शुक्रवार, जनवरी 30, 2009

संकट में संतरा


संतरे पर संकट का साया
संतरे के पेड़ में लगने वाले विभिन्न कीट व सिंचाई की प्रर्याप्त व्यवस्था नहीं होने से देश दुनिया में संतरा उत्पादन में अग्रणी शहर के रूप में प्रसिद्ध नागपुर और आसपास के क्षेत्रों में संतरे का उत्पादन साल-दर-साल घटता जा रहा है। विभिन्न बीमारियों व रासायनिक खादों के उपयोग से न केवल पेड़ की आयु कम हुई है, बल्कि संतरे की मिठास भी कम हो रही है। पहले एक पेड़ चालीस से पचास साल तक फल देता था। यह क्षमता घट कर अधिकतम बीस साल की हो गई है। समय रहते संतरे के पेड़ों की सेहत के लिए किसी कारगर उपाय की जरूरत है।
नागपुर से संजय स्वदेश
किसान आत्महत्या को लेकर विदर्भ हमेशा सुर्खियों में रहा है। इनकी आत्महत्या पर मुआवजे की राजनीति और आंदोलन के चक्कर में विदर्भ के दूसरे किसानों की समस्या राष्टï्रीय स्तर पर नहीं उभर पाई है। फिलहाल विदर्भ के करीब ढाई लाख संतरा उत्पादक किसान अलग ही समस्या से जूझ रहे हैं। संतरा के पेड़ों में कीट लगने और सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था नहीं होने से संतरा उत्पादन में लगातार कमी आ रही है। संतरे के बगीचों में कीटों के प्रकोप से हर साल किसान संतरे के लाखों पेड़ स्वयं काट रहे हैैं। पिछले तीन-चार सालों में करीब एक करोड़ पेड़ कीटों की चपेट में आए। इस साल भी बारिश में देर होने और कीटों के प्रकोप के कारण लाखों पेड़ कटने की आशंका है। विदर्भ में करीब 1.75 लाख हेक्टेयर भूमि में करीब दो लाख संतरे उगाते हैं। अनुमान है कि पिछले दो सालों में पेड़ों की संख्या घट कर करीब तीन लाख तक पहुंच गई है। यहांके संतरे का सालाना व्यवसाय 150-200 करोड़ रुपये का है। संतरे की पनेरी (नर्सरी उद्योग) करीब 10 करोड़ रुपये सलाना का है। संतरे के पेड़ों की संख्या करीब 5.5 से 6 करोड़ है। कीट लगने के कारण साल-दर-साल संतरे के पेड़ कट रहे हैं।
मजेदार बात यह है कि दुनिया भर में संतरा के लिए प्रसिद्ध संतरानगरी नागपुर महाराष्टï्र की उपराजधानी है। विधानमंडल का शीतसत्र यही होता है। राज्य विधानमंडल में कपास उगाने वाले किसानों की आत्महत्या को लेकर तो हमेशा चर्चा हुइ्र। संसद में भी हो-हल्ला होती रही। पर केवल संतरा किसानों से जुड़ी समस्याओं पर राज्य सरकार ही गंभीर नहीं दिखी। पेड़ों में कीट लगने की बीमारी करीब सत्तर की दशक के शुरूआत से हुई थी। पेड़ों में फाइटोफ्थोरा नामक के कीट नुकसान पहुंचा रहे हैं। इन कीटों को पूरी तरह से नष्टï करने में अभी तक सफलता नहीं मिली है। इसके अलावा संतरे के तने में गोंद निकलने की गमोसिक नामक बीमारी है। तीस सालों में बीमारी धीरे-धीरे पूरे विदर्भ के संतरा बगीचों में फैल चुके हैं।
समस्या को गंभीर मानकर विदर्भ के किसान अब निंबू वर्गीय फलों में मौसंबी लगाने पर जोर देने लगे हैं। क्योंकि कम पानी में भी मौसंबी के पेड़ फल देते हैैं। फल भी साल भर आता है। देशभर में मरीजों को मौसंबी का जूस पिलाने के लिए यह फल चाहिए। कम से कम दस रुपये ग्लास की दर से शहर में मौसंबी का जूस पीया जा सकता है। निर्धन वर्ग के लिए यह भी संभव नहीं है। उनके लिए तो घर में मसीन रख कर जूस निकालना तो दूर बात है। दूरस्थ क्षेत्रों में सस्ते फल व जूस उपलब्ध कराने में संतरे की कोई सानी नहीं रही है। संतरानगरी नागपुर में जब भी कोई आता जाता है अपने परिचितों के लिए संतरेकी बर्फी लेना नहीं भूलता। देश में केवल इसी शहर में यह बरफी बनती है।
केवल विदर्भ की समस्या समझ कर इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती है कि सालों से संतरा आम आदमी का फल रहा है। कभी यह अंगूर और सेब की तरह गरीबों की पहुंच से दूर नहीं रहा। सस्ता और सुलभ फल होने के बाद भी संतरा का व्यापारियों में लिए हमेशा मोटी कमाई वाला रहा। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लाखों को रोजगार देने वाला रहा। पर अफसोस की यह सिंचाई की कृत्रिम विकल्प तथा कीटों की रोकथाम के लिए कोई कारगर उपाय करने में सरकार नकाम रही है। जब से पेड़ों में यह बीमारी लगनी शुरू हुई है, न केवल संतरों की गुणवत्ता कम हुई है, बल्कि इसकी आयु भी घट गई है। जहां पहले एक संतरे का पेड़ करीब 40 से पचास सालों तक फलों से किसानों को समृद्ध करता था। आज इसके पेड़ की फल देने की अधिकतम क्षमता 20 साल तक रह गई है। तीस साल में ही पेड़ की आधी उम्र घटने का मतलब है कि आने वाले दो दशकों में संतरे के अस्तित्व पर गंभीर संकट। सालों पहले संतरे खाड़ी देश, बंगालादेश, और सिंगापुर तक निर्यात होते रहे हैं। अच्छी मीठास के कारण इन देशों में यहां के संतरे की अच्छी खासी मांग भी थ। पर कीटों की चपेट पर कम पानी में फल आने से इसकी मीठास कम होती गई है। निर्यातकों ने मुंह फेर लिया है। यदि सरकार चाहती तो निसंदेह इस फल को एक उद्योग के रूप में विकसित कर सकती थी। वर्षों पहले कुछ स्थानीय किसानों ने इसके लिए काफी पहल भी की थी, पर सरकारी उदासीनता और पर्याप्त प्रोत्साहन के अभाव में सफलता नहीं मिली।

सरकार शायद नहीं जानती कि संतरा मूलत: भारतीय है,बाइबल में पूर्वोत्तर के खासी पहाडिय़ों में संतरा होने का उल्लेख मिलता है। विदर्भ में संतरे की खेती का इतिहास करीब 200 साल पुराना है। भोसलेकालीन राजाओं ने इसे पूर्वोत्तर के खासी पहाडिय़ों से यहां लाया था। आम आदमी के लिए सस्ता में बेहतर फल और जूस उपलब्ध कराने के लिए संतरा बेहतर विकलप हो सकता है। यदि सरकार गंभीर हो तो इसकी खेती देश के दूसरे हिस्सों में भी हो सकती है। करीब तीस साल की बात है। राजस्थान के कुछ किसान विदर्भ से ही संतरा ले गए। अपने यहां उगाये। आज उसके फल उत्तरी भारत के प्रमुख बाजारो में उपलब्ध हो रहे हैैं। किसानों की यह अच्छी पहल थी। इस तरह की पहल देश के दूसरे राज्य के किसानों विशेष कर गरीबी वाले क्षेत्रों में सरकारी सहायता से होनी चाहिए। जहां गरीबी है, वहां सस्ते में पौष्टिक जूस संतरे से ही उपलब्ध हो सकता है।
कपास किसानों की आत्महत्या से तो विदर्भ हमेशा केंद्रीय खबरों में सुर्खियों में रहा है। यदि सरकार और उदासिन रही तो वह दिन दूर नहीं जब संतरे के किसान आत्महत्या के मजबूर होंगे। यदि सरकार चाहे तो विदर्भ के प्रमुख फसलों की समस्या को निपटाने के लिए एक संयुक्त कमेटी का गठन कर एक कारगर उपाय करने की पहल करें। संतरे को मरने न दें। यह गरीबों का फल है। इसे उद्योग के रूप में विकसित करने का प्रयास करने तो आने वाले दिनों में संतरे को बचाया जा सकता है। गरीबों को सस्ते में जूस उपलब्ध करा कर उनकी स्वास्थ सुधारा जा सकता है। (लेखक जागो-जगाओ अभियान के संयोजक हैं।)

संपर्क : संजय स्वदेश
बी-2/35, पत्रकार सहनिवास, अमरावती रोड,
सिविल लाइन्स, नागपुर - महाराष्टï्र

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