बुधवार, जून 10, 2009

पुण्य प्रसून बाजपयी

हिन्दुत्व के जीरो ग्राउंड जीरो से बीजेपी को परखना

बीजेपी के ग्रांउड जीरो पर मोदी का कांग्रेसीकरण

पुण्य प्रसून वाजपेयी

जिस युवा राजनीति का सवाल कांग्रेस के भीतर उफान पर है, वह उफान हिन्दुत्व की
प्रयोगशाला के राज्य गुजरात में बीजेपी के गढ राजकोट में अर्से से है । राजकोट
में कम्पयूटर साइंस से लेकर बिजनेस मैनेजमेंट और मेडिकल से लेकर बीपीओ से जुडा
युवा तबका बीजेपी का झंडा उठाने से नही चुकता लेकिन लहराते झंडे में संघ की
वैचारिक समझ देखना चाहता है । आरएसएस की इस राजनीतिक ट्रेनिंग का असर कमोवेश
समूचे सौराष्ट्र में है । जिसका केन्द्र राजकोट है और वजह भी यही है कि बीजेपी
ने कभी राजकोट सीट को नहीं गंवायी लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी
राजकोट में कांग्रेस से हार गयी । लेकिन बीजेपी के युवा कार्यकर्त्ताओ की माने
तो बीजेपी काग्रेस से नहीं बीजेपी के कांग्रेसीकरण से हार गयी । और सौराष्ट्र
में बीजेपी का मतलब है नरेन्द्र मोदी । तो पहली बार गुजरात में संघ और बीजेपी
के भीतर यह सवाल जोर-शोर से कुलबुला रहा है कि नरेन्द्र मोदी का भी
कांग्रेसीकरण तो नहीं हो रहा है । कांग्रेसीकरण का सवाल चुनाव को लेकर बनायी
गयी रणनीति और चुनाव के बाद देश की राजनीति में मोदी की अपनी भूमिका के तौर
तरीको को अपनाने से है । सौराष्ट्र में बीजेपी और आरएसएस ही नहीं किसी भी तबके
के बीच बैठते-घूमते हुये कोई भी नरेन्द्र मोदी की गैर मौजूदगी में भी मोदी का
एहसास कर सकता है । द्रारका में द्वारकादीश मंदीर के बाहर मनीष की पान की दुकान
हो या पोरबंदर में गांधी के जन्मस्थल वाले मोहल्ले में दिनेश सर्राफा की दुकान
या फिर सोमनाथ में सोमेश का एसटीडी बूथ...हर जगह नरेन्द्र मोदी के साथ अपनी
तस्वीर को दुकान में चस्पा कर दुकानदार गर्व भी महसूस करता है और सामाजिक अकड
भी दिखाता है । युवा तबका मोदी के साथ तस्वीर खिंचा कर अपने घेरे में अपनी अकड
दिखाने से नही चूकता तो बच्चे और महिलाये मोदी के हस्ताक्षर लेकर मोदी की नायक
छवि को बरकरार रखते है । नायक की यह छवि मोदी की किस्सागोई से भी जुड चुकी है ।
मसलन सडक से गुजरता मोदी का काफिला आम लोगो की आवाजाही नहीं रोकता । सडक पर कोई
दुर्घटना हो तो लोगो की आवाजाही चाहे जारी रहे लेकिन मोदी का काफिला रुक जाता
है और घायलो का कुशलक्षेम पूछ कर ही आगे बढता है । मोदी की लोकप्रियता का यह
अंदाज मोदी को आरएसएस की उस राजनीतिक ट्रेनिंग से अलग खडा करता है जिसमें
वैचारिक शुद्दता के साथ आदर्श समाज की परिकल्पना हो । जिसमें संगठन और
हिन्दुत्व समाज का भाव हो । ऐसा नहीं है कि अपनी लोकप्रियता को इस तर्ज पर
देखने के लिये मोदी ने कोई खास रणनीति अपनायी । असल में आरएसएस की राजनीतिक
ट्रेनिंग और बीजेपी की राजनीति ने जहा दम तोडा वहां नयी पीढी और आर्थिक सुधार
के बाद बनते नये सामाज की जरुरतो को मोदी ने थामा । इसलिये मोदी का संकट दोहरा
हो गया । एक तरफ मोदी की प्रयोगशाला में संघ ने भी खुद को झोका और रास्ता ना
पाकर बीजेपी भी नतमस्तक हुई। वही दूसरी तरफ इस प्रयोगशाला की हर कैमिकल थ्योरी
मोदी ही रहे तो मोदी को देखने का नजरिया भी हर तबके ने अपने अपने तरीके से
अपनाया । किसी के लिये मोदी हिन्दुत्व का झंडाबरदार रहे तो किसी के लिये विकास
का प्रतिक तो किसी के लिये बालीवुड के नायक सरीखा हो गये । इस अंदाज ने मोदी को
भी बरगलाया । जिन्हे टिकट दिया गया उनका वास्ता संघ से रहा नहीं और सामाजिक
पहचान बीजेपी के बीच की है नहीं । हां, बाजार और पूंजी से पहचान बनाने वाले
बीजेपी के उन समर्थको को मोदी ने ना सिर्फ टिकट दिया बल्कि गुजरात बीजेपी में
उनकी राजनीतिक हैसियत भी बढायी । राजकोट के उम्मीदवार किरण पाटिल इस सोच के
प्रतिक है । जो पैसे के बूते बीजेपी का टिकट तो पा गये लेकिन बीजेपी के भीतर ही
वोट ना मिलने से हार गया । असल में आरएसएस ने गुजरात में जो राजनीतिक ट्रेनिगं
दी उसमें हर जिले में ऐसे पैसे वालो की भरमार है जो संघ या बीजेपी की कार्यशाला
या बैठको को सफल बनाने के लिये हर तरीके से भोतिक इंतजाम करते रहे है । मोदी ने
पूंजी और राजनीति को मिलाकर उन्हे ही राजनीतिज्ञ बना दिया जो कल तक पार्टी के
इंतजाम का खर्चा उठाते - देखते थे । बीजेपी के इन नये कर्ताधर्ता के राजकरण के
तौर तरीके कांग्रेसी सरीखे है । जिसमें आरएसएस की सामाजिक सोच नहीं बल्कि सत्ता
बनाये रखने के तौर तरीके चलते है । यह तरीके बीजेपी के नेता और कार्यकर्ता के
बीच खायी लगातार चौडी भी करते जा रहे है । कार्यकर्ता की समझ या उसके सुझाव या
उसकी जरुरत लोकप्रिय मोदी स्टाइल के आगे कोई मायने नहीं रखते । क्योकि
कार्यकर्ता जहा के जो सवाल खडा करता है वहा से या तो मोदी सीधा संपर्क बनाने की
दिशा में हिरो की तरह जाते है यै अपने नये राजनीतिक करिन्दो के जरीये राजनीति
टटोलते है । यह स्टाइल मोदी को घेरे समूह में भी है । यानी मोदी जैसा ही उसे
घेरे लोग भी बनना-दिखना चाहते है । तो हर का वास्ता स्टाइल से होता है ना कि
मोदी से । कल तक जो घन्नसेठ फक्कड और मुफलिस संघी स्वसंसेवक या बीजेपी नेता को
अपने घर में ठहरा कर भोजन करा कर घन्य समझता था वही सेठ नेता बनने के लिये अब
जोड-तोड भी कर रहा है और वैचारिक तौर पर खुद को ज्यादा समझदार नेता भी मान रहा
है और फक्कड-मुफलिस संघी को बाहर से ही बाहर का रास्ता दिखाने से नहीं चुक रहा
। चुंकि मोदी ही सर्वोसर्वा है और उन तक सीधी पहुंच उस तहके की है तो वह भी
कार्यकर्ता-नेता को कुछ नहीं समझता । चूंकि दंगो से उपजी हिन्दुत्व प्रयोगशाला
का पाठ बीजेपी की राजनीति के लिये ज्यादा देर तक फायदेमंद हो नही सकता है है
इसलिये बीजेपी से पहले मोदी ने ही नये राजधर्म के नये-नये तौर तरीके अपनाये ।
जिससे 2002 की पहचान का तमगा ही छाती पर ना टंगा रहे । इसलिये 2009 तक आते आते
मोदी ने विकास का खांचा उस नयी अर्थव्यवस्था के ही इर्द-गिर्द ही रचा जिसके
खिलाफ स्वदेशी जागरण मंच काम करता रहा है । जिसमें वैक्लपिक आर्थिक खांचा खडा
कर स्वावलंबन का सवाल है । खेती और उघोगो के सामानांतर समाज के हर तबके को भी
एक साथ खडा करने का सवाल है । वही मोदी के अंदाज ने सौराष्ट्र के एनआरआई समेत
उस क्रिम तबके को पकडा जिसकी जरुरत विकास का इन्फ्रास्ट्रक्चर खडा करने की थी ।
जिसके लिये वह फंडिंग के लिये भी तैयार है । मोदी ने उघोगोपतियो को रिझाने के
लिये सौराष्ट्र की जमीन का एनओसी खुद ही बांटे । उघोगो के लिये
इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने का जिम्मा भी खुद उठाया । उघोगो तक बेहतरीन सडक
बनाने की रफ्तार भी अपने हाथ में रखी । भ्रष्ट्राचार या कमीशनखोरी के बंदरबांट
को सीधे सत्ता से जोडा । और सत्ता को भी इस तबके में हिस्सेदारी दे दी । इसका
बेहतरीन उदाहरण पोरबंदर में देखा जा सकता है जहां सबसे ज्यादा एनआरई है । तो
पोरबंदर जिला भी है और औघोगिक विकास की नगरी भी । बडे किसान भी है और
किसान-व्यापारी मोदी स्टाइल के प्रतिक भी है । असल में नरेन्द्र मोदी राजनीति
एक स्टाइल है जो गुजरात में पांच करोड गुजरातियो का नाम तो लेता है लेकिन
सामाजिक तौर पर महज पचास लाख गुजरातियो के जरीये बाकियो को इस स्टाइल को अपनाने
पर ही टिका देता है । ऐसे में सत्ता की कार्यप्रणाली भी संगठन से इतर इसी
स्टाइल पर आ टिकी है जो व्यक्तिविशेष को देखती है नाकि किसी विचारधारा या
सांगठनिक तौर-तरीको को । मोदी स्टाइल सत्ता बरकरार रखने का एक ऐसा तरीका है जो
पार्टी या विचारधारा से हटकर एक तबके को मुनाफे की थ्योरी समझाता है तो दूसरे
तबके को मुनाफे में हिस्सेदारी के लिये लालायित करता है । जो बच जाते है उन्हे
संभावना और आशंका के बीच तबतक झुलाता है जबतक उसपर कोई और राजनीति अपना मुलम्मा
ना चढा ले । राजनीतिक तौर पर बीजेपी के लिये यह शार्टकट का रास्ता हो सकता है
लेकिन पांच करोड गुजरातियो और सवा सौ भारतियो के अंतर को समझना होगा, जो ना तो
बीजेपी समझ पायी ना ही लाल कृष्ण आडवाणी समझ पा रहे है । सत्ता का रास्ता
बीजेपी के लिये तभी तक मान्य है जबतक वह कांग्रेस की बनायी लीक का विकल्प दे
सके । असल में बीजेपी सत्ता के लिये अपनी उस लकीर को ही मिटाना चाह रही है जो
कांग्रेस की राजनीति से अलग बन रही थी । कांग्रेस के एनजीओ स्टाइल के सामानांतर
संघ के करीब चालिस संगठन और को-ओपरेटिव व्यवस्था का जो खांचा बीजेपी को
राजनीतिक लाभ पहुचा सकता था उसे बीजेपी ने खुद ही तोडा । हिन्दुत्व की
प्रयोगशाला या मंदिर निर्माण कांग्रेस की राजनीति का विकल्प नहीं हो सकते बल्कि
सामाजिक तौर पर भावनात्मक उभान जरुर पैदा कर सकते है । लेकिन इस उभान का
राजनीतिक लाभ तभी मिल सकता है जब सामाजिक तौर पर वैकल्पिक राजनीति की जमीन हो ।
असल में भगवा कांग्रेसीकरण ने इसी जमीन को हडपा है । जिसमें गुजरात में मोदी हो
या दिल्ली में आडवाणी दोनो ने विकल्प का सारा ताना-बाना खुद के ही हर्द-गिर्द
बुनने की जबरन कोशिश की है । इस हकीकत को कोई समझ नही पा रहा है कि आरएसएस अगर
खुद को सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन कहता है तो उसका राजनीतिक पाठ समाजिक
शुद्दीकरण और सांगठनिक विचार को ही राजनीतिक सत्ता मानता है । जो कांग्रेस की
संसदीय राजनीति की थ्योरी से हटकर है । इसलिये संघ का वोट बैंक भगवा
कांग्रेसीकरण यानी बीजेपी का वोटबैंक नही हो सकता । इसलिये सवाल यह नहीं है कि
आडवाणी हार गये है और मोदी भी उसी राह पर है । बडा सवाल यह है कि एक तरफ
कांग्रेस है तो दूसरी तरफ संघ । वाजपेयी ने संघ की समझ को सूंड से पकड कर सत्ता
भोगी और आडवाणी संघ की समझ को पूंछ मान कर खुद को ही मजबूत नेता माना । राजकोट
की हार बताती है कि मोदी भी इसी राह पर है । लेकिन बीजेपी के जीरो ग्राउंड पर
खडे होकर महसूस किया जा सकता है कि भविष्य का सवाल बीजेपी की राजनीति या मोदी

पतरकार संघ की जरुरत


मीडिया हाउस के अंदर और बाहर के खटृटे-मीठे अनुभव से कौन बचा होगा, पत्रकार, वकील, चिकित्सक के साथ हिंसात्मक सूलक करने वालों को 5 साल की सजा संबंधित विधेयक का प्रस्ताव किसके हित के लिए है। कब से पड़ा है यह विधेयक। इस के पक्ष में तो संगठनों को अभियान मंजूरी तक एक अभियान चलाना चाहिए था। पर कहां है कोई अभियान। छोटी-मोटी घटनाएं ही नहीं बडी घटनाओं पर भी पत्रकार संगठन चुप रहे हैं। कभी पीडित पत्रकार संगठन का सदस्य नहीं रहा तो कभी वह विरोधी खेमे का निकला। दूसरी ओर दफतर की राजनीति। डेटलाइन से पहले बेहतरीन चटपटी टीआरपी बढाने वाली, पाठकों को आकर्षित करने वाली खबर देने का दबाव अलग। किसी घटना में प्रबंधन की सहानुभूति तो दूर अपने सहकर्मियों का साथ मिल जाए तो बहुत बडी बात होगी । हर हाउस में मंजे हुए खिलाडी हैं। एक दूसरे को नीतिपूर्ण तरीके से पछाड़ कर आगे निकल जाने की मानसिकता हर हाउस में है। अपनी ही बिरादरी में कोई अपना नहीं तो फिर साथ कौन दे। तटस्थ रहकर मौके पर लाभ लेने बाले बहुत है। आपस में किसी न किसी तरह से आगे निकल जाने के महौल में सबके लिए एकजुट होने की बात कैसे आ सकती है। प्रिंट मीडिया के कई संस्थानों में छठा तो दूर आज पांचवे वेतन आयोग के मुताबिक सैलरी नहीं मिल रही है। न्यूज चैनलों में मिल रही है तो डयूटी के घंटे देखिए। वहां के पत्रकारों के लिए अपने लिए समय नहीं है। मंदी के दौर में जब छंटनी की गाज गिरी तब भी पत्रकार संगठनों की कहीं से कोई आवाज नहीं आई। पत्रकारों पर जब-जब किसी तरह की गाज गिरी है तो अधिकतर संगठन चुप रहे है। वे कह कर मामला नहीं टाल सकते हैं कि उनके पास शिकायत नहीं पहुंचती। ऐसे मामलों में संगठन की स्वयं पहल होनी चाहिए थी, जो नहीं दिखती। यह समय है विचार करने का। पत्रकार संगठन का कोई औचित्य भी है या महज दिखावे के लिए है। आखिर किसके लिए हो रही है पत्रकारिता। यदि जनता को जगाना है तो जनता का साथ ने इस मौके पर साथ क्यों नहीं दिया। आखिर हर खबर का अंतिम लक्ष्य पाठक और दर्शक को हकीकत बताना ही तो हैं। यदि आगे निकलने के रफ़्तार में चैनल गिरफतार नहीं हुए होते तो शायद काले कानून के विरोध में डट कर सरकार को डराने की बजाये गिडगिडाने की नौबत नहीं आई होती।



कई घटनाएं ऐसी हुई जिससे सबसे पहले दिखाने की होड में मात खानी पड़ी। जनता का भरोसा तो उठना ही था। भरोसा तोडने की राह पर जब मीडिया जाने लगी थी, तभी संगठनों को सचेत होकर रणनीति तय करनी चाहिए थी। यहां यह तर्क देकर इस बात की अनेदेखी नहीं की जा सकती है कि मीडिया का नियंता पूंजी और बाजार हो गई है। पर इस बाजार ने कभी यह नहीं कहा कि जनता का भरोसा तोडा जाए। यदि भरोसा टूटता है तो निश्चित रूप से बाजार का ही नुकसान होगा। बहरहाल सारी स्थितियों को जानते रहते हुए केवल भड़ासी होने या कुढते रहने से कुछ नहीं होने वाला है। पत्रकार संगठनों की पिछली और वर्तमानी पीढी ने जो नहीं किया, वह अब होना चाहिए।

मीडिया हाउस के अंदर और बाहर के खटृटे-मीठे अनुभव से कौन बचा होगा, पत्रकार, वकील, चिकित्सक के साथ हिंसात्मक सूलक करने वालों को 5 साल की सजा संबंधित विधेयक का प्रस्ताव किसके हित के लिए है। कब से पड़ा है यह विधेयक। इस के पक्ष में तो संगठनों को अभियान मंजूरी तक एक अभियान चलाना चाहिए था। पर कहां है कोई अभियान। छोटी-मोटी घटनाएं ही नहीं बडी घटनाओं पर भी पत्रकार संगठन चुप रहे हैं। कभी पीडित पत्रकार संगठन का सदस्य नहीं रहा तो कभी वह विरोधी खेमे का निकला। दूसरी ओर दफतर की राजनीति। डेटलाइन से पहले बेहतरीन चटपटी टीआरपी बढाने वाली, पाठकों को आकर्षित करने वाली खबर देने का दबाव अलग। किसी घटना में प्रबंधन की सहानुभूति तो दूर अपने सहकर्मियों का साथ मिल जाए तो बहुत बडी बात होगी । हर हाउस में मंजे हुए खिलाडी हैं। एक दूसरे को नीतिपूर्ण तरीके से पछाड़ कर आगे निकल जाने की मानसिकता हर हाउस में है। अपनी ही बिरादरी में कोई अपना नहीं तो फिर साथ कौन दे। तटस्थ रहकर मौके पर लाभ लेने बाले बहुत है। आपस में किसी न किसी तरह से आगे निकल जाने के महौल में सबके लिए एकजुट होने की बात कैसे आ सकती है। प्रिंट मीडिया के कई संस्थानों में छठा तो दूर आज पांचवे वेतन आयोग के मुताबिक सैलरी नहीं मिल रही है। न्यूज चैनलों में मिल रही है तो डयूटी के घंटे देखिए। वहां के पत्रकारों के लिए अपने लिए समय नहीं है। मंदी के दौर में जब छंटनी की गाज गिरी तब भी पत्रकार संगठनों की कहीं से कोई आवाज नहीं आई। पत्रकारों पर जब-जब किसी तरह की गाज गिरी है तो अधिकतर संगठन चुप रहे है। वे कह कर मामला नहीं टाल सकते हैं कि उनके पास शिकायत नहीं पहुंचती। ऐसे मामलों में संगठन की स्वयं पहल होनी चाहिए थी, जो नहीं दिखती। यह समय है विचार करने का। पत्रकार संगठन का कोई औचित्य भी है या महज दिखावे के लिए है। आखिर किसके लिए हो रही है पत्रकारिता। यदि जनता को जगाना है तो जनता का साथ ने इस मौके पर साथ क्यों नहीं दिया। आखिर हर खबर का अंतिम लक्ष्य पाठक और दर्शक को हकीकत बताना ही तो हैं। यदि आगे निकलने के रफ़्तार में चैनल गिरफतार नहीं हुए होते तो शायद काले कानून के विरोध में डट कर सरकार को डराने की बजाये गिडगिडाने की नौबत नहीं आई होती।



कई घटनाएं ऐसी हुई जिससे सबसे पहले दिखाने की होड में मात खानी पड़ी। जनता का भरोसा तो उठना ही था। भरोसा तोडने की राह पर जब मीडिया जाने लगी थी, तभी संगठनों को सचेत होकर रणनीति तय करनी चाहिए थी। यहां यह तर्क देकर इस बात की अनेदेखी नहीं की जा सकती है कि मीडिया का नियंता पूंजी और बाजार हो गई है। पर इस बाजार ने कभी यह नहीं कहा कि जनता का भरोसा तोडा जाए। यदि भरोसा टूटता है तो निश्चित रूप से बाजार का ही नुकसान होगा। बहरहाल सारी स्थितियों को जानते रहते हुए केवल भड़ासी होने या कुढते रहने से कुछ नहीं होने वाला है। पत्रकार संगठनों की पिछली और वर्तमानी पीढी ने जो नहीं किया, वह अब होना चाहिए।