आखिर वर्षों इंतजार के बाद अयोध्या प्रकरण में अदालत को निर्णय आ गया। यह कई मायनों में महत्वपूर्ण है। यह इसलिए कि इसमें हर पक्ष को खुश करने की कोशिश है। देश में उत्पन्न माहौल में सधा हुआ निणर्य है। कुल मिलाकर स्थिति न तुम हारे, न हम जीते जैसी है। रामचंद्र भले भले ही रामायण और रामचरित मानस के पात्र हो। लेकिन कोर्ट ने इस आस्था को प्रमाणित कर दिया कि रामचंद्र की पावन जन्मभूमि अयोध्या ही थी।
खैर, यदि कोई पक्ष इस निर्णय के खिलाफ अदालत में नहीं जाए तो फैसले को लगाू कराना अब बहुत ज्यादा मुश्किल नहीं होगा। बेहतर होता कि सुन्न वक्फ बोर्ड या कोई अन्य संगठन अथवा कोई व्यक्ति विशेष इस फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय की की शरण में जाने के बजाय, इस ऐतिहासिक अध्याय को यहीं विराम देकर नई पीढ़ी को शांति और अमन एक एक नया सौगात दे दे।
गुरुवार, सितंबर 30, 2010
बुधवार, सितंबर 29, 2010
...फिर कहां कोई पूछेगा अयोध्या को
अयोध्या प्रकरण। इंंतजार खत्म होने को है। कुछ भी हो सकता है। संभवत देश एक नई करवट ले। इस करवट से शायद किसी समुदाय विशेष को चैन न मिले। पर एक बात तो तय-सी दिखती है, प्रकरण उच्चतम न्यायालय जाएगा जरूर। यदि किसी पक्ष को उच्चम न्यायालय की शरण में जाने से देश को 1992 जैसे हालात नहीं देखने को मिले तो अच्छा होगा।
जमाना गुजर चुका है, नई पीढ़ी को न मंदिर चाहिए और न ही मस्जिद। सुख-चैन से रोटी चाहिए। अच्छी पैकेज की नौकरी। एैस की जिंदगी। ऐसी पीढ़ी की एक पौध और आ जाए फिर कहां कोई पूछेगा अयोध्या को।
जमाना गुजर चुका है, नई पीढ़ी को न मंदिर चाहिए और न ही मस्जिद। सुख-चैन से रोटी चाहिए। अच्छी पैकेज की नौकरी। एैस की जिंदगी। ऐसी पीढ़ी की एक पौध और आ जाए फिर कहां कोई पूछेगा अयोध्या को।
मंगलवार, सितंबर 28, 2010
बस एक दशक और उलझा रहे अयोध्या मामला..
अयोध्या प्रकरण पर अगले दो दिन में निणर्य आ जाएगा। पिछली बार तय तिथि को निर्णय आना था, उसको लेकर-तरह मन में तरह-तरह की शंकायें थी। मन बुरी तरह से डरा हुआ था। आखिर निर्णय की तिथि स्थगित हुई। मन को काफी सुकून मिला। काश, यह विवाद ऐसे ही करीब एक दशक और खींच जाये, तो शायद विवाद पर किसी तरह की निर्णय की जरूरत ही नहीं पड़े। क्योंकि एक दशक में नई पीढ़ी की दूसरी खेप तैयार हो जाएगी। 1992 में जो पीढ़ी करीब आह दस दस साल की थी, अब आज 25 पार की है। यह पीढ़ी इस विवाद को सचमुच का एक झमेला माानती है। अगले दस वर्ष में जो पीढ़ी तैयार होगी, उसकी सोच पिछले से काफी आगे होगी। 90 के दशक तक के जवाब पूरी तरह से बूढ़ हो चुके रहेंगे। उनकी नई पीढ़ी पर न चलेगी और न ही यह विवाद होगा।
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मन मसोसने का डर...
मन की बात
जिंदगी के किताबों से गुजरों तो सैकड़ों ऐसे किरदार मिलेंगे, जिनसे जेहन में खट्टी-मीठी स्मृतियां ताजी हो जाएंगी। गुलजार की एक शायरी है। किताबों से गुजरों तो कुछ यूं, किरदार मिलते, है, गये वक्त की ड्योढ़ी पर खड़े कुछ यार मिलते है, जिन्हें दिल का विराना समझ कर छोड़ आए थे, वहीं उजड़े हुए सहर में कुछ आसार नजर आते हैं।
शायरी की संवेदना कम नहीं होती है, बस जरूरत होती है, उसे संवदेना के मर्म को समझने के लिए जिसके दर्द से अभिभूत होकर शायर या कवि दो चार पंक्तियां लिख कर मन हल्का करते हैं।
अब नये शहर में हूं। सोचा नहीं था, गांव से दिल्ली, दिल्ली से नागपुर और फिर राजस्थान में कोटा। छोटी उम्र में सपना था पटना में पढ़ा जाए, पर परस्थितियां ऐसी बनी कि सीधे देश की राजधानी में पढऩे का मौका मिला। मौका जल्दी मिला, इसलिए वह बहुत कुछ पीछे छुट गया, जिसे किताबों में पढ़ कर मन में कसक उठती है, काश, गवई जिंदगी का कुछ और हिंसा अपनी ङ्क्षजदंगी से जुड़ा हुआ रहता।
पर बदलते दौर में करियर में ऊचाई पाने की जद्दोजहद जिंदगी को ऐसे जिंदगी की ऐसी करवट बदलवाते रहता है कि वह सब कुछ पीढ़ पीछे होते चला जाता है, जहां से सच्चे सुख की अनुभूति होती है। पर हम भी जानते हैं, यह सब माया है। पद प्रतिष्ठा और पैसे की। पर इसके पीछे मेहनत के साथ जो और कीमत चुक रही है, उसे सोच कर मन में छटपटाहट होती है। मन मसोसने के अलावा कोई उपाय भी नहीं है। अब तक के अनुभव से साबित हो चुका है। अकेले व्यक्तिगत स्थितियां ही व्यक्ति को पेशोपेश में नहीं डालती है। समाजिक, आर्थिक परिवेश की परिस्थितियां बहुत हल्की नहीं होती है। सच कहें तो ये ही इतनी मजबूत है कि इन्हें तोडऩा बूते से बाहर की बात है।
जानकार लोग कहते हैं कि 35 से 40 की उम्र में मीडिल एज क्राइसिस होता है। उनके अनुभव सुन और देखकर डर लगता है। पता नहीं करीब पांच साल बाद मन फिर किस जद्दोजहद में फंसेंगा और उसके बाद जिंदगी किस तरह की मोड लेगी। बस डर इसी बात का है कि हमेशा मन मसोस कर न रहा जाये।
जिंदगी के किताबों से गुजरों तो सैकड़ों ऐसे किरदार मिलेंगे, जिनसे जेहन में खट्टी-मीठी स्मृतियां ताजी हो जाएंगी। गुलजार की एक शायरी है। किताबों से गुजरों तो कुछ यूं, किरदार मिलते, है, गये वक्त की ड्योढ़ी पर खड़े कुछ यार मिलते है, जिन्हें दिल का विराना समझ कर छोड़ आए थे, वहीं उजड़े हुए सहर में कुछ आसार नजर आते हैं।
शायरी की संवेदना कम नहीं होती है, बस जरूरत होती है, उसे संवदेना के मर्म को समझने के लिए जिसके दर्द से अभिभूत होकर शायर या कवि दो चार पंक्तियां लिख कर मन हल्का करते हैं।
अब नये शहर में हूं। सोचा नहीं था, गांव से दिल्ली, दिल्ली से नागपुर और फिर राजस्थान में कोटा। छोटी उम्र में सपना था पटना में पढ़ा जाए, पर परस्थितियां ऐसी बनी कि सीधे देश की राजधानी में पढऩे का मौका मिला। मौका जल्दी मिला, इसलिए वह बहुत कुछ पीछे छुट गया, जिसे किताबों में पढ़ कर मन में कसक उठती है, काश, गवई जिंदगी का कुछ और हिंसा अपनी ङ्क्षजदंगी से जुड़ा हुआ रहता।
पर बदलते दौर में करियर में ऊचाई पाने की जद्दोजहद जिंदगी को ऐसे जिंदगी की ऐसी करवट बदलवाते रहता है कि वह सब कुछ पीढ़ पीछे होते चला जाता है, जहां से सच्चे सुख की अनुभूति होती है। पर हम भी जानते हैं, यह सब माया है। पद प्रतिष्ठा और पैसे की। पर इसके पीछे मेहनत के साथ जो और कीमत चुक रही है, उसे सोच कर मन में छटपटाहट होती है। मन मसोसने के अलावा कोई उपाय भी नहीं है। अब तक के अनुभव से साबित हो चुका है। अकेले व्यक्तिगत स्थितियां ही व्यक्ति को पेशोपेश में नहीं डालती है। समाजिक, आर्थिक परिवेश की परिस्थितियां बहुत हल्की नहीं होती है। सच कहें तो ये ही इतनी मजबूत है कि इन्हें तोडऩा बूते से बाहर की बात है।
जानकार लोग कहते हैं कि 35 से 40 की उम्र में मीडिल एज क्राइसिस होता है। उनके अनुभव सुन और देखकर डर लगता है। पता नहीं करीब पांच साल बाद मन फिर किस जद्दोजहद में फंसेंगा और उसके बाद जिंदगी किस तरह की मोड लेगी। बस डर इसी बात का है कि हमेशा मन मसोस कर न रहा जाये।
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मंगलवार, सितंबर 21, 2010
यह जुल्म की इन्तहा नहीं तो क्या है.....?
यह जुल्म की इन्तहा नहीं तो क्या है.....?
21 September, 2010
रामचरितमानस में तुलसी बाबा शबरी भीलन के भोलेपन का बड़ा ही मनोहारी वर्णन करते हैं। यह भोलेपन में निहित निश्चलता ही है, जो रामचंद्र सहज ही सबरी के जूठे बेर खा लेते हैं। लक्ष्मण में अहंम हैं, तभी तो वे बेर को फेंक देते हैं। रामचरितमानस मध्ययुग का रचित काव्य है। लिहाजा, अनुमान लगाया जा सकता है कि मध्ययुगीन आराजक समाज में सुदूर जंगल की दुनिया से भील सहजता, निच्छल्लता और प्रेम से अतिथियों का स्वागत करते हैं। शबरी के अतित्थ्य भाव की यह मिशाल पूरे भील समुदाय के सादगी का प्रतिबिंब था।
आज जमाने का रंग-ढंग बदल चुका है। विकास की रफ्तार ने भले ही मध्ययुगीन भूगोल और सामाजिक रंगढंग को बदल दिया हो, लेकिन भील समुदाय इस बदले रंगढंग के साथ कदमताल में पीछे रह गये। जंगल खत्म हो गये, तो शहरी वातावरण में ही भीलों ने दबे-सहमे जीना सीख लिया। पर रामचंद्र जैसे सरस स्वभाव वालों की संख्या मध्ययुग की तरह ही नागण्य रही। लक्ष्मण के चरित्र को छोड़ उनकी जैसे ही दबंगई से अभिभूत लोगों की संख्या बढ़ गई। समाज में इनका प्रभाव कायम है। रामचरितमानस में तो लक्ष्मण में शबरी भीलन को हेय भर समझा था, लेकिन आज भी भील दबंगों के दंश को झेलने पर मजबूर हैं। यह दबंग चाहे व्यक्ति हो या कोई संस्था अथवा कोई प्रशासन सभी का व्यवहार भीलों के प्रति रुखा है।
राजस्थान के झालावाड़ जिले में 18 सितंबर को मायके जा रही भील समाज की एक नवविवाहिता को तीन युवकों ने जबरन गाड़ी में बिढ़ाया और उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म किया। जैसे-तैसे तो मामला थाने में दर्ज हो गया। पर जांच में पुलिस की नियत खोटी दिखी। उसने भोले भीलों का बरगलाना चाहा। जब भील समाज के लोगों ने मेडिकल रिपोर्ट की प्रति मांगी, तो पुलिस ने देने से इनकार किया। लिहाजा, भील समाज एकजुट हो गया। करीब डेढ़ हजार भीलों ने सोमवार, 20 सितंबर को मनोहर थाना के खेरखेड़ी माताजी मंदिर में बैठक की। प्रशासन के विरोध में मनोहर थाना में बाजार बंद कराने का निर्णय लिया। हालांकि शांति व्यवस्था की दृष्टि से भील समाज के स्थानीय नेताओं ने इसका विरोध किया, लेकिन बाहर से आए प्रतिनिधियों ने स्थानीय विरोध को दरकिनार कर बाजार तक पहुंच गये। दुष्कर्मियों में एक आरोपी के पिता अमन ट्रांसपोर्ट का कार्यालय नजर आया। उन्होंने देखते-देखते ही उसमें आग लगा दी। भीलों का हुजूम बीनागंज चौराहे पर पहुंच गया। पुलिस ने उन्हें रोकना चाहा, तो दोनों पक्षों की ओर से पत्थरबाजी हुई।
पुलिस अधिकारियों का कहना है कि भील समाज के लोग गोफण से पथराव करने लगे तो पुलिस ने रबड़ की गोलियां चलायी। बात बिगड़ती देख हवाई फायर किए गए। उपद्रवी बने भील मक्के के खेत में घुसकर गोफण चलाने लगे। पुलिस ने आश्रु गैस का सहारा लिया। फिर भी स्थिति नियंत्रण में नहीं आई, तो गोलियों की बौछार कर दी। फायरिंग के बाद पप्पू लाल (20) की घटना स्थल पर ही मृत्यु हो गई। दूसरे ने रात रात सवा आठ बजे के करीब झालावाड़ चिकित्सालय में दम तोड़ा दिया। सूचना यह भी है कि इस घटना के बाद इलाके में मरघट जैसी खामोशी ने पांव पसार लिया। एक ओर तो प्रशासन 24 सितंबर के अदालती फैसले का जबरन हव्वा खड़ा कर शांतिप्रिय माहौल को बिगड़ने से रोकने की तैयारी दिखा रही है, वहीं दूसरी ओर मानवीय संवदेना को तार-तार करने वाली ऐसी घटना हो रही है।
पुलिस की लापरवाही से इस तरह की घटना कोई नई नहीं है। गत कुछ वर्ष के घनाक्रमों का इतिहास खंगाले तो कई उदाहरण मिल जाएंगे, जिसमें किसी कमजोर वर्ग के साथ अन्याय हुआ, पुलिस ने उपेक्षा की। कमजोर वर्ग ने उपेक्षा के विरोध में आवाज उठाई तो उसे बर्बरता से दबा दिया गया। फिलहाल इस दुष्कर्म और गोलीकांड के बाद अब क्या होगा। प्रशासन दो-चार पुलिसकर्मियों को निलंबित कर देगा। नेता बयानों से नेता अपनी मतलब की रोटियां सकेंगे। दोषियों की सजा कब सिद्ध होगी और सजा कब तक मुकर्रर होगी, यह दूर की बात है। राजस्थान की जमी चर्चित भंवरी देवी बलात्कार कांड के दोषियों का क्या हुआ?
भील समाज के युवती के तार-तार हुए आबरु की घटना से भला यह भील समाज प्रशासन की लापरवाही पर क्यों नहीं उग्र होता है। इस उग्रता के पीछे त्वरित न्याय की असफलता है। पूरे प्रकरण को केवल भील समाज की घटना समझ कर विचार करने की जरूरत नहीं है। छोटे-से बड़े मामले में यह देखा गया है कि प्रशासन अन्याय के विरोध के तर्क असानी से सुनता ही नहीं है। जब सुनता है तब तक काफी देर हो चुकी होती है। कई जानें जा चुकी होती हैं। सवााल है कि आखिर पुलिस किसी प्रकरण से संबंधित दस्तावेज शिकायकर्ता को देने से क्यों हिचकती है? आखिर शिकायत के बाद उसे तो इतना हक बनता ही है कि जांच-पड़ताल की गति क्या है और कहां तक पहुंची? अंग्रेजों के जमाने की मानसिता वाली भारतीय पुलिस की चालढाल पर पर तो अनेक बहस हुई पर सरकार ने सुध नहीं लिया। पुलिस की बर्बरता अभी तक बनी हुई है, पर यह बर्बरता भी किस काम की जब यह दुराचारियों के मन में अपना खौफ नहीं बैठा पाई?
21 September, 2010
भीलों पर जुल्म ढाती पुलिस 18 सितंबर को राजस्थान के झालावाड़ में एक दुखद घटना हुई जिसका आज के सामाजिक और राजनीतिक माहौल में विश्लेषण जरूरी है. इस दिन भील समाज की एक नवविवाहिता का कुछ मुस्लिम युवकों ने जबरन अपहरण करके उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म किया. भील समाज ने जब इसका विरोध किया और आरोपियों को पकड़ने की मांग को लेकर धरना प्रदर्शन शुरू किया तो राज्य की पुलिस ने आरोपियों को पकड़ने की बजाय भोले भाले भीलों पर ही जुल्म ढाना शुरू कर दिया. संजय स्वदेश की रिपोर्ट-
रामचरितमानस में तुलसी बाबा शबरी भीलन के भोलेपन का बड़ा ही मनोहारी वर्णन करते हैं। यह भोलेपन में निहित निश्चलता ही है, जो रामचंद्र सहज ही सबरी के जूठे बेर खा लेते हैं। लक्ष्मण में अहंम हैं, तभी तो वे बेर को फेंक देते हैं। रामचरितमानस मध्ययुग का रचित काव्य है। लिहाजा, अनुमान लगाया जा सकता है कि मध्ययुगीन आराजक समाज में सुदूर जंगल की दुनिया से भील सहजता, निच्छल्लता और प्रेम से अतिथियों का स्वागत करते हैं। शबरी के अतित्थ्य भाव की यह मिशाल पूरे भील समुदाय के सादगी का प्रतिबिंब था।
आज जमाने का रंग-ढंग बदल चुका है। विकास की रफ्तार ने भले ही मध्ययुगीन भूगोल और सामाजिक रंगढंग को बदल दिया हो, लेकिन भील समुदाय इस बदले रंगढंग के साथ कदमताल में पीछे रह गये। जंगल खत्म हो गये, तो शहरी वातावरण में ही भीलों ने दबे-सहमे जीना सीख लिया। पर रामचंद्र जैसे सरस स्वभाव वालों की संख्या मध्ययुग की तरह ही नागण्य रही। लक्ष्मण के चरित्र को छोड़ उनकी जैसे ही दबंगई से अभिभूत लोगों की संख्या बढ़ गई। समाज में इनका प्रभाव कायम है। रामचरितमानस में तो लक्ष्मण में शबरी भीलन को हेय भर समझा था, लेकिन आज भी भील दबंगों के दंश को झेलने पर मजबूर हैं। यह दबंग चाहे व्यक्ति हो या कोई संस्था अथवा कोई प्रशासन सभी का व्यवहार भीलों के प्रति रुखा है।
राजस्थान के झालावाड़ जिले में 18 सितंबर को मायके जा रही भील समाज की एक नवविवाहिता को तीन युवकों ने जबरन गाड़ी में बिढ़ाया और उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म किया। जैसे-तैसे तो मामला थाने में दर्ज हो गया। पर जांच में पुलिस की नियत खोटी दिखी। उसने भोले भीलों का बरगलाना चाहा। जब भील समाज के लोगों ने मेडिकल रिपोर्ट की प्रति मांगी, तो पुलिस ने देने से इनकार किया। लिहाजा, भील समाज एकजुट हो गया। करीब डेढ़ हजार भीलों ने सोमवार, 20 सितंबर को मनोहर थाना के खेरखेड़ी माताजी मंदिर में बैठक की। प्रशासन के विरोध में मनोहर थाना में बाजार बंद कराने का निर्णय लिया। हालांकि शांति व्यवस्था की दृष्टि से भील समाज के स्थानीय नेताओं ने इसका विरोध किया, लेकिन बाहर से आए प्रतिनिधियों ने स्थानीय विरोध को दरकिनार कर बाजार तक पहुंच गये। दुष्कर्मियों में एक आरोपी के पिता अमन ट्रांसपोर्ट का कार्यालय नजर आया। उन्होंने देखते-देखते ही उसमें आग लगा दी। भीलों का हुजूम बीनागंज चौराहे पर पहुंच गया। पुलिस ने उन्हें रोकना चाहा, तो दोनों पक्षों की ओर से पत्थरबाजी हुई।
पुलिस अधिकारियों का कहना है कि भील समाज के लोग गोफण से पथराव करने लगे तो पुलिस ने रबड़ की गोलियां चलायी। बात बिगड़ती देख हवाई फायर किए गए। उपद्रवी बने भील मक्के के खेत में घुसकर गोफण चलाने लगे। पुलिस ने आश्रु गैस का सहारा लिया। फिर भी स्थिति नियंत्रण में नहीं आई, तो गोलियों की बौछार कर दी। फायरिंग के बाद पप्पू लाल (20) की घटना स्थल पर ही मृत्यु हो गई। दूसरे ने रात रात सवा आठ बजे के करीब झालावाड़ चिकित्सालय में दम तोड़ा दिया। सूचना यह भी है कि इस घटना के बाद इलाके में मरघट जैसी खामोशी ने पांव पसार लिया। एक ओर तो प्रशासन 24 सितंबर के अदालती फैसले का जबरन हव्वा खड़ा कर शांतिप्रिय माहौल को बिगड़ने से रोकने की तैयारी दिखा रही है, वहीं दूसरी ओर मानवीय संवदेना को तार-तार करने वाली ऐसी घटना हो रही है।
पुलिस की लापरवाही से इस तरह की घटना कोई नई नहीं है। गत कुछ वर्ष के घनाक्रमों का इतिहास खंगाले तो कई उदाहरण मिल जाएंगे, जिसमें किसी कमजोर वर्ग के साथ अन्याय हुआ, पुलिस ने उपेक्षा की। कमजोर वर्ग ने उपेक्षा के विरोध में आवाज उठाई तो उसे बर्बरता से दबा दिया गया। फिलहाल इस दुष्कर्म और गोलीकांड के बाद अब क्या होगा। प्रशासन दो-चार पुलिसकर्मियों को निलंबित कर देगा। नेता बयानों से नेता अपनी मतलब की रोटियां सकेंगे। दोषियों की सजा कब सिद्ध होगी और सजा कब तक मुकर्रर होगी, यह दूर की बात है। राजस्थान की जमी चर्चित भंवरी देवी बलात्कार कांड के दोषियों का क्या हुआ?
भील समाज के युवती के तार-तार हुए आबरु की घटना से भला यह भील समाज प्रशासन की लापरवाही पर क्यों नहीं उग्र होता है। इस उग्रता के पीछे त्वरित न्याय की असफलता है। पूरे प्रकरण को केवल भील समाज की घटना समझ कर विचार करने की जरूरत नहीं है। छोटे-से बड़े मामले में यह देखा गया है कि प्रशासन अन्याय के विरोध के तर्क असानी से सुनता ही नहीं है। जब सुनता है तब तक काफी देर हो चुकी होती है। कई जानें जा चुकी होती हैं। सवााल है कि आखिर पुलिस किसी प्रकरण से संबंधित दस्तावेज शिकायकर्ता को देने से क्यों हिचकती है? आखिर शिकायत के बाद उसे तो इतना हक बनता ही है कि जांच-पड़ताल की गति क्या है और कहां तक पहुंची? अंग्रेजों के जमाने की मानसिता वाली भारतीय पुलिस की चालढाल पर पर तो अनेक बहस हुई पर सरकार ने सुध नहीं लिया। पुलिस की बर्बरता अभी तक बनी हुई है, पर यह बर्बरता भी किस काम की जब यह दुराचारियों के मन में अपना खौफ नहीं बैठा पाई?
यह जुल्म की इन्तहा नहीं तो क्या है....
रामचरित मानस में तुलसी बाबा शबरी भीलन के भोलेपन का बड़ा ही मनोहारी वर्णन करते हैं। यह भोलेपन में निहीत निश्चलता ही है, जो रामचंद्र सहज ही सबरी के जूठे वेर खा लेते हैं। लक्ष्मण में अहंम हैं, तभी तो वे वेर को फेंक देते हैं। रामचरितमानस मध्ययुग का रचित काव्य है। लिहाजा, अनुमान लगाया जा सकता है कि मध्ययुगीन आराजक समाज में सुदूर जंगल की दुनिया से भील सहजता, निच्छल्लता और प्रेम से अतिथियों का स्वागत करते हैं। शबरी के अतित्थ्य भाव की यह मिशाल पूरे भील समुदाय के सादगी का प्रतिबिंब था।
आज जमाने का रंग-ढंग बदल चुका है। विकास की रफ्तार ने भले ही मध्ययुगीन भूगोल और सामाजिक रंगढंग को बदल दिया हो, लेकिन भील समुदाय इस बदले रंगढंग के साथ कदमताल में पीछे रह गये। जंगल खत्म हो गये, तो शहरी वातावरण में ही भलों ने दबे-सहमे जीना सीख लिया। पर रामचंद्र जैसे सरस स्वभाव वालों की संख्या मध्ययुग की तरह ही नागण्य रही। लक्ष्मण के चरित्र को छोड़ उनकी जैसे ही दबंगई से अभिभूत लोगों की संख्या बढ़ गई। समाज में इनका प्रभाव कायम है। रामचरितमानस में तो लक्ष्मण में शबरी भीलन को हेय भर समझा था, लेकिन आज भी भील दबंगों के दंश को झेलने पर मजबूर हैं। यह दबंग चाहे व्यक्ति हो या कोई संस्था अथवा कोई प्रशासन सभी का व्यवहार भीलों के प्रति रुखा है।
ताजा उदाहरण सामने हैं। राजस्थान के झालावाड़ जिले में 18 सितंबर को मायके ज रही भील समाज की एक नवविवाहिता को तीन युवकों ने जबरन गाड़ी में बिढ़ाया और उसके साथ सामुहिक दुष्कर्म किया। जैसे-तैसे तो मामला थाने में दर्ज हो गया। पर जांच में पुलिस की नियत खोटी दिखी। उसने भोले भीलों का बरगलाना चाहा।जब भील समाज के लोगों ने मेडिकल रिपोर्ट की प्रति मांगी, तो पुलिस ने देने से इनकार किया। लिहाजा, भोला भील समाज एकजुट हो गया। करीब डेढ़ हजार भीलों ने सोमवार, 20 सितंबर को मनोहरथाना के खेरखेड़ी माताजी मंदिर में बैठक की। प्रशासन के विरोध में मनोहरथाना में बाजार बंद कराने का निर्णय लिया।
हालांकि शांति व्यवस्था की दृष्टि से भील समाज के स्थानीय नेताओं ने इसका विरोध किया। लेकिन बाहर से आए प्रतिनिधियों ने स्थानीय विरोध को दरकिनार कर बाजार तक पहुंच गये। दुष्कर्मियों में एक आरोपी के पिता अमन ट्रांसपोर्ट का कार्यालय नजर आया। उन्होंने देखते-देखते ही उसमें आग लगा दी। भीलों का हुजूम बीनागंज चौराहे पर पहुंच गया। पुलिस ने उन्हें रोकना चाहा, तो दोनों पक्षों की ओर से पत्थरबाजी हुई।
पुलिस अधिकारियों का कहना है कि भील समाज के लोग गोफण से पथराव करने लगे तो पुलिस रबड़ की गोलियां चलायी। बात बिगड़ी देखे हवाई फायर किए गए। उपद्रवी बने भोले भील मक्के के खेत में घुसकर गोफण चलाने लगे। पुलिस ने आश्रु गैस का सहारा लिया। फिर भी स्थिति नियंत्रण में नहीं आई, तो गोलियों की बौदार कर दी। फायरिंग के बाद पप्पू लाल (20) की घटना स्थल पर ही मृत्यु हो गई। दूसरे ने रात रात सवा आठ बजे के करीब झालावाड़ चिकित्सालय में दम तोड़ा दिया। सूचना यह भी है कि इस घटना के बाद इलाके में मरघट जैसी खामोशी ने पांव पसार लिया।
एक ओर तो प्रशासन 24 सितंबर के अदालती फैसले का जबरन हव्वा खड़ा कर शांतिप्रिय माहौल को बिगड़ने से रोकने की तैयारी दिखा, रही है, वहीं दूसरी ओर मानवीय संवदेना को तार-तार करने वाली ऐसी घटना हो रही है।
पुलिस की लापरवाही से इस तरह की घटना कोई नई नहीं है। गत कुछ वर्ष के घनाक्रमों का इतिहास खंगाले तो कई उदाहरण मिल जाएंगे, जिसमें किसी कमजोर वर्ग के साथ अन्याय हुआ, पुलिस ने उपेक्षा की। कमजोर वर्ग ने उपेक्षा के विरोध में आवाज उठाई तो उसे बर्बरता से दबा दिया गया। फिलहाल इस दुष्कर्म और गोलीकांड के बाद अब क्या होगा। प्रशासन दो-चार पुलिसकर्मियों को निलंबित कर देगा। नेता बयानों से नेता अपनी मतलब की रोटियां सकेंगे। दोषियों की सजा कब सिद्ध होगी और सजा कब तक मुकर्रर होगी, यह दूर की बात है। राजस्थान की जमी चर्चित भंवरी देवी बलात्कार कांड के दोषियों का क्या हुआ? भील समाज के युवती के तार-तार हुए आबरु की घटना से भला यह भील समाज प्रशासन की लापरवाही पर क्यों नहीं उग्र होता है। इस उग्रता के पीछे त्वरित न्याय की असफलता है।
पूरे प्रकरण को केवल भील समाज की घटना समझ कर विचार करने की जरूरत नहीं है। छोटे-से बड़े मामले में यह देखा गया है कि प्रशासन अन्याय के विरोध के तर्क असानी से सुनता ही नहीं है। जब सुनता है तब तक काफी देर हो चुकी होती है। कई जानें जा चुकी होती हैं। सवााल है कि आखिर पुलिस किसी प्रकरण से संबंधित दस्ताबेज शिकायकर्ता को देने से क्यों हिचकती है। आखिर शिकायत के बाद उसे तो इतना हक बनता ही है कि जांच-पड़ताल की गति क्या है और कहां तक पहुंची? अंग्रेजों के जमाने की मानसिता वाली भारतीय पुलिस की चालढाल पर पर तो अनेक बहस हुर्इं। पर सरकार ने सुध नहीं लिया। पुलिस की बर्बरता अभी तक बनी हुई है। पर यह बर्बरता भी किस काम की जब यह दुराचारियों के मन में अपना खौफ नहीं बैठा पाई।
दुखद संयोग देखिये :
1. 20 सितंबर की घटना कमजोर भील समाज के लिए अविस्मरणीय हो जाएगी। 20 सितंबर को दलित समाज पूना पैक्ट में अपने साथ हुये धोखा दिवस के रूप में मनाते हुए गांधीजी को कोशता है। 1932 में इसी तिथि को दलित के हक के लिए ठानी बाबा साहब डा. भीमराव आंबेडकर ने समझौता किया था।
2. अयोध्या मामले में निणर्य आने के ठीक कुछ दिन पहले हुई इस घटना के सभी आरोपी मुस्लिम समुदाय के हैं। पीड़ित शुद्र समुदाय से संबंध रखते हैं।
रविवार, सितंबर 19, 2010
शनिवार, सितंबर 18, 2010
शुक्रवार, सितंबर 17, 2010
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