तर्क देने वाले कह सकते हैं कि आज पालि बोलता कौन है? यही सवाल संस्कृत और उर्दू को लेकर भी उठाया जा सकता है। संस्कृत बोलने वाले एक प्रतिशत लोग भी देश में नहीं है। जिस भाषा से रोजगार उपलबध होती है, वह उतना ही समृद्ध होती है। रोजगार उपलब्ध करा कर ही अंग्रेजी ने हिंदी को मात दे दी। पाली संस्कृत को पछाड़ रही है।संजय स्वदेश संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा के पाठ्यक्रम से अंग्रेजी की अनिवार्यता को फिलहाल रोक कर के केंद्र सरकार ने खूब वाहवाही बटोरी। यह खबर कई प्रमुख समाचारपत्रों के प्रमुखता से प्रकाशित हुई। हिंदी प्रेमियों ने खूब स्वागत किया। लेकिन इसी के साथ आयोग ने भारत की प्राचीन भाषा पालि का गला घोंट दिया। किसी को कोनोकान खबर नहीं लगी। पालि भाषा एवं साहित्य अनुसंधान परिषद ने इसके खिलाफ आवाज उठाई। पर अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता है। न कहीं शोर सुनाई दिया और न ही कई कोई बड़ा विरोध। आयोग की परीक्षाओं से अंग्रेजी की अनिवार्यता को हटाने के लिए वर्षों आंदोलन चले। करीब एक दशक पहले की बात है तब आयोग के मुख्य द्वार पर हिंदी समर्थित विरोधियों का एक तंबू हमेशा दिखता था। वहां के बैनर पर यह लिखा होता था कि हिंदी के समर्थन में चलने वाला देश में अब तक का सबसे बड़ा आंदोलन। एक बार दिल्ली में शाहजहां रोड़ से गुजरते वक्त किसी ने बताया था कि इसके समर्थन में अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज उतर चुके हैं। लेकिन कब उस आंदोलन का दम घुट गया और प्रदर्शनकारियों का तंबू हट गया, किसी को कानोकान खबर नहीं चली। ऐसे समय में जब न कोई आंदोलन था और न ही कहीं से कोई दबाव। आयोग ने हिंदी के प्रति हमदर्दी दिखाते हुए अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त कर देने की घोषणा कर दी। बात असानी से हजम नहीं होती। जब समाज में अंग्रेजी का भूत भूत सवार हो रहा हो, तब अपने आप आयोग ने आखिर रहमदिली क्यों दिखाया। ढेरों ऐसे प्रतिभाशाली लोग हैं जिन्होंने आयोग की अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण परीक्षा में असफलता की मुंह खाई। लेकिन अन्य क्षेत्रों में सफलता के शिखर पर पहुंचे। फिलहाल चर्चा, आयोग के पाठ्यक्रम से पालि को हटाने को लेकर है। प्राचीनकाल की जनभाषा और धार्मिक अल्पसंख्यकों बौद्धों की एक मात्र भाषा को हटाने के पीछे आयोग की क्या मंशा रही, इसे न ही उसने बताना उचित समझा और न ही सार्वजनिक रूप से समझाना। पालि भषा के विषय को लेकर सिवलि सेवा की मुख्य परीक्षा देने वाले प्रतिभागियों की संख्या हजारों में है। जिसमें से अधिकतर प्रतिभागी सफलता को प्राप्त करते हैं। मजेदार बात यह है कि सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा में इस भाषा को ऐच्छिक विषय के रूप में चुनने वाले अधिकतर प्रतिभागी दलित, आदिवासी और पिछड़े समुदाय से होते हैं। आयोग के कठिन मापदंडों के कारण ही वर्षों से आरक्षित वर्ग के भरपूर अफसर बनाने में पूरी तरह से नकाम रहे हैं। शीर्ष सेवा में सैकड़ों पद आरक्षित वर्ग के रिक्त पड़े हैं। महंगे और पहुंच से दूर पाठ्यक्रमों में दाखिला नहीं मिलने के कारण हर वर्ष हजारों विद्यार्थी पालि और बौद्ध अध्ययन में दाखिला लेते हैं। हालात तो यह है कि एक ओर जहां विश्वविद्यालयों के संस्कृत विभाग में सन्नाटा पसरता जा हरा है, वहीं पालि और बौद्ध अध्ययन के विभाग गुलजार होने लगे हैं। इसके बाद भी बिना किसी ठोस तर्क दिए बगैर पालि के प्रति यूपीएससी की मनमानी उसकी साकारात्मक मंशा को जाहिर नहीं करती है। दलित, आदिवासी और पिछड़े हमेशा ही इस बात को लेकर यह शोर मचाते रहे हैं कि जिन कठिन राहों को वे अपनी मेहनत से आसान बना रहे हैं नीति नियंता किसी न किसी तरह से उनके राह में और अड़ंगा डालते हैं। सिविल सेवा परीक्षा से पालि का हटाना देश के उन हजारों युवाओं के सपने तोड़ने जैसा है जो पालि का अध्ययन कर रहे हैं और इस विषय के साथ देश की सर्वोच्च प्रतिष्ठित सेवा क्षेत्र अपनी काबिलियत सिद्ध करना चाहते हैं। सिविल सेवा की परीक्षा में संस्कृत, उर्दू और पंजाबी को अभी भी रखा गया है। जैसे संस्कृत हिंदुओं से, उर्दू मुस्लिमों से तथा पंजाबी सिक्खों से संबंधित है। वैसे ही पालि बौद्ध धर्म के लोगों से संबंधित है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत में इनकी संख्या बढ़ रही है। भविष्य में निश्चय ही समाज में इस भाषा की प्रतिष्ठा और रूढ़ होगी। तर्क देने वाले कह सकते हैं कि आज पालि बोलता कौन है? यही सवाल संस्कृत और उर्दू को लेकर भी उठाया जा सकता है। संस्कृत बोलने वाले एक प्रतिशत लोग भी देश में नहीं है। संस्कृत भाषा के प्रति बचे खुचे लोगों का भी मोहभंग हो रहा है। विभिन्न विश्वविद्यालयों में संचालित संस्कृत के पाठ्यक्रमों में दाखिले के लिए पर्याप्त संख्या में विद्यार्थी भी नहीं पहुंच रहे हैं। लेकिन पालि भाषा की स्थिति संस्कृत से उलट है। वर्तमान समय में पालि को लगभग 55 विश्वविद्यालयों में पालि एवं बौद्ध अध्ययन विषयों का अध्यपन हो रहा है। विदेशों को छोÞड़कर सिर्फ भारत में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग हर साल दो बार यूजीसी नेट एवं जेआरएफ की परीक्षा पालि भाषा में भी आयोजित करवा रहा है। सभी लगभग 55 विश्वविद्यालयों और उनके संबंद्ध कॉलेजों में स्रातक, एमए, एमफिल, पीएचडी की उपधियां दी जाती है। इसके साथ ही पालि भाषा एवं साहित्य में प्रमाण-पत्र, डिप्लोमा एवं पालि आचार्य की भी उपाधि दी जाती है। इतना ही नहीं वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, बिहार माध्यमिक शिक्षा बोर्ड एवं महाराष्टÑ माध्यमिक शिक्षा बोर्ड में भी पालि भाषा विषय की पढ़ाई हाई स्कूल एवं इंटरमीडिएट कक्षाआ में होती है। इसके अलावा देशभर के करीब पचास से ज्यादा विश्वविद्यालयों में पाली भाषा विभाग संचालित है। पालि भाषा के बिना प्राचीन भारतीय इतिहास को जनाना कठिन ही नहीं, अपितु असंभव भी है, क्योंकि पालि भाषा भारत देश की प्राच्य भाषाओं (पालि,प्रकृत व संस्कृत) में से एक महत्पूर्ण भाषा है। ऐतिहासिक महत्व की दृष्टि ही नहीं बल्कि सार्क देशों और दक्षिणी एशियाई देशों के साथ हमारी विदेश नीतियों को भी यह भाषा प्रभावित करती है। क्योंकि इन देशों में बौद्ध धर्म का प्रभाव ज्यादा है। तमाम सार्थक बिंदुओं की अनदेखी करते हुए केवल पालि भाषा को यूपीएसी की परीक्षा से अचानक हटाने का निर्णय अदूरदर्शिता नहीं है। जिस भाषा से रोजगार उपलबध होती है, वह उतना ही समृद्ध होती है। रोजगार उपलब्ध करा कर ही अंग्रेजी ने हिंदी को मात दे दी। पाली संस्कृत को पछाड़ रही है। ऐसे समय में जब यूपीएससी द्वारा पालि को पाठ्यक्रम से हटाने का निर्णय इसका गला घोंटने से कम नहीं है।
गुरुवार, मार्च 21, 2013
प्राचीन भाषा की हत्या का उपक्रम
संदर्भ : सिविल सेवा परीक्षा से पाली को हटाना
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