शनिवार, जुलाई 16, 2016
वर्धा के हिंदी विश्वविद्यालय के अकेले आदिवासी प्रोफेसर पर कुलपति का कहर
पटना/वर्धा (महाराष्ट)। महाराष्टÑ के वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के हिंदी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग के सहायक प्रोफेसर डॉ. सुनील कुमार का जान-बूझकर किए गए कोलकाता तबादले के खिलाफ हिंदी विश्वविद्यालय परिसर में आंदोलन गरमा गया है। डा. सुनील कुमार सुमन बिहार के उस चंपारण (मोतिहारी)से हैं, जहां दक्षिण अफ्रीका से आए मोहन दास करमचंद गांधी ने देश में पहला पहला आंदोलन शुरू किया। गांधीजी की यह पहली कर्मभूमि है। यहां गांधीजी का आश्रम है। गांधी का एक और आश्रम महाराष्टÑ के वर्धा जिले में हैं। यह भी गांधीजी की कर्मभूमि रही है। इसी कर्मभूमि पर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय स्थित है। गांधी की पहली कर्मभूमि चंपारण के लाल डा.सुनील कुमार सुमन इसी हिंदी विश्वविद्यालय के कुल नब्बे प्रोफेसरों में पहले और एकमात्र आदिवासी प्राध्यापक हैं। लेकिन यहां के पूर्व कुलपति विभूति नारायण राय और और वर्तमान कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्रा ने हमेशा इन्हें अपने निशाने पर रखा। डा. सुमन आदिवासी और दलित मुद्दों के प्रखर आवाज के रूप में सक्रिय रहे। ताजा मामला इनके वर्धा से कोलकाता ट्रांफसर कर प्रताड़ित करने का है। जब शांतिपूर्ण आग्रह के बाद डा. सुमन का धैर्य टूट गया तो डॉ सुनील कुमार शनिवार सुबह विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ भूख हड़ताल पर बैठ गए। उनके समर्थन में पचासों छात्र-छात्राएँ व शोधार्थी भी अनशन पर बैठ गए। विश्वविद्यालय के शिक्षक संघ का भी उन्हें समर्थन हासिल है।
गौरतलब है कि डॉ सुनील कुमार इस विश्वविद्यालय के बेहद लोकप्रिय अध्यापक हैं। वे ऐसे अध्यापक हैं, जो अपने विभाग से इतर दूसरे विभागों-केंद्रों के विद्यार्थियों के बीच भी काफी लोकप्रिय हैं। इसका कारण उनका मृदुभाषी-सहयोगी स्वभाव और छात्रों को हमेशा बेहतर बनने-करने के लिए प्रेरित करने वाली उनकी प्रकृति है। वे इस विश्वविद्यालय के एकमात्र आदिवासी वर्ग के प्राध्यापक हैं। यह गोंडवाना का क्षेत्र हैं, जहाँ लाखों-करोड़ों की संख्या में आदिवासी सदियों से रहते हैं। वर्धा और आसपास के सभी जिलों में भी लाखों की संख्या में आदिवासी हैं। यह इस विश्वविद्यालय के लिए खुशी की बात है कि इस वर्ग का प्राध्यापक यहाँ सेवारत है। डॉ. सुनील कुमार की पहचान राष्ट्रीय स्तर के आदिवासी लेखक-विचारक और एक्टिविस्ट के रूप में प्रतिष्ठित है। विदर्भ के तमाम जिलों तथा देश के कई विश्वविद्यालयों-शहरों के दलित-आदिवासी कार्यक्रमों में डॉ. सुनील कुमार को अतिथि वक्ता के रूप में हमेशा बुलाया जाता है। इन्हें क्षेत्र की जनता द्वारा कई बार गोंडवाना भूषण पुरस्कार, शिक्षण मैत्री सम्मान और समाज भूषण सम्मान जैसे पुरस्कारों से भी नवाजा जा चुका है। लेकिन दु:ख और गहरा अफसोस इस बात का है कि इस विश्वविद्यालय में शुरू से ही उनको जातिगत आधार पर प्रताड़ित किया जाता रहा है। पिछले कुलपति के कार्यकाल में भी ऐसा हुआ और अब भी ऐसा ही हो रहा है। शर्मनाक बात है कि यह उच्च शिक्षा का केंद्र है और यहाँ बौद्धिक लोग रहते हैं। उन्हें अपने जातिगत दुराग्रहों के आधार पर व्यवहार नहीं करना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि उच्च प्रशासनिक पदों पर बैठे लोग भी जातिगत भावना से निर्णय लेते हैं। इसी के तहत डॉ. सुनील कुमार का स्थानांतरण कोलकाता केंद्र पर किया गया है।
अंबेडकर स्टूडेंट्स फोरम खुलकर इस आंदोलन में आ गया है। फोरम का मानना है कि डॉ सुनील कुमार दो साल तक एक फर्जी केस के चक्कर में नौकरी से बाहर रहे, केस-मुकदमा झेला, आर्थिक दिक्कतें सहीं और मानसिक पीड़ा तो झेली ही। फिर साहित्य विभाग में इतने अध्यापकों के रहते हुए डॉ. सुनील कुमार को ही क्यों कोलकाता भेजा जा रहा है? पिछले ममाले में बोम्बे उच्च न्यायालय ने विश्वविद्यालय की ओर से दायर किए गए केस को फजर््ी करार करते हुए विश्वविद्यालय पर ही दस हजार का जुर्माना ढोका था। इतना ही नहीं तत्काल डा सुमन की बहाली का आदेश दिए। इसके बाद भी विश्वविद्यालय प्रशासन ने उन्हें ज्वाइन तो कर वाया लेकिन एक साल तक उनकी जांच करवाते रहे और उन्हें सात महीने तक बैठने तक की कुर्सी और मेज तक नहीं दी गई। यह समाचार लिखे जाने तक डा. सुमन को पिछले दो साल का वेतन भी नहीं दिया गया है।
कुलपति के मुंह पर पोतेंगे कालिख!
यहां धरने पर बैठे वर्धा से ही आए एक आदिवासी युवक ने बताया कि कुलपति गिरीश्वर मिश्रा घोर जातिवादी हैं। पिछले दिनों गिरीश्वर मिश्राा ने यहां जितनी भी नियुक्तियां की, उसमें से एक भी दलित या आदिवासी नहीं है। उन्होंने अपने संगे संबंधियों व रिश्तेदारों को यहां के प्रशासनिक पदों पर बैठा रखा है। यदि इसी तरह तर उनकी दलित और आदिवासी विरोधी गतिविधियां चलती रही तो कभी भी आक्रोशित आदिवासी उनके मुंह पर कालिख पोत सकता है। वीडियो बनाकर मीडिया को जारी कर सकता है।
डर से कुलपति नहीं आए दफ्तर
शनिवार शाम तक डॉ सुनील कुमार के साथ बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएँ और शोधार्थी कुलपति दफ्तर के सामने अनशन पर जमे हुए थे। इस आंदोलन की खबर सुनकर कुलपति अपने दफ्तर ही नहीं आए, घर पर ही रहे। पूरे मामले में जब डा गिरीश्वर मिश्रा से फोन पर संपर्क किया गया तो घंटी जाती रही, लेकिन फोन नहीं उठाया।
समर्थन देने आया आदिवासियों का दल
इस बीच गोंडवाना युवा और महिला जंगोम दल तथा अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद के भीमा आड़े, चन्द्रशेखर मड़ावी, रंजना उइके, कल्पना चिकराम, सुवर्णा वरखड़े, राकेश कुमरे, नगर पार्षद शरद आड़े आदि कुलपति से मिलने आए, उनके आवास पर भी गए, लेकिन उन्हें मिलने नहीं दिया गया। विश्वविद्यालय के कई प्राध्यापक अनशन स्थल पर पहुंचे और डॉ सुनील कुमार के प्रति अपना समर्थन जाहिर किया।
तेज होगा आंदोलन
देर शाम बातचीत में डा. सुमन सुनील कुमार सुमन ने बताया कि विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा यहां दलित और आदिवासियों को प्रताड़ित करने का यह कोई नया मामला नहीं है। उन्होंने बताया कि यहां के आदिवासी समुदाय काफी अक्रोशित है। उनके समर्थन से आत्मविश्वस बढ़ गया है। डा. सुमन ने बताया कि अभी यह आंदोलन एक चेतावनी भर है। यदि सोमवार तक विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनका स्थानांतरण वापस नहीं लिया तो आंदोलन तेज किया जाएगा।
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शुक्रवार, जुलाई 15, 2016
अन्नदाता की मेहनत से कौन मालामाल
संजय स्वदेश
अर्थशास्त्र में मांग और पूर्ति की एक समान्य सी बात बताई जाती है। यदि मांग ज्यादा है तो कीमत भी ज्यादा होगी। यदि कीमत सस्ती होगी, तो आपूर्ति भी काम होगी। अर्थशास्त्र के इस नियम में भले ही बहुसंख्य धंधे फीट बैठते हों, लेकिन खेती-किसानी में यह बात थोड़ी-सी पटरी से उतर जाती है। मांग देखकर यदि किसान किसी अनाज की बुआई करता है और उस वर्ष उसका उत्पादन ज्यादा होता है, तो उस लागत से बहुत ज्यादा इतना भी धन प्राप्त नहीं हो पाता है कि वह कुछ रुपए अपने पास अगली बुआई के खर्च के लिए बचा सके। पूर्ववर्ती और वर्तमान सरकार के किसान हितैषी होने के तमाम दावों के बाद भी अन्नादाता किसानों की परिवारों में के घर वह बरकत नहीं है, जो धन्नासेठों के यहां होती है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा किसानों के आर्थिक स्थिति आंकलन सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2013 के दौरान किसान परिवारों पर कर्ज के आंकड़े एकत्र किये गये और उस दिन देश के हर किसान परिवार पर औसतन लगभग 47 हजार रुपए कर्ज होने का अनुमान लगाया गया है। इस ऋण में संस्थागत संस्थानों तथा सेठ-साहूकारों से लिए गए कर्ज भी शामिल हैं। सर्वेक्षण के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्र के लगभग 52 प्रतिशत किसान परिवारों के कर्ज के बोझ में दबे होने का अनुमान है। कम जोत के किसान परिवार पर कम कर्ज का भार है, जबकि बड़े किसान परिवारों पर अधिक कर्ज है। कम जमीन वाले 41.9 प्रतिशत किसानों पर कर्ज हैं, जबकि 10 हैक्टेयर से अधिक जमीन वाले 78.7 प्रतिशत किसान परिवार कर्जदार हैं। एक हैक्टेयर से कम जमीन वाले किसान परिवार पर औसतन 31,100 रुपए का ऋण है, जबकि 10 हैक्टेयर से अधिक जमीन जोतने वाले किसान परिवार लगभग 2,90,300 रुपए के कर्जदार हैं। एक हैक्टेयर से कम जमीन वाले किसानों ने संस्थागत संस्थानों अर्थात सरकार, सहकारिता समितियों और बैंकों से 15 प्रतिशत कर्ज लिया है, जबकि 10 हैक्टेयर से अधिक जमीन रखने वाले किसानों ने इन संस्थानों से 79 प्रतिशत कर्ज लिया है। राष्ट्रीय स्तर पर किसानों ने 60 प्रतिशत ऋण संस्थागत संस्थानों से लिया है। बैंकों ने 42.9 प्रतिशत ऋण दिया है, जबकि सहकारिता समितियों ने 14.8 प्रतिशत तथा सरकार ने 2.1 प्रतिशत ऋण दिया हुआ है। गैर-संस्थागत संस्थानों या सेठ-साहूकारों ने 25.8 प्रतिशत कर्ज किसानों को दिया है। वर्ष 2013 में किए गए सर्वेक्षण में देश में 9 करोड़ 2 लाख किसान परिवार होने का अनुमान लगाया गया है। लगभग 69 प्रतिशत कृषक परिवारों के पास एक हैक्टेयर से कम जमीन है। केवल 0.4 प्रतिशत किसान परिवारों के पास 10 हैक्टेयर या इससे अधिक जमीन है। राष्ट्रीय स्तर पर 0.1 प्रतिशत किसान परिवार भूमिहीन पाए गए, जबकि 6.7 प्रतिशत परिवारों के पास केवल मकान की ही जमीन थी। यानि कुल 92.6 प्रतिशत किसान परिवारों के पास मकान के अलावा कुछ जमीनें हैं। यह तो रही आंकड़ों की बात। जमीनी हकीकत तो यह है कि छोटे जोत के किसानों को बैंक कर्ज देने से कतराते हैं। यही किसान मोटे ब्याज दर पर सेठ साहूकारों से कर्ज लेकर केसी-किसानी शुरू करते हैं। परिवार के सदस्यों की जरूरतों को काट कर कर्ज भी उतार देते हैं। छोटे किसानों को बैंक कम ब्याज पर कर्ज दे दे तो थोड़ी बहुत खुशियां इनके घरों में भी अठ्खेलियां कर लेती। किसानों के लिए जो योजनाएं और सुविधाएं हैं, वह आसानी से पहुंच नहीं पाती हैं। सरकार यदि बोनस की घोषणा कर भी दे तो उसे लेने-देने की प्रक्रिया में इतनी कठिनाई होती है कि किसान निराश हो जाता है। वहीं इस प्रकियाओं में दलालों की चांदी होती है। छोटे जोत के किसान बिचौलियों के हाथों फंस कर सस्ते में अपनी फसल बेच देते हैं। इससे मुश्किल से ही अपने घर परिवार लायक खर्च जुटा पाते हैं। किसानों की मेहनत पर मालामाल कर्जदेने वाला साहूकार और अनाज खरीदने-बेचने वाले बिचौलिये होते हैं।
रविवार, जुलाई 10, 2016
विकास की कुल्हाड़ी से कटेगा बदहाली का पेड़
संजय स्वदेश
ऐसे कई छोटे व बदहाल देश हैं, जहां गरीबी-कुपोषण और बदहाली को दूर कर विकास की बयार बहाने के लिए भारत कर्ज देती है। लेकिन अपने ही देश में कई ऐसे राज्य हैं जो अपने यहां की बदहाली दूर कर विकास की गंगा बहाने के लिए केंद्र सरकार से फंड के लिए तरसते रहते हैं। बीते सप्ताह बिहार सरकार ने गरीबी से लड़ने के लिए विश्व बैंक से 1937 करोड़ का कर्ज लेने का कारार किया। हमेशा केंद्र सरकार पर निशाना साधने वाली बिहार सरकार के इस कर्ज के लिए केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार गारंट बनी। जब विकास की बात एकल व्यक्ति का हो अथवा परिवार या समाज या राज्य या राष्टÑ की हो तो बिना धन के योजनाओं का क्रियान्वयन महज कोरी कल्पना कहलाएगी। यह अच्छी बात है कि विकास के मुद्दे पर कभी-कभी केंद्र और राज्य की सरकारें एक हो जाती हैं। कितना अच्छा होता कि ऐसा हमेशा होता। विश्व बैंक का कर्ज जल्द मिलता है और उसका क्रियान्वयन बिना भ्रष्टाचार के होता है तो निश्चय ही बिहार के विकास की एक नई क्रांति का आगाज होगा। विश्व बैंक के मुताबिक यह रुपएा ग्रामीणों को स्वयं सहायता समूह बनाने, बाजार व सार्वजनिक सेवाओं तथा वित्तीय सेवाओं तक पहुंच उपलब्ध कराने में खर्च होगा। उन्हें बैंकों तथा अन्य प्रतिष्ठानों के जरिए वित्तीय सहायता मुहैया कराई जाएगी। हमेशा परदे में महिलाओं को सहेजने वाल राज्य के समाज में इन परियोजनाओं में महिलाओं को तबज्जों मिलेगी, यह और भी सराहनीय है। महिला सशक्तिकरण की दिशा ओर यह एक मजबूत कदम होगा। ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी कृषि कार्यों में महिलाओं की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है। लेकिन उस पर मालिकाना हक से वे वंचित हैं। योजना में महिलाओं की स्वामित्व वाली कृषि उत्पाद कंपनियों की स्थापना के लिए मदद मिलेगी, यह सराहनीय है। उम्मीद है कि इससे बिहार की 18 लाख महिलाओं को लाभ मिलेगा। पंचायती चुनाव में महिलाओं की सशक्त भागीदारी के बाद शराबबंदी ने बिहार में महिला जमात के हौसलें बुलंद हैं। घर के मर्दों के सहारे ही सही वे दहलीज से बाहर निकल रही हैं। साइकिल या छात्रवृत्ति का लालच ही सही, बेटियां घर से बाहर निकलीं और पढ़ने लगी। अभी भी उच्च शिक्षा में लड़कियां पिछड़ी हैं, लेकिन हालत देखकर लगत हैं कि स्थिति देर की हैं अंधेर की नहीं। हालात एक दिन में नहीं बदलते हैं। धीरे-धरे ही बिहार में बदहाली और महिला शोषण की मानसिकता की गहरी पैठ बनी है। इसी जड़ें मजबूत हैं। जिस तरह कोई मजबूत और पुराना पेड़ कुल्हाड़ी के धीरे-धीरे के बार से कटता है, वैसे ही बिहार में विकास की कुल्हाड़ी से ही धीरे-धीरे बदहाली के जड़ों पर पड़ने वाले प्रहार इसे काट फेंकेंगे।
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