मंगलवार, सितंबर 22, 2015
विकास तो सब करेंगे, पर कैसे? किसी पास नहीं रोड़मैप
संजय स्वदेश
राजग हो या समाजवादियों के महागठबंधन का कुनबा, हर कोई हर हाल में बिहार की सत्ता पर आसीन होना चाहता है। लेकिन नीति की बात कोई नहीं कर रहा है। एक आदर्श राजनीति का दिया कहीं जलता नहीं दिख रहा है। बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए जब दिल्ली की राजनीति में अमूलचूल परिवर्तन हुए। अरविंद केजरीवाल ने विकास के हर मुद्दे पर चुनाव से पहले अपनी नीति प्रस्तुत की। जनता ने भरोसा जताया और उसे सत्ता सौंपी। कार्यशौली को लेकर भले ही आज दिल्ली में केजरीवाल सरकार की कितनी भी आलोचना हो, लेकिन सच तो यही है कि एक बेहतरीन राजनीति और जनता के बीच अपनी भावी नीतियों के संवाद से आम आदमी पाठी की पैठ बनी। क्या ऐसा ही कुछ बिहार में आपको होता दिख रहा है।
चाहे कोई भी दल हो, हर दल की छोटी से बड़ी जनसभाओं में बस एक दूसरे पर शब्दों के तीर बरसाये जाते हैं। आरोप प्रत्यारोप लगाए जाते हैं। सत्ता में आने के बाद विकास के दावे किये जाते हैं, लेकिन विकास की रूपरेखा क्या होगी, उसे कैसे पूरा करेंगे, इसपर कोई बात करता नहीं दिख रहा है। अभी बिहार की जमीनी हकीकत तो यह है कि जनता दुविधा में है, वह देखों और इंतजार करों की नीति अपना रही है। सबको सुन रही है, समझ रही है, लेकिन अभी अपना मूड नहीं बता रही है। रैली, होर्डिग्स, जनसभाओं से जनता का पूरा मूड नहीं भांपा जा सकता है। यह तो एक कृत्रिम माहौल का माध्यम है। जानने वाले जानते हैं कि होर्डिग्स का फंडा क्या है, जनसभाओं में भीड़ कैसे जुटती है। जो चेहरे भाजपा की रैली की भीड़ में दिखते हैं, वह उसमें से अधिकतर लालू की रैली में भी होते हैं। हवा बना कर, अफवाह उड़ाकर जनता को एक पार्टी विशेष के पक्ष में मतदान का फंडा बिहार में कोई नया नहीं है। बार-बार कोरे आश्वासनों से जनता अजीज आ चुकी है। अब जनता चाहती है कि उसके पास आने वाले नेता, उनकी समस्याओं को सुलझाने का कोरा आश्वासन लेकर आने के बजाय, कोई ठोस कार्य नीति के साथ आए। पर बिहार के चुनाव में ऐसा होता कहां है। जनता यह समझती है कि यह नेताओं के वादों की बरसात है। वादों के साथ जो भी प्रलोभन मिले, उसे स्वीकार करो, क्योंकि फिर ये पांच साल मुंह नहीं दिखाएंगे। इस दौरान अपना चुनावी खर्च और मुनाफा निकालने में व्यस्त रहेंगे।
वर्तमान में बिहार में 18-25 आयु-वर्ग के मतदाताओं की संख्या 28 प्रतिशत है, जबकि 25-35 की उम्र वाले मतदाता 24 प्रतिशत हैं। 18 से 35 साल के इन मतदाताओं की संख्या दो करोड़ के करीब है। युवा मतदाताओं की इस बड़ी जमात को देखकर और इसकी ताकत को भांप कर हर दल यह पहले ही कह चुका है कि टिकट में युवा उम्मीदवारों को तरजीह दी जाएगी। फिलहाल अभी टिकट तो नहीं बंटा है, लेकिन हर दल युवाओं की जमात को अपनी ओर जोड़ने की हर संभव रणनीति में हैं। बिहार में करीब साठ प्रतिशत युवा मतदाताओं को बेहतर रोजगार के अलावा और क्या चाहिए। क्या बिहार में बनने वाली कोई भी सरकार पांच बरस में इतने रोजगार के अवसर पैदा कर देगी कि पलायन नहीं होगा? केवल दावा करने से कुछ नहीं होगा, उन्हें बताना होगा कि इसके लिए राजनीतिक दलों के पास कौन की कार्य योजना है। यही राजनीति का बेहतर मार्ग है। वोटों की खरीद फरोख्त के परिणाम से भविष्य में हर कोई प्रभावित होता है। लेकिन अभी जो राजनीतिक हालात बन रहे हैं, उसके अनुसार जंगलराज पार्ट-2 बनाम कमंडल की स्थिति है। एक ओर जहां एनडीए की जमात लोगों में इस बात का खौफ फैला रहे हैं कि समाजवादियों के महागठबंधन यानी नीतीश लालू के गठजोड़ की सत्ता आई तो बिहार में फिर जंगलराज के हालात होंगे। जिस नीतीश के साथ भाजपा ने कदम से कदम मिलाकर बिहार में विकास की गंगा बहाने का डंका देश दुनिया में बजाया गया, आज उसी नीतीश का पूरा शासनकाल कलंकित हो चुका है। दिगर की बात यह है कि की जदयू-भाजपा गठबंधन में भाजपा के विधायक भी मंत्री थे। सुशील मोदी उप मुख्यमंत्री के पद पर सुशोभित थे। फिर तो नीतीश के जंगलराज की आधी जिम्मेदारी उनकी भी बनती है। लिहाजा, जनता को बरगलाने या भरमाकर सत्ता पाने की हर जुगत जारी है, लेकिन विकास का रोड़मैप किसी के पास नहीं है। -संजय स्वदेश, कार्यकारी संपादक, साप्ताहिक बिहार कथा
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