मंगलवार, सितंबर 24, 2013
दंगे की आग में जल गया कोयला
दंगे की आग में जल गया कोयला
दंगा हुआ मुजफ्फरनगर में। लोगों के घर जले और दिल भी। लेकिन दंगों पर सद्भावना दिखानेवाली कांग्रेस सरकार ने क्या किया? उसने बड़ी चालाकी से दंगों की इसी आग में कोयला भी जला लिया और राख का ढेर भी फूंककर हवा में उड़ा दिया। आप सोच रहे होंगे कैसे तो समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है। कोयले की आग में जल रही केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने सीएजी की उस रिपोर्ट को हवा कर दिया है जिसमें एक बार फिर यही बात कही गई है कि खनन कंपनियां देश को लूट रही है। लेकिन तब जब सीएजी ने यह बात कही थी तब शुरू हुआ हंगामा अब तक जारी है लेकिन अब सीएजी वही बात कह रही है तो किसी को कान देने की फुर्सत नहीं है। न मीडिया को, और न ही विपक्ष को। सब मुजफ्फरनगर की आग में हाथ सेंक रहे हैं।
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संजय स्वदेश
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2002 से 2012 के बीच की इस रिपोर्ट में हालांकि सीएजी ने विपक्षी दल भाजपा की एनडीए सरकार पर भी अंगुली उठाई है लेकिन कांग्रेस को भी इतनी फुर्सत कहां कि वह भाजपा को आइना दिखा सके। इस बीच भाजपा भी भूल ही गई है कि सीबीआई की फाइलें भी गायब हैं और गायब फाइलें मिल रही हैं उसमें से पन्ने के पन्ने गायब हैं।
कोलगेट कांड में राजनीतिक दलों की यह उदासी शायद इसलिए कि मुजफ्फरनगर कांड के कोलाहल के बीच आई सीएजी की रिपोर्ट पर किसी ने कान देने की जरूरत ही नहीं समझी। इसलिए इस रिपोर्ट की कही न कोई ठीक से खबर आई और न ही विपक्षी दलों ने मुद्दे के रूप में उठाया। राजनीतिक रूप से देखें तो विपक्ष के लिए यह एक शानदार और महत्वपूर्ण मौका था क्योंकि सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार को कोलगेट मामले में फटकार लगा रहा था और जनता के जेहन में कोलगेट की बात अभी भी बनी हुई है।
कभी छत्तीसगढ़, ओडिशा, कर्नाटक, झारखंड तो कभी उत्तर प्रदेश में काले सोने के काले धंधे का दाग किसी न किसी प्रदेश पर जरूर लगता है। मीडिया में शोर मचता है, आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता है, पर होता कुछ नहीं। सैकड़ों करोड़ों रुपये के घपले की सत्यता परखने के लिए जांच बैठा दी जाती है। जांच की रिपोर्ट कब आती है, क्या कार्रवाई होती है, यह सब मीडिया के सुर्खियों में नहीं आ पाता है। कभी जांच पड़ताल में कोई मृत निकलता है तो फाइल गायब मिलती है। जानने वाले तो यह भी जानते हैं विभागीय जांच पड़ताल के दौरान घपले की फाइलों को दबा दी जाती है या उसमें हेर फेर कर हिसाब किताब सुधार लिया जाता है। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की रही हो, कोयले की लूट खसोट में हर दल शामिल रहा है। कैग की ताजा रिपोर्ट 2002 से 2012 तक की अवधि पर आधारित है। इस समय अवधि में केंद्र में एनडीए और यूपीए दोनों की सरकार रही। मतलब साफ है, कोयले की लूट में हर प्रमुख दल शामिल रहा। लिहाजा, कौन सा दल किसका गिरबान पकड़े, आसान स्थिति नहीं है। गुजरात में नरेंद्र मोदी सरकार के जल संसाधन मंत्री जब लाइमस्टोन के अवैध खनन मामले में भीतर गए तो उनके साथ कांग्रेस के पूर्व सांसद भी थे।
जानकार लोग कहते हैं कि सत्ता के गलियारे में कोल परियोजनाओं से जुड़े माफियाओं का नेटवर्क इतना मजबूत है कि उनकी मनमर्जी चलती रहती है। जंगल क्षेत्रों में कोल खनन के लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की भी हरी झंडी जरूरी है। कैग के नये रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि खनन कार्य वन संरक्षण कानून के मुताबिक नहीं हो रहा है। कोल माफियाओं का नेटवर्क इतना प्रभावशाली है कि वे सत्ता के संरक्षण में ही ऐसे कानूनों को अपनी मनमर्जी के आगे बेवस बना देते हैं। केंद्र और प्रदेश सरकार इनके प्रभाव में होते हैं। किसी भी कंपनी को कोल खनन प्रदेश सरकार सहमति के बगैर नहीं मिलते हैं। लिहाजा, लूट के खेल में प्रदेश सरकारों की भूमिका को भी बाखूबी समझी जा सकती है। दामन में दांग होने के कारण ही कई बार केंद्र के निर्णय पर प्रदेश सरकार चुपचाप रहती है। 52 निजी कंपनियों के पट्टे बिना गिरानी रिपोर्ट के ही बढ़ा दिए गए। न कहीं खबर चली और नहीं ही कोई शोर-शराबा हुआ। आमतौर पर यह देखा गया है कि ऐसे निर्णय उसी दौरान लिए जाते हैं जब देश की जनता व मीडिया का ध्यान दूसरी खबरों में डूबा रहता है। पश्चिम उत्तर प्रदेश के दंगे में न केवल इंसानियत जली बल्कि उसके शोर-शराबे की आड़ में प्रकृति संसाधानों की लूट खसोड़ पर आधारित एक बड़ी रिपोर्ट गुम हो गई।
सोमवार, सितंबर 16, 2013
जनता को जगाओ, बच्चों को बचाओ
भारत में केंद्र और राज्य सरकार के ढेरों ऐसी योजनाएं हैं जिसके माध्यम से सरकारी अमला बच्चों के बेहतर भविष्य का दावा करता हैं, लेकिन हालात यह है कि ऐसी योजनाएं लाखों मासूम तक पहुंचने से पहले भ्रष्टाचार का ग्रास बन जाती है। ये भ्रष्टाचारी कभी यह नहीं सोचते हैं कि जिनके हिस्से की राशि वे भ्रष्टाचार के रूप में लेकर कर अपने घर-परिवार में बच्चों को ऐसो आराम उपलब्ध करा रहे हैं, दरअसल उसकी कीमत किसी दूसरे के गोद के मासूम के मुंह में जाने वाला निवाला है, स्वास्थ्य सुविधाओं समेत अन्य दूसरी योजनाओं के रूप में उनकी जिंदगी है।संजय स्वदेश संयुक्त राष्ट्र ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि उसके प्रयासों से पिछले दो दशक में दुनिया भर के करीब नौ लाख बच्चों की जिंदगियां बचाई जा सकी हैं लेकिन 2015 तक इस मृत्यु दर में दो तिहाई की कमी का लक्ष्य फिलहाल पूरा होता नहीं दिखता। रिपोर्ट खुलासा करती है कि 1990 में जहां विभिन्न कारणों से दुनिया भर में पांच साल तक की आयु के एक करोड़ 26 लाख बच्चे असमय काल के ग्रास बन गए। वहीं 2012 में यह आंकड़ा 66 लाख पर ही रुक गया। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में पांच साल से कम उम्र के आधे से अधिक बच्चों की मौत अकेले भारत, चीन, कांगो, पाकिस्तान और नाइजीरिया में होती है। बच्चों की इस असामयिक मौत के लिए निमोनिया, मलेरिया और दस्त के साथ कुपोषण को बड़ी वजह बताया गया है। इस अभियान का सबसे सुखद, सराहनीय और उल्लेखनीय पहलू यह है कि बांग्लादेश, इथोपिया, नेपाल, लाइबेरिया, मलावी और तंजानिया जैसे गरीब देश भरसक कोशिश करते हुए 1990 के बाद से अब तक अपने यहां बाल मृत्यु दर में दो तिहाई या उससे अधिक की कमी का लक्ष्य हासिल कर प्रेरक बन गए हैं। ए गरीब देश भारत जैसे विकासोन्मुख देशों के लिए बड़ी प्रेरणा कहे जा सकते हैं जहां दिन-ब-दिन बढ़Þती जनसंख्या के साथ बाल मृत्यु दर सबसे भयावह समस्या बनी हुई है। यूनिसेफ की 2012 की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2011 में वैश्विक स्तर पर इस आयु वर्ग के प्रतिदिन मरने वाले 19000 बच्चों में से करीब चौथाई भारत में मृत्यु का ग्रास बने। यानी हर दिन करीब चार हजार बच्चे मौत के मुंह में समा गए। बाल विकास के नाम पर तमाम सरकारी और गैर-सरकारी योजनाओं की मौजूदगी के बावजूद अपने यहां दुनिया के बाकी देशों की तुलना में सबसे ज्यादा मौतें होना बहुत त्रासद और विचारणीय है। अपने यहां बच्चों की असामयिक मौत के पीछे गरीबी, कुपोषण और अशिक्षा सबसे बड़े कारण माने जाते हैं और इसके लिए अंतत: हमारा शासन तंत्र जिम्मेदार है। भारत में केंद्र और राज्य सरकार के ढेरों ऐसी योजनाएं हैं जिसके माध्यम से सरकारी अमला बच्चों के बेहतर भविष्य का दावा करता हैं, लेकिन हालात यह है कि ऐसी योजनाएं लाखों मासूम तक पहुंचने से पहले भ्रष्टाचार का ग्रास बन जाती है। ये भ्रष्टाचारी कभी यह नहीं सोचते हैं कि जिनके हिस्से की राशि वे भ्रष्टाचार के रूप में लेकर कर अपने घर-परिवार में बच्चों को ऐसो आराम उपलब्ध करा रहे हैं, दरअसल उसकी कीमत किसी दूसरे के गोद के मासूम के मुंह में जाने वाला निवाला है, स्वास्थ्य सुविधाओं समेत अन्य दूसरी योजनाओं के रूप में उनकी जिंदगी है। मासूम बच्चों के लालन-पालन, स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए अनुकूल माहौल बनाने की जिम्मेदारी केवल केंद्र सरकार पर नहीं हैं। केंद्र सरकार के साथ राज्य सरकार के कंधे पर भी यही बोझ है। आज के मासूम बच्चे ही कल के जिम्मेदार नागरिक हैंÑ, जैसा वे वातावरण पाकर बड़े होंगे वैसा ही आने वाले भारत का भविष्य होगा। आज देश में छोटे-बड़े क्षेत्रों में कई क्रूर इंसान मिल जाएंगे। वे असामाजिक तत्वों के दायरे में आएंगे। दरअसल ऐसी प्रवृत्ति उनके बचपन में मिले वातावरण के कारण ही विकसित हुए। समाज की भी ऐसी जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने बीच के भूखे-नंगे और किसी बीमारी से पीड़ित बच्चों की सुध ले। भविष्य संवारने की जिम्मेदारी केवल सरकार और एक परिवार विशेष की नहीं होती है। समाज को इस दिशा के सोचना बेहद जरूरी है कि आज के नौनिहालों के मन में यदि नकारात्मक प्रवृत्ति घर करती है और वे बड़े होकर असामाजिक तत्वों हो जाते हैं। फिर वे उसी समाज को दर्द देंगे। समाजिक-सरकारी उपेक्षा से में पल कर तैयार होने वाले नागरिक इस बात की गारंटी नहीं दिलाते हैं कि वे अपने बचपन में समाजिक और सरकारी उपेक्षा के बदले समाज और देश के साथ कुछ अच्छा करेंगे। राष्टÑीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चलाई जाने वाली योजनाओं की सफलता की रफ्तार बहुत धीमे हैं। क्योंकि इन योजनाओं में समाज का उचित सहयोग नहीं मिल पता है। समाज में माहौल तैयार करने की प्रक्रिया एक वाहन के दो पहिए की तरह है। एक पहिया योजनाओं के क्रियान्वयन करने वाले एजेंसियों हैं तो दूसरा समाज। यह सामूहिक जिम्मेदारी है।
सोमवार, सितंबर 09, 2013
समाज के रग में दंगे का जहर
देश में शांति का काल हो या अशांति का। मजहबी हिंसा रोज-रोज की बात बन चुकी है। दंगे को रोकने के लिए हर काफर््यू में दो चार दिनों के लिए वहां के नागरिक घरों में दुबक जाते हैं। जिंदगी थम जाती है, किसी के घर में खाने को है या नहीं यह देखने वाला कोई नहीं। किसी मासूम बच्चों को दूध मिला की नहीं, इस सोचने वाला नहीं है। उन्नमादियों ने आग लगाई और पूरी जनता ने सजा भोगी। क्या ऐसे मामले में 24 घंटे के अंदर उन्नमादियों पर नकेल कर कर पूरी जनता को राहत देने की दृढ़ता हमारे प्रशासन तंत्र में नहीं है?संजय स्वदेश हाल के कुछ महीनों में उत्तर प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में एक के बाद एक दंगे ने साफ कर दिया है कि प्रशासनतंत्र दंगाइयों को रोकने में नाकाम है। ताजा मामला मुजफ्फरनगर जिले में भड़की हिंसा का है, जिसमें सरकारी आंकड़ों के अनुसार 26 लोगों की जान गई और दर्जनों लोग घायल हुए। पर गैर सरकारी आंकड़े इससे दोगुने के हैं। ऐसे हर हालात के बाद की तरह सरकार ने काफर््यू लगा दिया। हर काफर््यू में दो चार दिनों के लिए वहां के नागरिक घरों में दुबक जाते हैं। जिंदगी थम जाती है, किसी के घर में खाने को है या नहीं यह देखने वाला कोई नहीं। किसी मासूम बच्चों को दूध मिला की नहीं, इस सोचने वाला नहीं है। उन्नमादियों ने आग लगाई और पूरी जनता ने सजा भोगी। क्या ऐसे मामले में 24 घंटे के अंदर उन्नमादियों पर नकेल कर कर पूरी जनता को राहत देने की दृढ़ता हमारे प्रशासन तंत्र में नहीं है? जब तक दंगाइयों के मन में यह बात नहीं होती है कि उनके छोटे या बड़े कद के आका उनके नापाक हरकतों पर संरक्षण दे देंगे, वे खून कैसे बहाएंगे। पहले भी उत्तर प्रदेश के मुलायम सरकार पर दंगे को लेकर एक समुदाय विशेष पर तुष्टीकरण का आरोप लगा है। पढ़े-लिखे, दूरदर्शी सोच रखने वाले अखिलेश यादव भी पिता की इसी नक्शे कदम पर हैं। केंद्र में बैठी सरकार भी महज वोट वैंक के लिए ऐसी गंभीर मामले में आंखे मूंदे रहती है। मासूम दंगे की आग में जलते मरते हैं। काफर््यू में जनता पीसती रहती है। पीड़ितों की पीढ़ियां इसका दंश झेलती है। हमारे समाज में दंगे में पीड़ितों के भावी पीड़ियों पर क्या असर पड़ा इसको पीछे मुड़कर देखने की किसे पड़ी है। देश के किसी न किसी हिस्से में कहीं छोटे तो कहीं बड़े दंगे होते रहते हैं। लेकिन इस पर नियंत्रण के लिए न समाज में कोई ठोस चिंता दिख रही है और न ही किसी सरकार में दृढ़ता। देश में शांति का काल हो या अशांति का। मजहबी हिंसा रोज-रोज की बात बन चुकी है। दूर-दराज के क्षेत्रों में होने वाले ऐसे दंगे भले ही राष्टÑीय मीडिया के सुर्खियों में नहीं आते हों, लेकिन स्थानीय स्तर पर ही बड़ा भयावह परिणाम छोड़ जाते हैं। पिछले दिनों स्वयं केंद्र सरकार ने संसद में यह स्वीकार किया कि सांप्रदायिक हिंसा सरकार के लिए एक चुनौती के तौर पर उभर रही है। वर्ष 2012 में सांसद में प्रस्तुत पिछले तीन साल में सांप्रदायिक हिंसा के 2,420 मामले सामने आए जिसमें कम से कम 427 लोगों की मौत हो गई। इन आंकड़ों औसत देंखे तो देश में किसी न किसी हिस्से में हर दिन दो सांप्रदायिक हिंसा हो रहे हैं। इस हिंसा में हर माह करीब 11 लोग मौत के घाट उतर रहे हैं। घायलों की संख्या अलग है। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2012 के अगस्त तक सांप्रदायिक हिंसा के 338 मामले सामने आए जिसमें 53 लोगों की मौत हुई, जबकि 1,059 लोग घायल हुए। 2010 में सांप्रदायिक हिंसा की 651 घटनाओं में 114 लोगों की मौत हो गई और 2,115 व्यक्ति घायल हो गए। 2009 में सांप्रदायिक हिंसा की 773 घटनाओं में 123 लोगों की मौत हो गई जबकि 2,417 लोग घायल हुए। 2008 में सांप्रदायिक हिंसा की 656 घटनाओं में 123 लोगों की मौत हो गई जबकि 2,270 लोग घायल हुए। हालात को चुनौतीपूर्ण मानते हुए केद्र सरकार ने संबंधित राज्य सरकारों को इस तरह की घटनाओं से सख्ती से निपटने की सलाह देकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्ति पा ली। इसमें कोई दो राय नहीं है कि किसी भी सांप्रदायिक हिंसा का समाज पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है। लेकिन सरकार के नेतृत्व थामने वाले किसी न किसी रूप में किसी सांप्रदाय विशेष के दामन में राजनीतिक लाभ के लिए आंखे बंद कर लेते हैं। इससे समाज के रंगों में जिस जहर का प्रवाह होता है, वह राष्टÑ के लिए घातक है। राष्टÑीय स्तर के अनेक ऐसी हिंसक घटनाओं के कारण देश अंतरराष्टÑीय स्तर पर सुर्खियों में रहा है। उसका दंश आज भी समाज के सैकड़ों लोग भोग रहे हैं। काल मार्क्स ने धर्म को अफीम की संज्ञा दी थी। मतलब यह है कि धर्म के प्रति लोगों की अस्था ही हद नसेड़ी की अफीक की नशा की तरह है, जो हर कीमत पर नशा नहीं त्यागना चाहता है, भले ही उसकी जान क्यों न चली जाए। समाज की इसी कमजोरी को हर समुदाय के कुछ लोगों ने अपने स्वार्थ को साधने का हथियार बनाया। भारत में अब तक हुए दंगों में सैकड़ों मासूमों के खून बह गये। पर क्रिया के विरुद्ध प्रतिक्रिया आदि तर्कों के नाम पर दंगों के उन्मादी जहर को रोकने के लिए समाज की ओर से कोई ठोस पहल की बड़ी जरुरत है। केवल कठोर कानून से काम नहीं चलेगा। कानून को लागू करा कर इसे सख्ती से निपटने की जरूरत है। जब तक लोगों में कानून का डर नहीं होगा और दंगाइयों के मन यह बात नहीं निकलेगी कि दूसरे के खुद बहाने पर उन्हें किसी का संरक्षण काम नहीं आएगा,उनके रंगों में बहता जहर नहीं धुलेगा।
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