला. हमें तो यह अनुमान ही नहीं था कि संवेदनशील होकर रचे गए शब्द छत्तीसगढ़ के जनमानस में एक आह्वान गीत बन कर बस जाएगा. वह प्रस्तुति सफल रही. यह गीत क्रांति गीत बन कर जनमानस में बस गई. हालांकि इससे पहले मुझे सबसे पहला मंच जांजगीर में मिला. यहां मंच से मोर धरती के भूइया...गीत की प्रस्तुति दी. अपने इस पहले गीत से ही मुझे लोगों ने अपना लिया. हौसला बढ़ा और लोक गीत लिखने और गाने का सिलसिला चल पड़ा जो अब तक जारी है.
-आपकी गीतों में ऐसी क्या खास बातें होती हैं और आज के डिजिटल जमाने में लोकगीतों पर क्या असर पड़ा है
-मेरे गीत छत्तीसगढ़ के माटी के गीत हैं. इसके एक-एक शब्द यहां के हैं. इतना ही नहीं हर शब्द अपने आप में एक सार्थक अर्थ का बोध कराते हैं. यही कारण है कि यह जनमानस को सहज ही प्रभावित कर लेते हैं. डिजिटल तकनीक का असर भी लोकगीतों पर पड़ा है. हमारे भी गीत यूट्यूब पर हैं. हालांकि आज के जमाने में कई लोग कुछ भी अंटझंट लिख रहे हैं. लेकिन यह दिल को नहीं छू रहे हैं. कुछ क्षण मनोरंजन जरूर कर देते हैं. लेकिन समाज इसे लंबे समय तक स्वीकार नहीं कर पाता है. आज हालात ऐसे हो गए हैं कि बाजार में कमाने के लिए कुछ व्यापारी वर्ग ने लोकगीतों का उपयोग किया है. उन्होंने हथकंडा अपना कर या कहें कि भ्रम फैला कर द्विअर्थी शब्दों वाले अश्लील गीतों को प्रोत्साहि किया है. हालात तो यह है कि अब यह लोक नए गीतकारों को गीत का प्लॉट देते हैं. लेकिन इससे गीतकारों को नुकसान होता है.कोई कलाकार नहीं चाहता है कि वह वह गंदे गीत लिखे और मां-बहनें सुने. लेकिन मजबूरी का लाभ यह व्यापारी वर्ग ले रहा है, अपनी जेबे भर रहा है और असली लोकगीत का मार रहा है.
-आप शिक्षक कैसे बने और शिक्षक का कॅरियर बेहतर रहा या लोक गीत के रचनाकार का?
-मैं शिक्षक बनने से पहले ही लोक गीतकार के रूप में लोकप्रिय हो गया था.एक बार दिल्ली से रायगढ़ जाते वक्त ट्रेन में सुरेंद्र बहादुर नाम के शख्स से मुलाकात हो गई. वे मेरे गीतों के कारण मेरे नाम से परिचत थे. बातों ही बातेां में उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं ही लक्ष्मण मस्तुरिया हूं. वे बेहद खुश हुए. वे रायपुर उतरने वाले थे, लेकिन वे साथ-साथ रायगढ़ तक गए. वहां मैं एक कार्यक्रम में हिस्सा लिया, प्रस्तुति दी, वे भी साथ रहे. वहां से साथ ही रायपुर लौटे. रायपुर में उन्होंने मेरी बात राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल से करवाई. स्कूल में इंटरव्यू हुआ और वहां हिंदी पढ़ाने का मौका मिला. पहले छह माह प्रोवेशन रहा. बाद में यह नौकरी पक्की हो गई. राजकुमार कॉलेज में तब कुछ ही बच्चे मुश्किल से चार छह बच्चे ही हिंदी विषय का चयन करते थे, इसलिए यह कक्षा सुनी रहती थी, लेकिन जब मैंने पढ़ाना शुरू किया तो बच्चों की रुचि हिंदी के प्रति बढ़ी. एक से दो साल में ही मेरी कक्षा में 20 से 25 बच्चे हो गए. जहां पहले वे समान्य अंक से पास होते थे, वही बच्चे हिंदी में नब्बे फीसदी अंक तक प्राप्त करने लगे.
-रिटायरमेंट के बाद आपने एक पत्रिका शुरू की, यह प्रयोग कितना सफल रहा? इसका कैसा अनुभव रहा?
-शिक्षण की सेवा से रिटायरमेंट के बाद सक्रिय रहना था. लोग मुझे लोक गीतों के कारण जानते पहचानते थे. इसलिए मैंरे लोकसूर नाम से एक मासिक पत्रिका शुरू किया. इसमें मूल रूप से छत्तीसगढ़ भाषा में विभिन्न विषयों को समायोजित करने की कोशिश की गई. लेकिन पत्रकारिता के इस क्षेत्र का अनुभव बुरा रहा. जहां-जहां गया, लोगों ने सराहना की, लेकिन पत्रिका के लिए सहयोग देने में पीछे हट गए. दो साल तक इसे चलाया, आगे इसकी निरंतरता बनाए रखना मुश्किल लगा, तो बंद कर दिया.
-आपके गीतों में प्रतिरोध के स्वर मिलते हैं. सरकार की ओर से आपको क्या सहयोग मिला
-मेरे गाने का 40 गामोफोन रिकार्ड हैँ. लेकिन सरकार ने कभी कोई कार्यक्रम नहीं दिया. हां, सरकार से जुड़े लोगों ने हमसे जरूर गवा लिए. लोकगीतों में हर बात सहज ही आती है. तभी वह असल में लोकगीत है. अब सरकार को जब भी लाभ लेना रहता है, वह नए जमाने के गीतकारों से लोकगीत गवा लेती है. उसमें अपना ही गुणगान करवाती है. लेकिन इसका असर लोकगीतों पर नाकारात्मक पड़ रहा है. नवोदित कलाकार अपने गीतों में हृदय की बात नहीं करते हैं. उनके गीत सहज न हो कर बनावटी होने लगे हैं. यह लोकगीत की सेहत के लिए ठीक नहीं है.
-कोई अब आपके बाद नया लक्ष्मण मुस्तुरिया बनना चाहे तो उसे क्या करना चाहिए, उसके लिए क्या सूत्र वाक्त देंगे?
-लक्ष्मण मस्तुरिया बनने के लिए लक्ष्मण मस्तुरिया को जनना और पढ़ना जरूरी है. तभी वह इस छत्तीसगढ़ी लोकगीत की पंरपरा को आगे ले जा सकता है. मैंने भी मेहनत की. अपने पूर्ववर्ती कलाकार सुंदर लाल शर्मा को पढ़ा और जाना. उन्होंने सुरदास की रचना को भी स्वर दिया था. इसके साथी संगत का भी काफी गहरा असर पड़ता है. यह मेरा सौभाग्य रहा है कि मुझे हमेशा अच्छी संगत मिली और हौसला बढ़ता रहा, लोकगीत गाता रहा. नई पीढ़ी के रचनाकारों के पास पुराने रचनाकारों के संदेश पढ़ने सुनने समझने का अब समय ही नहीं बचा है. नेट मोबाइल ने वह समय ले लिया है. चुटकुले सुनते हं, चुटकुले भेजेते हैं, सोचने समझने लायक पीढ़ी दिखती नहीं.हालांकि जब मुश्किले बढ़ती है, तब नि दान भी आवश्य होता है. नए लोक भले लोकगीतों के प्रति अपनी रुचि नहीं दिखाते हैं, लेकिन वे हमसे ज्यादा चैतन्य हैं. जिनमें रुचि है वे स्वयं रास्ते तलाश रहे हैं. संघर्ष कर रहे हैं आगे बढ़ रहे हैं.
सोमवार, अक्तूबर 24, 2016
नई चुनौतियों के समक्ष यूएनओ
24 अक्टूबर : संयुक्त राष्ट संघ की 71 वीं वर्षगांठ पर विशेष
संजय स्वदेश
संपूर्ण विश्व का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था संयुक्त राष्टï्र संघ २४ अक्टूबर को अपनी 71वीं वर्षगांठ मना रहा है। अपने सदस्य देशों के कारण दुनिया के सबसे शक्तिशाली माने जाने वाले इस संस्था पर पिछले कई सालों से अविश्वास की छाया पड़ती रही है। कारण यह है अधिनायकवादी मानसिकता से ओतप्रोत इसके सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य देशों ने इस संस्था को अपनी कठपुतनी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। यदि इस संस्था को एक व्यक्ति के रूप में ही मान लिया जाए तो इकसठ साल की उम्र बहुत होती है। अमूमन साठ साल की उम्र पूरी दुनिया में रिटायरमेंट की मानी जाती है। ऐसे में जिस तरह से शांति स्थापना के अपने असली मकसद से यह संस्था दिनों दिन भटकती जा रही है। उस लिहाज से एक बड़ा तबका अब यह मानने लगा है कि इसके उद्देश्य, कार्यक्षेत्र और निहित शक्तियों में अब वह बात नहीं। इसी के चलते इसके संगठनात्मक ढाचे में पिछले कई बर्षों से बदलाव की जरूरत महसूस किया जा रहा है।
देखा जाए तो राष्टï्रसंघ की भूमिका युद्ध की विभीषिका को रोकने में तो नहीं मगर उसके बाद शुरू होती है। युद्ध नीति में मामले में तो यूएनओ वे देश ही सबसे पहले धोखा देते रहें हैं जो इसके आधारभूमि सदस्य हैं और जिन पर इसकी परंपरा का आगे बढ़ाने का विशेष दारोमदार है। इराक पर अमेरिकी हमले के समय तो यह संस्था पूरी तरह से निष्क्रिय साबित हुई। संयुक्त राष्टï्र इराक के तर्कों से अमेरिकी खुफिया रिपोटों की तुलना में कहीं ज्यादा सहमत दिखा। इसके बाद भी अमेरिका ने अपनी मनमानी के सामने इसे बौना साबित कर दिया। नतीजतन संयुक्त राष्ट्र के तमाम शांति प्रयास विफल हुए और युद्ध की रणभेरी के साथ ही इतिहास राष्टï्र संघ के औचित्य और इसके निष्प्रभावी कारवाई का दो अध्याय जुड़ गए। तब दुनिया भर में यह बहत तेज हो गई थी कि क्या अब इस संस्था की जरूरत है। यदि जरूरत है तो इसमें बदलाव की कितनी जरूरत है? इसे लेकर एक लंबी बहस आज भी जार हैं।
संयुक्त राष्ट्र के प्रभाव में आने के लिए सबसे पहली जरूरत तो यह है कि इसे इसके कथित उन पंज प्यारों से आजाद कराया जाए, जो इसे कठपुतनी बनाये हुए हैं। ये पंज प्यारे हैं- अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, रुस और चीन। स्थायी सदस्यों की संख्या बिस्तार की चर्चा होते ही इन देशों ने किसी न किसी रूप में अपनी असहमती जाहिर कर दी। बीते वर्ष में ही इसके विस्तार को लेकर यूएनओ में काफी बहस हुआ था। विस्तार की पूरजोर वकालत तत्कालीन महासचिव कोफी अन्नान ने भी की थी। मगर इसके विस्तार का उपाय संयुक्त राष्टï्र में ही नहीं है। जिससे यह मामला आज भी उलझा हुआ है। अगर इसके बिस्तार का रास्ता है भी तो जटिल ही नहीं नामुमकिन भी है। क्योंकि इसके विघटन का अथवा विस्तार को कोई भी अधिकार स्थायी सदस्यों के पास ही सुरक्षित है। जो किसी भी हालत में अपनी शक्ति का बंटवारा नहीं चाहते हैं। यह उनकी प्रतिष्ठïा का प्रतीक सा बन चुका है। संविधान के मुताबिक यूएनओ में किसी भी प्रकार का बदलाव या कोई नया कानून तब तक प्रभावी नहीं किया जा सकेगा जब तक कि स्थायी सदस्य अपनी सहमती का घोषणा इसकी बैठक में सार्वजनिक रूप से न कर दें। हालांकि अक्सर किसी न किसी मुद्दें पर इन पंज प्यारों में मतभेद होता है, लेकिन स्थायी सदस्याता के मामले पर तो यह हमेशा ही एक दूसरे को समर्थन करते हैं। सुरक्षा परिषद के विस्तार से संबंधित बहस को बार-बार टालने का जो मामला है वह निश्चय ही उसके स्थाई सदस्यों की नीयत में खोट का संकेत देता है। शायद ही राष्टï्र संघ निर्माताओं ने उस समय इस खामी की ओर कुछ ध्यान दिया हो कि शेष विश्व को युद्ध का भय दिखाकर बड़ी चलाकी से कथित समातंवादी राष्टï्र इसकी पूरी मलाई मार ले जाए। इनकी नीयत इतनी खोट निकली कि बाकी के गरीब देशों को यह उनके हिस्से की छाछ तक देने से गुरेज करते हैं। इसी के चलते राष्टï्र संघ महज स्थाई सदस्य देशों की हित चिंतक मात्र बनकर रह गई है। सवाल यह उठता है कि विश्व में देशों के संगठन की अगुवाई चीन, फ्रांस, अमेरिका और इंगलैंड को ही क्यो करें? क्या बाकी के तकरीबन दो सौ देश या उनके प्रतिनिधि इसके हकदार नहीं? शेष दुनिया की कारगुजारियों में इसके सदस्य देश हर तरह से इन स्थाई सदस्यों की मोहताज बनकर ही रह गये हैं। किसी भी देश के पक्ष-विपक्ष में कोई भी रणनीति बगौर इनकी रजामंदी के पास नही हो सकती। स्थाई सदयों की मनमानी क्यूबा, वियतनाम, सोमालिया, यूगोस्लाविया और हालिया इरान-इराक में देखी जा चुकी है। यही कारण है कि संघ की शक्ति के विघटन को लेकर अंतरराष्टï्रीय स्तर पर बहस तेज हो रही है, जिसके मूल में स्थाई सदस्य देशों की भूमिका को लेकर कसमकसाहट सबसे तेज है।
1970 के दशक के अंत में जानबूझ कर इस संस्था को कमजोर बनाने की कोशिर चलती रही है। 1971 में पाकिस्तान से भारत में आए एक करोड़ शरणार्थियों से जुड़े ममाले में संयुक्त राष्टï्र ने कोई कार्रवाई करने के बजाय भारत के खिलाफ ही मतदान कराया। पिछले दशकों में सीमापार से आतंकवाद के संबंध में भी यूएन की ऐसी ही उदासीनता देखने को मिली है। राष्टï्र संघ की मौजूदा स्थितियों से महासचिव कोफी अन्नान खासा खिन्न थे जिसका उन्होंने कई बार सार्वजनिक इजहार किया। जिसके कारण उनके कार्यकाल के अंतिम दिनों में तो अमेरिका ने खुलेआम उनके खिलापऊ में उतर आया था। ऐसा लग रहा था कि उनके खिलाफ महाभियोग लाकर अमेरिका एक नई परंपरा शुरू कर देगा। लेकिन तमाम अटकलों को पार कर आखिर उनकी विदाई हो ही गई। उनकी जगह दक्षिण कोरिया के मून नये महासचिव बने। जिनके सामने सबसे पहली चुनौती उत्तर कोरिया के परमाणु परीक्षण का मामला आया। हालांकि इस पर मून का रुख विश्व जनमत के अनुरूप और सख्त ही रहा, लेकिन वे यादगार Bhuमिका नहीं छोड़ पाए
यह कितना हास्यास्पद है कि २१वीं सदी की दुनिया को बीसवीं सदी के उत्तराद्ध में बना एक संगठन नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है जो खुद में बदलाव नहीं कर पाया। 1945 से अब तक ही दुनिया में बहुत कुछ बदल चुका है। शक्ति संतुलन बदल चुका है। भारत, ब्राजील, जापान और जर्मनी दुनिया के नये ताकतवर देश के रूप में उभरे हैं जो उस समय अगल-अलग कारणों से विश्व परिदृश्य से गायब थे। इन बदली हुई परिस्थितियों में इन देशों का संयुक्त राष्टï्र की गतिविधियों में भागीदारी न बनाना सामंती प्रवृति ही कही जाएगी। दुनिया में यदि लोकतंत्र का भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो स्थाई सदस्यों के हाथों से कठपुतली बने संयुक्त राष्टï्र का आजाद कराना ही होगा। वैसे संयुक्त राष्टï्र संघ की 71वीं वर्षगांठ नई चुनौतियों के साथ आई है। स्थाई सदयों की संख्या बढ़ाने की मुहिम आगामी दिनों में जाहिर तौर पर तेज होगी।
बुधवार, अक्तूबर 12, 2016
रावण के पतन का मूल सीता हरण, सीता हरण की मूल वजह क्या है?
संजय स्वदेश
कथा का तानाबाना तुलसी ने कुछ ऐसा बुना की रावण रावण बन गया। मानस मध्ययुग की रचना है। हर युग के देशकाल का प्रभाव तत्कालीन समय की रचनाओं में सहज ही परीलक्षित होता है। रावण का पतन का मूल सीता हरण है। पर सीताहरण की मूल वजह क्या है? गंभीरता से विचार करें। कई लेखक, विचारक रावण का पक्ष का उठाते रहे हैं। बुरी पृवत्तियों वाले ढेरों रावण आज भी जिंदा हैं। कागज के रावण फूंकने से इन पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। पर जिस पौराणिक पात्र वाले रावण की बात की जा रही है, उसे ईमानदार नजरिये से देखे। विचार करें। यदि कोई किसी के बहन का नाक काट दे तो भाई क्या करेगा। आज 21वीं सदी में ऐसी घटना किसी भी सच्चे भाई के साथ होगी, तो निश्चय ही प्रतिशोध की आग में धधक उठेगा। फिर मध्य युग में सुर्पनखा के नाम का बदला रामण क्यों नहीं लेता। संभवत्त मध्ययुग के अराजक समाज में तो यह और भी समान्य बात रही होगी।
अपहृत नारी पर अपहरणकर्ता का वश चलता है। रावण ने बलात्कार नहीं किया। सीता की गरीमा का ध्यान रखा। उसे मालूम था कि सीता वनवासी बन पति के साथ सास-श्वसुर के बचनों का पालन कर रही है। इसलिए वैभवशाली लंका में रावण ने सीता को रखने के लिए अशोक बाटिका में रखा। सीता को पटरानी बनाने का प्रस्ताव दिया। लेकिन इसके लिए जबरदस्ती नहीं की। दरअसल का मध्य युग पूरी तरह से सत्ता संघर्ष और नारी के भोगी प्रवृत्ति का युग है। इसी आलोक में तो राजेंद्र यादव हनुमान को पहला आतंकवादी की संज्ञा देते हैं। निश्चय ही कोई किसी के महल में रात में जाये और रात में सबसे खूबसूरत वाटिका को उजाड़े तो उसे क्यों नहीं दंडित किया जाए। रावण ने भी तो यहीं किया। सत्ता संघर्ष का पूरा जंजाल रामायण में दिखता है। ऋषि-मुनि दंडाकारण्य में तपत्या कर रहे थे या जासूसी। रघुकुल के प्रति निष्ठा दिखानेवाले तपस्वी दंडाकारण्य अस्त्र-शस्त्रों का संग्रह क्यों करते थे। उनका कार्य तो तप का है। जैसे ही योद्धा राम यहां आते हैं, उन्हें अस्त्र-शस्त्रों की शक्ति प्रदान करते हैं। उन्हीं अस्त्र-शस्त्रों से राम आगे बढ़ते हैं। मध्ययुग में सत्ता का जो संघर्ष था, वह किसी न किसी रूप में आज भी है। सत्ताधारी और संघर्षी बदले हुए हैं। छल और प्रपंच किसी न किसी रूप में आज भी चल रहे हैं। सत्ता की हमेशा जय होती रही है। राम की सत्ता प्रभावी हुई, तो किसी किसी ने उनके खिलाफ मुंह नहीं खोला। लेकिन जनता के मन से राम के प्रति संदेह नहीं गया। तभी एक धोबी के लांछन पर सीता को महल से निकाल देते हैं। वह भी उस सीता को तो गर्भवती थी। यह विवाद पारिवारीक मसला था। आज भी ऐसा हो रहा है। आपसी रिश्ते के संदेह में आज भी कई महिलाओं को घर से बेघर कर दिया जाता है। फिर राम के इस प्रवृत्ति को रावण की तरह क्यों नहीं देखी जाती है। जबकि इस तरह घर से निकालने के लिए आधुनिक युग में घरेलू हिंसा कानून के तहत महिलाआें को सुरक्षा दे दी गई है। बहन की रक्षा, उनकी मर्यादा हनन करने वालों को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा, पराई नारी को हाथ नहीं लगाने का उज्ज्वल चरित्र तो रावण में दिखता है। लोग कहते भी है कि रावण प्रकांड पंडित था। फिर भी उसका गुणगणान नहीं होता। विभिषण सदाचारी थे। रामभक्त थे। पर उसे कोई सम्मान कहां देता है। सत्ता की लालच में रावण की मृत्यु का राज बताने की सजा मिली। सत्ता के प्रभाव से चाहे जैसा भी साहित्या रचा जाए, इतिहास लिखा जाए। हकीकत को जानने वाला जनमानस उसे कभी मान्यता नहीं देता है। तभी तो उज्ज्वल चरित्र वाले विभिषण आज भी समाज में प्रतिष्ठा के लिए तरसते रहे। सत्ता का प्रभाव था, राम महिमा मंडित हो गए। पिता की अज्ञा मानकर वनवास जाने तक राम के चरित्र पर संदेह नहीं। लेकिन इसके पीछे सत्ता विस्तार की नीति जनहीत में नहीं थी। राम राजा थे। मध्य युग में सत्ता का विस्तार राजा के लक्षण थे। पर प्रकांड पंडित रावण ने सत्ता का विस्तार का प्रयास नहीं किया। हालांकि दूसरे रामायण में देवताओं के साथ युद्ध की बात आती है। पर देवताओं के छल-पंपंच के किस्से कम नहीं हैं।
काश, कागज के रावण फूंकने वाले कम से कम उसके उदत्ता चरित्र से सबक लेते। बहन पर होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए हिम्मत दिखाते। उसकी रक्षा करते। परायी नारी के साथ जबरदस्ती नहीं करते। ऐसी सीख नहीं पीढ़ी को देते। समाज बदलता। मुझे लगता है कि राम चरित्र की असंतुलित शिक्षा का ही प्रभाव है कि 21वीं सदी में भी अनेक महिलाएं जिस पति को देवता मानती है, वहीं उन पर शक करता है, घर से निकालता है। संभवत: यहीं कारण है कि आज धुं-धुं कर जलता हुए रावण के मुंह से चीख निकलने के बजाय हंसी निकलती है। क्योंकि वह जनता है कि जिस लिए उसे जलाया जा रहा है, वह चरित्र उसका नहीं आज के मानव रूपी राम का है।
गुरुवार, सितंबर 29, 2016
लड़के-लड़की का गुण-अवगणु कौन देखता है?
दर्दनाक : शादी के दस साल बाद दहेज में मोटरसाइकिल नहीं मिली तो छपरा में दो बच्चों सहित एक मां को जिंदा जला दी गई! सीवान-गोपालगंज में भी ऐसी घटनाएं आती रहती है। कभी खटिया में बांध कर जला दिया जाता है तो कभी घर से निकाल देने की खबर अखबार में हर दूसरे दिन होती है। अपने यहां बेटी को बोझ समझने वाले बाप हैसियत नहीं होने पर भी दहेज में वह चीज देने का वादा करते हैं जो दे ही नहीं सकते हैं...उधर लड़के अपनी कमाई के बजाय सुसराल से बाइक और चेन पाने के इंतजार में बैठे रहते हैं। लड़के-लड़की का गुण-अवगणु कौन देखता है?
शनिवार, जुलाई 16, 2016
वर्धा के हिंदी विश्वविद्यालय के अकेले आदिवासी प्रोफेसर पर कुलपति का कहर
पटना/वर्धा (महाराष्ट)। महाराष्टÑ के वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के हिंदी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग के सहायक प्रोफेसर डॉ. सुनील कुमार का जान-बूझकर किए गए कोलकाता तबादले के खिलाफ हिंदी विश्वविद्यालय परिसर में आंदोलन गरमा गया है। डा. सुनील कुमार सुमन बिहार के उस चंपारण (मोतिहारी)से हैं, जहां दक्षिण अफ्रीका से आए मोहन दास करमचंद गांधी ने देश में पहला पहला आंदोलन शुरू किया। गांधीजी की यह पहली कर्मभूमि है। यहां गांधीजी का आश्रम है। गांधी का एक और आश्रम महाराष्टÑ के वर्धा जिले में हैं। यह भी गांधीजी की कर्मभूमि रही है। इसी कर्मभूमि पर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय स्थित है। गांधी की पहली कर्मभूमि चंपारण के लाल डा.सुनील कुमार सुमन इसी हिंदी विश्वविद्यालय के कुल नब्बे प्रोफेसरों में पहले और एकमात्र आदिवासी प्राध्यापक हैं। लेकिन यहां के पूर्व कुलपति विभूति नारायण राय और और वर्तमान कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्रा ने हमेशा इन्हें अपने निशाने पर रखा। डा. सुमन आदिवासी और दलित मुद्दों के प्रखर आवाज के रूप में सक्रिय रहे। ताजा मामला इनके वर्धा से कोलकाता ट्रांफसर कर प्रताड़ित करने का है। जब शांतिपूर्ण आग्रह के बाद डा. सुमन का धैर्य टूट गया तो डॉ सुनील कुमार शनिवार सुबह विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ भूख हड़ताल पर बैठ गए। उनके समर्थन में पचासों छात्र-छात्राएँ व शोधार्थी भी अनशन पर बैठ गए। विश्वविद्यालय के शिक्षक संघ का भी उन्हें समर्थन हासिल है।
गौरतलब है कि डॉ सुनील कुमार इस विश्वविद्यालय के बेहद लोकप्रिय अध्यापक हैं। वे ऐसे अध्यापक हैं, जो अपने विभाग से इतर दूसरे विभागों-केंद्रों के विद्यार्थियों के बीच भी काफी लोकप्रिय हैं। इसका कारण उनका मृदुभाषी-सहयोगी स्वभाव और छात्रों को हमेशा बेहतर बनने-करने के लिए प्रेरित करने वाली उनकी प्रकृति है। वे इस विश्वविद्यालय के एकमात्र आदिवासी वर्ग के प्राध्यापक हैं। यह गोंडवाना का क्षेत्र हैं, जहाँ लाखों-करोड़ों की संख्या में आदिवासी सदियों से रहते हैं। वर्धा और आसपास के सभी जिलों में भी लाखों की संख्या में आदिवासी हैं। यह इस विश्वविद्यालय के लिए खुशी की बात है कि इस वर्ग का प्राध्यापक यहाँ सेवारत है। डॉ. सुनील कुमार की पहचान राष्ट्रीय स्तर के आदिवासी लेखक-विचारक और एक्टिविस्ट के रूप में प्रतिष्ठित है। विदर्भ के तमाम जिलों तथा देश के कई विश्वविद्यालयों-शहरों के दलित-आदिवासी कार्यक्रमों में डॉ. सुनील कुमार को अतिथि वक्ता के रूप में हमेशा बुलाया जाता है। इन्हें क्षेत्र की जनता द्वारा कई बार गोंडवाना भूषण पुरस्कार, शिक्षण मैत्री सम्मान और समाज भूषण सम्मान जैसे पुरस्कारों से भी नवाजा जा चुका है। लेकिन दु:ख और गहरा अफसोस इस बात का है कि इस विश्वविद्यालय में शुरू से ही उनको जातिगत आधार पर प्रताड़ित किया जाता रहा है। पिछले कुलपति के कार्यकाल में भी ऐसा हुआ और अब भी ऐसा ही हो रहा है। शर्मनाक बात है कि यह उच्च शिक्षा का केंद्र है और यहाँ बौद्धिक लोग रहते हैं। उन्हें अपने जातिगत दुराग्रहों के आधार पर व्यवहार नहीं करना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि उच्च प्रशासनिक पदों पर बैठे लोग भी जातिगत भावना से निर्णय लेते हैं। इसी के तहत डॉ. सुनील कुमार का स्थानांतरण कोलकाता केंद्र पर किया गया है।
अंबेडकर स्टूडेंट्स फोरम खुलकर इस आंदोलन में आ गया है। फोरम का मानना है कि डॉ सुनील कुमार दो साल तक एक फर्जी केस के चक्कर में नौकरी से बाहर रहे, केस-मुकदमा झेला, आर्थिक दिक्कतें सहीं और मानसिक पीड़ा तो झेली ही। फिर साहित्य विभाग में इतने अध्यापकों के रहते हुए डॉ. सुनील कुमार को ही क्यों कोलकाता भेजा जा रहा है? पिछले ममाले में बोम्बे उच्च न्यायालय ने विश्वविद्यालय की ओर से दायर किए गए केस को फजर््ी करार करते हुए विश्वविद्यालय पर ही दस हजार का जुर्माना ढोका था। इतना ही नहीं तत्काल डा सुमन की बहाली का आदेश दिए। इसके बाद भी विश्वविद्यालय प्रशासन ने उन्हें ज्वाइन तो कर वाया लेकिन एक साल तक उनकी जांच करवाते रहे और उन्हें सात महीने तक बैठने तक की कुर्सी और मेज तक नहीं दी गई। यह समाचार लिखे जाने तक डा. सुमन को पिछले दो साल का वेतन भी नहीं दिया गया है।
कुलपति के मुंह पर पोतेंगे कालिख!
यहां धरने पर बैठे वर्धा से ही आए एक आदिवासी युवक ने बताया कि कुलपति गिरीश्वर मिश्रा घोर जातिवादी हैं। पिछले दिनों गिरीश्वर मिश्राा ने यहां जितनी भी नियुक्तियां की, उसमें से एक भी दलित या आदिवासी नहीं है। उन्होंने अपने संगे संबंधियों व रिश्तेदारों को यहां के प्रशासनिक पदों पर बैठा रखा है। यदि इसी तरह तर उनकी दलित और आदिवासी विरोधी गतिविधियां चलती रही तो कभी भी आक्रोशित आदिवासी उनके मुंह पर कालिख पोत सकता है। वीडियो बनाकर मीडिया को जारी कर सकता है।
डर से कुलपति नहीं आए दफ्तर
शनिवार शाम तक डॉ सुनील कुमार के साथ बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएँ और शोधार्थी कुलपति दफ्तर के सामने अनशन पर जमे हुए थे। इस आंदोलन की खबर सुनकर कुलपति अपने दफ्तर ही नहीं आए, घर पर ही रहे। पूरे मामले में जब डा गिरीश्वर मिश्रा से फोन पर संपर्क किया गया तो घंटी जाती रही, लेकिन फोन नहीं उठाया।
समर्थन देने आया आदिवासियों का दल
इस बीच गोंडवाना युवा और महिला जंगोम दल तथा अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद के भीमा आड़े, चन्द्रशेखर मड़ावी, रंजना उइके, कल्पना चिकराम, सुवर्णा वरखड़े, राकेश कुमरे, नगर पार्षद शरद आड़े आदि कुलपति से मिलने आए, उनके आवास पर भी गए, लेकिन उन्हें मिलने नहीं दिया गया। विश्वविद्यालय के कई प्राध्यापक अनशन स्थल पर पहुंचे और डॉ सुनील कुमार के प्रति अपना समर्थन जाहिर किया।
तेज होगा आंदोलन
देर शाम बातचीत में डा. सुमन सुनील कुमार सुमन ने बताया कि विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा यहां दलित और आदिवासियों को प्रताड़ित करने का यह कोई नया मामला नहीं है। उन्होंने बताया कि यहां के आदिवासी समुदाय काफी अक्रोशित है। उनके समर्थन से आत्मविश्वस बढ़ गया है। डा. सुमन ने बताया कि अभी यह आंदोलन एक चेतावनी भर है। यदि सोमवार तक विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनका स्थानांतरण वापस नहीं लिया तो आंदोलन तेज किया जाएगा।
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