कजरी के बहाने पूर्वांचल की महिलाएं कर रही हैं भाई को याद
संजय कुमार
नागपुर. सावन के सुहाने मौसम भाई-बहन के पवित्र रिश्ते की याद दिलाता है। जब कोई नारी ससुराल में होती है, तब वह अपने भाई को इस इस मौसम में व्याकुल होकर आने की राह देखती है। ज्यों-ज्यों सावन का दिन बीतता है, और भाई बहन के यहां नहीं आता है, तो वह बहन दु:खी होकर अपनी मनोदशा को कजरी के माध्यम से व्यक्त करती है। हालांकि महानगर की संस्कार में पली-बढ़ी संतरानगरी के महिलाओं को कजली नाम की इस लोकगीत परंपरा की जानकारी बहुत कम है। फिर भी विभिन्न संगठनों की ओर से इस माह में एक-दो कजरी गायन कार्यक्रम का भी आयोजन होता है। लेकिन वे महिलाएं जो विशेष रूप से पूर्वाचंल क्षेत्रों से आकर संतरानगरी में रह रही हैं, वे सावन की रिमझीम फुहारों को देखकर सहज ही कजरी गुनगुना उठती हैं।
भइया बीतल जाला एसऊ सवनवां, अवनवा तेरो नाहीं बानी।
गवना काहे के कतु हिहलय, हमके दिहलय एकदम छोडि़,
भइया नाहक दिहलय हमरो गवनवां अवनवा तेरो नाहीं बनी।
काटूं बिरह की रतिया रो-रो तड़पे मोरि अंखिया,
इया कैसे भूलू, नइहर के रहनवां अवनवा तेरो नाहीं बनी।
भाई से नराज भी होती है नायिका
गिट्टी खदान में रहने वाली श्रीमती शांति देवी का कहना है जब वे गोरखपुर में अपने गांव में थी, तब इस मौसम में शाम के समय महिलाओं के एक सूमह के कजरी गाती थीं। एक कजली सुनाते हुए वे कहती है, जब कोई नारी अपने ससुराल में होती है तब वह अपने भाई को जरई (जौ की पाती) एवं राखी बांधने के लिए व्याकुल होकर उसकी राह देखती है। ज्यों-ज्यों सावन बीतता जाता है और उसका भाई अपनी बहन के यहां नहीं पहुंचता है तब वह बहन दु:खी होकर अपनी मनोदशा को इस तरह से कहती है।
भइया सासु ननदिया मारत मेहना ताना बा, सावन क महीना बा ना ।
ताकऊ तोहरी डगरिया, चढि़ के अपनी अटरिया,
भइया नाहक दिहलय हमरो गवनवां अवनवा तेरो नाहीं बनी।
काटूं बिरह की रतिया रो-रो तड़पे मोरि अंखिया,
इया कैसे भूलू नइहर के रहनवां अवनवा तेरो नाहीं बनी।
वीरन भइया आवत होई हैं, कूट के नाई देबई खिचड़ी,
जब से भइया खई हैं, पीई हैं तब से खेलब कजरी।
नारी बनाने के लिए ईश्वर को कोसती है : शांति देवी का कहना है कि आखिर में जब भाई आता है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है। तो वह नारी अपने भाई से रूठती ही नहीं बल्कि उसके साथ मायके जाने से इनकार भी कर देती है। क्योंकि उसके दृढ़ विश्वास के बाद भी उसका भाई जब मौके पर नहीं आया, तो उसे ससुराल वालों से काफी ताना-सुनना पड़ा। इसलिए वह भाई से मुंह फेर कर स्भाविमान के साथ कहती है कि मैं मान-अपमान सहने के बाद अब कर मायके नहीं जाऊंगी। वह नारी के इस स्थिति के लिए ईश्वर को भी भी कोसती हुई कहती है कि हे, ईश्वर तुमने मुझे नारी क्यों बनाया, जिसे हमेशा अपनान सहना पड़ता है। वह अपने मां को भी कोसती हुई कहती है कि तुमने मुझे जन्म क्यों दिया?
काहे बनवल प्रभु नारी क तनवा,
ससुरे में होला उनका बड़ा अपमनवा,
ऊंची-ऊंची बखरी देखि लोभाने भइया विरनू, घरवा क मरमिया न जानै।
काहे माई दिहलू जनमवां, सवनवा में न जाबे ननदी।
सामजिक आंडंबरों के प्रति रोष
कजरी के माध्यम से वह शादी-विवाह के समय बाहरी दिखावे के पर भी रोष व्यक्त करते हुए कहती है कि मेरा विवाह महलों की सुख-शांति आदि को देखकर भाई ने तय कर दिया गया है, लेकिन इन महलों में सब कुछ होते हुए भी वह सुखी होने के बजाय दु:खी है। इस दु:ख को वह इस तरह से कहती है।
ससुराल से लेकर जाता है भाई
निर्मला देवी भी कजली गाती है। उनकी कजरी में सावन के महीने में किसान हल लेकर चलता है और ग्वाला अपनी गाय को लेकर चलता है। वहीं पर भाई अपनी बहन को ससुराल से लेकर चलता है। इस दृश्य को वह इस तरह से कहती है -
हर लेइके निकला हरवहवा, अहिरवा लेई के गाई लोई,
भइया लेइके निसरैन बहिनियां, बड़े भिनसार लोई।
जब बहन को बधु समझता है राहगीर
जब अपनी बहन को लेकर भाई चलता है, तो राह चलते हुए कोई व्यक्ति उससे सवाल करता है, कि जिसे तुम ले जा रहे हो, वह तुमारी कौन है? क्या यह तुम्हारी साली है या बहु है, तो भाई उससे क्रोधित होकर उसका जबाव देते हुए कहता है कि क्या तुम्हारे आंख फूट गई है, जिससे मेरी बहन तुम्हे साली या बहु लगती है।
बाट के चलत बटोहिया से पूछई एक बात लोई,
किया तोरे सारे ल सरहज कि या बहुयार लोई।
आंखि तोरि फूटई बटोहिया, बहिरवा होइके जाऊ लोई,
नाही मोरे सारे ल सरहज नाहि बहुआरि लोई,
पीठियऊ पाऊ देइके जनमी बहिनी हमार लोई।
बहन को है सामाजिक मार्यादाओं का ख्याल
कजली की नारी सामाजिक मर्यादाओं का विशेष ख्याल रखती है। पति को सीधे पति न कहकर सीधे ननद का भाई कहती है। जब वह जब अपने भाई के साथ चलती है, तब वह चाहती है कि उसकी पायल न बजे। वह शर्म के कारण अपने बच्चों को भी अपने साथ लेकर नहीं चलना चाहती है।
बहिनी के गोड़वा बिछववा बहिनी चलत लजात लोई,
भइया के गोड़वा पनहिया, भइया हाले हूले जाई लोई।
बहिनी के गोदिया बलकवा बहिनी चलत लजात लोई।
बॉक्स मैटर
भाई-बहन की गाथा
लोकगीत परंपरा में कजरी का विशेष स्थान है। पूर्वाचल के क्षेत्र विशेषकर वाराणसी, जौनपुर, गोरखपुर, उत्तरी बिहार आदि में इसे विशेष रूप से गाया जाता है। साहित्य समिक्षकों ने इस कजली को भाई-बहन की पवित्र गाथा की संज्ञा दी है।
आराधना की गीत है
जानकारों का कहना है कि कजली कजला देवी की आराधना का गीत भी है। यह नारी के सहज भाव विशेष रूप से विरह और श्रृंगार के चित्रण के लिए काफी लोकप्रिय भी हुआ है। सावन आते ही जहां धरती पर हरीतिमा छा जाती है और मेघों की मल्हार और पपीहे रट सुनाई देने लगती है। वहीं इस सुहाने परिवेश में बिरहियों का करुण क्रंदन एवं मिलन की तीव्र आकांक्षा भी इस कजली के माध्यम से व्यक्त होने लगती है।
लोक-संस्कृति का अभिन्न अंग
महानगरों में कजरी परंपरा को कायम करने के लिए सरकार के सांस्कृतिक विभाग को आगे आना चाहिए और इसके प्रोत्साहन के लिए विभिन्न मौकों पर कार्यक्रम भी आयोजित करने चाहिए। हालांकि एक-दो संगठन अपने स्तर पर प्रयास तो कर रहे हैं, लेकिन वे पर्याप्त नहीं हैं। लोक-संस्कृति के इस अभिन्न अंग को बचाये रखने के लिए हर वर्ग को शिद्दत से आगे आना चाहिए। सत्येन्द्र प्रसाद सिंह, महासचिव, बिहार सांस्कृतिक मंडल
विविध विषयों पर आधारित
कजरी की परंपरा किसी न किसी रूप में हर भाषा में है। सावन के दिनों में महिलाएं हाथों में मेंहदी लगाती हैं। मेहंदी लगाते हुए भी गीत गाती हैं। इनका विषय केवल भाई-बहन का प्रेम ही नहीं होता है, बल्कि परिवार के हर सदस्यों और सामाजिक समस्याओं से जुड़ा होता है। मंजु सिंह, कजरी गायिका
सोमवार, अगस्त 13, 2007
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