मंगलवार, अगस्त 14, 2007

जख़्म बताने की जिम्मेदारी हिंदी अखबारों पर

पद्मश्री मु$जफ्फर हुसैन से विशेष बातचीत

संजय स्वदेश

नागपुर. वरिष्ठï पत्रकार पद्मश्री म$ुजफ्फर हुसैन ने एक विशेष बातचीत में बताया कि देश के अंग्रेजी अखबारों में चिकनी चुपड़ी बातें ज्यादा होती हैं। यही हाल पड़ोसी देश पाकिस्तान से प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी दैनिक का भी है। इसी कारण वहां के लोग सबसे लोकप्रिय अंग्रेजी दैनिक 'द डॉनÓ की अपेक्षा अरबी भाषा के पत्र 'इबरतÓ पर ज्यादा भरोसा करते हैं। उन्होंने बताया कि अंग्रेजी समाचार पत्र समाचार की ऊपरी बातों को ज्यादा महत्व देते हैं, लेकिन हिंदी समाचार पत्र किसी भी घटना की तहतक जाने की कोशिश करते हैं। सही मायने में कहें तो अंदर के जख्म बताने की जिम्मेदारी अंग्रेजी समाचार पत्र नहीं उठाते हैं। उन्होंने चिंता जताते हुए कहा कि देश के नौकरशाहों को अंग्रेजी समाचार पत्र से मोह है, जिसमें पूरी असलियत नहीं होती है।
हिंदी से पहले अरबी बनेगी अंतरराष्टï्रीय भाषा
न्यूयार्क में हाल ही संपन्न हुये विश्व हिंदी सम्मेलन पर चर्चा करते हुए श्री हुसैन ने बताया कि हिंदी से पहले अरबी अंतरराष्टï्रीय भाषा बन जाएगी, क्योंकि अंतरराष्टï्रीय स्तर के ज्यादातर मामले हिंदी की अपेक्षा अरबी में अनुवादित होते हैं। जिन पत्रकारों को यह भाषा आती है, उनका कैरियर ज्यादा उज्ज्वल है।
किपलिंग ने मुंबई में लिखीं सात किताबें
चर्चित लेखक रूडयार्ड किपलिंग के बारे में उन्होंने बताया कि यह साल उनका जन्म शताब्दी वर्ष है। लोग रूडयार्ड को भूल रहे हैं। बहुत कम लोग यह जानते हैं कि रूडयार्ड मुंबई में पैदा हुए थे और वहीं रह कर उन्होंने सात किताबें लिखीं। उनकी सातवीं किताब पर उन्हें नोबेल पुरस्कार भी मिला। उन्होंने अपनी पुस्तक में मुंबई का जिस तरीके से चित्रण किया है, वैसा चित्रण शायद ही किसी पुस्तक में हो। अपने निवास स्थान के पास रोज-रोज कटती हुई मुर्गियों को देखकर उन्हें कैसा एहसास होता था? इसका जीवन्त चित्रण उनकी पुस्तक में है।
कॉटन ढोने के लिए अंग्रेजों ने चलाई रेल
श्री हुसैन ने बताया कि अंग्रेज भारत से अधिक मात्रा में अपने यहां कॉटन ले जाना चाहते थे। इसकी ढुलाई वे घोड़ों से करते थे। इसके लिए वे पचास पैसे दलाली भी देते थे। तब पारसियों ने उन्हें सलाह दी कि वे यहां रेलगाड़ी चलाएं, ताकि अधिक से अधिक कॉटन की ढुलाई की जा सके।
एलीफिस्टन का विरोध क्यों नहीं?
इतिहास की चर्चा करते हुए श्री हुसैन ने बताया कि चर्चित अंग्रेज गवर्नर एलीफिस्टन ने पुणे में बाजीराव पेशवा को गद्दी से उतारा था। उसने सबसे ज्यादा हिंदुस्तानियों को मारा था। एक बार तो गवर्नर एलीफिस्टन ने दो लोगों को तोप के मुंह पर बांध कर बड़े जनसमूह के सामने ही उड़ा दिया था। लेकिन फिर भी उसके नाम का कॉलेज संचालित है। मुुुंबई में इसके नाम की एक चर्चित जगह भी है, लेकिन आजादी के इतने साल बाद भी इस नाम को बदलने के लिए कहीं से कोई आवाज नहीं उठी है।
मुस्लिम-पारसी दंगे ज्यादा भयावह
'दंगों में जलती मुंबईÓ पुस्तक से जुड़े अपने संस्मण सुनाते हुए उन्होंने कहा कि देश में हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच होने वाले दंगों के अनेक घटनाएं हुई हैं, लेकिन सबसे ज्यादा भयावह दंगे मुस्लिम और पारसी समुदाय के बीच हुए हैं। उन्होंने पायधोनी की एक घटना की चर्चा करते हुए बताया कि एक बार घोड़े को एक मुस्लिम समुदाय का व्यक्ति पीट रहा था। इस पर फिरोज शाह ने आपत्ति की। यह बात इतनी आगे बढ़ी कि जीवन भर एक डंडा तक नहीं छूने वाले फिरोज शाह ने तलवार उठा ली थी। पायधोनी की एक और घटना का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि एक समुदाय के बच्चे ने दूसरे समुदाय के बच्चे की पतंग काट दी, इस बात को लेकर वहां दंगे भड़क गये थे।
गांधी और जिन्ना के बीच गुप्त बैठक भी हुई थी
श्री हुसैन ने बताया कि देश के विभाजन से पूर्व महात्मा गांधी और मोहम्मद अली जिन्ना के बीच गुप्त बैठक भी हुई थी। मोहम्मद जिन्ना लगातार 21 दिनों तक महात्मा गांधी से मिलने आते रहे। लेकिन इसकी खबरें अमृत सेठ को थी। वे इस बैठक की खबरें अपने समाचार पत्र में नियमित रूप से छापते थे। इससे नाराज होकर गांधीजी ने उन्हें एक बार बुलाया और इन खबरों पर ऐतराज जताया। लेकिन अमृत सेठ ने खबर छापनी बंद नहीं की। उन्होंने गांधीजी से कहा कि मैं अखबार चलाता हूं आपकी तरह आश्रम नहीं।

सोमवार, अगस्त 13, 2007

बिन ब्याह की बिंदाद दुनिया

नगर में लोगों का एक वर्ग ऐसा जो शादी को जीवन भर का झंझट मानता है।

संजय कुमार
नागपुर. एक अदद जीवनसाथ की ख्वाहिश हर किसी को होती है, लेकिन कभ्ज्ञी-कभी उसका मिलना संभव नहीं होता। या कुछ स्थितियां ऐसी भी आती हैं, जिसके कारण व्यक्ति ताउम्र अविवाहित रहना पसंद करता है। दूसरी ओर सामाजिक परंपरा में वंश वृद्धि के लिए विवाह अनिवार्य मना गया है। लेकिन संतरानगरी में पुरुषों का एक वर्ग ऐसा है, जो विवाह जैसे बंधन को जिंदगी भर का एक झंझट मानते हुए आजीवन कुंवारा रहने का निर्णय ले चुके हैं। उन्हें बिन ब्याह की अपनी जिंदगी बिंदास लगती है। इस जीवन को तो वे शादी-शुदा जिंदगी से भी बेहतर मानते हैं। अविवाहित जीवन के उनके कुछ खास जुमले भी हैं। सिटी भास्कर ने नगर के कुछ ऐसे ही लोगों से यह जानने की कोशिश कि की उनकी दुनिया शादी-शुदा जिंदगी से कितनी अलग है?
बॉक्स मैटर
खास जुमले
हम तो आजद पंछी हैं, जब जहां चाहें उड जाएं कोई टेंशन नहीं, न कोई टेंशन देनी वाली। मैरिड मर्दो का जीवन भी कोई जीवन है।
शादी किस लिए?
खाना बनाने के लिए : आज कल जब चाहे जहां चाहे कुक मिल जाता है। फिर इस काम के लिए बीवी क्यों?
सेक्स संबंध : एक के साथ जीवनभर बने रहने में क्या रस है। आजकल सोसाइटी काफी खुल गई है। बिना शादी के दूसरे विकल्प मैजूद हैं।
अकेलेपन दूर करने के लिए : जब दिल आजाद तो दुनिया आबाद, अकेलापन घूमने-फिरने, मौज-मस्ती से दूर होता है।
बुढ़ापे की साथी : अपना बुढ़ापा किसने देखा, जब यह आएगा तब देखा जाएगा।

त्रिमूर्ति नगर में रहने वाले 38 वर्षीय रंजीत का कहना है कि मुझे नहीं लगता है कि शादी-शुदा लोग जिंदगी को सही मायने में जी पाते हैं। वे पूरे टाईम बीबी-बच्चों की देखभाल में ही लगे रहते हैं। जो भी करते हैं, उनकी ही खुशी कि लिए करते हैं। इसके बाद भी रोज-की चिक-चिक। कभी कुछ कम रह जाता है, तो कभी कुछ ज्यादा हो जाता है। रंजीत का कहना है कि हमने अपने दोस्तों को अपने बीवी और बच्चों के साथ कई बार तनाव में देखा है। आजीवन कुआरा रहने के कारण पूछने पर रंजीत का कहना है कि
युवास्था में मुझे एक लड़की से प्रेम हुआ, लेकिन घरवालों के दबाव में उसने किसी और से विवाह कर लिया। फिर मैंने आजीवन शादी नहीं करने का निर्णय लिया, क्योंकि एक दिल था, उसी के साथ चला गया।

हनुमान नगर के 36 वर्षीय राजेश का कहना है कि गर्लफ्रेंड से प्यार का अहसास मिल जाता है। किसी को पत्नी बनाकर जीवनभर केे बंधन में क्यों बंधा जाए। मैंने दूसरे लोगों को देखा वे पत्नी के साथ आजादी के साथ नहीं जी सकते हैं। बिना शादी की मेरी फिलॉस्पी हर दिन को जींदगी का आखिरी दिन समझकर पूरी मस्ती के साथ जीने की है। रही बात परिवार का मजा लेने की तो मैं अपने बड़े भाई के साथ रहता हूं। उनके बच्चों को अपने बच्चों की तरह प्यार करता हूं। परिवार की कमी खटकती ही नहीं।

सौरभ का कहना है कि हर दिन राजा की तरह जीने के लिए शादी-शुदा जिंदगी से बेहतर अविवाहित जीवन है। इस लाइफ में किसी चीज की कोई जिम्मेदारी नहीं है। हर चीज करने की आजादी। जब चाहो-उठो, सोओ और घर आओ। मेरे कई दोस्त तो रात को बीवी के डर से घर जल्दी पहुंचना चाहते हैं। इसके लिए वे दोस्तों के साथ मस्ती के कई मौके भी छोड़ देते हैं। यदि वे दोस्तों के साथ पार्टी में भले की मस्ती करते हैं, लेकिन उनके दिल में घर-परिवार के बजह से तनाव होता है। इससे न तो वे दोस्तों साथ पार्टी का
पूरा मजा ले पाते हैं और न ही अपने परिवार को पूरा समय दे पाते हैं।

45 वर्षीय प्राध्यापक आनंद का कहना है कि वर्षों पहले उनकी शादी केवल इसलिए नहीं हुई, क्योंकि तब वे बेरोजगार था। लोगों में कैरियर के प्रति मेरा जुनून और व्यक्तित्व के दूसरे गुणों को नहीं देखा। तब मैंने निश्चय किया कि जब मुझे नौकरी मिलने के बाद यदि रिश्ते आते हैं, तो मैं उन्हें ठुकरा दूंगा। मैंने ऐसा ही किया। आज मुझे कोई अफसोस नहीं है। मुझे लगता है कि नौकरी मिलने के बाद मैंने जो रिश्ते ठुकराये थे, उसमें कोई गलती नहीं थी। आखिर पुरुषों से लाभ लेने के उद्देश्य से ही तो महिलाएं विवाह करती हैं। उन्हें सबसे ज्यादा आर्थिक सुरक्षा की चिंता होती है। लेकिन वे शुरूआत दिनों के संषर्षों में साथ देकर सफल जीवन जीने की शुरूआत नहीं सोचती हैं। अकेले रहने का कोई टेंशन नहीं। सुबह आराम से उठता हूं। स्कूल जाता हू। खाना खुद बनाता हूं। मन करता है तो कभी बाहर भी खा लेता हूं और कभी दूध पीकर ही सो जाता हूं। यह पूरी तरह से बिंदास लाईफ है।

शादी-शुदा जिंदगी के बारे में बाजाज नगर निवासी राजीव के इरादे नेक हैं। उनका कहना है कि अकेले रहने का अपना मजा तो हैं ही, लेकिन कई बार जिंदगी में ऐसे मोड़ आते हैं, जब यह एक साथी के साथ नहीं होने का अहसास होता है। ऐसी स्थिति में दिल की बात किसी से ब्यां नहीं कर सकने की कसक दिल में उठती है, तब मन में एक अलग ही निराशा जन्म लेती है।
उनका कहना है कि शरीरिक सुख के दूसरे विकल्प हैं, लेकिन मानसिक सुख का विकल्प क्या है? कुंआरे लाईफ की अपनी कहानी सुनाते हुए राजीव का कहना है कि एक बार अचानक मेरी तबियत खराब हो गई। उस समय लगा कि काश मेरे पास कोई होता तो मेरी देखभाल करता और मैं जल्दी ठीक हो जाता। उस समय ही यह अहसास हुआ कि अकेले लाइफ का पूरा मजा लेने के बाद भी हम अकेले हैं। ऐसा लगा कि यह अकेले होने की सजा है। लेकिन ऐसा अहसास हमेशा नहीं होता है। जब मुसिबत आती है तभी मन में ऐसे ख्याल आते हैं।
००००००००००००००००००००००००००

बहना है कजरी, यादें हैं भाई की

कजरी के बहाने पूर्वांचल की महिलाएं कर रही हैं भाई को याद
संजय कुमार
नागपुर. सावन के सुहाने मौसम भाई-बहन के पवित्र रिश्ते की याद दिलाता है। जब कोई नारी ससुराल में होती है, तब वह अपने भाई को इस इस मौसम में व्याकुल होकर आने की राह देखती है। ज्यों-ज्यों सावन का दिन बीतता है, और भाई बहन के यहां नहीं आता है, तो वह बहन दु:खी होकर अपनी मनोदशा को कजरी के माध्यम से व्यक्त करती है। हालांकि महानगर की संस्कार में पली-बढ़ी संतरानगरी के महिलाओं को कजली नाम की इस लोकगीत परंपरा की जानकारी बहुत कम है। फिर भी विभिन्न संगठनों की ओर से इस माह में एक-दो कजरी गायन कार्यक्रम का भी आयोजन होता है। लेकिन वे महिलाएं जो विशेष रूप से पूर्वाचंल क्षेत्रों से आकर संतरानगरी में रह रही हैं, वे सावन की रिमझीम फुहारों को देखकर सहज ही कजरी गुनगुना उठती हैं।
भइया बीतल जाला एसऊ सवनवां, अवनवा तेरो नाहीं बानी।
गवना काहे के कतु हिहलय, हमके दिहलय एकदम छोडि़,
भइया नाहक दिहलय हमरो गवनवां अवनवा तेरो नाहीं बनी।
काटूं बिरह की रतिया रो-रो तड़पे मोरि अंखिया,
इया कैसे भूलू, नइहर के रहनवां अवनवा तेरो नाहीं बनी।

भाई से नराज भी होती है नायिका
गिट्टी खदान में रहने वाली श्रीमती शांति देवी का कहना है जब वे गोरखपुर में अपने गांव में थी, तब इस मौसम में शाम के समय महिलाओं के एक सूमह के कजरी गाती थीं। एक कजली सुनाते हुए वे कहती है, जब कोई नारी अपने ससुराल में होती है तब वह अपने भाई को जरई (जौ की पाती) एवं राखी बांधने के लिए व्याकुल होकर उसकी राह देखती है। ज्यों-ज्यों सावन बीतता जाता है और उसका भाई अपनी बहन के यहां नहीं पहुंचता है तब वह बहन दु:खी होकर अपनी मनोदशा को इस तरह से कहती है।
भइया सासु ननदिया मारत मेहना ताना बा, सावन क महीना बा ना ।
ताकऊ तोहरी डगरिया, चढि़ के अपनी अटरिया,
भइया नाहक दिहलय हमरो गवनवां अवनवा तेरो नाहीं बनी।
काटूं बिरह की रतिया रो-रो तड़पे मोरि अंखिया,
इया कैसे भूलू नइहर के रहनवां अवनवा तेरो नाहीं बनी।
वीरन भइया आवत होई हैं, कूट के नाई देबई खिचड़ी,
जब से भइया खई हैं, पीई हैं तब से खेलब कजरी।
नारी बनाने के लिए ईश्वर को कोसती है : शांति देवी का कहना है कि आखिर में जब भाई आता है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है। तो वह नारी अपने भाई से रूठती ही नहीं बल्कि उसके साथ मायके जाने से इनकार भी कर देती है। क्योंकि उसके दृढ़ विश्वास के बाद भी उसका भाई जब मौके पर नहीं आया, तो उसे ससुराल वालों से काफी ताना-सुनना पड़ा। इसलिए वह भाई से मुंह फेर कर स्भाविमान के साथ कहती है कि मैं मान-अपमान सहने के बाद अब कर मायके नहीं जाऊंगी। वह नारी के इस स्थिति के लिए ईश्वर को भी भी कोसती हुई कहती है कि हे, ईश्वर तुमने मुझे नारी क्यों बनाया, जिसे हमेशा अपनान सहना पड़ता है। वह अपने मां को भी कोसती हुई कहती है कि तुमने मुझे जन्म क्यों दिया?
काहे बनवल प्रभु नारी क तनवा,
ससुरे में होला उनका बड़ा अपमनवा,
ऊंची-ऊंची बखरी देखि लोभाने भइया विरनू, घरवा क मरमिया न जानै।
काहे माई दिहलू जनमवां, सवनवा में न जाबे ननदी।
सामजिक आंडंबरों के प्रति रोष
कजरी के माध्यम से वह शादी-विवाह के समय बाहरी दिखावे के पर भी रोष व्यक्त करते हुए कहती है कि मेरा विवाह महलों की सुख-शांति आदि को देखकर भाई ने तय कर दिया गया है, लेकिन इन महलों में सब कुछ होते हुए भी वह सुखी होने के बजाय दु:खी है। इस दु:ख को वह इस तरह से कहती है।
ससुराल से लेकर जाता है भाई
निर्मला देवी भी कजली गाती है। उनकी कजरी में सावन के महीने में किसान हल लेकर चलता है और ग्वाला अपनी गाय को लेकर चलता है। वहीं पर भाई अपनी बहन को ससुराल से लेकर चलता है। इस दृश्य को वह इस तरह से कहती है -
हर लेइके निकला हरवहवा, अहिरवा लेई के गाई लोई,
भइया लेइके निसरैन बहिनियां, बड़े भिनसार लोई।
जब बहन को बधु समझता है राहगीर
जब अपनी बहन को लेकर भाई चलता है, तो राह चलते हुए कोई व्यक्ति उससे सवाल करता है, कि जिसे तुम ले जा रहे हो, वह तुमारी कौन है? क्या यह तुम्हारी साली है या बहु है, तो भाई उससे क्रोधित होकर उसका जबाव देते हुए कहता है कि क्या तुम्हारे आंख फूट गई है, जिससे मेरी बहन तुम्हे साली या बहु लगती है।
बाट के चलत बटोहिया से पूछई एक बात लोई,
किया तोरे सारे ल सरहज कि या बहुयार लोई।
आंखि तोरि फूटई बटोहिया, बहिरवा होइके जाऊ लोई,
नाही मोरे सारे ल सरहज नाहि बहुआरि लोई,
पीठियऊ पाऊ देइके जनमी बहिनी हमार लोई।
बहन को है सामाजिक मार्यादाओं का ख्याल
कजली की नारी सामाजिक मर्यादाओं का विशेष ख्याल रखती है। पति को सीधे पति न कहकर सीधे ननद का भाई कहती है। जब वह जब अपने भाई के साथ चलती है, तब वह चाहती है कि उसकी पायल न बजे। वह शर्म के कारण अपने बच्चों को भी अपने साथ लेकर नहीं चलना चाहती है।
बहिनी के गोड़वा बिछववा बहिनी चलत लजात लोई,
भइया के गोड़वा पनहिया, भइया हाले हूले जाई लोई।
बहिनी के गोदिया बलकवा बहिनी चलत लजात लोई।
बॉक्स मैटर
भाई-बहन की गाथा
लोकगीत परंपरा में कजरी का विशेष स्थान है। पूर्वाचल के क्षेत्र विशेषकर वाराणसी, जौनपुर, गोरखपुर, उत्तरी बिहार आदि में इसे विशेष रूप से गाया जाता है। साहित्य समिक्षकों ने इस कजली को भाई-बहन की पवित्र गाथा की संज्ञा दी है।
आराधना की गीत है
जानकारों का कहना है कि कजली कजला देवी की आराधना का गीत भी है। यह नारी के सहज भाव विशेष रूप से विरह और श्रृंगार के चित्रण के लिए काफी लोकप्रिय भी हुआ है। सावन आते ही जहां धरती पर हरीतिमा छा जाती है और मेघों की मल्हार और पपीहे रट सुनाई देने लगती है। वहीं इस सुहाने परिवेश में बिरहियों का करुण क्रंदन एवं मिलन की तीव्र आकांक्षा भी इस कजली के माध्यम से व्यक्त होने लगती है।
लोक-संस्कृति का अभिन्न अंग
महानगरों में कजरी परंपरा को कायम करने के लिए सरकार के सांस्कृतिक विभाग को आगे आना चाहिए और इसके प्रोत्साहन के लिए विभिन्न मौकों पर कार्यक्रम भी आयोजित करने चाहिए। हालांकि एक-दो संगठन अपने स्तर पर प्रयास तो कर रहे हैं, लेकिन वे पर्याप्त नहीं हैं। लोक-संस्कृति के इस अभिन्न अंग को बचाये रखने के लिए हर वर्ग को शिद्दत से आगे आना चाहिए। सत्येन्द्र प्रसाद सिंह, महासचिव, बिहार सांस्कृतिक मंडल
विविध विषयों पर आधारित
कजरी की परंपरा किसी न किसी रूप में हर भाषा में है। सावन के दिनों में महिलाएं हाथों में मेंहदी लगाती हैं। मेहंदी लगाते हुए भी गीत गाती हैं। इनका विषय केवल भाई-बहन का प्रेम ही नहीं होता है, बल्कि परिवार के हर सदस्यों और सामाजिक समस्याओं से जुड़ा होता है। मंजु सिंह, कजरी गायिका

sanjayswadesh