देश में शांति का काल हो या अशांति का। मजहबी हिंसा रोज-रोज की बात बन चुकी है। दंगे को रोकने के लिए हर काफर््यू में दो चार दिनों के लिए वहां के नागरिक घरों में दुबक जाते हैं। जिंदगी थम जाती है, किसी के घर में खाने को है या नहीं यह देखने वाला कोई नहीं। किसी मासूम बच्चों को दूध मिला की नहीं, इस सोचने वाला नहीं है। उन्नमादियों ने आग लगाई और पूरी जनता ने सजा भोगी। क्या ऐसे मामले में 24 घंटे के अंदर उन्नमादियों पर नकेल कर कर पूरी जनता को राहत देने की दृढ़ता हमारे प्रशासन तंत्र में नहीं है?संजय स्वदेश हाल के कुछ महीनों में उत्तर प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में एक के बाद एक दंगे ने साफ कर दिया है कि प्रशासनतंत्र दंगाइयों को रोकने में नाकाम है। ताजा मामला मुजफ्फरनगर जिले में भड़की हिंसा का है, जिसमें सरकारी आंकड़ों के अनुसार 26 लोगों की जान गई और दर्जनों लोग घायल हुए। पर गैर सरकारी आंकड़े इससे दोगुने के हैं। ऐसे हर हालात के बाद की तरह सरकार ने काफर््यू लगा दिया। हर काफर््यू में दो चार दिनों के लिए वहां के नागरिक घरों में दुबक जाते हैं। जिंदगी थम जाती है, किसी के घर में खाने को है या नहीं यह देखने वाला कोई नहीं। किसी मासूम बच्चों को दूध मिला की नहीं, इस सोचने वाला नहीं है। उन्नमादियों ने आग लगाई और पूरी जनता ने सजा भोगी। क्या ऐसे मामले में 24 घंटे के अंदर उन्नमादियों पर नकेल कर कर पूरी जनता को राहत देने की दृढ़ता हमारे प्रशासन तंत्र में नहीं है? जब तक दंगाइयों के मन में यह बात नहीं होती है कि उनके छोटे या बड़े कद के आका उनके नापाक हरकतों पर संरक्षण दे देंगे, वे खून कैसे बहाएंगे। पहले भी उत्तर प्रदेश के मुलायम सरकार पर दंगे को लेकर एक समुदाय विशेष पर तुष्टीकरण का आरोप लगा है। पढ़े-लिखे, दूरदर्शी सोच रखने वाले अखिलेश यादव भी पिता की इसी नक्शे कदम पर हैं। केंद्र में बैठी सरकार भी महज वोट वैंक के लिए ऐसी गंभीर मामले में आंखे मूंदे रहती है। मासूम दंगे की आग में जलते मरते हैं। काफर््यू में जनता पीसती रहती है। पीड़ितों की पीढ़ियां इसका दंश झेलती है। हमारे समाज में दंगे में पीड़ितों के भावी पीड़ियों पर क्या असर पड़ा इसको पीछे मुड़कर देखने की किसे पड़ी है। देश के किसी न किसी हिस्से में कहीं छोटे तो कहीं बड़े दंगे होते रहते हैं। लेकिन इस पर नियंत्रण के लिए न समाज में कोई ठोस चिंता दिख रही है और न ही किसी सरकार में दृढ़ता। देश में शांति का काल हो या अशांति का। मजहबी हिंसा रोज-रोज की बात बन चुकी है। दूर-दराज के क्षेत्रों में होने वाले ऐसे दंगे भले ही राष्टÑीय मीडिया के सुर्खियों में नहीं आते हों, लेकिन स्थानीय स्तर पर ही बड़ा भयावह परिणाम छोड़ जाते हैं। पिछले दिनों स्वयं केंद्र सरकार ने संसद में यह स्वीकार किया कि सांप्रदायिक हिंसा सरकार के लिए एक चुनौती के तौर पर उभर रही है। वर्ष 2012 में सांसद में प्रस्तुत पिछले तीन साल में सांप्रदायिक हिंसा के 2,420 मामले सामने आए जिसमें कम से कम 427 लोगों की मौत हो गई। इन आंकड़ों औसत देंखे तो देश में किसी न किसी हिस्से में हर दिन दो सांप्रदायिक हिंसा हो रहे हैं। इस हिंसा में हर माह करीब 11 लोग मौत के घाट उतर रहे हैं। घायलों की संख्या अलग है। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2012 के अगस्त तक सांप्रदायिक हिंसा के 338 मामले सामने आए जिसमें 53 लोगों की मौत हुई, जबकि 1,059 लोग घायल हुए। 2010 में सांप्रदायिक हिंसा की 651 घटनाओं में 114 लोगों की मौत हो गई और 2,115 व्यक्ति घायल हो गए। 2009 में सांप्रदायिक हिंसा की 773 घटनाओं में 123 लोगों की मौत हो गई जबकि 2,417 लोग घायल हुए। 2008 में सांप्रदायिक हिंसा की 656 घटनाओं में 123 लोगों की मौत हो गई जबकि 2,270 लोग घायल हुए। हालात को चुनौतीपूर्ण मानते हुए केद्र सरकार ने संबंधित राज्य सरकारों को इस तरह की घटनाओं से सख्ती से निपटने की सलाह देकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्ति पा ली। इसमें कोई दो राय नहीं है कि किसी भी सांप्रदायिक हिंसा का समाज पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है। लेकिन सरकार के नेतृत्व थामने वाले किसी न किसी रूप में किसी सांप्रदाय विशेष के दामन में राजनीतिक लाभ के लिए आंखे बंद कर लेते हैं। इससे समाज के रंगों में जिस जहर का प्रवाह होता है, वह राष्टÑ के लिए घातक है। राष्टÑीय स्तर के अनेक ऐसी हिंसक घटनाओं के कारण देश अंतरराष्टÑीय स्तर पर सुर्खियों में रहा है। उसका दंश आज भी समाज के सैकड़ों लोग भोग रहे हैं। काल मार्क्स ने धर्म को अफीम की संज्ञा दी थी। मतलब यह है कि धर्म के प्रति लोगों की अस्था ही हद नसेड़ी की अफीक की नशा की तरह है, जो हर कीमत पर नशा नहीं त्यागना चाहता है, भले ही उसकी जान क्यों न चली जाए। समाज की इसी कमजोरी को हर समुदाय के कुछ लोगों ने अपने स्वार्थ को साधने का हथियार बनाया। भारत में अब तक हुए दंगों में सैकड़ों मासूमों के खून बह गये। पर क्रिया के विरुद्ध प्रतिक्रिया आदि तर्कों के नाम पर दंगों के उन्मादी जहर को रोकने के लिए समाज की ओर से कोई ठोस पहल की बड़ी जरुरत है। केवल कठोर कानून से काम नहीं चलेगा। कानून को लागू करा कर इसे सख्ती से निपटने की जरूरत है। जब तक लोगों में कानून का डर नहीं होगा और दंगाइयों के मन यह बात नहीं निकलेगी कि दूसरे के खुद बहाने पर उन्हें किसी का संरक्षण काम नहीं आएगा,उनके रंगों में बहता जहर नहीं धुलेगा।
सोमवार, सितंबर 09, 2013
समाज के रग में दंगे का जहर
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