एक नेता के हैं कई नाम
- बनावटी नामों के खुलासा करने में सुरक्षा एजेंसियों को मिली सफलता
- कई नेताओं पर लाखों का ईनाम
नई दिल्ली। नक्सलियों के बड़े नेता तमाम छद्म नामों के सहारे सशस्त्र संघर्ष चला रहे हैं, हालांकि सुरक्षा एजेंसियों और पुलिस को काफी हद तक उनके इन बनावटी नामों का खुलासा करने में सफलता हासिल हुई है।
भाकपा-माओवादी पोलित ब्यूरो के अत्यंत महत्वपूर्ण सदस्य गणपति के कुछ अन्य नाम मुपल्ला, लक्ष्मण राव, रमन्ना, श्रीनिवास, दयानंत, चंद्रशेखर, गुडसेददा, जीएस, मलन्ना, राजन्ना, बाल रेड्डी, राधाकिशन, जीपी, शेखर और सीएस हैं। उस पर आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सरकारों ने 24 लाख का ईनाम घोषित कर रखा है।
पोलित ब्यूरो के ही एक अन्य सदस्य नंबला केशव राव के कुछ अन्य नाम हैं, गगन्ना, प्रकाश, कृष्णा, विजय, केशव, बसवा और राजू। वह इन्हीं नामों से नक्सल गतिविधियों का संचालन करता है।
भाकपा-माओवादी के नंबर-तीन समझे जाने वाले कमांडर मल्लोजुला कोटेश्वर राव ने भी अपने कई नाम रखे हैं। वह प्रहलाद, मुरली, रामजी, श्रीधर, किशनजी, विमल, प्रदीप और जयंत दा के नाम से भी माओवादियों की गतिविधियों का संचालन करता है।
एक अन्य दुर्दांत नक्सल नेता कट्टम सुदर्शन को भी आनंद, बीरेंदर, बिरेंदर जती, मोहन टेकम, सुदर्शन, महेश, भास्कर, रमेश और एएन के नाम से जाना जाता है।
नक्सल नेता मिशिर बेसरा को भी भास्कर, सुनिरमल, सुनील और विवेक के नाम से जाना जाता है, जबकि नक्सलियों के बीच किशन दा को प्रशांत बास, निर्भय, काजल, महेश के नाम से भी जाना जाता है।
माओवादियों का स्वयंभू कमांडर कोसा अपने साथियों के बीच गौतम, साधू, गोपन्ना, विनोद, बुचन्ना, कादरी और सत्य नारायण रेड्डी के नाम से भी मशहूर है, जबकि थिप्पारी तिरुपति को देवूजी, देवजी, संजीव, चेतन, रमेश और देवन्ना के नाम से जाना जाता है।
सरकारी सूत्रों ने बताया कि 19 लाख के ईनामी नक्सल नेता जिंगू नरसिम्हा रेड्डी को जामपन्ना, जेपी और जयपाल के नाम से भी नक्सलियों के बीच जाना जाता है, जबकि अक्की राजू हरगोपाल भी साकेत, रामकृष्णा, गोपाल, आरके, एसवी, साकेत श्रीनिवास राव, पंथालू और संतोष के नाम से मशहूर है।
खास बात यह है कि 50 साल से अधिक उम्र वाले इन सभी प्रमुख नक्सल नेताओं में से अधिकांश का निवास स्थान आंध्र प्रदेश है। कुछ नेता पश्चिम बंगाल, झारखंड, बिहार, असम और कर्नाटक के भी रहने वाले हैं।
दिल्ली पुलिस द्वारा 2009 में गिरफ्तार किये गये प्रमुख नक्सल नेता कोबाद घांडी को भी अपने साथियों के बीच राजन, महेश, कमल, सलीम और किशोर के नाम से जाना जाता था।
रविवार, सितंबर 25, 2011
दवा प्रयोग का अड्डा बना देश भारत
तीन वर्ष में क्लिनिकल ट्रायल में 1,593 की मौत
नई दिल्ली। बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के लिए भारत क्लिनिकल ट्रायल का प्रमुख अड्डा बन गया है। पिछले तीन वर्षों के दौरान देश में दवाओं के परीक्षण के कारण 1,593 लोगों की मौत हुई है जबकि केवल 22 मामलोें में ही कंपनियों ने मुआवजा दिया, वह भी मामूली।
सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तरह प्राप्त जानकारी के अनुसार भारत में क्लिनिकल ट्रायल के दौरान साल 2008 में 288 लोगों की मौत हुई जबकि 2009 में 637 लोगों और 2010 में 668 लोगों की मौत हुई है । हालांकि इन तीन वर्षों में केवल पिछले साल कंपनियों की ओर से 22 मामलों में ही मुआवजा दिया गया।
सरकार के निगरानी तंत्र की कुशलता का पता इसी से चलता है कि साल 2010 में क्लिनकल ट्रायल के दौरान 668 लोगों की मौत हुई, लेकिन उसके पास 22 मामलों में ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ओर से दिये गए मुआवजे की जानकारी थी। साल 2010 में बहुराष्टÑीय कंपनियों ने महज 53 लाख 33 हजार रुपये का मुआवजा प्रदान किया। इस तरह से एक जान की औसत कीमत महज ढाई लाख रुपये आंकी गई।
इस अवधि में बहुराष्ट्रीय कंपनी लिली ने सबसे कम एक लाख आठ हजार रुपये का मुआवजा दिया, जबकि पीपीडी कंपनी ने 10 लाख रुपये मुआवजा प्रदान किये। मुआवजा देने वाली कंपनियों में मर्क, क्विनटाइल्स, बेयर, एमजेन, ब्रिस्टल मेयर्स, सानोफी और फाइजर भी शामिल है।
बहरहाल, विश्व स्वास्थ्य संगठन (ंडब्ल्यूएचओ) की ताजा रिपोर्ट में एसोसिएटेड चैम्बर्स आॅफ कामर्स एंड इंडस्ट्री का हवाला देते हुए कहा गया है कि 2010 में भारत में क्लिनिकल ट्रायल का कारोबार करीब एक अरब डालर का हो गया है और साल 2009 की तुलना में इसमें 20 करोड़ डालर की वृद्धि दर्ज की गई है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि दवा कंपनियों के भारत में क्लिनिकल ट्रायल करने के कई कारण हैं, जिसमें तकनीकी तौर पर दक्ष कार्यबल, मरीजों की उपलब्धता, कम लागत और सहयोगात्मक दवा नियंत्रण प्रणाली शामिल है।
मौत का आंकड़ा
वर्ष मौत2008 288
2009 637
2010 668
करोबार
वर्ष कारोबार2010 1 अरब डॉलर
2009 80 करोड़ डॉलर
शनिवार, सितंबर 24, 2011
12 करोड़ नौनिहालों का शोषण
12 करोड़ की संख्या में बाल मजदूरी में लगा भारत का भविष्य कल वयस्क होगा तो क्यों को अमीर भारत के बाराबरी का होगा? भीषण गरीबी देख कर बड़ी होने वाली यह इस आबादी के मन में निश्चय ही समाज की मुख्यधारा के प्रति कटुता होगी।
संजय स्वदेश
एक केंद्रीय दल ने 20 सितंबर को राजस्थान के जैसलमेर जिले के विजयनगर गांव से पत्थर काटने के कारखाने से नौ बाल मजदूरों को मुक्त कराया। बाल श्रम रोकने के लिए चल रही अनेक योजनाएं कागजों में ही अपना काम कर रही हैं। पत्थर काटने के काम में शोषित हो रहे मासूम बाल बाल मजदूरों की
उम्र महज तीन से दस साल की है। जरा विचार करें, तीन से दस साल की जिन हाथों में कागज और पेंसिल होनी चाहिए, उन हाथों में पत्थर काटने के कठोर हथियार थमा दिये जा रहे हैं। इसे रोक कर इन बच्चों का भविष्य संवारने की जिम्मेदारी किसकी है? निश्चित रूप से ऐसे कुकृत्यों की रोकथाम की जिम्मेदारी सरकार की ही बनती है। लेकिन इन गरीब मासूमों की भविष्य संवारने की गति इतनी सुस्त है कि आज भी देश के अनेक हिस्सों में किसी न किसी रूप में नौनिहालों का भरपूर शोषण हो रहा है। चंद रुपये में बचपन की तमाम खुशियां बिक जा रही हैं। देश में करीब 12 करोड़ नौनिहाल बाल मजदूरी की बेबसी का शिकार है। 12 करोड़ का यह आंकड़ा वर्ष 2011 की जनगणना के हैं। इसमें सभी बच्चे 14 साल के कम उम्र के हैं। सर्व शिक्षा और मिड डे मील पर अरबों रुपये खर्च के बाद जब देश से नौनिहालों की हालत नहीं सुधर रही है तो कल्पना करें कि आने वाला भारत का भविष्य कैसा होगा?
12 करोड़ की यह आबादी करीब 10 से 15 वर्ष में जब वयस्क हो कर देश की मुख्यधारा से जुड़ेगी तो क्या होगा? कागजों पर स्कूल चले अभियान खूब दिखता है। मिड डे मील से कई जगहों स्कूलों में भीड़ भी बढ़ गई। लेकिन यह शिक्षा इतनी आकर्षक नहीं हो पाई की बाल मजदूरी को रोक सके। क्योंकि कम उम्र में चंद रुपये की लत से ग्रस्त ये नौनिहाला शिक्षा का असली अर्थ नहीं जानते हैं। उन्हें नहीं मालूम की वे 10 से 50 रुपये दिहाड़ी की कीमत में किस बेशकीमती बचपन को खो रहे हैं।
शहरी बच्चों के लालन-पालन और उनकी मनोवृत्ति पर ढेरों शोध होते हैं। उनकी स्मार्टनेस, बुद्धि, लंबाई, मोटापा, सेहत आदि के ढेरों शोध रपटें प्रकाशित होती रहती हैं। लेकिन बालमजदूरी में लगे नौनिहालों की मनोवृत्ति पर शोध कहा होता है। ऐसे बच्चों पर कुछ गैर-सरकारी संस्थाएं कभी गंभीर तो कभी सतही स्तर पर शोध कर सरकार से उनके पुर्नवास की मांग करते हैं। लेकिन उनके प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित हुआ है।
बाल मजदूरी की भीषण समस्या के साथ बाल कुपोषण की समस्या भी बेहद गंभीर है। एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में पांच वर्ष से कम उम्र के कुल आबादी के करीब 47 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। इस कुपोषण के कारण उन पर मौत मंडरा रही है। आदिवासी क्षेत्रों में तो स्थिति और भी भयावह है। प्रधानमंत्री ग्रामोदय और राष्टÑीय पोषाहार मिशन के अलावा राज्य सरकार की ओर से चलाई जा रही अन्य योजनाओं के करोड़ों खर्च के बाद भी परिणाम संतोषजनक नहीं हैं। गरीबी मिटाने के लिए सरकारी पहल के तामम दावे तब तक खोखले रहेंगे जब तक वयस्कों के साथ-साथ बच्चों में भी भारत और इंडिया अंतर बना रहेगा। भारत ही असली देश है। लेकिन यह भारत बदहाली के प्रतीक में बदल चुका है, इंडिया समृद्धि का। दोनों के बीच की खाई इतनी गहरी है कि वर्तमान योजनाओं की गति से निकट भविष्य में यह पटने वाली नहीं है।
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संजय स्वदेश
एक केंद्रीय दल ने 20 सितंबर को राजस्थान के जैसलमेर जिले के विजयनगर गांव से पत्थर काटने के कारखाने से नौ बाल मजदूरों को मुक्त कराया। बाल श्रम रोकने के लिए चल रही अनेक योजनाएं कागजों में ही अपना काम कर रही हैं। पत्थर काटने के काम में शोषित हो रहे मासूम बाल बाल मजदूरों की
उम्र महज तीन से दस साल की है। जरा विचार करें, तीन से दस साल की जिन हाथों में कागज और पेंसिल होनी चाहिए, उन हाथों में पत्थर काटने के कठोर हथियार थमा दिये जा रहे हैं। इसे रोक कर इन बच्चों का भविष्य संवारने की जिम्मेदारी किसकी है? निश्चित रूप से ऐसे कुकृत्यों की रोकथाम की जिम्मेदारी सरकार की ही बनती है। लेकिन इन गरीब मासूमों की भविष्य संवारने की गति इतनी सुस्त है कि आज भी देश के अनेक हिस्सों में किसी न किसी रूप में नौनिहालों का भरपूर शोषण हो रहा है। चंद रुपये में बचपन की तमाम खुशियां बिक जा रही हैं। देश में करीब 12 करोड़ नौनिहाल बाल मजदूरी की बेबसी का शिकार है। 12 करोड़ का यह आंकड़ा वर्ष 2011 की जनगणना के हैं। इसमें सभी बच्चे 14 साल के कम उम्र के हैं। सर्व शिक्षा और मिड डे मील पर अरबों रुपये खर्च के बाद जब देश से नौनिहालों की हालत नहीं सुधर रही है तो कल्पना करें कि आने वाला भारत का भविष्य कैसा होगा?
12 करोड़ की यह आबादी करीब 10 से 15 वर्ष में जब वयस्क हो कर देश की मुख्यधारा से जुड़ेगी तो क्या होगा? कागजों पर स्कूल चले अभियान खूब दिखता है। मिड डे मील से कई जगहों स्कूलों में भीड़ भी बढ़ गई। लेकिन यह शिक्षा इतनी आकर्षक नहीं हो पाई की बाल मजदूरी को रोक सके। क्योंकि कम उम्र में चंद रुपये की लत से ग्रस्त ये नौनिहाला शिक्षा का असली अर्थ नहीं जानते हैं। उन्हें नहीं मालूम की वे 10 से 50 रुपये दिहाड़ी की कीमत में किस बेशकीमती बचपन को खो रहे हैं।
शहरी बच्चों के लालन-पालन और उनकी मनोवृत्ति पर ढेरों शोध होते हैं। उनकी स्मार्टनेस, बुद्धि, लंबाई, मोटापा, सेहत आदि के ढेरों शोध रपटें प्रकाशित होती रहती हैं। लेकिन बालमजदूरी में लगे नौनिहालों की मनोवृत्ति पर शोध कहा होता है। ऐसे बच्चों पर कुछ गैर-सरकारी संस्थाएं कभी गंभीर तो कभी सतही स्तर पर शोध कर सरकार से उनके पुर्नवास की मांग करते हैं। लेकिन उनके प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित हुआ है।
बाल मजदूरी की भीषण समस्या के साथ बाल कुपोषण की समस्या भी बेहद गंभीर है। एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में पांच वर्ष से कम उम्र के कुल आबादी के करीब 47 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। इस कुपोषण के कारण उन पर मौत मंडरा रही है। आदिवासी क्षेत्रों में तो स्थिति और भी भयावह है। प्रधानमंत्री ग्रामोदय और राष्टÑीय पोषाहार मिशन के अलावा राज्य सरकार की ओर से चलाई जा रही अन्य योजनाओं के करोड़ों खर्च के बाद भी परिणाम संतोषजनक नहीं हैं। गरीबी मिटाने के लिए सरकारी पहल के तामम दावे तब तक खोखले रहेंगे जब तक वयस्कों के साथ-साथ बच्चों में भी भारत और इंडिया अंतर बना रहेगा। भारत ही असली देश है। लेकिन यह भारत बदहाली के प्रतीक में बदल चुका है, इंडिया समृद्धि का। दोनों के बीच की खाई इतनी गहरी है कि वर्तमान योजनाओं की गति से निकट भविष्य में यह पटने वाली नहीं है।
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