बुधवार, जून 10, 2009
पतरकार संघ की जरुरत
मीडिया हाउस के अंदर और बाहर के खटृटे-मीठे अनुभव से कौन बचा होगा, पत्रकार, वकील, चिकित्सक के साथ हिंसात्मक सूलक करने वालों को 5 साल की सजा संबंधित विधेयक का प्रस्ताव किसके हित के लिए है। कब से पड़ा है यह विधेयक। इस के पक्ष में तो संगठनों को अभियान मंजूरी तक एक अभियान चलाना चाहिए था। पर कहां है कोई अभियान। छोटी-मोटी घटनाएं ही नहीं बडी घटनाओं पर भी पत्रकार संगठन चुप रहे हैं। कभी पीडित पत्रकार संगठन का सदस्य नहीं रहा तो कभी वह विरोधी खेमे का निकला। दूसरी ओर दफतर की राजनीति। डेटलाइन से पहले बेहतरीन चटपटी टीआरपी बढाने वाली, पाठकों को आकर्षित करने वाली खबर देने का दबाव अलग। किसी घटना में प्रबंधन की सहानुभूति तो दूर अपने सहकर्मियों का साथ मिल जाए तो बहुत बडी बात होगी । हर हाउस में मंजे हुए खिलाडी हैं। एक दूसरे को नीतिपूर्ण तरीके से पछाड़ कर आगे निकल जाने की मानसिकता हर हाउस में है। अपनी ही बिरादरी में कोई अपना नहीं तो फिर साथ कौन दे। तटस्थ रहकर मौके पर लाभ लेने बाले बहुत है। आपस में किसी न किसी तरह से आगे निकल जाने के महौल में सबके लिए एकजुट होने की बात कैसे आ सकती है। प्रिंट मीडिया के कई संस्थानों में छठा तो दूर आज पांचवे वेतन आयोग के मुताबिक सैलरी नहीं मिल रही है। न्यूज चैनलों में मिल रही है तो डयूटी के घंटे देखिए। वहां के पत्रकारों के लिए अपने लिए समय नहीं है। मंदी के दौर में जब छंटनी की गाज गिरी तब भी पत्रकार संगठनों की कहीं से कोई आवाज नहीं आई। पत्रकारों पर जब-जब किसी तरह की गाज गिरी है तो अधिकतर संगठन चुप रहे है। वे कह कर मामला नहीं टाल सकते हैं कि उनके पास शिकायत नहीं पहुंचती। ऐसे मामलों में संगठन की स्वयं पहल होनी चाहिए थी, जो नहीं दिखती। यह समय है विचार करने का। पत्रकार संगठन का कोई औचित्य भी है या महज दिखावे के लिए है। आखिर किसके लिए हो रही है पत्रकारिता। यदि जनता को जगाना है तो जनता का साथ ने इस मौके पर साथ क्यों नहीं दिया। आखिर हर खबर का अंतिम लक्ष्य पाठक और दर्शक को हकीकत बताना ही तो हैं। यदि आगे निकलने के रफ़्तार में चैनल गिरफतार नहीं हुए होते तो शायद काले कानून के विरोध में डट कर सरकार को डराने की बजाये गिडगिडाने की नौबत नहीं आई होती।
कई घटनाएं ऐसी हुई जिससे सबसे पहले दिखाने की होड में मात खानी पड़ी। जनता का भरोसा तो उठना ही था। भरोसा तोडने की राह पर जब मीडिया जाने लगी थी, तभी संगठनों को सचेत होकर रणनीति तय करनी चाहिए थी। यहां यह तर्क देकर इस बात की अनेदेखी नहीं की जा सकती है कि मीडिया का नियंता पूंजी और बाजार हो गई है। पर इस बाजार ने कभी यह नहीं कहा कि जनता का भरोसा तोडा जाए। यदि भरोसा टूटता है तो निश्चित रूप से बाजार का ही नुकसान होगा। बहरहाल सारी स्थितियों को जानते रहते हुए केवल भड़ासी होने या कुढते रहने से कुछ नहीं होने वाला है। पत्रकार संगठनों की पिछली और वर्तमानी पीढी ने जो नहीं किया, वह अब होना चाहिए।
मीडिया हाउस के अंदर और बाहर के खटृटे-मीठे अनुभव से कौन बचा होगा, पत्रकार, वकील, चिकित्सक के साथ हिंसात्मक सूलक करने वालों को 5 साल की सजा संबंधित विधेयक का प्रस्ताव किसके हित के लिए है। कब से पड़ा है यह विधेयक। इस के पक्ष में तो संगठनों को अभियान मंजूरी तक एक अभियान चलाना चाहिए था। पर कहां है कोई अभियान। छोटी-मोटी घटनाएं ही नहीं बडी घटनाओं पर भी पत्रकार संगठन चुप रहे हैं। कभी पीडित पत्रकार संगठन का सदस्य नहीं रहा तो कभी वह विरोधी खेमे का निकला। दूसरी ओर दफतर की राजनीति। डेटलाइन से पहले बेहतरीन चटपटी टीआरपी बढाने वाली, पाठकों को आकर्षित करने वाली खबर देने का दबाव अलग। किसी घटना में प्रबंधन की सहानुभूति तो दूर अपने सहकर्मियों का साथ मिल जाए तो बहुत बडी बात होगी । हर हाउस में मंजे हुए खिलाडी हैं। एक दूसरे को नीतिपूर्ण तरीके से पछाड़ कर आगे निकल जाने की मानसिकता हर हाउस में है। अपनी ही बिरादरी में कोई अपना नहीं तो फिर साथ कौन दे। तटस्थ रहकर मौके पर लाभ लेने बाले बहुत है। आपस में किसी न किसी तरह से आगे निकल जाने के महौल में सबके लिए एकजुट होने की बात कैसे आ सकती है। प्रिंट मीडिया के कई संस्थानों में छठा तो दूर आज पांचवे वेतन आयोग के मुताबिक सैलरी नहीं मिल रही है। न्यूज चैनलों में मिल रही है तो डयूटी के घंटे देखिए। वहां के पत्रकारों के लिए अपने लिए समय नहीं है। मंदी के दौर में जब छंटनी की गाज गिरी तब भी पत्रकार संगठनों की कहीं से कोई आवाज नहीं आई। पत्रकारों पर जब-जब किसी तरह की गाज गिरी है तो अधिकतर संगठन चुप रहे है। वे कह कर मामला नहीं टाल सकते हैं कि उनके पास शिकायत नहीं पहुंचती। ऐसे मामलों में संगठन की स्वयं पहल होनी चाहिए थी, जो नहीं दिखती। यह समय है विचार करने का। पत्रकार संगठन का कोई औचित्य भी है या महज दिखावे के लिए है। आखिर किसके लिए हो रही है पत्रकारिता। यदि जनता को जगाना है तो जनता का साथ ने इस मौके पर साथ क्यों नहीं दिया। आखिर हर खबर का अंतिम लक्ष्य पाठक और दर्शक को हकीकत बताना ही तो हैं। यदि आगे निकलने के रफ़्तार में चैनल गिरफतार नहीं हुए होते तो शायद काले कानून के विरोध में डट कर सरकार को डराने की बजाये गिडगिडाने की नौबत नहीं आई होती।
कई घटनाएं ऐसी हुई जिससे सबसे पहले दिखाने की होड में मात खानी पड़ी। जनता का भरोसा तो उठना ही था। भरोसा तोडने की राह पर जब मीडिया जाने लगी थी, तभी संगठनों को सचेत होकर रणनीति तय करनी चाहिए थी। यहां यह तर्क देकर इस बात की अनेदेखी नहीं की जा सकती है कि मीडिया का नियंता पूंजी और बाजार हो गई है। पर इस बाजार ने कभी यह नहीं कहा कि जनता का भरोसा तोडा जाए। यदि भरोसा टूटता है तो निश्चित रूप से बाजार का ही नुकसान होगा। बहरहाल सारी स्थितियों को जानते रहते हुए केवल भड़ासी होने या कुढते रहने से कुछ नहीं होने वाला है। पत्रकार संगठनों की पिछली और वर्तमानी पीढी ने जो नहीं किया, वह अब होना चाहिए।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें