12 करोड़ की संख्या में बाल मजदूरी में लगा भारत का भविष्य कल वयस्क होगा तो क्यों को अमीर भारत के बाराबरी का होगा? भीषण गरीबी देख कर बड़ी होने वाली यह इस आबादी के मन में निश्चय ही समाज की मुख्यधारा के प्रति कटुता होगी।
संजय स्वदेश
एक केंद्रीय दल ने 20 सितंबर को राजस्थान के जैसलमेर जिले के विजयनगर गांव से पत्थर काटने के कारखाने से नौ बाल मजदूरों को मुक्त कराया। बाल श्रम रोकने के लिए चल रही अनेक योजनाएं कागजों में ही अपना काम कर रही हैं। पत्थर काटने के काम में शोषित हो रहे मासूम बाल बाल मजदूरों की
उम्र महज तीन से दस साल की है। जरा विचार करें, तीन से दस साल की जिन हाथों में कागज और पेंसिल होनी चाहिए, उन हाथों में पत्थर काटने के कठोर हथियार थमा दिये जा रहे हैं। इसे रोक कर इन बच्चों का भविष्य संवारने की जिम्मेदारी किसकी है? निश्चित रूप से ऐसे कुकृत्यों की रोकथाम की जिम्मेदारी सरकार की ही बनती है। लेकिन इन गरीब मासूमों की भविष्य संवारने की गति इतनी सुस्त है कि आज भी देश के अनेक हिस्सों में किसी न किसी रूप में नौनिहालों का भरपूर शोषण हो रहा है। चंद रुपये में बचपन की तमाम खुशियां बिक जा रही हैं। देश में करीब 12 करोड़ नौनिहाल बाल मजदूरी की बेबसी का शिकार है। 12 करोड़ का यह आंकड़ा वर्ष 2011 की जनगणना के हैं। इसमें सभी बच्चे 14 साल के कम उम्र के हैं। सर्व शिक्षा और मिड डे मील पर अरबों रुपये खर्च के बाद जब देश से नौनिहालों की हालत नहीं सुधर रही है तो कल्पना करें कि आने वाला भारत का भविष्य कैसा होगा?
12 करोड़ की यह आबादी करीब 10 से 15 वर्ष में जब वयस्क हो कर देश की मुख्यधारा से जुड़ेगी तो क्या होगा? कागजों पर स्कूल चले अभियान खूब दिखता है। मिड डे मील से कई जगहों स्कूलों में भीड़ भी बढ़ गई। लेकिन यह शिक्षा इतनी आकर्षक नहीं हो पाई की बाल मजदूरी को रोक सके। क्योंकि कम उम्र में चंद रुपये की लत से ग्रस्त ये नौनिहाला शिक्षा का असली अर्थ नहीं जानते हैं। उन्हें नहीं मालूम की वे 10 से 50 रुपये दिहाड़ी की कीमत में किस बेशकीमती बचपन को खो रहे हैं।
शहरी बच्चों के लालन-पालन और उनकी मनोवृत्ति पर ढेरों शोध होते हैं। उनकी स्मार्टनेस, बुद्धि, लंबाई, मोटापा, सेहत आदि के ढेरों शोध रपटें प्रकाशित होती रहती हैं। लेकिन बालमजदूरी में लगे नौनिहालों की मनोवृत्ति पर शोध कहा होता है। ऐसे बच्चों पर कुछ गैर-सरकारी संस्थाएं कभी गंभीर तो कभी सतही स्तर पर शोध कर सरकार से उनके पुर्नवास की मांग करते हैं। लेकिन उनके प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित हुआ है।
बाल मजदूरी की भीषण समस्या के साथ बाल कुपोषण की समस्या भी बेहद गंभीर है। एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में पांच वर्ष से कम उम्र के कुल आबादी के करीब 47 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। इस कुपोषण के कारण उन पर मौत मंडरा रही है। आदिवासी क्षेत्रों में तो स्थिति और भी भयावह है। प्रधानमंत्री ग्रामोदय और राष्टÑीय पोषाहार मिशन के अलावा राज्य सरकार की ओर से चलाई जा रही अन्य योजनाओं के करोड़ों खर्च के बाद भी परिणाम संतोषजनक नहीं हैं। गरीबी मिटाने के लिए सरकारी पहल के तामम दावे तब तक खोखले रहेंगे जब तक वयस्कों के साथ-साथ बच्चों में भी भारत और इंडिया अंतर बना रहेगा। भारत ही असली देश है। लेकिन यह भारत बदहाली के प्रतीक में बदल चुका है, इंडिया समृद्धि का। दोनों के बीच की खाई इतनी गहरी है कि वर्तमान योजनाओं की गति से निकट भविष्य में यह पटने वाली नहीं है।
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शनिवार, सितंबर 24, 2011
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