शनिवार, जून 08, 2013
कुटीर उद्योग भी बचाते vikash दर को
31 मार्च 2007 की स्थिति के मुताबिक देश में पांच लाख पंजीकृत उद्यमों को बंद किया गया। सबसे ज्यादा 82966 इकाइयां तमिलनाडु में बंद हुईं। इसके बाद 80616 इकाइयां उत्तर प्रदेश में, 47581 इकाइयां कर्नाटक में, 41856 इकाइयां महाराष्ट्र में, 36502 इकाइयां मध्य प्रदेश में और 34945 इकाइयां गुजरात में बंद करनी पड़ीं। बंद होने के सरकारी आंकड़ों के आधार पर यह अनुमान लगाना कठिन नहीं होगा कि जब पंजीकृत उद्यमों को अकाल मौत आ गई, तब देश के गैर पंजीकृत और परंपरागत कुटीर उद्योगों का क्या हश्र हुआ हो, वे कैसे दम तोड़े होंगे
संजय स्वदेश
करीब बीस साल पहले जब देश की अर्थव्यवस्था बदहाल थी, तब उसे मजबूत करने के नाम पर तब के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने देश के द्वार विदेशी बाजारों के लिए खोल दिए। तरह-तरह के सपने दिखाकर जनता को विदेशी कंपनियों के लिए तैयार कर लिया गया। हालांकि उससे देश के विकास पर फर्क भी पड़ा। बाजार में पैसे का प्रवाह तेज हुआ, लोग समृद्ध भी हुए। पर इस प्रवाह में देश का पारंपरिक व मौलिक बाजार का वह ढांचा चरमरा गया, जिस कीमत में न केवल संतोष था बल्कि सुख-चैन भी था। लेकिन अब इसके घातक परिदृश्य सामने आने लगे हैं। बाजार के जानकार कहते हैं कि केवल कृषि उत्पादों और स्वास्थ्य सेवाओं पर करीब 54 लाख करोड़ रु पया हर साल बहकर देश से बाहर चला जाता है। यदि परंपरागत बाजार के ढांचे में इतने धन का प्रवाह देश में ही होता तो शायद उदारीकरण की समृद्धि के पीछे चली नकारात्मक चीजें देश की मौलिक व पारंपरिक ढांचे को नहीं तोड़ती। उदारीकरण की मनमोहनी हवा चलने से पहले गांव के बाजार पारंपरिक हाट की शक्ल में ही गुलजार होते थे। यही समय उसके गुलजार होने का उत्तरार्ध काल था। करीब दो दशक में ही आधुनिक बाजार के थपेड़ों में पारंपरिक गांव के बाजार में सजने वाले वे सभी उत्पाद गायब हो चुके हैं, जो कुटीर उद्योगों के माध्यम से ग्रामीण अर्थव्यवस्था की संरचना को मजबूत किए हुए थे। यहां एक उदाहरण गिनाने से बात नहीं बनेगी। 20 साल पहले जिन्होंने हाट का झरोखा देखा होगा, उनके मन मस्तिष्क में उन उत्पादों के रेखाचित्र सहज ही उभर आएंगे। फिलहाल, तब से देश करीब डेढ़ पीढ़ी आगे आ चुका है। जिन गांवों में शहर की हर सुविधा के कमोबेश पहुंचने के दंभ पर सफल विकास के दावे किए जा रहे हैं, उसका असली लाभ कौन ले रहा है? कहने और उदाहरण देने की जरूरत नहीं है कि उन फटेहाल ग्रामीण या किसानों की संख्या में कमी नहीं आई है, जो आज भी जी-तोड़ मेहनत मजदूरी और महंगी लागत के बाद आराम की रोटी खाने लायक मुनाफे से दूर हैं। पर शहर में अपने उत्पादों को बेचते-बेचते कॉरपोरेट कंपनियों ने गांवों में बाजार विकसित कर लिया। कॉरपोरेट व्यवस्था की नीति ही है कि वह किसी व जिस भी बाजार में जाए वहां पहले से जमे उसके जैसे उत्पादों के बाजार को किसी न किसी तरह से प्रभावित करें। इसमें सफलता का सबसे बेहतर तरीका है कि प्रतिस्पर्धी की मौलिक योग्यता नष्ट कर दी जाए। मतलब दूसरे की मौलिक उत्पादन की क्षमता की संरचना को ही खंडित करके बाजार में अपनी पैठ बना कर जेब में मोटा मुनाफा ठूंसा जा सकता है। विदेशी पूंजी के बयार से जब बाजार गुलजार हुआ तब लघु और मध्यम श्रेणी की औद्योगिक गतिविधियों में काफी हलचल हुई। उनके आंकड़ों को गिना कर सरकार ने समय-समय पर अपनी पीठ भी थपथपाई। आज उसी नीति की सरकार के आंकड़े जो हकीकत बयां कर रहे हैं, वे भविष्य के लिए सुखद नहीं कहे जा सकते। गत दिनों सरकार ने संसद में जो ताजा जानकारी दी उसके अनुसार 31 मार्च 2007 की स्थिति के मुताबिक देश में पांच लाख पंजीकृत उद्यमों को बंद किया गया। सबसे ज्यादा 82966 इकाइयां तमिलनाडु में बंद हुईं। इसके बाद, 80616 इकाइयां उत्तर प्रदेश में, 47581 इकाइयां कर्नाटक में, 41856 इकाइयां महाराष्ट्र में, 36502 इकाइयां मध्य प्रदेश में और 34945 इकाइयां गुजरात में बंद करनी पड़ीं। बंद होने के सरकारी आंकड़ों के आधार पर यह अनुमान लगाना कठिन नहीं होगा कि जब पंजीकृत उद्यमों की अकाल मौत आ गई, तब देश के परंपरागत कुटीर उद्योगों का क्या हश्र हुआ हो, वे कैसे दम तोड़े होंगे? उनसे जुड़े लाखों लोग कैसे जीवन जी रहे होंगे। कॉरपोरेट के रूप में आई विदेशी पूंजी का तेज प्रवाह ने ही कुटीर उद्योगों की मौलिक कार्यकुशलता की योग्यता को नष्ट कर दिया। गांवों में ही तैयार होने वाले पारंपरिक उत्पाद के ढांचे को तोड़ दिया। हसियां, हथौड़ा, कुदाल, फावड़े तक बनाने के धंधे कॉरपोरेट कंपनियों ने गांवों के कारीगरों से छीन लिए। इस पेशे से जुड़े कारीगर अब कहां है? कभी-कभार बड़े शहर की शक्ल में बदलते अर्धविकसित शहर के किसी चौक-चौराहे पर ऐसे कारीगर परिवार के साथ फटेहाली में तंबू लगाए दिख सकते हैं पर उन्हें हमेशा काम मिलता हो, ऐसी बात नहीं है। सब कुछ तो बाजार में है। यह तो एक उदहारण है। लकड़ी के कारीगरों के हाल देख लें। बड़े-बड़े धन्ना सेठों ने इसके कारोबार पर कब्जा कर लिया। इस परंपरागत पेशे से जुड़े कारीगर अब उनके लिए मामूली रकम में रौदा घंसते हुए उनकी जेबें मोटी कर रहे हैं। हालांकि कंपनियों ने लकड़ी की उपयोगिता के ढेरों विकल्प दे दिए हैं। यह सब कुछ गांव तक पहुंच चुका है। शहर से लगे गांव के अस्तित्व तो कब के मिल चुके हैं। दूरवर्ती गांवों में तेजी से रियल इस्टेट का कारोबार सधे हुए कदमों से पांव पसार रहा है। शायद इसी दंभ पर स्टील कंपनियां निकट भविष्य में केवल ग्रामीण इलाके में अपने लिए 17 हजार करोड़ डॉलर का बाजार देख अपनी तिजोरी बढ़ाने के सपनें संजो रही हैं। http://www.rashtriyasahara.com/epapermain.aspx?queryed=9/// rastriya sahara me hastshep page no 2//publish on 8/6/2013
सोमवार, जून 03, 2013
हत्याकांड के हत्यारे
By संजय स्वदेश 01/06/2013 16:25:00
छत्तीसगढ़ की दरभा घाटी में हुआ भीषण हत्याकांड सिर्फ वहीं होकर खत्म हो गया हो, ऐसा नहीं हो पाया। भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में अपने तरह से इस सबसे जघन्य और अमानवीय हत्याकांड के बाद जिस तरह से मीडिया, सोशल मीडिया और राजनीतिक दलों द्वारा व्यवहार किया जा रहा है वह बताता है कि दरभा घाटी में हुए नरसंहार के दोषी अकेले माओवादी भर नहीं है। हमारा मीडिया, सोशल मीडिया और राजनीतिक जमात भी हत्याकांड के छिपे हुए हत्यारे की तरह व्यवहार कर रहा है। इस जघन्य हत्याकांड के बाद नक्सलवाद पर बहस चलाकर अगर मीडिया और सोशल मीडिया ने इसे कमजोर करने की साजिश की तो एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाकर राजनीतिक दल इस हत्याकांड की हत्या करने में जुट गये हैं।रायपुर से संजय स्वदेश की रिपोर्ट- ---- कम से कम छत्तीसगढ़ के नेताओं से किसी ने यह उम्मीद बिल्कुल नहीं की होगी, जैसा वे कर रहे हैं। अभी हत्याकांड के तेरहवीं भी नहीं बीती कि राजनीतिक दल एक दूसरे पर कीचड़ उछालने के लिए मैदान में उतर आये हैं। हादसे के बाद जो आरोप-प्रत्यारोप की राजनीतिक चल रही है, वह राजनीतिक शुचिता को तार-तार करने वाली है। जिस हत्याकांड की जिम्मेदारी खुद हत्यारे ले रहे हैं। लिखित पर्चे भेज रहे हैं। खुले आम फिर से नरसंहार की चेतावनी दे रहे हैं। ऐसी स्थिति में राजनीतिक दल बयानबाजी कर एक दूसरे को दोषी ठहराकर क्या साबित करना चाहते हैं? लेकिन लगता है कि इस हत्याकांड की हत्या करके कम के कम प्रदेश में कांग्रेस के कुछ नेता अपनी राजनीतिक जमीन तैयार करने में जुट गये हैं। छत्तीसगढ़ में अगला विधानसभा चुनाव होने में करीब नौ महीने शेष है। लेकिन लगता यही है कि राजनीतिक दलों का ध्यान इसी ओर केंद्रित है। दुखद सच यही है कि राजनीतिक दलों ने हत्याकांड के असल मुद्दे की ही हत्या कर दी है। कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ में फिर से परिर्वतन यात्रा शुरू करने का फैसला ले लिया। दिवंगत नेताओं की तेरवीं के कांग्रेस अब नंदकुमार पटेल और महेंद्र कर्मा की फोटो लेकर परिवर्तन यात्रा लेकन जनता के बीच जाएगी। इसकी रणनीति घटनाक्रम के करीब एक सप्ताह के अंदर ही कांग्रेस बना चुकी है। मतलब कांग्रेस अपने नेताओं की हत्या को सत्ता पाने की कीमत में रूप में भुनाना चाहती है। बयानों की खुल्लम खुल्ला राजनीति इस नक्सली वारदात के बाद ही कांग्रेस का यह आरोप लगाया था कि राज्य के इंटेलिजेंस प्रमुख और मुख्यमंत्री के बीच गहरी सांठगांठ है, जिसके कारण राज्य के गृह मंत्री अधिकारविहीन हो गए हैं। भक्त चरण दास ने पार्टी की सोच का खुलासा करते हुए कहा कि राज्य सरकार के पास इस हमले की पूरी जानकारी थी, बावजूद इसके सरकार मौन और निष्क्रिय बनी रही। इसी गंभीर वातावरण में पड़ोसी प्रदेश मध्यप्रदेश के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया ने भी खूब राजनीतिक चमकाई। साफ-साफ मीडिया को बयान दिया कि पूरा षड्यंत्र भाजपा का है, तो मध्यप्रदेश भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर ने आरोप लगाया दिया कि हमले के मुख्य षड्यंत्रकारी छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी हैं। आरोप सुन जोगी ने तड़ से प्रेस कान्फ्रेन्स कर नरेंद्र सिंह तोमर के खिलाफ कानूनी नोटिस भेजने की घोषणा की। सर्वदलील बैठक में बन सकती थी बात घटनाक्रम को लेकर प्रदेश की भाजपा सरकार ने सर्वदलीय बैठक बुलाई। इसमें मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने हिस्सा ही नहीं लिया। प्रदेश कांग्रेस महामंत्री भूपेश बघेल और वरिष्ठ विधायकअकबर ने कह दिया कि मुख्यमंत्री ही आरोप के घेरे में हैं। षडयं9 में सरकार के शामिल रहने का शक है तो ऐसे लोगों को बैठक में बुलाने का अधिकार नहीं। हालांकि मुख्यमंत्री रमन सिंह का कहना है कि सर्वदलीय बैठक की तिथि प्रतिपक्ष नेता वरिष्ठ कांग्रेसी रविंद्र चौबे और केंद्रीय मंत्री चरणदास महंत से चर्चा कर के तय की गई थी। जो भी एक सार्थक उद्देश्य के लिए बुलाई गई बैठक का बहिष्कार कर बयानबाजी कर राजनीति करने के बजाय कांग्रेस नक्सलियों के ढृढ़ सफाये के मुद्दे पर सरकार को झुका ही सकती थी। आंध्र प्रदेश से ले सबक छत्तीसगढ़ के पड़ोसी राज्य आंध्रप्रदेश में एक बार नक्सलियों ने चंद्रबाबू नायडू की हत्या करने की कोशिश की। लेकिन अगले विधानसभा चुनाव में 2004 में कांग्रेस ने यह घोषणा की कि यदि वह जीतती है तो नक्सलियों से बातचीत करेगी। कांग्रेस जीत भी गई। तब कांग्रेस पर यह आरोप लगा कि उसने चुनाव में नक्सलियों से साठगांठ कर सत्ता पाने में कामयाब रही। सत्ता मिलने पर कांग्रेस ने नक्सलियों से बातचीत का रास्ता अख्तियार किया। लेकिन नक्सली अपनी राह छाड़ने को राजी नहीं थे। बातचीत के दौरान नक्सली अपनी ताकत बढ़ाने और संगठन मजबूत करने में लगे रहें। तब राजशेखर रेड्ड़ी ने नक्सलियों को मुंहतोड़ जवाब दिया। विशेष रूप से नक्सलियों से लड़ने के लिए गठित विशेष सुरक्षा बल को आधुनिकीकरण किया। आधुनिक हथियार और तकनीक से लैस इस सुरक्षा बल के लड़ाके नक्सलियों के लिए खौफ के प्रतिक बन गए। इसके परिणामस्वरूप आंध्र प्रदेश में नक्सली घटनाओं में तेजी से कमी आई। आंध्र के नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ के जंगलों में शरण ली। यहां के आदिवासियों को अपना मातहत बना कर खूनी खेल खेल रहे हैं। वहीं छत्तीसगढ़ में किसी भी दल में ऐसी कोई बयान नहीं दिया जिससे यह लगे कि उनमें सत्ता पाकर नक्सलियों पर सख्ती से नकेल की दृढ़ता हो। लेकिन यहां तो मुखर्तापूर्ण ढंग से बयानबाजी कर नेता अपने ही गले के छुरी चला रहे हैं। गरमा गया नक्सलबाद इस नक्सली नरसंहार के बाद सोशल मीडिया बहस का एक बहुत बड़ा केंद्र बन गया। लेकिन इस बहसबाजी में भी हत्याकांड की बजाय नक्सलबाद एक गंभीर मुद्दे के रूप में उभार दिया गया। समाचार चैनलों पर भी इस मुद्दे पर हुए बहस में नक्सलबाद का मुद्दा ज्यादा केंद्रीत नजर आया। प्रिंट मीडिया, खासकर छत्तीसगढ़ की प्रिंट मीडिया ने तो हत्याकांड के बड़े-बड़े फोटो प्रकाशित कर मानवता को झकझोरने की कोशिश की। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विशेष कार्यक्रम चलाए गए या चलाए जा रहे हैं, उससे एक बात तो साफ-साफ नजर आ रही है कि यह बड़ा हादसा, उन तमाम नक्सली हत्याकांडों की तरह हो गया जो पहले हुए। यानी मौत के मातम पर मौत का मजा। मीडिया को मिला शिंदे का मसाला एक प्रमुख समाचार चैनल पर तो यह समाचार प्रसारित कर दी गई कि इस भीषण नक्सली वारदात के बाद केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे विदेश में छुट्यिां मना रहे हैं। चैनल ने यह भी बताया कि शिंदे अमेरिका में 19 से 22 तक आयोजित एक कार्यक्रम में भारत सरकार का प्रतिनिधित्व करने गए हैं। लेकिन हादसे के बाद भी नहीं लौटे। चैनल तो हकीकत की पड़ताल नहीं की। शिंदे कार्यक्रम की समाप्ति के बाद अपनी आंख के इलाज के लिए वे अस्पताल में भर्ती थे। नक्सली हत्याकांड के अगले दिन ही प्रधानमंत्री और यूपीए प्रमुख सोनिया गांधी छत्तीसगढ़ पहुंच गई। केंद्रीय गृहराज्यमंत्री भी आ गए। फिर शिंदे को घेरने की क्या जरूरत पड़ी। मतलब समाचार चैनल ने भी इस नक्सली वारदात में टीआरपी का एक मसाला ही खोजा। क्यों नहीं बताया पीएम के जापान दौरे का लाभ छत्तीसगढ़ में नक्सली वारदात के तीसरे दिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जापान के दौरे पर गए। मीडिया ने यह भी आलोचना की कि ऐसे हालात में पीएम को विदेश नहीं जाना चाहिए था। लेकिन पीएम का जापान जाना कितना जरूरी था। इस पर तो कोई बात ही नहीं हुई। गत दिनों चीन के प्रधानमंत्री भारत दौरे पर आए थे। भारत की पर मनोवैज्ञानिक दवाब के लिए चीनी पीएम भारत दौर के बाद पड़ोसी देश पाकिस्तान गए। जिस दिन चीनी पीएम भारत आए थे, उसी दिन मनमोहन सिंह की जापान यात्रा तय हो गई थी। मनमोहन सिंह का जापान जाना चीन को जवाब देना था। जापान जाकर भारत में बुलेट ट्रेन चलाने के लिए महत्वपूर्ण समझौता हुआ। जबकि भारत में बुलेट ट्रेन चलाने के लिए फांस के साथ डील ुहई थी। फांस की कंपनी ने भारत में सर्वे भी कर लिया था। पहले चरण में पुणे, मुंबई और अहमदाबाद में बुलेट ट्रेन चलाने का ब्लूप्रिंट भी तैयार हो चुका था। इसके बाद भी भारत की इस बदली हुई कूटनीति के बारे में मीडिया ने कुछ ठोस चीज जनता को नहीं बताई। दुनिया जानती है, बुलेट ट्रेन तकनीक में चीन दुनिया में सबसे आगे हैं। भारत ने जापान से करार कर उसे बुलेट ट्रेन का एक बड़ा बाजार दे दिया। यह चीन को ठीक उसी तरह का करारा मनोवैज्ञानिक जवाब है जिस तरह चीन पीए भारत आकर पाकिस्तान गए और वहां उसकी पीठ ठोक आए। आए दिन सीमा विवाद को लेकर भारत को तंग करने वाले चीन को अब उसका पड़ोसी जापान भारत में रह कर बुलेट ट्रेन के बाजार के माध्यम से चीन को चुनौती देता रहेगा। केपीएस गिल ने बहती गंगा में हाथ धोया छत्तीसगढ़ के नक्सली वारदात में बयान देकर एक ओर जहां नेता राजनीतिक की रोटी सेंकने में लगे हैं, वहीं इस बहती गंगा में पूर्व आईपीएस अधिकारी केपीएस गिल ने भी हाथ धो लिया। के.पी.एस. गिल को छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद से लड़ने के लिए सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया था। छत्तीसगढ़ की वर्तमान राजनीतिक सरगर्मी में उन्होंने यह बयान दिया कि नक्सलियों के सफाये के लिए उन्होंने जो रणनीति मुख्यमंत्री रमन सिंह को बताई, उस पर मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया थी कि वेतन लो और मौज करो। यह बात कितनी सच है यह तो केपीएस गिल जाने और रमन सिंह। लेकिन सच यह है जितने दिन गिल साहब छत्तीसगढ़ में रहे सीएम के कथिला सलाह पर खूब अमल किया। खूब मौज मारा। तमाम तरह के एैश सरकारी खर्चे पर। दबी जुबान में पुलिस महकम के लोग यह भी कहते हैं कि दादा के उम्र के गिल साहब बेड पर नई लड़कियों के भी शैकिन थे।
भारतीय बाजार से चीन मालामाल
--------------------ॅ----------------- भारत के बड़े बाजार में धंधा कर चोखा मुनाफा बटोरने वाली कंपनियों की दो जमात है। एक वह जो अपने उत्पाद में थोड़ी बहुत गुणवत्ता देकर भारतीय व्यापारियों के ग्राहकों को लुभा रहे हैं, दूसरे वे हैं जो घटिया उत्पाद या धोखा देकर भारतीय व्यापारी, कपंनियां या ग्राहकों का पैसा हड़प ले रही हैं। ----------------------------------------संजय स्वदेश पड़ोसी देश चीन कभी भी भारत का विश्वस्त नहीं रहा। लेकिन वैश्विक स्तर पर बदले हालात और बाजार के प्रभाव के कारण कूटनीतिक स्तर पर हमेशा दोनों देशों के संबंधों को सकारात्मक बनाये रखने की पहल दोनों देशों की ओ से होती है। वैश्विक स्तर पर मजबूत होते भारत के कदम चीन की आंखों में हमेशा खटकता रहा है। लिहाजा, चीन ने हमेशा से हर मोर्चे पर भारत को कमजोर करने की कोशिश करता रहा है। कभी सीमा में घुसपैठ करके तो कभी देश के महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों के वेबसाइटों साइबर धावा बोलकर मानसिक रूप से अशांत करता है। लेकिन आर्थिक स्तर पर चीन भारत को जिस तरह से खोखला कर रहा है, वह निश्चय ही गंभीर है। मीडिया में भारतीय सीमा पर चीनी सैनिकों की हलचल की खबरों पर नजर ज्यादा रहती है, लेकिन इस हलचल के पीछे चीन से जुड़े आर्थिक मुद्दे अक्सर गौड़ होते गए हैं। करीब दशक भर पहले जब चीनी माल भारत में सस्ते दामों में पहुंचा तब लोगों ने हाथों-हाथ लिया। हालांकि चीन अभी भी भारत की हर जरूरत की समान यहां तक ही हमारे भगवान की मूर्तियों तक को भेज रहा है। शुरुआती दिनों में वस्तुओं की गुणवत्ता इतनी खराब निकली कि धीरे-धीरे लोगों को विश्वास चीनी वस्तुओं से उठने लगा। लेकिन शुरुआती दौर में चीन ने भारती व्यपारियों को भीषण तरीके से मानसिक आघात पहुंचाया। अब भारत आने वाला चीनी माल में अब थोड़ी बहुत गुणवत्ता आने लगी है। यहीं कारण है कि गुणवत्ता को लेकर टूटा जनता का विश्वास किफायती दाम के कारण फिर बहाल होने लगा है। आम भारतीय बाजार में ब्रांडेट कंपनियों का 20 से 40 हजार में मिलने वाला टेबवलेट चीनी ब्रांड में हूबहू दो-चार हजार में उपलब्ध हो जा रहा है। जो लोग ब्रांडेड टेबलेट नहीं खरीद पाते हैं, चीनी टेबलेट से टशन मारते हैं। यह तो केवल टेबलेट भर की बात है। खिलौना, देवी-देवताओं की प्रतिमाओं से लेकर, फर्नीचर और इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएं चीनी उत्पाद भारत में उपलब्ध हैं। समझदार भारतीय उपभोक्ता अब किफायती दर के साथ गुणवत्ता की तुलना कर वस्तुओं को चुनने लगा है। चीन से आयातित सस्ती वस्तुओं से भारतीय कारोबारियों और निर्माताओं पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। सबसे अधिक नुकसान भारत के छोटे और मझौले उद्यमियों पर पड़ा है। भारत के बड़े बाजार में धंधा कर चोखा मुनाफा बटोरने वाली कंपनियों की दो जमात है। एक वह जो अपने उत्पाद में थोड़ी बहुत गुणवत्ता देकर भारतीय व्यापारियों के ग्राहकों को लुभा रहे हैं, दूसरे वे हैं जो घटिया उत्पाद या धोखा देकर देशी व्यापारी, कपंनियां या ग्राहकों का पैसा हड़प ले रही हैं। हालही में चीन से व्यापार करने वालों को भारतीय दूतावास ने खबरदार करते हुए सचेत रहने को कहा। पिछले वर्ष 86 भारतीय कंपनियों को चीनी कपंनियों ने धोखा दिया। धोखा खाने वाले छोटे और मझोले स्तर के भारतीय कारोबारी थे। दिया है कि भारतीय कंपनियां कोई भी कारोबारी समझौता करने से पहले चीनी कंपनियों की जांच-परख कर लें। जो चीनी चीनी कंपनियां धोखाधड़ी में शामिल पाई गर्इं है, वे रसायन, स्टील, सौर उर्जा के उपकरण, आॅटो व्हील, आर्ट एंड क्राफ्ट्स, हाडर्वेयर और बायोलॉजिकल टेक्नोलॉजी के कारोबार से जुड़ी हैं। ऐसे मामले भी सामने आए हैं जब भारतीय कंपनियों ने चीन से मशीनरी मंगवाई। जब इसकी इंस्टालेशन करने के बाद काम शुरू किया तो मशीन चली ही नहीं। चीनी वेबसाइट देखकर भारतीय व्यापारी सामान खरीदने को आर्डर देते हैं। चीनी कंपनियां उनसे पैसा तो ले लेती है, लेकिन बाद में सामान भेजती ही नहीं। भारतीय दूतावास ऐसी धोखेबाजी चीनी कंपनियों की सूची आॅनलाइन उपलब्ध करा रहा है। चीनी कंपनियों की धोखेबाजी के धंधे से अलग अनेक चीनी कंपनियां भारत में बेहतर धंधा कर मालामाल हो रही हैं। देश की प्रतिष्ठित औद्योगिक संगठन का दावा हैकि चीन भारतीय अर्थव्यवस्था को किसी भी तरह से नुकसान पहुंचाने का खतरा नहीं उठा सकता है क्योंकि उसके भारत से व्यापक व्यापारिक हित जुड़े हुए हैं। भारत के बढ़ते बाजार में चीन की हिस्सेदारी में बड़ी तेजी से बढ़ोतरी हुई है। फिलहाल चीन का भारत में वार्षिक कारोबार 40 अरब डॉलर यानी की करीब 2 लाख 22 हजार करोड़ रुपये हो रहा है। संभावना है कि चालू वित्त वर्ष में यह आंकड़ा बड़ 44 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा। एसोचैम का सुझाव है कि भारत और चीन को आपस में व्यापारिक अंतर को पाटने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। -----------------------
मर्ज की मजबूरी पर लूट का गोरखधंधा
संदर्भ : जरूरी दवाओं को सरकारी मूल्य से ज्यादा पर बिक्री
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कई कंपनियों ने अनेक जरूरी दवाओं के लिए गत कुछ वर्षों में ग्राहकों से लगभग 2,362 करोड़ रुपए अधिक वसूले। इसमें से करीब 95 फीसदी रकम से संबंधित मामले कोर्ट में विचाराधीन हैं। कई कंपनियों ने तो जुर्माने के रूप में एक पैसा भी नहीं भरा है। कंपनियां कानूनी दांव पेंच का सहारा लेकर मामले को लंबित करवा देती हैं, तब तक बाजार में उनकी मनमानी चलती रहती है। कंपनियों की तिजोरी भरती जाती है। इसके बाद भी दवा से मरीज की जान बचे या जाए इसकी गारंटी भी नहीं है।
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संजय स्वदेश
कोई बीमारी जब जानलेवा हो जाती है तो लोग इलाज के लिए क्या कुछ नहीं दांव पर लगा देते हैं। क्या अमीर क्या गरीब। ऐसे हालात में वे मोलभाव नहीं करते हैं। इस नाजुक स्थिति को भुनाने में दवा उत्पादक कंपनियों ने मोटी कमाई का बेहतरीन अवसर समझ लिया है। सरकारी नियमों को खुलेआम धत्ता बता कर दवा कंपनियां जरूरी दवाइयों की मनमानी कीमत वसूल रही हैं। कंपनियों की इस मनमानी पर सरकार की नकेल नाकाम है। दवा मूल्य नियामक राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) ने अपने हालिया रिपोर्ट में कहा है कि सिप्ला, डॉ. रेड्डीज लैब्स और रैनबैक्सी जैसी प्रमुख बड़ी दवा कंपनियों ने ग्राहकों से तय मूल्य से ज्यादा में दवाएं बेचीं। रिपोर्ट के अनुसार बेहतरीन उत्पादकों की सूची में शामिल इन कंपनियों ने कई जरूरी दवाओं के लिए गत कुछ वर्षों में ग्राहकों से लगभग 2,362 करोड़ रुपए अधिक वसूले। इसमें से करीब 95 फीसदी रकम से संबंधित मामले विभिन्न राज्यों उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन हैं। इनमें से कई कंपनियों ने तो जुर्माने के रूप में एक पैसा भी नहीं भरा है। ऐसे मामलों में कंपनियां कानूनी दांव पेंच का सहारा लेकर मामले को लंबित करवा देती हैं। तब तक बाजार में उनकी मनमानी चलती रहती है। जनता की जेब कटती रहती है। कंपनियों की तिजोरी भरती जाती है। इसके बाद भी दवा से मरीज की जान बचे या जाए इसकी गारंटी भी नहीं है।
सरकार एनपीपीए के माध्यम से ही देश में दवाओं का मूल्य निर्धारित करती है। वर्तमान समय में एनपीपीए ने 74 आवश्यक दवाओं के मूल्य निर्धारित कर रखा है। नियम है कि जब दवा की कीमत में बदलाव करना हो तो कंपनियों को एनपीपीए से संपर्क जरूरी है। लेकिन देखा गया है कि कई बार कंपनियां औपचारिक रूप से आवेदन तो करती हंै पर दवा का मूल्य मनमाने ढंग से बढ़Þा देती हैं। निर्धारित मूल्यों की सूचीबद्ध दवाओं से बाहर की दवाओं के कीमतों में बढ़Þोत्तरी के लिए भी एनपीपीए से मंजूरी अनिवार्य है। इसमें एनपीए अधिकतम दस प्रतिशत सालाना वृद्धि की ही मंजूरी देता है। लेकिन अनेक दवा कंपनियों ने मनमाने तरीके से दाम बढ़Þाए हैं।
दवा कंपनियों के इस मुनाफे की मलाई में दवा विक्रेताओं को भी अच्छा खासा लाभ मिलता है। स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में कार्यरत एक गैर सरकारी संगठन प्रतिभा जननी सेवा संस्थान की एक रिपोर्ट ने इस बात का खुलासा किया कि दवा कंपनियां केवल अधिक कीमत वसूल की ही अपनी जेब नहीं भरती है, बल्कि वे सरकारी कर बचाने एवं अपने ज्यादा उत्पाद को खापने के लिए खुदरा और थोक दवा विक्रेताओं को भी मुनाफे का खूब अवसर उपलब्ध कराती हैं। जिसके बारे में आम जनता के साथ-साथ सरकार भी बेखबर है। कंपनियां दवा विक्रेताओं को दवाओं का बोनस देती है। मतलब एक केमिस्ट किसी कंपनी की एक स्ट्रीप खरीदता है तो नियम के हिसाब से उससे एक स्ट्रीप का पैसा लिया जाता हैं लेकिन साथ ही में उसे एक स्ट्रीप पर एक स्ट्रीप फ्री या 10 स्ट्रीप पांच स्ट्रीप फ्री दे दिया जाता है। बिलिंग एक स्ट्रीप की ही होती है। इससे एक ओर सरकार को कर नहीं मिल पाता वहीं दूसरी ओर कंपनियां दवा विक्रेताओं को अच्छा खासा मुनाफा कमाने का मौका दे देती है। वे निष्ठा से उसके उत्पाद को ज्यादा से ज्यादा बेचने की कोशिश करते हैं। दवा विक्रेताओं ने अपना संघ बना रखा है। ए अधिकतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) से कम पर दवा नहीं बेचते हैं। ग्राहक की दयनीयता से इनका दिल भी नहीं पसीजता है। दवा कंपनियां के इस खेल का एक बनागी ऐसे समझिए। मैन काइंड कंपनी की निर्मित अनवांटेड किट भी स्त्रीरोग में उपयोग लाया जाता है। इसकी एमआरपी 499 रुपए प्रति किट है। खुदरा विक्रेता को यह थोक रेट में 384.20 रुपए में उपलब्ध होता है। लेकिन कंपनी खुदरा विक्रेताओं को एक किट के रेट में ही 6 किट बिना कीमत लिए मतलब नि:शुल्क देती है। बाजार की भाषा में इसे एक पर 6 क डिल कहा जाता है। इस तरह से खुदरा विक्रेता को यह एक किट 54.80 रुपए का पड़ा। अगर इस मूल्य को एम.आर.पी से तुलना करके के देखा जाए तो एक कीट पर खुदरा विक्रेता को 444 रुपए यानी 907.27 प्रतिशत का मुनाफा होता है। हालांकि कुछ विवादों के चलते कुछ प्रदेशों में यह दवा अभी खुलेआम नहीं बिक रही है।
मर्ज मिटाने की दवा में मोटी कमाई के खेल को समझने के लिए और और उदाहरण सुनिए। सिप्रोफ्लाक्सासिन 500 एम.जी और टिनिडाजोल 600 एम.जी नमक से निर्मित दवा है। जिसे सिपला, सिपलॉक्स टी जेड के नाम से बेचती है। लूज मोसन (दस्त) में यह बहुत की कारगर दवा है। सरकार ने जिन 74 दवाइयों को मूल्य नियंत्रण श्रेणी में रखा है। इस दवा की सरकार द्वार तय बिक्री मूल्य 25.70 पैसा प्रति 10 टैबलेट बताई गई है। मगर देश की सबसे बड़ी कंपनी का दावा करने वाली सिपला इस दवा को पूरे देश में 100 रुपए से ज्यादा में बेच रही हैं। यानी हर 10 टैबलेट वह 75-80 रुपए ज्यादा वसूल कर रही है।
मजबूत अधिकार और मानव संसाधानों की कमी के कारण ही दवाओं के मूल्य निर्धारण करने के लिए ही बनी एनपीपीए बिना दांत का शेर साबित हो रहा है। जनता में इस बात को लेकर किसी तरह का जागरूकता नहीं होने से इसकी खिलाफत नहीं होती है। चूंकि मामला जान से जुड़ा होता है, इसलिए हर कीमत पर दवा लेकर लोग जान बचाने की ही सोचते हैं। ऐसी विषम स्थिति में भला कोई दवा विक्रेता से मोल भाव क्यों करे? नियम तो यह है कि केमिस्ट दुकानों में दवा के मूल्य सूची प्रर्दशित होना जरूरी है। लेकिन किसी भी दवा दुकान में झांक लें, इस नियम का पालन नहीं दिखेगा। जो दवा मिलेगी उसपर कोई मोलभाव नहीं। खरीदने की छमता नहीं तो कही भी गुहार पर तत्काल राहत की कोई गुंजाइश नहीं। नियम की दृढ़ता से लागू हो इसके लिए सरकार के पास पर्याप्त निरीक्षक भी नहीं है। जनता गुहार भी लगाना चाहे तो कहां जाए? सीधे एनपपीपीए में लिखित शिकायत की जा सकती है, लेकिन यह प्रक्रिया लंबी है। जनता को तो दवा खरीदते वक्त तत्काल राहत चाहिए। हर किसी को दवा मूल्य नियामक राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण के बारे में जानकारी भी नहीं है। जिन्हें जानकारी हैं, वे शिकायत भी नहीं करते हैं।
संजय स्वदेश
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