शनिवार, अप्रैल 02, 2011

बिटिया को कब मिलेगी हिंसा से मुक्ति

संजय स्वदेश
दिल्ली विश्वविद्यालय में हमारे प्राध्यापक प्रो. नित्यानंद तिवारी ने एक बार मध्यकाल में नारी की दशा एक प्रसंग सुनाया था। वर्षों बाद एक भाई बहन के ससुराल जाता है। ससुराल में पीड़ित बहन की व्यथा जब वह अपने घर माता-पिता को सुनाता है। कहता है कि सुसराल वालों की मार से बहन का पीठ धोबी के पाट की तरह हो गया है। गुरुजी के प्रसंग को सुनाते हुए सिसक पढ़े। कक्षा में भी संवेदनशीलता छा गई। वर्षों बीत गई। बात आई-गई हो गई। लेकिन आए दिन महिला उत्पीड़न की खबरे बार-बार जेहन में उस प्रसंग का उभार देता है। मन व्यस्थित हो उठता है। ऐसा लगता है कि इक्सवी सदी में भी मध्ययुगीन दास्तां चारो ओर हैं।
मार्च में देश भर में आयोजित होन वाले महिला दिवस के कार्यक्रम नारी सशक्तिकरण के मजबूत पक्ष का उभारते हैं। इस बार मार्च शुरू होते ही तीन ऐसे समाचार पढ़ने को मिले, जिन्होंने मन को रुला दिया। पहली खबर फेसबुक पर एक मित्र के वॉल से मिली कि बिहार में एक बाप ने स्नातक में अध्ययनरत बेटी का चेहरा सिगरेट से इसलिए दागा क्योंकि वह कॉलेज के पिकनिक ट्रिप पर जाने वाली थी।
दूसरी खबर चंडीगढ़ से थी। यहां एक महिला को उसके पति ने दो वर्षीय बेटे के के साथ घर से बाहर निकाल दिया। महिला बेटे के साथ घर में अंदर घुसने की गुहार लगती रही। पुलिस ने भी हस्तक्षेप किया। लेकिन महिला को तत्तकाल घर में प्रवेश नहीं मिला। उसे नारी निकेतन भेजना पड़ा।
तीसरी खबर छत्तीसगढ़ से आई कि एक भाई ने 18 वर्षीय बहन इतना पीटा कि उसने अस्पताल में दम तोड़ दिया। कारण सिर्फ इतना था कि बहन ने भाई को नहाने में देरी होने की बात पर झल्लाने पर जवाब दे दिया था।
अजीत ट्रेजड़ी है। जितनी तेजी से महिलाओं का एक वर्ग सफलता के शिखर को चूमते जा रहा है, वहीं दूसरा वर्ग आज भी घर परिवार में मध्ययुगीन सामंती, समाजिक व्यवस्था की तरह अत्याचार से ग्रस्त है।
विषम परिस्थितियों में सफलता का तानाबाना बुनने वाली महिलाओं ने कई बार अग्नि परीक्षा की तरह यह सिद्ध किया है कि वे अनेक मामलों में पुरुषों से आगे हैं। यदि घर परिवार से सकारात्मक सहयोग मिलता तो निसंदेह उनकी सफलता की शिखर और ऊंची होती है। नारी उत्पीड़न की कहानी केवल छत्तीसगढ़ और चंडीगढ़ बिहार तक नहीं समिति है। देश के हर राज्य कमोबेश कहानी ऐसे ही है। नारी उत्पीड़न की दु:खद पहलुओं में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि पढ़े लिखे वाले समाज में उत्पीड़ने की घटनाएं सबसे ज्यादा है। प्रताड़ित करने वाला परिवार और पीड़िता उच्च शिक्षित भी हैं। लेकिन शिक्षा से भी ऐसी पीड़िताओं का आत्चार के विरुद्ध लड़ने का आत्मविश्वास नहीं बढ़ाया है। इसी कारण शहरी परिवारों में पीड़ित होने वाली शिक्षित महिलाओं में बहुत कम ही घर से निकल न्याय के लिए गुहार लगाती हैं। इस विषय को दहेज उत्पीड़न के मामलों के आंकड़े देखकर अनदेखा नहीं किया जा सकता है। शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना के बाद भी महिलाएं घर की चौखट में घुट-घुट कर कभी बच्चे के लालन-पालन को देख कर जुल्मों-सितम सह रही है तो कभी बाप के नाम समाज में बदनाम होने के भय से सब कुछ सहन कर दोयम दर्ज से भी बदतर जिंदगी जी रही है। कामकाजी महिलाओं की संख्या में दिल्ली अव्वल सूची में है। यहां महिलाएं घरेलू कार्यों के साथ दफ्तर के काम काज के साथ-साथ परिवार की आर्थिम मजबूती में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। फिर भी घर की चाहरदिवारी में किसी न किसी तरह से प्रताड़ना झेलती है। उत्पीड़न के मामले में राजधानी दिल्ली की कोई सानी नहीं है। लेकिन यहां एक अच्छी बात यह है कि यहां मामले थाने तक पहुंच रहे हैं। हालांकि कई प्रकरणों में राजधानी में भी मामले दर्ज नहीं होने के प्रकरण सुर्खियों में आते हैं। दूसरे राज्यों के छोटे-बड़े शहरों के अलावा गांव देहात में तो थाने तक ऐसी घटनाएं पहुंच ही नहीं पाती है। सरकार ने महिला उत्पीड़न रोनके के लिए अभियान चलाया। घरेलू हिंसा संरक्षण कानून बनाया। इसके बाद भी पीड़ित नारी की व्यस्था उसके अंदर ही घुट रही है।
दर असल विकास के नाम पर हम इक्कसवी सदी में प्रवेश तो कर गये। लेकिन घर परिवार में नारी को दोयज दर्जे और मानसिकता अभी टूटी नहीं है। अनेक शहरी परिवारों में भले ही पढ़ाई लिखाई के मामले में बेटियों को बेटे की तरह दर्जा मिलने लगा है, लेकिन समाजिक बंदिश अभी भी कायम है। इक्कसवी सदी में नारी उत्पीड़न को खत्म किये देश के उज्ज्वल भविष्य की सपना कोरा है और महिला दिवस औपचारिक मात्र।
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