दिन भर सुपारी काटने पर जलता है शाम का चूल्हा। कई मजदूरी से दो वक्त की रोटी की जुगत करते है।
नागपुर से संजय स्वदेश कभी तन ढांकने के लिए खूबसूरत कारीगरों की सौगात देने वाले बुनकरों के हाथ अब मजबूरी की आग में जल रही है। कहीं-कहीं उन पर निठल्ले होने के ताने की भी बौछार होती है। नागपुर के कुछ बुनकर बस्तियों को नजारा ऐसा ही है। नागपुर में बांग्लादेश नाम की एक बस्ती है। घर-घर में महिलाएं सुपारी काटती नजर आती है। बातचीत में पार्वती भावुक हो उठती हैं। मासूम लाडले के सिर पर हाथ फेरती हुई कहती हैं कि जैसे-तैसे कट रही हैं जिंदगी, अब इन्हीं बच्चों के लिए तो जी रही है। जिंदगी की हर जहमत उठा रही है। पावर्ती के दहीने हाथ की एक अंगुली करीब-करीब निष्क्रिय हो चुकी हैं। कहती हैं कि सुपारी काटने का हाथियार सरोते की मार झेलेते-झेलते बेजान हो गई है। कहती हैं कि अंगूठे में सेलोटेप से लपेटकर सुपाडी फोडती है। अंजली पाठराबे कहती हैं कि सुपारी से उनके परिवार की रोजी-रोटी चलती है। पर इससे घर के सदस्यों को बीमारी भी मिलती है। आए दिन कोई न कोई सदस्य बीमार हो जाता है। क्योंकि कई बार घटियां दर्जे की सुपारी व चूने से निकलने वाले कण शरीर को नुकसान पहुंचाते हैं।
पर क्या करें घर में चूल्हा जलाने के लिए यह करना जरूरी भी है। मजबूरी देखिये, यदि एक हजार सुपारी काटा तो 7 रूपये की मजदूरी मिलती है। बस्ती की अधिकतर महिलाएं इसी काम काम से 35 से 50 रूपये प्रति दिन कमा लेती है। पर इसके लिए 7 से दस हजार सुपारी काटन पडती है। इसके लिए एक दिन कम पड जाता है, लिहाजा देर रात तक सुपारी काटनी पडती है।
बुनकर समाज के कुछ ही घरों में ताना चलता है। पर मशीन की महीन कामों के आगे इनकी मेहनत सस्ती हो जाती है। लिहाजा, बुनकरों के अधिकतर सदस्य सिलाई के काम में जुटे है। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि बुनकर समाज के महिला-पुरूष अपने काम की कीमत स्वयं तय नहीं कर पाते है। बाजार के बडे व्यापारी इन्हें थोक काम के बदले खुदरा मजदूरी देकर अच्छी-खासी मुनाफा कमाते हैं। कई महिलाएं आसपास के बाजारों में सब्जियां बेचती है। कोई फुटपाथ पर चने मुरमुरे की दुकान लगता है। तो कभी कोई बुनकर मेहनत मजदूरी और महिलाएं घर में बर्तन मांज कर गुजारा करती है। हाथ से बुनने को पेशा पुश्तैनी नहीं रहा तो समाज के युवा कपडे व्यापारियों की दुकान में कपडे की गठठर लगाते कर महीने के ढाई-तीन हजार की कमाई कर लेते है।
समाजिक कार्यकर्ता गणपतराव शाहीर कहते हैं कि बुनकर समाज किसी जाति विरोध नहीं बल्कि अपनी मेहनत के कम मेहनताना के कारण सामाजिक शोषण का प्रतीक बन गया है। समाज में आदिवासी दलित, मुस्लिम शामिल है। पौराणिक कहानियों इस बात का उल्लेख मिलता है कि शिव पार्वती को पीतांबरदेने वाला मानव बनुकर कहलाता है।
कभी पलायन कर नागपुर आए थे
जानकार कहते हैं कि विदर्भ आंदोलन में बुनकर समाज हमेशा रहा है। जांबुवंत राव धोटे जैसे नेता पर समाज आज भी गर्व करता है। विदर्भ में कोसा कारीगर करने वाले बुनकर देश में लोकप्रिय थे। अंग्रेजी शासनकाल में जब विदर्भ इलाके में प्लेग की महामारी फैली थी, तब सारा जन-जीवन तितर-बितर हो गया। विदर्भ के प्रमुख क्षेत्रों से लोग पलायन कर बडी संख्या में नागपुर में आए।
विदर्भ के भंडारा, पवनी, मोहाडी, अडयालभिसी, मौदा, आंधडगांव, भिवापुर, उमरेड, वाकोडी, खापा गुमगांव, हिंगणा जैसे क्षेत्रों से नागपुर आए कारीगर अपने गांव की पहचान बनारकर यहां बस गए। इसी कारण बुनकर समाज के लोगों के सरनेम उपनाम के साथ भंडारकर,, पवीकर, मोहाडीकर, उमरेडकर, जैसे नाम ज्यादा है।
जानकारों के अनुसार 1952 में जब पहला आम चुनाव हुआ था तब इस समाज में अपनी दिखाई थी। विधानसभा पर मोर्चा ले जाया गया। लिहाजा, बनुकरों पर सरकार का ध्यान गया। बुनकर समाज के नरेंद्र देवघरे, राम हेडाउ, श्रावण पराते, रारु भारु कुंभारे, पुंडलिक भनारकर, नारायण डेकाटे, दामू तारणेकर जैसे कई लोग राजनीति में सक्रिय रहे और सत्ता के गलियारे तक पहुंचे। मंत्री, सांसद व विधायक हुए। बुनकर परिवारों में खुशहाली थी। वे अपनी कला की अच्छी कीमत पा लेते थे।
जनता साडी धोती ने किया बेडागर्क
1976 में केंद्र सरकार ने जनता साडी धोती योजना शुरू की। योजना के तहत सरकारी रियायत पर करीगरों से काम लिए जाने लगा। सरकार की यही रियायत और समाज की बदहाली का कारण बनी। बनुकरों का काम गुणवत्ता की जगह मात्रा से आंकलन किया जाने लगा। कलकार मजदूर में बदल गए। सरकार भी उदासीन हो गई। गत एक दशक में बुनकरों की हालत खराब हो गई।
संपर्क:
संजय स्वदेश,
पत्रकार सहनिवास, अमरावती रोड, सिविल लाईन्स नागपुर, महाराष्ट - 440001
रविवार, मार्च 29, 2009
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