पांच प्रतिशत आरक्षण की मांग को लेकर गुर्जरों ने सोमवार को आंदोलन फिर शुरू कर दिया। गुर्जर नेता कर्नल किरोड़ी सिंह के नेतृत्व में हजारों गुर्जरों ने सोमवार की शाम करीब सवा छह बजे भरतपुर जिले में बयाना के पास पीलूकापुरा में रेल पटरियों पर कब्जा कर लिया। इससे दिल्ली-मुम्बई रेल मार्ग बाधित हो गया। सड़क यातायात सुबह से ही बंद है। आंदोलन को देखते हुए क्षेत्र में भारी मात्रा में अतिरिक्त पुलिसबल तैनात है। देर रात मिली जानकारी के अनुसार गुर्जरों ने करीब आधा दर्जन रेल पटरियों को उखाड़ दिया। इस बार भी गुर्जरों न अपने आंदोलन के लिए उसी जगह को चुना है, जहां करीब डेढ़ साल पहले हिंसात्मक आंदोलन कर दिल्ली की राजनीतिक गलियारों तक हलचल मचा दी थी। एक सूचना यह भी आ रही है कि गुर्जर समुदाय के दूसरे गुट के नेता रामवीर सिंह विधूड़ी ने भी कर्नल बैंसला से हाथ मिला कर दौसा में बांदीकुई के पास से आंदोलन वापस ले लिया। इस घोषणा के बाद वहां आए गुर्जर समाज के लोग भी पीलूकापुरा पहुंच गए। यहां पहुंची खबरों के अनुसार कर्नल बैंसला ने सोमवार को दोपहर पड़ोस के गांव रसेरी में अपने समाज के लोगों की सभा को संबोधित किया और कहा कि जब तक गुर्जरों को पांच प्रतिशत आरक्षण नहीं मिलेगा, आंदोलन जारी रहेगा।
भरतपुर संभाग के आयुक्त राजेश्वर सिंह और पुलिस महानिरीक्षक मधुसूदन सिंह की कर्नल और अन्य गुर्जर नेताओं से बातचीत असफल रही। शाम को करीब पांच बजे कर्नल ने रेल पटरियों पर कूच करने का ऐलान किया। इसके बाद गुर्जर समाज के करीब पांच हजार लोग रसेरी से पीलूकापुरा पहुंचे और पटरियों पर बैठ गए। कुछ लोगों ने रेल पटरियां उखाड़ने की भी कोशिश की। कर्नल बैंसला आगे की रणनीति बना रहे हैं और मंगलवार को आंदोलन को तेज करने का ऐलान किया है। इस बार कर्नल के सहयोगी डा. रूपसिंह ने आंदोलन की कमान संभाल ली है।
बयाना से मिली जानाकारी के अनुसार शाम करीब सवा पांच बजे रसेरी गांव से हजारोें गुर्जरों ने भगवान देवनारायण की जय बोलते हुए पीलूकापुरा के लिए कूच किया। गुर्जरों ने रेलवे टैÑक पर बैठकर जोरदार हंगामा किया और सरकार के खिलाफ नारेबाजी की। इस भीड़ में महिलाएं भी बड़ी संख्या में शामिल थी। आंदोलनकारियों ने शाम को रेलवे टैÑक पर अलाव जलाकर जगह जगह धरना दिया। इससे दिल्ली-मुम्बई, आगरा-कोटा, मथुरा-रतलाम और बयाना-जयपुर के बीच रेल यातायात ठप हो गया। आंदोलन को देखते हुए कई गाड़ियों को रेलवे प्रशासन ने इन मार्गों पर गाड़ियों का संचालन रोक दिया। कई गाड़ियां बयाना, भरतपुर, मथुरा, रूपवास, आगरा, हिण्डौन, गंगापुर और सवाईमाधोपुर स्टेशन पर रोक दी गई। कई रेलों का मार्ग बदल दिया गया। रोडवेज प्रशासन ने भी बयाना-हिण्डौन मार्ग पर बसों का संचालन बंद कर दिया।
दौसा से प्राप्त जानकारी के अनुसार अरनिया में रविवार से महापड़ाव पर बैठे दिल्ली के पूर्व विधायक रामवीर विधूड़ी ने गुर्जर समाज की एकता के लिए अपना पड़ाव खत्म कर बैंसला को समर्थन देने की घोषणा की। सवाईमाधोपुर से आई खबर के अनुसार गुर्जर आरक्षण आन्दोलन के कारण मुम्बई-दिल्ली वाया सवाई माधोपुर रेलमार्ग की सभी ट्रेनों को सवाईमाधोपुर से मार्ग परिवर्तन कर रवाना किया गया। अवध एक्सप्रेस तथा बान्द्रा एक्सप्रेस को वाया जयपुर, बांदीकुई होकर निकाला गया। रेल प्रशासन ने दिल्ली-मुम्बई वाया सवाईमाधोपुर मार्ग से निकलने वाली सभी ट्रेनों को अन्य मार्गों से निकाला। इस मार्ग पर ट्रेनों की आवाजाही नहीं होने के कारण सवाईमाधोपुर स्टेशन पर यात्रियों की परेशानियां बढ़ गई हैं।
जयपुर से मिली जानकारी के अनुसार मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने गुर्जर आंदोलन की सूचना पाकर अगले दो दिनों के सभी कार्यक्रम रद्द कर दिया है। सोमवार की देर रात दिल्ली से जयपुर लौट आए। जयपुर पहुंचते ही मुख्यमंत्री ने आला अफसरों के साथ बैठक कर कानून व्यवस्था की समीक्षा की।
मंगलवार, दिसंबर 21, 2010
बुधवार, दिसंबर 15, 2010
आंकड़ों में उलझी भूख की बेबसी
संजय स्वदेश एक समाचार पत्र में प्रकाशित खबर के मुताबिक देश की जनता को भुखमरी और कुपोषण से बचाने के लिए सरकार नौ तरह की योजनाएं चला रही है। पर बहुसंख्यक गरीबों को इन योजनाओं के बारे में पता नहीं है। गरीब ही क्यों पढ़े-लिखों को भी पता नहीं होगा कि पांच मंत्रालयों पर देश की भुखमरी और कुपोषण से लड़ने की अलग-अलग जिम्मेदारी है। हर साल हजारों करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। इसके जो भी परिणाम आ रहे हैं, वे संतोषजनक नहीं हैं। जिस सरकार की एजेंसियां इन योजनाओं को चला रही है, उसी सरकार की अन्य एजेसियां इसे धत्ता साबित करती है। निजी एजेंसियां तो हमेशा साबित करती रही हैं।
पिछले राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट से यह खुलासा हुआ कि देश के करीब 46 प्रतिशत नौनिहाल कुपोषण की चपेट में हैं। 49 प्रतिशत माताएं खून की कमी से जूझ रही है। इसके अलावा अन्य कई एजेंसियों के सर्वेक्षणों से आए आंकड़ों ने साबित किया कि सरकार देश की जनता को भुखमरी और नौनिहालों को कुपोषण से बचाने के लिए जो प्रयास कर रही है, वह नाकाफी है। मतलब सरकार पूरी तरह से असफल है। आखिर सरकार की पांच मंत्रालयों की नौ योजनाएं कहां चल रही हैं। मीडिया की तमाम खबरों के बाद भी विभिन्न योजनाएं भुखमरी और कुपोषण का मुकाबला करने के बजाय मुंह की खा रही हैं।
वर्ष 2001 में उच्चतम न्यायालय ने भूख और कुपोषण से लड़ाई के लिए 60 दिशा-निर्देश दिये थे। इस निर्देश के एक दशक पूरे होने वाले हैं, पर सब धरे-के धरे रह गये। सरकार न्यायालय के दिशा-निर्देशों को पालन करने में नाकाम रही है। कमजोर आदमी न्यायालय की अवमानना किया होता तो जेल में होता। लेकिन सरकार जब ऐसी लापरवाही दिखाती है तो उच्चतम अदालत विवश होकर तल्ख टिप्पणियों से खीझ निकालती है। कम आश्चर्य की बात नहीं कि सड़ते अनाज पर उच्चतम न्यायाल की तिखी टिप्पणी के बाद भी सरकार बेसुध है। जनता तो बेसुध है ही। नहीं तो सड़ते अनाज पर उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी एक राष्ट्रव्यापी जनआंदोलन को उकसाने के लिए प्रयाप्त थी। गोदामों में हजारो क्विंटल अनाज सड़ने की खबर फिर आ रही है। भूख से बेसुध रियाया को सरकार पर भरोसा भी नहीं है। इस रियाया ने कई आंदोलन और विरोध की गति देखी है। उसे मालूम है कि आंदोलित होने तक उसके पेट में सड़ा अनाज भी नहीं मिलने वाला।
कुछ दिन पहले एक मामले में महिला बाल कल्याण विकास विभाग ने उच्चतम न्यायालय से कहा था कि देश में करीब 59 प्रतिशत बच्चे 11 लाख आंगनवाड़ी केंद्रों के माध्यम से पोषाहार प्राप्त कर रहे हैं। जबकि मंत्रालय की ही एक रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के करीब अस्सी प्रतिशत हिस्सों के नौनिहालों को आंगनबाड़ी केंद्रों का लाभ मिल रहा है। महज 20 प्रतिशत बच्चे ही इस सुविधा से वंचित है।
सरकारी और अन्य एजेंसियों के आंकड़ों के खेल में ऐसे अंतर भी सामान्य हो चुके हैं। सर्वे के आंकड़े हमेशा ही यथार्थ के धरातल पर झूठे साबित हो चुके हैं। मध्यप्रदेश के एक सर्वे में यह बात सामने आई कि एक वर्ष में 130 दिन बच्चों को पोषाहार उपलब्ध कराया जा रहा है, वहीं बिहार में असम में 180 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने की बात कही गई। उड़ीसा में तो एक वर्ष में 240 और 242 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने का दावा किया गया। जबकि सरकार वर्ष में आवश्यक रूप से 300 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने की प्रतिबद्धता जताती है। हकीकत यह है कि पोषाहार की योजना में नियमित अन्यों की आपूर्ति ही नहीं होती है। किसी जिले में कर्मचारियों की कमी की बात कही जाती है तो कहीं से पोषाहार के कच्चे वस्तुओं की आपूर्ति नहीं होने की बात कह जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया जाता है। जब पोषाहार की सामग्री आती है तो नौनिहालों में वितरण कर इतिश्री कर लिया जाता है। सप्ताह भर के पोषाहार की आपूर्ति एक दिन में नहीं की जा सकती है। नियमित संतुलित भोजन से ही नौनिहाल शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनेंगे। पढ़ाई में मन लगेगा।
असम, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के दूर-दराज के क्षेत्रों में कुपोषण और भुखमरी से होने वाली मौतों की खबर तो कई बार मीडिया में आ ही नहीं पाती। जो खबरें आ रही हैं उसे पढ़ते-देखते संवेदनशील मन भी सहज हो चुका है। ऐसी खबरे अब इतनी समान्य हो गई कि बस मन में चंद पल के लिए टिस जरूर उठती है। मुंह से सरकार के विरोध में दो-चार भले बुरे शब्द निकलते हैं। फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है। सब भूल जाते हैं। कहां-क्यों हो रहा है, कोई मतलब नहीं रहता। यह और भी गंभीर चिंता की बात है। फिलहाल सरकारी आंकड़ों के बीच एक हकीकत यह भी है कि आंगनवाड़ी केंद्रों से मिलने वाले भोजन कागजों पर ही ज्यादा पोष्टिक होते हैं। जिनके मन में तनिक भी संवदेनशीलता है, उन्हें हकीकत जानकर यह चिंता होती है कि सूखी रोटी, पतली दाल खाकर गुदड़ी के लालों का कल कैसा होगा?
पिछले राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट से यह खुलासा हुआ कि देश के करीब 46 प्रतिशत नौनिहाल कुपोषण की चपेट में हैं। 49 प्रतिशत माताएं खून की कमी से जूझ रही है। इसके अलावा अन्य कई एजेंसियों के सर्वेक्षणों से आए आंकड़ों ने साबित किया कि सरकार देश की जनता को भुखमरी और नौनिहालों को कुपोषण से बचाने के लिए जो प्रयास कर रही है, वह नाकाफी है। मतलब सरकार पूरी तरह से असफल है। आखिर सरकार की पांच मंत्रालयों की नौ योजनाएं कहां चल रही हैं। मीडिया की तमाम खबरों के बाद भी विभिन्न योजनाएं भुखमरी और कुपोषण का मुकाबला करने के बजाय मुंह की खा रही हैं।
वर्ष 2001 में उच्चतम न्यायालय ने भूख और कुपोषण से लड़ाई के लिए 60 दिशा-निर्देश दिये थे। इस निर्देश के एक दशक पूरे होने वाले हैं, पर सब धरे-के धरे रह गये। सरकार न्यायालय के दिशा-निर्देशों को पालन करने में नाकाम रही है। कमजोर आदमी न्यायालय की अवमानना किया होता तो जेल में होता। लेकिन सरकार जब ऐसी लापरवाही दिखाती है तो उच्चतम अदालत विवश होकर तल्ख टिप्पणियों से खीझ निकालती है। कम आश्चर्य की बात नहीं कि सड़ते अनाज पर उच्चतम न्यायाल की तिखी टिप्पणी के बाद भी सरकार बेसुध है। जनता तो बेसुध है ही। नहीं तो सड़ते अनाज पर उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी एक राष्ट्रव्यापी जनआंदोलन को उकसाने के लिए प्रयाप्त थी। गोदामों में हजारो क्विंटल अनाज सड़ने की खबर फिर आ रही है। भूख से बेसुध रियाया को सरकार पर भरोसा भी नहीं है। इस रियाया ने कई आंदोलन और विरोध की गति देखी है। उसे मालूम है कि आंदोलित होने तक उसके पेट में सड़ा अनाज भी नहीं मिलने वाला।
कुछ दिन पहले एक मामले में महिला बाल कल्याण विकास विभाग ने उच्चतम न्यायालय से कहा था कि देश में करीब 59 प्रतिशत बच्चे 11 लाख आंगनवाड़ी केंद्रों के माध्यम से पोषाहार प्राप्त कर रहे हैं। जबकि मंत्रालय की ही एक रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के करीब अस्सी प्रतिशत हिस्सों के नौनिहालों को आंगनबाड़ी केंद्रों का लाभ मिल रहा है। महज 20 प्रतिशत बच्चे ही इस सुविधा से वंचित है।
सरकारी और अन्य एजेंसियों के आंकड़ों के खेल में ऐसे अंतर भी सामान्य हो चुके हैं। सर्वे के आंकड़े हमेशा ही यथार्थ के धरातल पर झूठे साबित हो चुके हैं। मध्यप्रदेश के एक सर्वे में यह बात सामने आई कि एक वर्ष में 130 दिन बच्चों को पोषाहार उपलब्ध कराया जा रहा है, वहीं बिहार में असम में 180 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने की बात कही गई। उड़ीसा में तो एक वर्ष में 240 और 242 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने का दावा किया गया। जबकि सरकार वर्ष में आवश्यक रूप से 300 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने की प्रतिबद्धता जताती है। हकीकत यह है कि पोषाहार की योजना में नियमित अन्यों की आपूर्ति ही नहीं होती है। किसी जिले में कर्मचारियों की कमी की बात कही जाती है तो कहीं से पोषाहार के कच्चे वस्तुओं की आपूर्ति नहीं होने की बात कह जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया जाता है। जब पोषाहार की सामग्री आती है तो नौनिहालों में वितरण कर इतिश्री कर लिया जाता है। सप्ताह भर के पोषाहार की आपूर्ति एक दिन में नहीं की जा सकती है। नियमित संतुलित भोजन से ही नौनिहाल शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनेंगे। पढ़ाई में मन लगेगा।
असम, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के दूर-दराज के क्षेत्रों में कुपोषण और भुखमरी से होने वाली मौतों की खबर तो कई बार मीडिया में आ ही नहीं पाती। जो खबरें आ रही हैं उसे पढ़ते-देखते संवेदनशील मन भी सहज हो चुका है। ऐसी खबरे अब इतनी समान्य हो गई कि बस मन में चंद पल के लिए टिस जरूर उठती है। मुंह से सरकार के विरोध में दो-चार भले बुरे शब्द निकलते हैं। फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है। सब भूल जाते हैं। कहां-क्यों हो रहा है, कोई मतलब नहीं रहता। यह और भी गंभीर चिंता की बात है। फिलहाल सरकारी आंकड़ों के बीच एक हकीकत यह भी है कि आंगनवाड़ी केंद्रों से मिलने वाले भोजन कागजों पर ही ज्यादा पोष्टिक होते हैं। जिनके मन में तनिक भी संवदेनशीलता है, उन्हें हकीकत जानकर यह चिंता होती है कि सूखी रोटी, पतली दाल खाकर गुदड़ी के लालों का कल कैसा होगा?
शुक्रवार, दिसंबर 10, 2010
लालबत्ती की माया
सांसारिक मोहमाया से दूर रहकर ईश्वर की भक्ति में मन लगाने का ज्ञान बांटने वाले, देश के हजारों लोगों के लिए प्रात: स्मरणीय परमपूज्य पाद संतश्री आसारामजीबापू लालबत्ती की माया से नहीं बच पाये। पहले तो प्रशासन ने गुजरात में अवैध कब्जे वाली जमीन से उनका आश्रम तोड़ा। तीन दिन पूर्व जयपुर क्षेत्र से पुलिस ने उनकी गाड़ी से लालबत्ती उतार लिया।
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लालबत्ती की माया
सांसारिक मोहमाया से दूर रहकर ईश्वर की भक्ति में मन लगाने का ज्ञान बांटने वाले, देश के हजारों लोगों के लिए प्रात: स्मरणीय परमपूज्य पाद संतश्री आसारामजीबापू लालबत्ती की माया से नहीं बच पाये। पहले तो प्रशासन ने गुजरात में अवैध कब्जे वाली जमीन से उनका आश्रम तोड़ा। तीन दिन पूर्व जयपुर क्षेत्र से पुलिस ने उनकी गाड़ी से लालबत्ती उतार लिया।
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सोमवार, दिसंबर 06, 2010
अरविंदबाबू देशमुख प्रतिष्ठान पत्रकार पुरस्कार वितरण उद्या
अरविंदबाबू देशमुख प्रतिष्ठान पत्रकार पुरस्कार वितरण उद्या
नागपूर, ५ डिसेंबर/प्रतिनिधी
अरविंदबाबू देशमुख प्रतिष्ठान पत्रकारिता पुरस्कार वितरण समारंभ ७ डिसेंबरला सायंकाळी ६.३० वाजता वसंतराव देशपांडे सभागृहात आयोजित करण्यात आला आहे. यावेळी विधान परिषदेचे सभापती शिवाजीराव देशमुख, विधानसभा अध्यक्ष दिलीप वळसे-पाटील, मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण आणि उपमुख्यमंत्री अजित पवार प्रमुख पाहुणे म्हणून उपस्थित राहतील.
प्रतिष्ठानतर्फे यंदा २६ पत्रकारांचा पुरस्कार देऊन गौरव करण्यात येणार आहे. यावेळी जीवनगौरव पुरस्कार यवतमाळच्या दैनिक देशदूतचे संपादक शरद आकोलकर यांना प्रदान करण्यात येणार आहे. २० हजार रुपये रोख, स्मृतिचिन्हे व सन्मानचिन्ह असे पुरस्काराचे स्वरुप आहे. कृषी शास्त्रज्ञ गटातील पुरस्कार दिवंगत डॉ. लक्ष्मीकांत कलंत्री यांना जाहीर झाला आहे. अग्रलेखासाठी दैनिक पुण्यनगरीचे वृत्त संपादक सचिन काटे, अमरावतीच्या मानवक्रांती, परिवर्तनचे संपादक सुदाम वानरे यांना पुरस्कार जाहीर झाले आहे. लोकमतच्या अकोला आवृत्तीचे कृषी वार्ताहर
राजरतन शिरसाट यांना प्रथम, सामाजिक लिखाणासाठी भारती टोंगे (दैनिक सकाळ,चंद्रपूर) , आर्थिक विषयांवरील लिखाणासाठी प्रथम पुरस्कार अविनाश दुधे (दै.लोकमत, अमरावती), क्रीडा क्षेत्रात अमरावतीच्या दैनिक हिंदूस्थानचे शरद गढीकर, लोकमत समाचारच्या नागपूर आवृत्तीचे डॉ. राम ठाकूर यांना पुरस्कार जाहीर झाले आहेत.
छायाचित्र - प्रथम पुरस्कार अकोला देशोन्नतीचे विठ्ठल महल्ले, व्यंगचित्रे -देशोन्नती नागपूरचे उमेश चारोळे, इलेक्ट्रॉनिक मिडिया - ईटीव्ही मराठी उमेश अलोणे (अकोला), विकास (शहर) -प्रथम -संजय कुमार (दै. भास्कार), द्वितीय - रघुनाथ लोधी (दैनिक भास्कर) , विकास (ग्रामीण)- प्रथम पुरस्कार विनोद फाटे (दै. सकाळ, बुलढाणा), द्वितीय पुरस्कार - विलास टिपले (दै.लोकसत्ता, वरोरा) सुरेंद्र बेलूरकर (दै. सकाळ, वर्धा) यांना जाहीर झाला आहे.
नागपूर, ५ डिसेंबर/प्रतिनिधी
अरविंदबाबू देशमुख प्रतिष्ठान पत्रकारिता पुरस्कार वितरण समारंभ ७ डिसेंबरला सायंकाळी ६.३० वाजता वसंतराव देशपांडे सभागृहात आयोजित करण्यात आला आहे. यावेळी विधान परिषदेचे सभापती शिवाजीराव देशमुख, विधानसभा अध्यक्ष दिलीप वळसे-पाटील, मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण आणि उपमुख्यमंत्री अजित पवार प्रमुख पाहुणे म्हणून उपस्थित राहतील.
प्रतिष्ठानतर्फे यंदा २६ पत्रकारांचा पुरस्कार देऊन गौरव करण्यात येणार आहे. यावेळी जीवनगौरव पुरस्कार यवतमाळच्या दैनिक देशदूतचे संपादक शरद आकोलकर यांना प्रदान करण्यात येणार आहे. २० हजार रुपये रोख, स्मृतिचिन्हे व सन्मानचिन्ह असे पुरस्काराचे स्वरुप आहे. कृषी शास्त्रज्ञ गटातील पुरस्कार दिवंगत डॉ. लक्ष्मीकांत कलंत्री यांना जाहीर झाला आहे. अग्रलेखासाठी दैनिक पुण्यनगरीचे वृत्त संपादक सचिन काटे, अमरावतीच्या मानवक्रांती, परिवर्तनचे संपादक सुदाम वानरे यांना पुरस्कार जाहीर झाले आहे. लोकमतच्या अकोला आवृत्तीचे कृषी वार्ताहर
राजरतन शिरसाट यांना प्रथम, सामाजिक लिखाणासाठी भारती टोंगे (दैनिक सकाळ,चंद्रपूर) , आर्थिक विषयांवरील लिखाणासाठी प्रथम पुरस्कार अविनाश दुधे (दै.लोकमत, अमरावती), क्रीडा क्षेत्रात अमरावतीच्या दैनिक हिंदूस्थानचे शरद गढीकर, लोकमत समाचारच्या नागपूर आवृत्तीचे डॉ. राम ठाकूर यांना पुरस्कार जाहीर झाले आहेत.
छायाचित्र - प्रथम पुरस्कार अकोला देशोन्नतीचे विठ्ठल महल्ले, व्यंगचित्रे -देशोन्नती नागपूरचे उमेश चारोळे, इलेक्ट्रॉनिक मिडिया - ईटीव्ही मराठी उमेश अलोणे (अकोला), विकास (शहर) -प्रथम -संजय कुमार (दै. भास्कार), द्वितीय - रघुनाथ लोधी (दैनिक भास्कर) , विकास (ग्रामीण)- प्रथम पुरस्कार विनोद फाटे (दै. सकाळ, बुलढाणा), द्वितीय पुरस्कार - विलास टिपले (दै.लोकसत्ता, वरोरा) सुरेंद्र बेलूरकर (दै. सकाळ, वर्धा) यांना जाहीर झाला आहे.
शनिवार, दिसंबर 04, 2010
कवि के साथ न्याय, कविता का सम्मान
कविताओं पर आने वाले अधिकत्तर कॉमेंट अच्छी लगी, आज की यार्थात है...आदि होती है। लेकिन जिम्मेदार पाठक होने के नाते हमारा फर्ज बनता है कि हम लेखक को वही बताये जो कविता की हकीकत है। आश्चर्य की बात है कि जिस दर्द को जीते हुए कवि उसे शब्दों में पिरोता है, उसे अधिकतर पाठक सहजता से औपचारिक टिप्पणी कर देते हैं। मुझे लगता है न न तो कवि के साथ न्याया है और नहीं कविता का सही सम्मान।
शुक्रवार, दिसंबर 03, 2010
43 हजार में दूसरे पति की हुई पिंकी
नाता प्रथा में पंचायत ने सुनाया फैसलाहां तो यह हुआ फैसला 43 हजार रुपये दो और दुल्हन हुई तुम्हारी। कुछ इसी तरह से एक पति से दूसरे पति तक दुल्हन भेजने की नाता प्रथा आज भी राजस्थान में प्रचलित है। राजीमंदी से यह प्रथा समाज को मान्य भी है। इसके लिए बकायदा पंचायत भी बैठती है। पंचायत के निर्णय को मानने के लिए दोनों पक्षों की एक-एक लड़की को बांध कर पंचायत की बैठक के बीच में रखा जाता है। ऐसा ही एक ताजा मामला राज्य के झालावाड़ जिले के भवानीमंडी में शुक्रवार को सामने आया। पहले किसी और के संग ब्याही गई को दूसरे की दुल्हन बनाना तब मंजूर किया गया, जब उसके पिता को 43 हजार रुपया देना मंजूर किया।
शुक्रवार को क्षेत्र के मैला मैदान में नायक समाज करीब ढाई-तीन सौ लोगों की पंचायत हुई। एक महिला अपने पहले पति को छोड़ दूसरे पति के साथ रहना चाहती है। इसको लेकर हो रहे झगड़े की गुत्थी को सुलझाने के लिए पंचायत ने मंथन किया। रास्ता नाता प्रथा से निकला। समस्या सुलझी। कहीं कोई विवाद नहीं हुआ।
पंचायत में उपस्थित पहले पति के पिता भानपुरा थाना के खेरखेड़ी गांव के निवासी प्रभुलाल ने बताया कि उसके पुत्र राजू की शादी उसके ही थानाक्षेत्र के रामनगर निवासी नंदा के बेटी पिंकी के साथ करीब 12-13 वर्ष पूर्व बचपन में हुई थी। विवाह के बाद उसकी बहु दो चार बार उसके घर भी आई थी। आखिरी बार उसकी बहु एक साल पूर्व घर आई थी। उसके बाद उसके पिता ने उसे बहू को उसके यहां नहीं भेजा। पिंकी को हड़मतियां गांव में मुकेश पुत्र पर्वत नायक के घर नाते दे दी।
सरपंच भवानीराम नायक ने बताया कि जब पिंकी की शादी राजू से हुई थी, तब राजू के पिता ने जो रकम चढ़ाई थी, वह रकम पिंकी के पिता के दिये दहेज के बदले आटे साटे यानी बराबर हो गई। अब पिंकी जहां दूसरी जगह नाते गई है, वह पक्ष पहले पति यानी कि राजू को 43 हजार रुपये हर्जाने के रूप में चुकाएगा। इसके लिए दोनों पक्षों की लिखित में समझौता हुआ। दूसरे पति ने 13 हजार रुपये मौके पर दिये तथा 30 हजार रुपये बैशाख महीने में देने का वायदा किया है।
दो लकड़ियां को बंधन कर रखी गईपंचायत के दौरान दो लकड़ियों को आपस में बांध कर उसे एक शाल में लपेट कर बीचों बीच में रखा हुआ था। समाज के लोगों ने बताया कि यह दो लकड़ियों में एक लकड़ी लड़का पक्ष तथा दूसरी लकड़ी लड़की पक्ष की ओर से लेकर बंधन में कर दिया गया है। पंचायत की कार्रवाई के दौरान उन्हें कुछ भी बोलने का अधिकार नहीं होगा। इस बंधन को मानते हुए दोनों ही पक्षों ने पंचायत के निर्णय पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई। पंचों के
क्यों होता है झगड़ास्थानीय लोगों का कहना है कि आज भी कई समाज में आज भी बाल विवाह हो रहे हैं। नन्ही उम्र में मासूमों को वैवाहिक बंधन में बांध दिया जाता है। नन्हीं उम्र के विवाहित जोड़े जब बड़े होते हैं, तब उनके विचार आपस में मेल नहीं खाते हैं। इससे बचपन के बंधे रिश्ते में खटाश आ जाती है। इस स्थिति से निपटने के लिए समाज में रास्ता भी निकाला है। जब जोड़े एक दूसरे को पसंद नहीं करते हैं तो लड़की का पिता लड़की की सहमती से लड़की को दूसरी जगह यानी कि किसी दूसरे व्यक्ति के घर भेज देता है। इस प्रथा को नाता प्रथा कहते हैं। इसके बाद पहले पति दूसरे पति पर जो हर्जानापूर्ति का दावा करता है, उसे स्थानीय भाषा में झगड़ा कहा जाता है।
समझौते का रास्ता है यह झगड़ाइस प्रथा का नाम जरूर झगड़ा है। यदि इस पर समाज की मौजूदगी में पंच पटेलों ने अपनी सहमती दे दी तो झगड़ा समझौते में बदल जाता है। एक तरह से दोनों पक्षों में सुलह हो जाती है। इसके बाद पहले पति व उसके ससुराल पक्ष तथा नये पति के परिवार में आपस में इस बात को लेकर झगड़ा फसाद नहीं करने के लिए भी पाबंद किया जाता है। लोगों का कहना है कि इस समझौते को थाना-कचहरी भी मान्य करता है।
लड़की खरीदने में बदली प्रथाकई स्थानीय लोगों का कहना है कि एक तरह से दूसरी विवाह के रूप में प्रचालित यह प्रथा अब नई बीवी खरीदने का रूप ले चुकी है। कई बार लोग लड़की का विवाह जल्दी कर देते हैं। कुछ वर्ष गौना रखते है। इस बीच यदि कोई मालदार आदमी मोटी रकम देकर पत्नी बनाने के लिए राजी है, तो लड़की पक्ष विवाहित बेटी को नाते पर भेज देता है। इसे समाज की बैठक में पिछले लड़के को हर्जाना देकर मान्यता ले ली जाती है। जिनके पास पैसा है वे खूबसूरत लड़की को नाते में खरीद कर लाते हैं।
शुक्रवार को क्षेत्र के मैला मैदान में नायक समाज करीब ढाई-तीन सौ लोगों की पंचायत हुई। एक महिला अपने पहले पति को छोड़ दूसरे पति के साथ रहना चाहती है। इसको लेकर हो रहे झगड़े की गुत्थी को सुलझाने के लिए पंचायत ने मंथन किया। रास्ता नाता प्रथा से निकला। समस्या सुलझी। कहीं कोई विवाद नहीं हुआ।
पंचायत में उपस्थित पहले पति के पिता भानपुरा थाना के खेरखेड़ी गांव के निवासी प्रभुलाल ने बताया कि उसके पुत्र राजू की शादी उसके ही थानाक्षेत्र के रामनगर निवासी नंदा के बेटी पिंकी के साथ करीब 12-13 वर्ष पूर्व बचपन में हुई थी। विवाह के बाद उसकी बहु दो चार बार उसके घर भी आई थी। आखिरी बार उसकी बहु एक साल पूर्व घर आई थी। उसके बाद उसके पिता ने उसे बहू को उसके यहां नहीं भेजा। पिंकी को हड़मतियां गांव में मुकेश पुत्र पर्वत नायक के घर नाते दे दी।
सरपंच भवानीराम नायक ने बताया कि जब पिंकी की शादी राजू से हुई थी, तब राजू के पिता ने जो रकम चढ़ाई थी, वह रकम पिंकी के पिता के दिये दहेज के बदले आटे साटे यानी बराबर हो गई। अब पिंकी जहां दूसरी जगह नाते गई है, वह पक्ष पहले पति यानी कि राजू को 43 हजार रुपये हर्जाने के रूप में चुकाएगा। इसके लिए दोनों पक्षों की लिखित में समझौता हुआ। दूसरे पति ने 13 हजार रुपये मौके पर दिये तथा 30 हजार रुपये बैशाख महीने में देने का वायदा किया है।
दो लकड़ियां को बंधन कर रखी गईपंचायत के दौरान दो लकड़ियों को आपस में बांध कर उसे एक शाल में लपेट कर बीचों बीच में रखा हुआ था। समाज के लोगों ने बताया कि यह दो लकड़ियों में एक लकड़ी लड़का पक्ष तथा दूसरी लकड़ी लड़की पक्ष की ओर से लेकर बंधन में कर दिया गया है। पंचायत की कार्रवाई के दौरान उन्हें कुछ भी बोलने का अधिकार नहीं होगा। इस बंधन को मानते हुए दोनों ही पक्षों ने पंचायत के निर्णय पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई। पंचों के
फैसले को दोनों पक्षों को राजीमर्जी से स्वीकारा।
नायक समाज की पंचायत के बीच लाल घेरे में पड़ा बंधन
क्यों होता है झगड़ास्थानीय लोगों का कहना है कि आज भी कई समाज में आज भी बाल विवाह हो रहे हैं। नन्ही उम्र में मासूमों को वैवाहिक बंधन में बांध दिया जाता है। नन्हीं उम्र के विवाहित जोड़े जब बड़े होते हैं, तब उनके विचार आपस में मेल नहीं खाते हैं। इससे बचपन के बंधे रिश्ते में खटाश आ जाती है। इस स्थिति से निपटने के लिए समाज में रास्ता भी निकाला है। जब जोड़े एक दूसरे को पसंद नहीं करते हैं तो लड़की का पिता लड़की की सहमती से लड़की को दूसरी जगह यानी कि किसी दूसरे व्यक्ति के घर भेज देता है। इस प्रथा को नाता प्रथा कहते हैं। इसके बाद पहले पति दूसरे पति पर जो हर्जानापूर्ति का दावा करता है, उसे स्थानीय भाषा में झगड़ा कहा जाता है।
समझौते का रास्ता है यह झगड़ाइस प्रथा का नाम जरूर झगड़ा है। यदि इस पर समाज की मौजूदगी में पंच पटेलों ने अपनी सहमती दे दी तो झगड़ा समझौते में बदल जाता है। एक तरह से दोनों पक्षों में सुलह हो जाती है। इसके बाद पहले पति व उसके ससुराल पक्ष तथा नये पति के परिवार में आपस में इस बात को लेकर झगड़ा फसाद नहीं करने के लिए भी पाबंद किया जाता है। लोगों का कहना है कि इस समझौते को थाना-कचहरी भी मान्य करता है।
लड़की खरीदने में बदली प्रथाकई स्थानीय लोगों का कहना है कि एक तरह से दूसरी विवाह के रूप में प्रचालित यह प्रथा अब नई बीवी खरीदने का रूप ले चुकी है। कई बार लोग लड़की का विवाह जल्दी कर देते हैं। कुछ वर्ष गौना रखते है। इस बीच यदि कोई मालदार आदमी मोटी रकम देकर पत्नी बनाने के लिए राजी है, तो लड़की पक्ष विवाहित बेटी को नाते पर भेज देता है। इसे समाज की बैठक में पिछले लड़के को हर्जाना देकर मान्यता ले ली जाती है। जिनके पास पैसा है वे खूबसूरत लड़की को नाते में खरीद कर लाते हैं।
बुधवार, दिसंबर 01, 2010
भ्रष्टाचार के खिलाफ जगना होगा... जगाना होगा।
भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी ने किसी तरह से स्थानीय स्तर पर बिगुल तो फूंकना ही पड़ेगा। जगना होगा... जगाना होगा। व्यक्तिगत स्तर पर भी लड़ाई लड़ी जा सकती है। हां, जीत धीमी गति से मिलेगी। क्योंकि पिछली पीढ़ी ने भ्रष्टाचार को सह कर बहुत मजबूत कर दिया है। इस मजबूत स्थिति को एक दम से तोड़ना असान नहीं। पर व्यक्तिगत स्तर पर अनेक लोगों की छोटी-सी लड़ाई भी नई पीढ़ी को भ्रष्टमुक्त तंत्र की राह प्रशस्त कर सकती है।
एड्स के मायाजाल के पीछे भी सच
संजय स्वदेश करीब तीन दशक पहले की बात है। अमेरिका में एचआईवी या एड्स का पहला मामला दर्ज हुआ था। तब पूरी दुनिया में इस नई बीमारी से तहलका मच गया था। हर देश इसे रोकने के लिए ऐसे अभियान में जुट गया जैसे कोई महामारी फैल रही हो। महामारी रोकने सरीके अभियान आज भी चल रहे हैैं। करोड़ों रुपये आज भी खर्च हो रहे है। पर अभी तक न इसकी कारगर दवा खोजी जा सकी और न टीका। एड्स निर्मूलन अभियान में भारत समेत दूसरे पिछड़े और गरीब देशों में पहले से व्याप्त दूसरी गं ाीर बीमारियों के प्रति सरकार की गं ाीरता हल्की पड़ गई। टी.वी. कैंसर, हैजा, मलेरिया आदि बीमारियों से आज ाी करोड़े लोग मर रहे है। वहीं दूसरी ओर एड्स से मरने वाले लोगों की इनसे कहीं ज्यादा कम हैैं। पर सरकार का ध्यान एड्स नियंत्रण कार्यक्रम पर अपेक्षाकृत ज्यादा है। पिछले साल ही स्वस्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदौस ने लोकसभा को बताया था कि 1986 से लेकर तब तक 10170 लोगों की मौत एड्स से हुई। उनके बयान के आधार पर औसतन हर साल 500 लोग मर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर हर साल साढ़े तीन लाख से ज्यादा लोग क्षय रोग के समुचित इलाज के अभाव में दम तोड़ देते हैैं। अकाल काल के गाल में समाने वाले कैंसर रोगी भी कमोबेश इतने ही हैैं। 2005-06
में एड्स नियंत्रण पर 533 करोड़ खर्च हुए जबकि क्षय रोग उन्मूलन पर 186 करोड़, कैंसर नियंत्रण पर 69 करोड़। आखिर अभियान के पीछे छिपने वाली इस खौफनाक हकीकत के असली चेहरे को सरकार क्यों नहीं पहचान पा रही है?
एक विचार करने वाली बात यह ाी है कि जब एड्स निर्मूलन अभियान शुरू हुए थे। तब से ही कई प्रसिद्ध चिकित्सों व वैज्ञानिकों ने इसे खारिज किया। आरोप लगा कि एचआईवी एड्स की आड़ में कंडोम बनाने वाली कंपनियां भारी ला ा कमाने के लिए अभियान को हवा दे रही है। पर आरोपियों की आवाज एड्स के इस अभियान में गुम हैै। अभियान के शुरूआती दिनों में ही प्रसिद्ध अमेरिकी वैज्ञानिक कैरी मुलिस ने अभियान पर सवाल खड़ा किया था। संदेह जताने वाले कैरी मुलिस वही जैव रसायन वैज्ञानिक हैं जिन्हें 1993 का नोबेल पुरस्कार मिला। पालिमरेज चेन रिएक्सन तकनीक के विकास का श्रेय इन्हें ही हैं। इसी तकनीक का इस्तेमाल कर वायरस परीक्षण होता हैै। अमेरिकी पत्रिका पेंट हाऊस के सितंबर 1998 अंक में अपने प्रकाशित प्रकाशित लेख में बड़े ही तार्किक तरीके से एड्स की अवधारणा को खंडित किया था। इनके अलावा भी दुनिया के कई बड़े वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया कि मानव स यता के हर कालखंड में किसी न किसी रूप में एड्स जैसी खतरनाक स्वास्थ्य स्थिति का खौफ रहा है। चरक संहिता में एड़स से मिलती-जुलती स्थिति होने का उल्लेख भी मिलता है। वैज्ञानिक दावा करते है कि एड्स अपने आप में कोई बीमारी नहीं है। यह शरीर की ऐसी स्थिति है जिसे मनुष्य की रोग प्रतिरोधि क्षमता नष्ट हो जाती है और वह धीरे-धीरे मौत की ओर अग्रसर हो जाता है।
हालांकि एड्स की स्थिति निश्चय ही गंभीर है। रोकथाम के लिए अभियान चलाया ही जाना चाहिए। मजे की बात यह है कि एड्स नियंत्रण अभियान जितने पैमाने पर चलाया जा रहा है, उस पैमाने पर एचआईवी एड्स पीड़ितों की सं या नहीं है। समय-समय पर जारी होने वाले एचआईवी एड्स से ग्रस्त लोगों की सं या में हमेशा संदिग्ध रही है। किसी साल कहां गया कि भारत एड्स की राजधानी बन रही है। तो कभी रिपोर्ट आई कि यहां एड्स प्रभावित लोगों की सं या में कमी आई है। यह किसी मजेदार पहेली से कम नहीं हैै। एड्स और एचआईवी दोनों अलग-अलग धारणा है। प्रभावित व्यक्ति शायद ही समाज में कभी नजर आए। पर प्रचार इतना हो चुका है कि आज छोटे-छोटे बच्चों के जेहन में जनसंचार माध्यमों ने एड्स की जानकारी डाल दी है। मासून नन्हें-मुन्ने ाी जानने लगे हैं कि सुरक्षित यौन-संबंध के लिए कंडोम जरूरी है। यह स्वाभाविक भी है। जब देश-विदेश की दवा कंपनियों से लेकर हजारों एनजीओ इसके प्रचार-प्रसार में जुटे हो तो इतनी सफलता अपेक्षित है। एक तरह से कहें तो कम समय में इसके बारे में इतना प्रचार हो चुका है जितना की दूसरी बीमारियों के बारे में जागरूकता होनी चाहिए।
अभी भी केंद्र सरकार एड्स नियंत्रण पर हर साल करोड़ रुपये का बजट तय कर रही हैै। राज्य सरकार का बजट अलग होता है। विदेशी अनुदान भी अतिरिक्त हैै। बजट की भारी-भरकम राशि ने जनहीत के दूसरे कार्यों में लगे गैर-सरकारी संस्थाओं के मन में लालच ार दिया। जितना जल्दी एड्स विरोधी कार्यक्रम चलाने के लिए अनुदान मिल जाता है, उतना दूसरे कार्यों के लिए नहीं। लिहाजा, कई संस्थानों ने जनहित में जारी दूसरी परियोजनाओं को छोड़ कर एड्स अभियान का दामन पकड़ लिया है। जितने रुपये अ िायान चलाने के लिए जितनी राशि एनजीओ को मिले, उतनी कम राशि खर्च करके उन लाखों गर्भवती माताओं को बचाया जा सकता हैं, जिन्हें समुचित इलाज की सुविधा नहीं मिल पाती है। डायरिया से ग्रस्त करीब 90 प्रतिशत महिलाओं भी अकाल काल के गाल में समाने से रोका जा सकता है। इतनी भारी भरकम राशि का अगर एक हिस्सा भी ईमानदारी से कुपोषित महिलाओं और बच्चों पर खर्च होता तो एक आज एक ऐसी नई सेहतमंद पीढ़ी जवान होती जो एड्स के खतरे से पहले ही सावधान रहती। पर एड्स नियंत्रण अभियान का जादू कुछ ऐसा छा गया है जिसने देश की बहुसं यक आबादी का ध्यान अपनी ओर खींच लिया है जिससे दूसरी जनस्वास्थ्य की दूसरी सुविधाओं को बेहतर तरीके से उपलब्ध कराने के अभियान पीछे छूट चुके हैं। 1/12/2008
में एड्स नियंत्रण पर 533 करोड़ खर्च हुए जबकि क्षय रोग उन्मूलन पर 186 करोड़, कैंसर नियंत्रण पर 69 करोड़। आखिर अभियान के पीछे छिपने वाली इस खौफनाक हकीकत के असली चेहरे को सरकार क्यों नहीं पहचान पा रही है?
एक विचार करने वाली बात यह ाी है कि जब एड्स निर्मूलन अभियान शुरू हुए थे। तब से ही कई प्रसिद्ध चिकित्सों व वैज्ञानिकों ने इसे खारिज किया। आरोप लगा कि एचआईवी एड्स की आड़ में कंडोम बनाने वाली कंपनियां भारी ला ा कमाने के लिए अभियान को हवा दे रही है। पर आरोपियों की आवाज एड्स के इस अभियान में गुम हैै। अभियान के शुरूआती दिनों में ही प्रसिद्ध अमेरिकी वैज्ञानिक कैरी मुलिस ने अभियान पर सवाल खड़ा किया था। संदेह जताने वाले कैरी मुलिस वही जैव रसायन वैज्ञानिक हैं जिन्हें 1993 का नोबेल पुरस्कार मिला। पालिमरेज चेन रिएक्सन तकनीक के विकास का श्रेय इन्हें ही हैं। इसी तकनीक का इस्तेमाल कर वायरस परीक्षण होता हैै। अमेरिकी पत्रिका पेंट हाऊस के सितंबर 1998 अंक में अपने प्रकाशित प्रकाशित लेख में बड़े ही तार्किक तरीके से एड्स की अवधारणा को खंडित किया था। इनके अलावा भी दुनिया के कई बड़े वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया कि मानव स यता के हर कालखंड में किसी न किसी रूप में एड्स जैसी खतरनाक स्वास्थ्य स्थिति का खौफ रहा है। चरक संहिता में एड़स से मिलती-जुलती स्थिति होने का उल्लेख भी मिलता है। वैज्ञानिक दावा करते है कि एड्स अपने आप में कोई बीमारी नहीं है। यह शरीर की ऐसी स्थिति है जिसे मनुष्य की रोग प्रतिरोधि क्षमता नष्ट हो जाती है और वह धीरे-धीरे मौत की ओर अग्रसर हो जाता है।
हालांकि एड्स की स्थिति निश्चय ही गंभीर है। रोकथाम के लिए अभियान चलाया ही जाना चाहिए। मजे की बात यह है कि एड्स नियंत्रण अभियान जितने पैमाने पर चलाया जा रहा है, उस पैमाने पर एचआईवी एड्स पीड़ितों की सं या नहीं है। समय-समय पर जारी होने वाले एचआईवी एड्स से ग्रस्त लोगों की सं या में हमेशा संदिग्ध रही है। किसी साल कहां गया कि भारत एड्स की राजधानी बन रही है। तो कभी रिपोर्ट आई कि यहां एड्स प्रभावित लोगों की सं या में कमी आई है। यह किसी मजेदार पहेली से कम नहीं हैै। एड्स और एचआईवी दोनों अलग-अलग धारणा है। प्रभावित व्यक्ति शायद ही समाज में कभी नजर आए। पर प्रचार इतना हो चुका है कि आज छोटे-छोटे बच्चों के जेहन में जनसंचार माध्यमों ने एड्स की जानकारी डाल दी है। मासून नन्हें-मुन्ने ाी जानने लगे हैं कि सुरक्षित यौन-संबंध के लिए कंडोम जरूरी है। यह स्वाभाविक भी है। जब देश-विदेश की दवा कंपनियों से लेकर हजारों एनजीओ इसके प्रचार-प्रसार में जुटे हो तो इतनी सफलता अपेक्षित है। एक तरह से कहें तो कम समय में इसके बारे में इतना प्रचार हो चुका है जितना की दूसरी बीमारियों के बारे में जागरूकता होनी चाहिए।
अभी भी केंद्र सरकार एड्स नियंत्रण पर हर साल करोड़ रुपये का बजट तय कर रही हैै। राज्य सरकार का बजट अलग होता है। विदेशी अनुदान भी अतिरिक्त हैै। बजट की भारी-भरकम राशि ने जनहीत के दूसरे कार्यों में लगे गैर-सरकारी संस्थाओं के मन में लालच ार दिया। जितना जल्दी एड्स विरोधी कार्यक्रम चलाने के लिए अनुदान मिल जाता है, उतना दूसरे कार्यों के लिए नहीं। लिहाजा, कई संस्थानों ने जनहित में जारी दूसरी परियोजनाओं को छोड़ कर एड्स अभियान का दामन पकड़ लिया है। जितने रुपये अ िायान चलाने के लिए जितनी राशि एनजीओ को मिले, उतनी कम राशि खर्च करके उन लाखों गर्भवती माताओं को बचाया जा सकता हैं, जिन्हें समुचित इलाज की सुविधा नहीं मिल पाती है। डायरिया से ग्रस्त करीब 90 प्रतिशत महिलाओं भी अकाल काल के गाल में समाने से रोका जा सकता है। इतनी भारी भरकम राशि का अगर एक हिस्सा भी ईमानदारी से कुपोषित महिलाओं और बच्चों पर खर्च होता तो एक आज एक ऐसी नई सेहतमंद पीढ़ी जवान होती जो एड्स के खतरे से पहले ही सावधान रहती। पर एड्स नियंत्रण अभियान का जादू कुछ ऐसा छा गया है जिसने देश की बहुसं यक आबादी का ध्यान अपनी ओर खींच लिया है जिससे दूसरी जनस्वास्थ्य की दूसरी सुविधाओं को बेहतर तरीके से उपलब्ध कराने के अभियान पीछे छूट चुके हैं। 1/12/2008
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