शनिवार, नवंबर 21, 2015
लालू का पुत्र मोह, उम्मीद की किरण या घातक निर्णय!
लालू का पुत्र मोह, उम्मीद की किरण या घातक निर्णय!
नीतीश को कमजोर करके भी चूक गए लालू प्रसाद
संजय स्वदेश
समय से पहले और जरूरत से ज्यादा अगर कोई जिम्ममेदारी किसी को सौंपी जाती है तो सिर्फ चमत्कार से ही सफलता की उम्मीद करनी चाहिए। लालू के दोनों लाल तेजस्वी और तेज प्रताप पर भी यही बात लागू होती है। राजनीति में गहरी दिलचस्पी रखने वाले बुढ़े बुजुर्ग जानते होंगे कि लालू प्रसाद ने कैसे-कैसे राजनीतिक झंझावातों में अपनी सियासी नैया को मजबूती से खेते हुए अपनी चमक बरकरार रखे। जिस प्रदेश में करीब दो दशक तक अस्थिर सरकार की मजबूत परिपाटी रही हो, वहां लालू का दल पांच साल क्या पंद्रह साल तक सत्ता में रहती है। जेल जाने पर उनकी अशिक्षित पत्नी राबड़ी देवी कमान संभाल कर देश ही नहीं दुनिया में असल लोकतंत्र की चरम उदाहरण सी बनती हैं। लोकसभा चुनावों के बाद निष्प्राण हुई राजद में प्राण फूंकने के लिए भले ही लालू प्रसाद यादव ने दिन रात एक कर दिया हो, लेकिन किसी भी जंग के नायक की असली ताकत तो उनके पीछे के प्यादे भी होते हैं। तेजस्वी को उपमुख्यमंत्री बनने से सबसे अधिक निराशा अब्दुल बारी सिद्दीकी के होगी। सिद्दीकी को भले की वित्तमंत्री का पद मिल गया हो, लेकिन उनके चेहरे पर इस मंत्रालय के मिलने की खुशी से ज्यादा एक मलाल की रेखा साफ दिख रही थी। संभवत यह मलाल की रेखा इसलिए उभरी हो क्योंकि उनके हक पर उस लालू प्रसाद का पुत्र मोह भारी पड़ गया, जिसके लिए उन्होंने उनका साथ उस समय तक न हीं छोड़ा, जब लालू की वापसी की उम्मीद खत्म हो गई थी। लालू के जेल जाने के बाद भी वे डट कर पार्टी की मजबूती में जुटे रहे। लोकसभा चुनाव में पहले संकटमोचक कई अपने साथ छोड़ गए। विधानसभा चुनाव वे महागठबंधन से पहले जब पार्टी में मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी को लेकर संशय था, तब अब्दुल बारी सिद्दीकी ने अपनी अप्रत्क्ष रूप से दावेदारी पेश की थी। खैर अभी हालात जो भी हो, लेकिन जिस तरह चुनाव से पूर्व पप्पू यादव ने परिवारबाद को लेकर बागी तेवर दिखाए थे, वह भविष्य में राजद में नहीं दिखेगा, इसकी संभावन से इनकार नहीं किया जा सकता है। पार्टी में भले ही आज कोई कुछ न बोले लेकिन भविष्य में आतंकरिक कलह की संभावना हमेशा बनती है।
इसमें दो राय नहीं कि लोकसभा चुनाव के बाद राजनीति के हाशिए पर आए लालू प्रसाद ने विधानसभा चुनाव में अपने परंपरागत वोट बैंक की जबरर्जस्त वापसी की। माय का दरका वोट बैंक फिर से लालू के साथ जुड़ गया। नई नवेली सरकार के गठन में लालू प्रसाद ने जाने अनजाने में एक ऐतिहासिक चूक कर दी। वे चाहते तो उप मुख्यमंत्री का पद अपने बेटे को दिलाने के बजाय किसी मुस्लिम नेता को दिलाते। फिर क्या था, लालू एक क्षण में देशभर में समाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के पुरोधा बन जाते। बोल बचनों से कोई इतिहास पुरुष नहीं बनता है। आने वाली पीढ़िया किसी नेतृत्व को तब याद करती है, जब उसने व्यवारिक धरातल पर जनमानस पर अपनी छाप छोड़ी हो। नब्बे के दशक में लालू ने पिछड़ों का मनोबल बढ़ा कर निश्चित रूप से जनता पर अपनी छाप छोड़ी, लेकिन इतिहास में ऐसे भी नायक रहे हैं जो महानायक बनने से इसलिए चूक गए क्योंकि वे सही मौके पर पुत्र या परिवार के मोह से जकड़ गए। लालू की राजद की झोली में जब पूरे मुस्लिम कुनबे का जनाधार है, तो यह समाज उनसे इतनी उम्मीद तो कर ही सकता है। याद करिए महाराष्ट्र को जहां बाल ठाकरे के करिश्मे ने शिवसेना और भाजपा को सत्ता की गद्दी तक पहुंचाया था और बाल ठाकरे ने एक रिमोट मुख्यमंत्री बना दिया था। डेढ़ दशक बाद तक शिवसेना सत्ता में नहीं आई। हां, दो दशक बाद आज भाजपा की सरकार में शामिल होकर दोयम दर्जे की स्थिति में है। आज लालू भले ही सरकार को नियंत्रित करें, लेकिन भविष्य में बेटे को सत्ता का शिद्दस्त करने का एक मौका चूकते दिख रहे हैं। एक उदाहरण पंजाब का भी लेते हैं। प्रकाश सिंह बादल प्रतीक रूप से अकाली दल के सवेसर्वा हैं। सरकार में भले ही सारे निर्णय सुखबीर सिंह बादल लेते रहे, लेकिन परिणाम यह हुआ कि चाहकर भी वे अपनी स्वीकार्यता पंजाब में नहीं बना पाए। बिहार के उप मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री की कुर्सी तेजस्वी यादव और तेज प्रताप यादव के लिए राजनीति में न केवल एक अवसर की तरह है, बल्कि एक चुनौती भी है। रोजमर्रा के काम काज को निपटाने के लिए जो प्रशासनिक दक्षता चाहिए होगी, उसका परीक्षण अभी तक लालू के दोनों बेटो में नहीं हो पाया है। वैसे भी ये मंत्री की कुर्सी पर बैठे बिना भी पिता के मार्गदर्शन में काम करते हुए जितना श्रेय ले सकते थे, लेकिन उन्हें सीधे जवाबदेही और बदनामी के लिए तैयार रहना होगा। उप मुख्यमंत्री बनने और मंत्री बनने के पास उनके पास जादू की छड़ी आ गई है। इसमें कोई दो राय नहीं लेकिन इस छड़ी से खरगोश कबूतर हो जाएगा या फिर कबूतर खरगोश, यह कहना मुश्किल है। हर संभावना का अंत शिखर पर पहुंचकर हो जाता है। प्रदेश में सत्ता के एक पग दूर तक पहुंच कर तेजस्वी यादव और तेज प्रताप कौन सी संभावना पैदा करेंगे, इसे हर कोई देखना चाहेगा।
मंत्रालयों के बंटवारे पर गौर करें तो यह साफ होता है कि बिहार में ताजपोशी भले ही नीतीश कुमार की हुई है लेकिन असल पावर कहीं न कहीं राजद के पास है। तेजस्वी को उप मुख्यमंत्री बनाने के साथ ही पीडब्लूडीमंत्री बनाना और तेज प्रताप को भी स्वास्थ्य और सिंचाई जैसा अहम मंत्रालय सौंपना इस बात का साफ संकेत है। यही नहीं, अब्दुल बारी सिद्दीकी को वित्तमंत्री बनाकर राजद ने अपना पलड़ा और भारी किया है। इसके अलावा अन्य कई मलाईदार मंत्रालयों को राजद के खाते में दिला कर लालू प्रसाद ने यह साबित कर दिया कि भले ही ताजपोशी नीतीश कुमार की हुई हो, लेकिन असली सत्ता उनकी पार्टी राजद के हाथ में ही रहेगी। लिहाजा, मंत्रियों के क्रियाकलापों पर अपराध की अराजकता का दंश झेल रहे बिहार में सुशासन अब नीतीश की असली परीक्षा होगी। नीतीश निश्चित ही अपने प्रथम व ऐतिहासिक मुख्यमंत्रित्वकाल की तुलना में कमजोर दिख रहे हैं। लिहाजा, ज्यादा उम्मीद तो लालू, तेजस्वी और तेजप्रताप से ही बनेगी।
शनिवार, अक्तूबर 03, 2015
विधायक योग्य होंगे तो सब ठीक होगा
संजय स्वदेश
बिहार विधानसभा चुनाव में उम्मीदवारों के मैदान में उतरने से पहले ऐसी उम्मीद थी कि इस का चुनाव पंरपरागत मुद्दों को तोड़ेंगे। जाति की बोल मंद पड़ेगी और विकास का मुद्दा तेज होगा। लेकिन उम्मीदवारों की घोषणा होते-होते और प्रचार प्रसार में आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति ने एक सकारात्मक उम्मीद पर पानी फेर दिया। बिहार में चुनाव जाति से इतर आधारित हो ही नहीं सकते हैं। जहां जाति बाहुल्य मतदाताओं की अनदेखी कर उम्मीदवार उतरे हैं, वहां जाति को ही मुद्दा बनाकर विपक्ष मैदान में मोर्चो खोले हुए है। हालांकि शुरुआत टिकट के बंटवारे से होती है। बिहार के करीब सभी दलों में यही हाल है। जाति का दंश क्या होता है, यह जाति के छुआछूत और भेदभाव वाले ही समझते हैं। जाति ने अयोग्यता को ढंग दिया। महज जाति विशेष के समीकरण को साधने के लिए मंत्रीमंडल में अयोग्य लोग मंत्री भी बने। निश्चय ही इसका असर बिहार की राजनीति में नाकरा त्मक असर दिखा है।
जाति के नासूर की जड़ बिहार की राजनीति में गहराई तक फैली है। लिहाजा एक -दो बार के चुनाव में यह मिथक टूट जाए और विकास के मुद्दे पर आधारित होकर राजनीति की बयार बह जाए, यह इतना सहज भी नहीं है। लेकिन पूर्वर्ती चुनावों की तुलना में इस बार के चुनाव में खास बात यह है कि सोशल मीडिया के माध्यम से जागरुकत जनता क्षेत्र के विशेष के उम्मीदवारों पर कहीं न कहीं यह दबाव बनाती नजर आ रही है कि वह अपने एजेंडे को तय करें कि वह जीत के बाद उस विधानसभा में क्या और कैसे करेगा? हालांकि इस बार सोशल मीडिया में स्वत: चली यह मुहिमअब जमीनी हकीकत पर भी थोड़ा बहुत दिखने लगी है। उम्मीदवार जाति समीकरण को ध्यान में रखते हुए स्थानीय मुद्दे पर बात करने लगे हैं। यह बदलाव का प्रथम चरण है, पर सकारात्मक है। परंपरागत मीडिया ने कभी जनता को इस तरह से झकझोर कर उठाने और जागरूकत करने की तैयारी भी नहीं की। पूर्ववर्ती चुनावों में पेड न्यूज का बोलबाला रहा। लेकिन सोशल मीडिया के खुले मंच ने सबकी पोल खोलनी शुरू कर दी है। दूसरी ओर चुनाव आयोग की धीरे-धीरे बढ़ती सख्ती के दबाव में भी बहुत कुछ बदल रहा है। जाति के नाकारात्मक माहौल के बीच धीरे-धीरे इस तरह के सकारात्मक बदलाव भविष्य के कुछ बेहतर होने के सूचक हैं।
जाति आधारित राजनीति पर कुठराघात नहीं होने का एक बड़ा कारण बिहार में मतदान प्रतिशत का कम होना भी है। दूषित राजनीतिक कह कर राजनीति कसे घृणा करने वााले तथा एक मेरे मतदान से क्या होगा कि सोच से मतदान प्रतिशत कम रहा है। इसके अलावा बिहार की एक बड़ी संख्या का पलायन कर बिहार से बाहर जाने का असर भी मतदान पर रहा है। लेकिन इस बार हालात बदलने के आसार है। बिहार के खास पर्व-त्यौहारों के बीच में मतदान की तिथि से शायद फर्क पड़े। दशहरा-दिवाली के लिए प्रवासी लोग जब बिहार लौटेंगे तो निश्चय ही वह मतदान की प्रक्रिया में भी हिस्सा लेंगे। ानता खुद चाहती है कि अब बदलाव हो, इसलिए उम्मीद है कि इस बार मतदान प्रतिशत बढ़ेगा। लेकिन बदलाव का यह नहीं कि किसी दल विशेष की सत्ता उखाड़ कर दूसरे को बैठा देना। विधानसभा स्तर पर निष्क्रिय और जाति की अयोग्य नेताओं को हराना और योग्य तो जीताना ही असली बदलावा होगा। सरकार चाहे किसी की बने। यदि विधायक योग्य होंगे तो निश्चय ही सब कुछ ठीक होगा।
मंगलवार, सितंबर 22, 2015
बिना विधायक बने भी होती है जनता की सेवा
संजय स्वदेश
कहते हैं कि न प्यार और जंग में सब कुछ जायज है। वैसे ही सत्ता की इस जंग में जीत के लिए क्या कुछ नहीं हो रहा है। यह परिपक्व होते लोकतंत्र की पहचान है कि अब कोई भी बड़ा से बड़ा राजनीतिक दल बिहार में अकेले अपने दमखम पर चुनाव मैदान में नहीं उतर सकता है। वोटों के बिखराव के नाम पर सत्ता के लिए गठबंधन सबकी मजबूरी हो चुकी है। जब गठबंधन है तो सीटों के बंटवारे में थोड़ा बहुत समझौता तो करना ही पड़ेगा। पार्टियों ने गठबंधन किया तो बलिदान कार्यकर्ताटों को भी देना पड़ेगा। एनडीए और महागंठबंधन में सीटों के बंटवारे से कई उन कार्यकर्ताओं के सूर बागी हो गए हैं जिनके मनपसंद के दावेदार को टिकट नहीं मिला। एनडीए गठबंधन के टिकट का बंटवारा कार्यकर्ताओं के मनपसंद को दरकिनार कर दिल्ली से हुआ। दावेदारों की जोरअजमाईश आलाकमान के आगे ध्वस्त हो गई। अब तक गठबंधन में अपनी जीत का दावा करने वाले एकाएक अपने सूर बदल कर कहने लगे हैं कि पार्टी हार जाएगी क्योंकि उसके पसंद के उम्मीदवार को टिकट नहीं मिला है। लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि गैर चुनावी दिनों में खासकर एक वर्ष पूर्व जब जो टिकट के दावेदार थे, वे क्षेत्र में सक्रिय होकर लोगों को जोड़ रहे थे। लेकिन वे पार्टी के नाम पर लोगों को ज्यादा से ज्यादा जोड़ने के बजाय वे अपने लिए कार्यकर्ता जोड़ रहे थे। लिहाजा वही लोग अब टिकट से मायूस होने पर गठबंधन विशेष को हार का अफवाह फैलाने लगे हैं। पुराने चुनावों के इतिहास गवाह हैं, टिकट किसी को भी मिले, लेकिन मैदान में आकर पार्टी के बगियों ने पार्टी के उम्मीदवारों के लिए परेशानी खड़ा किया है। किसी की जमानत जब्त होती है तो कोई अच्छा खास वोटों में सेंधमारी कर खुद तो हारता ही है दूसरे को भी हराता है। एक साल बाद फिर चुपके से पार्टी में वापसी भी हो जाती है। पांच साल बाद फिर वे टिकट के दावेदारों में शुमार हो जाते हैं। जनता के सेवा के नाम पर राजनीति का अब फैशन पैशन भी हो चुका है। लेकिन जनता की सेवा करने के लिए विधायक बनना जरूरी नहीं है। विधायक बनने के बाद आप कहेंगे अभी फंड नहीं आया है...फिर कहेंगे हमने तो प्रस्ताव दे दिया है कलेक्टेरियट में लटका है। अन्ना हजारे ने बिना विधायक बने की सरकार में हिला कर रख दिया था।
आप किसी भी जिले के हो, अपने जिले कि किसी अस्पताल में आप बेहतर इलाज की उम्मीद कर सकते हैं क्या? मामूली बात पर डॉक्टर पटना रेफर कर देंगे....तब आपके विधायक और विधायक बन कर विकास की गंगा बहाने का दावा करने वाले उम्मीदवार गैर चुनावी दिनों को क्या करते रहते थे। क्या वे विधानसभा स्तर पर एक मजबूत विपक्ष की भूमिका का निर्वहन कर जनता के अपनी मजबूत पैठ बनाने का कार्य नहंी कर सकते थे। जनता को बेवकूफ समझने वाले को न केवल पार्टी की बेवकूफ बनाती है, बल्कि जनता भी उन्हें सबक सीखती है।
जात-पात से करवट ले रही बिहार की राजनीति
संजय स्वदेश
आज के युवाओं ने शायद यह सुनी होगी कि एक समय बिहार में बूथ लूट कर चुनाव जीते जाते थे। बाहुबलियों का सहारा लेकर उन बूथों पर कब्जा जमा लिया जाता था, जहां पक्ष में मतदान की उम्मीद नहीं होता थी। बूथ कब्जा कर स्वयं की बैलेट में मुहर लगाकर बॉक्स में डाल लिए जाते थे। तब यह कहा जाता था कि बिहार में जनता वोट कहां देती है। बिहार चुनाव की आहट आते ही अखबारों में बैलेट बनाम बुलेट बहस का प्रमुख विषय होता था। मतदाताओं की मर्जी से मतदान बिहार में सपना होता था। 12 दिसंबर 1990 को टी एन शेषन देश के दसवें मुख्य चुनाव आयुक्त बनें। शेषन ने अपने कार्यकाल में स्वच्छ एवं निष्पक्ष चुनाव सम्पन्न कराने के लिए नियमों का कड़ाई से पालन किया गया जिसके साथ तत्कालीन केन्द्रीय सरकार एवं ढीठ नेताओं के साथ कई विवाद हुए। अपने मौलिक सोच और दूढ़ता ने बिहार चुनाव में कई मिथक टूटे। तब बिना बुलेट मतदान सपना था, आज बूथ लूटना कर सत्ता पाना सपना हो गया है। जब बिहार की लोकतांत्रित प्रकिया में बुलेट का प्रभाव कम हुआ तब जात-पात की राजनीति ने जोर पकड़ लिया। ऐसी बात नहीं है कि नब्बे के दशक से पहले बिहार में जाति की सियासत नहीं होती थी। लेकिन नब्बे के बाद के हर चुनाव में दबे कुचले और पिछड़े तबकों को निडर मानसिकता का बना दिया। सियासत की बिसात पर जाति के मोहरे खड़े किए जाने लगे। लेकिन गत ढ़ाई दशक में हुए चुनाव के बाद अबकी हालात बदले-बदले से नजर आ रहे हैं। जातीय और धार्मिक धु्रवीकरण की आंधी सुस्त पड़ती दिख रही है। हर बार जात पात और विकास के नाम पर लड़े जाने वाले बिहार चुनावों में इस बार राजनीतिक दलों के बीच नई जंग होती दिख रही है। विकास असली मुद्दा बन गया है। पैकेज के बाद पैकेज का प्रहार भले ही राजनीतिक लगे, फिर भी यदि इसका क्रियान्वयन हो तो विकास बिहार का ही होगा, भला जनता का ही होगा। ऐसा लग रहा जाति की बेड़ियों में जकड़ा बिहार अब बदहाली के गर्त से निकलने के लिए कुलबुलाने लगा है। इसके संकेत चुनाव पूर्व के माहौल से मिलने लगा है। यह बिहार के सकारात्मक भविष्य का संकेत है।
बदलते सियासत के चुनावी जुमले में एक और उदाहरण देखें। चुनाव के लिए भाजपा और जेडीयू ने तो दो नए गीत ही लांच कर दिए हैं। भाजपा सांसद और भोजपुरी फिल्मों के सुपरस्टार मनोज तिवारी का गाना-इस बार बीजेपी, एक बार बीजेपी, जात पात से ऊपर की सरकार चाहिए बिजली पानी हर द्वार चाहिए।। सबका विकास सबका प्यार चाहिए, वापस गौरवशाली बिहार चाहिए... क्या संकेत देता है। जदयू भी इसी राह पर चलते हुए मनोज तिवारी की काट के लिए बॉलीवुड गायिका स्नेहा खनवलकर से यह गाना रिकार्ड करवाया है-फिर से एक बार हो, बिहार में बहार हो।। फिर से एक बार हो, नीतीशे एक बार हो।। फिलहाल भाजपा और जदयू दोनों के ये गीत अब गांव -गांव पहुंचने लगे हैं।
बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए जब दिल्ली समेत देश को दूसरे हिस्सों में चुनाव के दौरान बिजली, पानी और सड़क का मुद्दा जब प्रमुखता से चर्चा होता था, तब बिहार के चुनावों में इस मुद्दों पर किसी का ध्यान नहीं रहता है। बदलते हालात और सत्ता के लिए सियासत में जोर अजमाईस से क्या कुछ नया नहीं हो रहा है। हालात बदल रहे हैं। अब सरकार चाहे किसी की भी बनेगी, लेकिन विकास करना सबकी मजबूरी होगी। जनता जागने लगी है, होशियार हो चुकी है। वह जान गई है कि वह जनता है। सत्ता के दंभ में कोई कितना भ चूर क्यों न हो, जनता पांच साल बाद जनता होने का अहसास करा ही देती है। जनता को जनता होने का अहसास का अहसास अब बिहार के सियासी सुरमाओं को डराने लगा है।
विकास तो सब करेंगे, पर कैसे? किसी पास नहीं रोड़मैप
संजय स्वदेश
राजग हो या समाजवादियों के महागठबंधन का कुनबा, हर कोई हर हाल में बिहार की सत्ता पर आसीन होना चाहता है। लेकिन नीति की बात कोई नहीं कर रहा है। एक आदर्श राजनीति का दिया कहीं जलता नहीं दिख रहा है। बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए जब दिल्ली की राजनीति में अमूलचूल परिवर्तन हुए। अरविंद केजरीवाल ने विकास के हर मुद्दे पर चुनाव से पहले अपनी नीति प्रस्तुत की। जनता ने भरोसा जताया और उसे सत्ता सौंपी। कार्यशौली को लेकर भले ही आज दिल्ली में केजरीवाल सरकार की कितनी भी आलोचना हो, लेकिन सच तो यही है कि एक बेहतरीन राजनीति और जनता के बीच अपनी भावी नीतियों के संवाद से आम आदमी पाठी की पैठ बनी। क्या ऐसा ही कुछ बिहार में आपको होता दिख रहा है।
चाहे कोई भी दल हो, हर दल की छोटी से बड़ी जनसभाओं में बस एक दूसरे पर शब्दों के तीर बरसाये जाते हैं। आरोप प्रत्यारोप लगाए जाते हैं। सत्ता में आने के बाद विकास के दावे किये जाते हैं, लेकिन विकास की रूपरेखा क्या होगी, उसे कैसे पूरा करेंगे, इसपर कोई बात करता नहीं दिख रहा है। अभी बिहार की जमीनी हकीकत तो यह है कि जनता दुविधा में है, वह देखों और इंतजार करों की नीति अपना रही है। सबको सुन रही है, समझ रही है, लेकिन अभी अपना मूड नहीं बता रही है। रैली, होर्डिग्स, जनसभाओं से जनता का पूरा मूड नहीं भांपा जा सकता है। यह तो एक कृत्रिम माहौल का माध्यम है। जानने वाले जानते हैं कि होर्डिग्स का फंडा क्या है, जनसभाओं में भीड़ कैसे जुटती है। जो चेहरे भाजपा की रैली की भीड़ में दिखते हैं, वह उसमें से अधिकतर लालू की रैली में भी होते हैं। हवा बना कर, अफवाह उड़ाकर जनता को एक पार्टी विशेष के पक्ष में मतदान का फंडा बिहार में कोई नया नहीं है। बार-बार कोरे आश्वासनों से जनता अजीज आ चुकी है। अब जनता चाहती है कि उसके पास आने वाले नेता, उनकी समस्याओं को सुलझाने का कोरा आश्वासन लेकर आने के बजाय, कोई ठोस कार्य नीति के साथ आए। पर बिहार के चुनाव में ऐसा होता कहां है। जनता यह समझती है कि यह नेताओं के वादों की बरसात है। वादों के साथ जो भी प्रलोभन मिले, उसे स्वीकार करो, क्योंकि फिर ये पांच साल मुंह नहीं दिखाएंगे। इस दौरान अपना चुनावी खर्च और मुनाफा निकालने में व्यस्त रहेंगे।
वर्तमान में बिहार में 18-25 आयु-वर्ग के मतदाताओं की संख्या 28 प्रतिशत है, जबकि 25-35 की उम्र वाले मतदाता 24 प्रतिशत हैं। 18 से 35 साल के इन मतदाताओं की संख्या दो करोड़ के करीब है। युवा मतदाताओं की इस बड़ी जमात को देखकर और इसकी ताकत को भांप कर हर दल यह पहले ही कह चुका है कि टिकट में युवा उम्मीदवारों को तरजीह दी जाएगी। फिलहाल अभी टिकट तो नहीं बंटा है, लेकिन हर दल युवाओं की जमात को अपनी ओर जोड़ने की हर संभव रणनीति में हैं। बिहार में करीब साठ प्रतिशत युवा मतदाताओं को बेहतर रोजगार के अलावा और क्या चाहिए। क्या बिहार में बनने वाली कोई भी सरकार पांच बरस में इतने रोजगार के अवसर पैदा कर देगी कि पलायन नहीं होगा? केवल दावा करने से कुछ नहीं होगा, उन्हें बताना होगा कि इसके लिए राजनीतिक दलों के पास कौन की कार्य योजना है। यही राजनीति का बेहतर मार्ग है। वोटों की खरीद फरोख्त के परिणाम से भविष्य में हर कोई प्रभावित होता है। लेकिन अभी जो राजनीतिक हालात बन रहे हैं, उसके अनुसार जंगलराज पार्ट-2 बनाम कमंडल की स्थिति है। एक ओर जहां एनडीए की जमात लोगों में इस बात का खौफ फैला रहे हैं कि समाजवादियों के महागठबंधन यानी नीतीश लालू के गठजोड़ की सत्ता आई तो बिहार में फिर जंगलराज के हालात होंगे। जिस नीतीश के साथ भाजपा ने कदम से कदम मिलाकर बिहार में विकास की गंगा बहाने का डंका देश दुनिया में बजाया गया, आज उसी नीतीश का पूरा शासनकाल कलंकित हो चुका है। दिगर की बात यह है कि की जदयू-भाजपा गठबंधन में भाजपा के विधायक भी मंत्री थे। सुशील मोदी उप मुख्यमंत्री के पद पर सुशोभित थे। फिर तो नीतीश के जंगलराज की आधी जिम्मेदारी उनकी भी बनती है। लिहाजा, जनता को बरगलाने या भरमाकर सत्ता पाने की हर जुगत जारी है, लेकिन विकास का रोड़मैप किसी के पास नहीं है। -संजय स्वदेश, कार्यकारी संपादक, साप्ताहिक बिहार कथा
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गुरुवार, अगस्त 13, 2015
दंगा कराने वाले, बचाने वाले और दंड दिलाने वाले सब एक
संजय स्वदेश
चुनाव नजदीक है, हर दल अपना वोट बैंक बढ़ाने में लगे हैं। चुनाव की तारीख घोषणा होने के पहले ही नीतीश सरकार द्वारा गठित एक सदस्यीय भागलपुर सांप्रदायिक दंगा न्यायायिक जांच आयोग ने अपनी रिपोर्ट दे दी। रिपोर्ट जारी भी हो गई। रिपोर्ट के अनुसार सारा दोष कांग्रेस पर मढ़ा गया है। 25 साल पहले 1989-90 में हुए भागलपुर दंगे के लिए तब के कांग्रेस सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया गया है। शीलवर्द्धन सिंह अब अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (प्रशिक्षण) हैं। खुफिया ब्यूरों में वरिष्ठ पद पर आसीन हैं इसके साथ ही। रिपोर्ट में कहा गया है कि उस समय सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार और मुख्य रूप से एसपी (ग्रामीण) शीलवर्द्धन सिंह को दोषी दंगे के लिए दोषी है। रिपोर्ट में तत्कालीन एसपी पर कार्रवाई के लिए अनुशंसा भी की गई है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, भागलपुर शहर और तत्कालीन भागलपुर जिÞले के 18 प्रखंडों के 194 गांवों में दंगों में 1100 से ज्यादा लोग मारे गए थे। लोग बताते हैं कि यह सांप्रदायिक दंगा करीब छह महीने तक चला। मजेदार बात यह है कि नीतीश सरकार की गठित इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट इसी साल फरवरी में सरकार को सौंप दी थी। लेकिन तब सरकार ने इस रिपोर्ट को जारी नहीं किया। इसे अभी जारी करना इस बात का संकेत है कि सरकार इस जांच रिपोर्ट को चुनाव में भुनाना चाहती है।
जानकार बातते हैं कि बिहार में ग्रमाीण एसपी के लिए कोई पद बिहार में नहीं है। लेकिन जब दंगा भड़का तो उसे कथित नियंत्रण के नाम पर यह पद सृजित किया गया। लेकिन जिस अफसर को दंगे रोकने की जिम्मेदारी दी गई, रिपोर्ट के अनुसार सैकड़ों कत्ल ए आम का वहीं हत्यारा निकला।
इस देश में दंगे की आग पर राजनीति की रोटी खूब सेंकी जाती रही है, लेकिन अब वक्त बदल चुका है। सांप्रदायिक भीड़ यदि आक्रोशित होती है, तो उसी भीड़ में आज एक ऐसा वर्ग भी है तो सही हालात को जानता है और उसे संयम करने की कवायद करता है। चुनाव घोषणा से कुछ ही सप्ताह पहले भले ही नीतीश सरकार ने राजनीतिक लाभ लेने के लिए रिपोर्ट सार्वजनिक कर दी हो, लेकिन इस बात की संभावना बहुत कम है कि इसका फायदा वोट बैंक बढ़ाने में मिलेगा। इतने कम समय में सरकार रिपोर्ट में दोषियों पर त्वरित कार्रवाई करें, इसकी संभावना बहुत कम है। इस रिपोर्ट में जिस कामेश्वर यादव नाम के एक व्यक्ति को दोषी ठहराया गया था, उसी कामेश्वर को जब लालू यादव की जनता दल सरकार सत्ता में आई थी तो बरी कर दिया गया था। लेकिन नीतीश कुमार की सरकार आई तो फाइलें दोबारा खुलीं और फिर से मामला दर्ज हुआ और उन्हें सजा हुई। वह आज भी जेल में है। आज लालू, नीतीश और कांग्रेस एक खेमे हैं। दंगा कराने वाले, दंगाई को बचाने वाले और और सजा की बात करने वाले एकजुट है, फिर जनता न्याय की क्या उम्मीद करेगी।
रविवार, जुलाई 26, 2015
रेल क्रांसिंग पर हादसे का जिम्मेदार कौन?
संजय स्वदेश
यदि आपको याद हो तो करीब एक साल पहले तेलंगाना के मेडक में मानव रहित क्रॉसिंग पर भी एक दर्दनाक हादसा हुआ था। बच्चों को स्कूल ले जा रही बस एक्सप्रेस ट्रेन से टकरा गई थी और 14 नौनिहाल अकाल काल के गाल में समा गए थे। तब देश भर में मानवरहित रेलफाटकों को लेकर काफी हो हल्ला मचा। मीडिया में भी बसह चली थी। लेकिन क्या हुआ। न सरकार ने सबक लिया और लोग। रेलवे फाटक पार करते हुए एक बार दाये बाये देखकर थोड़ा संयम रख लेने में कौन सी आपदा टूट पड़ती है।
मानवरहित रेलवे क्रांसित पर हादसों का इतिहास पुराना है। अंग्रेजों ने जब रेल पटरियां बिछाई थीं, तब न तो इतनी सड़कें थीं और न जनसंख्या का ऐसा दबाव। शायद इसीलिए उन्होंने कम यातायात वाले मार्गों पर बिना फाटक और चौकीदार के क्रांसिंग को आम लोगों के आने-जाने का रास्ता खोलने का फैसला किया होगा। तब पटरियों पर दौड़ रही ट्रेनों अथवा मालगाड़ियों की संख्या बहुत कम थी। तब के ट्रेनों में कोयले के इंजन होते थे और उनकी स्पीड कम होती थी। तब से अब तक हालात में जमीन-आसमान का परिवर्तन हो गया है। तेज गति से दौड़ने वाले इंजन आ गए हैं। सवारी और मालगाड़ियों की संख्या में कई गुना बढ़ोततरी हो गई है। रेल पटरियों के दोनों ओर की आबादी का घनत्व कई गुना बढ़Þ गया है, लेकिन जानलेवा व्यवस्था अभी भी जस का तस है। यही वजह है कि हमें आए दिन ऐसी दुर्घटनाओं की खबरें पढ़नी पड़ती हैं।
नई दिल्ली में ससंद का जब भी सत्र होता है, करीब करीब हर सत्र में मानवरहित रेलवे क्रासिंग पर होने वाले हादसों को लेकर कोई न कोई सांसद प्रश्नकाल में जरूर सवाल उठाता है। मानसून सत्र में 24 जुलाई को रेलराज्य मंत्री मनोज सिंहा ने एक सवाल के लिखित जवाब में संसद को बताया कि देश में बिना चौकीदार वाले मानवरहित रेलवे समपार (फाटक) की कुल संख्या 10440 है, जिनमें सबसे अधिक 2087 ऐसे समपार पश्चिम रेलवे में हैं। पश्चिम रेलवे में 2087 ऐसे रेलवे क्रांसिंग हैं जबकि उत्तर पश्चिम रेलवे में 1057, उत्तर रेलवे में 1050 और पूर्वोत्तर रेलवे में 1036 रेलक्रांसिंग मानवरहित हैं।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत में ऐसी जानलेवा घटनाएं होती हैं। यूरोप और अमेरिका के विकसित देश भी इस महामारी से ग्रस्त हैं। अमेरिका में हर साल तकरीबन 300 और यूरोप में 400 लोग रेलवे क्रॉसिंग पर मारे जाते हैं। रेलवे क्रॉसिंग पर विश्व इतिहास का अब तक का सबसे बड़ा हादसा 1967 में जर्मनी में हुआ। इसमें एक साथ 97 लोगों की जान गई थी। 2005 में पश्चिमी भारत के शहर नागपुर के पास भी ऐसी ही दिल दहलाने वाली दुर्घटना हुई, जिसमें 55 लोग मारे गए थे। आंकड़े समस्यता की विकरालता को साबित कर रहे हैं। लेकिन यह समस्या स्वयं खत्म भी हो जाएगी ऐसा भी नहीं है। 2011-12 में मानव रहित क्रॉसिंग पर 131 हादसे हुए। इनमें 319 लोग मारे गए, जिसमें 17 रेलकर्मी भी थे। यदि साल का औसत देखें तो पता चलता है कि हमारे एक-तिहाई से ज्यादा दिन इस तरह की दुर्घटनाओं के नाम हो जाते हैं।
अनिल काकोदकर की अगुवाई वाली समिति ने 2012 में सरकार से सिफारिश की थी कि अगले पांच साल में सभी मानव रहित क्रॉसिंग समाप्त की जानी चाहिए। समिति का दावा था कि इससे रेल हादसों में 60 फीसदी की कमी आ सकती है। इस रिपोर्ट को आए तीन से ज्यादा समय बीत चुका है। लेकिन न तब के और न अब की सरकार में इसको लेकर गंभीरता दिखी। समिति की रिपोर्ट की कही कोई आता पता और न ही चर्चा सुनाई दे रही है। हालांकि पिछली बजट में सरकार ने रेल बजट में 5,400 मानव रहित क्रॉसिंग हटाने का संकल्प किया था। लेकिन उसके बाद एक और बजट भी आ गया हुआ क्या? अगले साल एक और बजट आ जाएगा। हादसे होते रहेंगे। सरकार की ओर से ऐसे आश्वासन मिलते हैं फिर सब कुछ वैसा के वैसा ही रहता है। एक अनुमान के तहत मानव रहित रेलवे क्रांसिंग की सुविधा समाप्त करने पर 30,646 करोड़ रुपए का खर्च आएगा। इसकी भरपाई पेट्रोल और डीजल पर उपकर के प्रतिशत के रूप में केंद्रीय सड़क निधि द्वारा किया जाता है। इसके बाद भी हालत जस के तस है। सरकार चाहे किसी भी दल की रही हो लेकिन इस समस्या को निपटने के लिए किसी में भी जबर्दस्त इच्छाशक्ति नहीं दिखी। ऐसे हादसे आए दिन देश के किसी ने किसी हिस्से में होते हैं। हादसे के बाद तत्कालीन जनाक्रोश तो दिखता है, लेकिन आंक्रोश की आग जल्द ही ठंड पड़ जाती है। बिना फाटक वाला रेलवे क्रांसिंग फिर से हादसे का इंतजार करता है।
गुरुवार, अप्रैल 09, 2015
जनता को जगाओ, बच्चों को बचाओ
संजय स्वदेश
कुछ दिन पहले संयुक्त राष्ट्र ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि उसके प्रयासों से पिछले दो दशक में दुनिया भर के करीब नौ लाख बच्चों की जिंदगियां बचाई जा सकी हैं लेकिन 2015 तक इस मृत्यु दर में दो तिहाई की कमी का लक्ष्य फिलहाल पूरा होता नहीं दिखता। रिपोर्ट खुलासा करती है कि 1990 में जहां विभिन्न कारणों से दुनिया भर में पांच साल तक की आयु के एक करोड़ 26 लाख बच्चे असमय काल के ग्रास बन गए। वहीं 2012 में यह आंकड़ा 66 लाख पर ही रुक गया। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में पांच साल से कम उम्र के आधे से अधिक बच्चों की मौत अकेले भारत, चीन, कांगो, पाकिस्तान और नाइजीरिया में होती है। बच्चों की इस असामयिक मौत के लिए निमोनिया, मलेरिया और दस्त के साथ कुपोषण को बड़ी वजह बताया गया है। इस अभियान का सबसे सुखद, सराहनीय और उल्लेखनीय पहलू यह है कि बांग्लादेश, इथोपिया, नेपाल, लाइबेरिया, मलावी और तंजानिया जैसे गरीब देश भरसक कोशिश करते हुए 1990 के बाद से अब तक अपने यहां बाल मृत्यु दर में दो तिहाई या उससे अधिक की कमी का लक्ष्य हासिल कर प्रेरक बन गए हैं। ए गरीब देश भारत जैसे विकासोन्मुख देशों के लिए बड़ी प्रेरणा कहे जा सकते हैं जहां दिन-ब-दिन बढ़ÞÞती जनसंख्या के साथ बाल मृत्यु दर सबसे भयावह समस्या बनी हुई है। यूनिसेफ की 2012 की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2011 में वैश्विक स्तर पर इस आयु वर्ग के प्रतिदिन मरने वाले 19000 बच्चों में से करीब चौथाई भारत में मृत्यु का ग्रास बने। यानी हर दिन करीब चार हजार बच्चे मौत के मुंह में समा गए। बाल विकास के नाम पर तमाम सरकारी और गैर-सरकारी योजनाओं की मौजूदगी के बावजूद अपने यहां दुनिया के बाकी देशों की तुलना में सबसे ज्यादा मौतें होना बहुत त्रासद और विचारणीय है। अपने यहां बच्चों की असामयिक मौत के पीछे गरीबी, कुपोषण और अशिक्षा सबसे बड़े कारण माने जाते हैं और इसके लिए अंतत: हमारा शासन तंत्र जिम्मेदार है। भारत में केंद्र और राज्य सरकार के ढेरों ऐसी योजनाएं हैं जिसके माध्यम से सरकारी अमला बच्चों के बेहतर भविष्य का दावा करता हैं, लेकिन हालात यह है कि ऐसी योजनाएं लाखों मासूम तक पहुंचने से पहले भ्रष्टाचार का ग्रास बन जाती है। ये भ्रष्टाचारी कभी यह नहीं सोचते हैं कि जिनके हिस्से की राशि वे भ्रष्टाचार के रूप में लेकर कर अपने घर-परिवार में बच्चों को ऐसो आराम उपलब्ध करा रहे हैं, दरअसल उसकी कीमत किसी दूसरे के गोद के मासूम के मुंह में जाने वाला निवाला है, स्वास्थ्य सुविधाओं समेत अन्य दूसरी योजनाओं के रूप में उनकी जिंदगी है। मासूम बच्चों के लालन-पालन, स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए अनुकूल माहौल बनाने की जिम्मेदारी केवल केंद्र सरकार पर नहीं हैं। केंद्र सरकार के साथ राज्य सरकार के कंधे पर भी यही बोझ है। आज के मासूम बच्चे ही कल के जिम्मेदार नागरिक हैंÑ, जैसा वे वातावरण पाकर बड़े होंगे वैसा ही आने वाले भारत का भविष्य होगा। आज देश में छोटे-बड़े क्षेत्रों में कई क्रूर इंसान मिल जाएंगे। वे असामाजिक तत्वों के दायरे में आएंगे। दरअसल ऐसी प्रवृत्ति उनके बचपन में मिले वातावरण के कारण ही विकसित हुए। समाज की भी ऐसी जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने बीच के भूखे-नंगे और किसी बीमारी से पीड़ित बच्चों की सुध ले। भविष्य संवारने की जिम्मेदारी केवल सरकार और एक परिवार विशेष की नहीं होती है। समाज को इस दिशा के सोचना बेहद जरूरी है कि आज के नौनिहालों के मन में यदि नकारात्मक प्रवृत्ति घर करती है और वे बड़े होकर असामाजिक तत्वों हो जाते हैं। फिर वे उसी समाज को दर्द देंगे। समाजिक-सरकारी उपेक्षा से में पल कर तैयार होने वाले नागरिक इस बात की गारंटी नहीं दिलाते हैं कि वे अपने बचपन में समाजिक और सरकारी उपेक्षा के बदले समाज और देश के साथ कुछ अच्छा करेंगे। राष्टÑीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चलाई जाने वाली योजनाओं की सफलता की रफ्तार बहुत धीमे हैं। क्योंकि इन योजनाओं में समाज का उचित सहयोग नहीं मिल पता है। समाज में माहौल तैयार करने की प्रक्रिया एक वाहन के दो पहिए की तरह है। एक पहिया योजनाओं के क्रियान्वयन करने वाले एजेंसियों हैं तो दूसरा समाज। यह सामूहिक जिम्मेदारी है। 09/04/2015
गुरुवार, मार्च 26, 2015
मन की माया और प्रेत का साया
संजय स्वदेश
नवरात्री के दिनों में ओझ गुनियों के दिन फिर जाते हैं। वे तांत्रिक क्रियाएं करते हैं। इसी दौरान पूजा के नाम पर कथित रूप से भूत पे्रत के साये से ग्रस्त लोगों पूजा पाठ करवाने के नाम पर धन एठते हैं, लेकिन भूत छूमंतर होने का नाम नहीं लेता है। गोपालगंज जिले के लछवार में माता के दरबार में (और भी कई जगह) यहां भूत खेलते हैं। नवरात्र में यहां आने वाले लोगों का मेला लगा रहा। लछवार मंदिर में पूर्वी उत्तर प्रदेश, नेपाल और बिहार के अन्य जिलों से लोग आते हैं। कहने के लिए तो कुछ की बीमारी ठीक होती है तो कुछ वर्षों से यहां आ जा रहे हैं, लेकिन उनकी बीमारी ठीक होने का नाम नहीं ले रही है। यहां आने वाले अधिकर लोग वे हैं जो ओझागुनी से निराश हो चुके होते हैं। वहीं चिकित्सा विज्ञान का कहना है कि भूत खेलना पूरी तरह से मानसिक बीमारी है। इसी का ओझा खुब फायदा उठा रहे हैं। यदि कोई इसका विरोध करता है तो लोग कहते हैं कि यदि भूत पिसाच का साया नहीं रहता तो इन धामों पर इतनी भीड़ क्यों होती हैं और दूर-दूर से लोग क्यों आते हैं...पर कुतर्की यह नहीं समझते हैं कि यहां आने वाले सारे अंधविश्वासी लोगों की सं या जिले की कुल सं या की एक प्रतिशत भी नहीं होती है। फिर तो यहां बिहार भर से लोग आते हैं। इस तरह देखा जाए तो यह सं या बहुत ही कम है और वहीं जब एक जगह इतनी कम सं या जमा होती है तो भीड़ बढ़ जाती है। इससे दूसरे लोगों में विश्वास बढ़ जाता है। दरअसल भूत प्रेम पूरी तरह से मानसिक बीमारी है। इसका साया उन क्षेत्रों में और उन परिवारों में ज्यादा है तो जो अशिक्षित या कम पढ़े लिखे हैं। जो तर्क की कसौटी पर कुछ नहीं देखते हैं। बिहार में भूत पे्रत की साया से ग्रस्त होने वालों में महिलाओं की सं या ज्यादा है। जब यही लोग दूसरे शहर में जाते हैं तो उनका भूत प्रेत का साया अपने आप उतर जाता है। अमूमन शहरों में तो इसका असर ही नहीं रहता है। विज्ञान यह मान चुका है कि भूत प्रेत खेलना या खेलाना यह एक तरह से मानसिक बीमारी है। बीमार में आम बीमारियों के इलाज के लिए समुचित व्यवस्था नहीं है। फिर मानसिक बीमारी के इलाज की बात ही छोड़ दीजिए। देश भर में मनोचिकित्सकों की भारी कमी है। बीमार में तो लोग यह मानने को ही तैयार नहीं होते हैं कि ऐसा भी कोई डॉक्टर होते हैं जो केवल मन के रोग को दूर करते हैं। जबकि मानसिक रोगों को दूर करने की पूरी की पूरी एक वैज्ञानिक तकनीक है।
यह भूत-प्रेत का ही असर है कि आए दिन किसी न किसी को डायन के नाम पर प्रताडि़त होना पड़ता है या फिर कही किसी की हत्या होने की बात सामने आती है। जब पूरी दुनिया विज्ञान के तकनीक के सहारे ढऱों सुविधाओं का उपभोग कर रही है तो वहीं बिहार का एक समाज मन की बीमारी को भूत प्रेत के खौफ में दर दर की ठोकरे खा कर न केवल अपना धन व्यर्थ कर रहा है बल्कि अपना भविष्य भी चौपट कर रहा है। जिनके घर में कोई महिला या पुरुष कथित रूप से भूत प्रेत के साये से ग्रस्त है, यदि उनके सामने विज्ञान की बात करों तो वह सीधे कहते हैं कि जिन पर पड़ती है वही जानते हैं। उनका यह तर्क ठीक है। पर अपनी इस समस्या में पडऩे के बाद वे सच और झूठ को तर्क की कसौटी पर परखने की क्षमता खो देते हैं। जब वे अपने पूरे जीवन में विज्ञान के उत्पन्न दूसरे सुख सुविधाओं का उपभोग कर रहे हैं तो फिर वे मन की इस बीमारी में विज्ञान का सहारा क्यों नहीं लेते हैं। वे यह क्यों नहीं देखते हैं कि शहरों में इस तरह की बीमारी होती ही नहीं है। यदि होती भी है तो वहां डॉक्टरों से इसका समुचित इलाज करवाया जाता है न कि ओझा गुनी का चक्कर लगाया जाता है। सरकार को भी इस ओर ध्यान देने की जरूरत है। बिहार में समाज के इस हालात को देख कर सरकारी अस्पतालों में मनोचिकित्सकों की तैनाती बेहद जरूरी है। जिनके परिवार के लोग भूत प्रेत की मनोविज्ञान में फंस कर ओझा गुनी के चक्कर काट रहे हैं, उन्हें समझाना व्यर्थ है। लेकिन उन्हें देखकर दूसरे लोग उसके चक्कर में पड़ रहे हैं तो यह समाज के उज्ज्वल भविष्य का संकेत भी नहीं है।
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