सोमवार, अक्तूबर 24, 2016
नई चुनौतियों के समक्ष यूएनओ
24 अक्टूबर : संयुक्त राष्ट संघ की 71 वीं वर्षगांठ पर विशेष
संजय स्वदेश
संपूर्ण विश्व का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था संयुक्त राष्टï्र संघ २४ अक्टूबर को अपनी 71वीं वर्षगांठ मना रहा है। अपने सदस्य देशों के कारण दुनिया के सबसे शक्तिशाली माने जाने वाले इस संस्था पर पिछले कई सालों से अविश्वास की छाया पड़ती रही है। कारण यह है अधिनायकवादी मानसिकता से ओतप्रोत इसके सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य देशों ने इस संस्था को अपनी कठपुतनी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। यदि इस संस्था को एक व्यक्ति के रूप में ही मान लिया जाए तो इकसठ साल की उम्र बहुत होती है। अमूमन साठ साल की उम्र पूरी दुनिया में रिटायरमेंट की मानी जाती है। ऐसे में जिस तरह से शांति स्थापना के अपने असली मकसद से यह संस्था दिनों दिन भटकती जा रही है। उस लिहाज से एक बड़ा तबका अब यह मानने लगा है कि इसके उद्देश्य, कार्यक्षेत्र और निहित शक्तियों में अब वह बात नहीं। इसी के चलते इसके संगठनात्मक ढाचे में पिछले कई बर्षों से बदलाव की जरूरत महसूस किया जा रहा है।
देखा जाए तो राष्टï्रसंघ की भूमिका युद्ध की विभीषिका को रोकने में तो नहीं मगर उसके बाद शुरू होती है। युद्ध नीति में मामले में तो यूएनओ वे देश ही सबसे पहले धोखा देते रहें हैं जो इसके आधारभूमि सदस्य हैं और जिन पर इसकी परंपरा का आगे बढ़ाने का विशेष दारोमदार है। इराक पर अमेरिकी हमले के समय तो यह संस्था पूरी तरह से निष्क्रिय साबित हुई। संयुक्त राष्टï्र इराक के तर्कों से अमेरिकी खुफिया रिपोटों की तुलना में कहीं ज्यादा सहमत दिखा। इसके बाद भी अमेरिका ने अपनी मनमानी के सामने इसे बौना साबित कर दिया। नतीजतन संयुक्त राष्ट्र के तमाम शांति प्रयास विफल हुए और युद्ध की रणभेरी के साथ ही इतिहास राष्टï्र संघ के औचित्य और इसके निष्प्रभावी कारवाई का दो अध्याय जुड़ गए। तब दुनिया भर में यह बहत तेज हो गई थी कि क्या अब इस संस्था की जरूरत है। यदि जरूरत है तो इसमें बदलाव की कितनी जरूरत है? इसे लेकर एक लंबी बहस आज भी जार हैं।
संयुक्त राष्ट्र के प्रभाव में आने के लिए सबसे पहली जरूरत तो यह है कि इसे इसके कथित उन पंज प्यारों से आजाद कराया जाए, जो इसे कठपुतनी बनाये हुए हैं। ये पंज प्यारे हैं- अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, रुस और चीन। स्थायी सदस्यों की संख्या बिस्तार की चर्चा होते ही इन देशों ने किसी न किसी रूप में अपनी असहमती जाहिर कर दी। बीते वर्ष में ही इसके विस्तार को लेकर यूएनओ में काफी बहस हुआ था। विस्तार की पूरजोर वकालत तत्कालीन महासचिव कोफी अन्नान ने भी की थी। मगर इसके विस्तार का उपाय संयुक्त राष्टï्र में ही नहीं है। जिससे यह मामला आज भी उलझा हुआ है। अगर इसके बिस्तार का रास्ता है भी तो जटिल ही नहीं नामुमकिन भी है। क्योंकि इसके विघटन का अथवा विस्तार को कोई भी अधिकार स्थायी सदस्यों के पास ही सुरक्षित है। जो किसी भी हालत में अपनी शक्ति का बंटवारा नहीं चाहते हैं। यह उनकी प्रतिष्ठïा का प्रतीक सा बन चुका है। संविधान के मुताबिक यूएनओ में किसी भी प्रकार का बदलाव या कोई नया कानून तब तक प्रभावी नहीं किया जा सकेगा जब तक कि स्थायी सदस्य अपनी सहमती का घोषणा इसकी बैठक में सार्वजनिक रूप से न कर दें। हालांकि अक्सर किसी न किसी मुद्दें पर इन पंज प्यारों में मतभेद होता है, लेकिन स्थायी सदस्याता के मामले पर तो यह हमेशा ही एक दूसरे को समर्थन करते हैं। सुरक्षा परिषद के विस्तार से संबंधित बहस को बार-बार टालने का जो मामला है वह निश्चय ही उसके स्थाई सदस्यों की नीयत में खोट का संकेत देता है। शायद ही राष्टï्र संघ निर्माताओं ने उस समय इस खामी की ओर कुछ ध्यान दिया हो कि शेष विश्व को युद्ध का भय दिखाकर बड़ी चलाकी से कथित समातंवादी राष्टï्र इसकी पूरी मलाई मार ले जाए। इनकी नीयत इतनी खोट निकली कि बाकी के गरीब देशों को यह उनके हिस्से की छाछ तक देने से गुरेज करते हैं। इसी के चलते राष्टï्र संघ महज स्थाई सदस्य देशों की हित चिंतक मात्र बनकर रह गई है। सवाल यह उठता है कि विश्व में देशों के संगठन की अगुवाई चीन, फ्रांस, अमेरिका और इंगलैंड को ही क्यो करें? क्या बाकी के तकरीबन दो सौ देश या उनके प्रतिनिधि इसके हकदार नहीं? शेष दुनिया की कारगुजारियों में इसके सदस्य देश हर तरह से इन स्थाई सदस्यों की मोहताज बनकर ही रह गये हैं। किसी भी देश के पक्ष-विपक्ष में कोई भी रणनीति बगौर इनकी रजामंदी के पास नही हो सकती। स्थाई सदयों की मनमानी क्यूबा, वियतनाम, सोमालिया, यूगोस्लाविया और हालिया इरान-इराक में देखी जा चुकी है। यही कारण है कि संघ की शक्ति के विघटन को लेकर अंतरराष्टï्रीय स्तर पर बहस तेज हो रही है, जिसके मूल में स्थाई सदस्य देशों की भूमिका को लेकर कसमकसाहट सबसे तेज है।
1970 के दशक के अंत में जानबूझ कर इस संस्था को कमजोर बनाने की कोशिर चलती रही है। 1971 में पाकिस्तान से भारत में आए एक करोड़ शरणार्थियों से जुड़े ममाले में संयुक्त राष्टï्र ने कोई कार्रवाई करने के बजाय भारत के खिलाफ ही मतदान कराया। पिछले दशकों में सीमापार से आतंकवाद के संबंध में भी यूएन की ऐसी ही उदासीनता देखने को मिली है। राष्टï्र संघ की मौजूदा स्थितियों से महासचिव कोफी अन्नान खासा खिन्न थे जिसका उन्होंने कई बार सार्वजनिक इजहार किया। जिसके कारण उनके कार्यकाल के अंतिम दिनों में तो अमेरिका ने खुलेआम उनके खिलापऊ में उतर आया था। ऐसा लग रहा था कि उनके खिलाफ महाभियोग लाकर अमेरिका एक नई परंपरा शुरू कर देगा। लेकिन तमाम अटकलों को पार कर आखिर उनकी विदाई हो ही गई। उनकी जगह दक्षिण कोरिया के मून नये महासचिव बने। जिनके सामने सबसे पहली चुनौती उत्तर कोरिया के परमाणु परीक्षण का मामला आया। हालांकि इस पर मून का रुख विश्व जनमत के अनुरूप और सख्त ही रहा, लेकिन वे यादगार Bhuमिका नहीं छोड़ पाए
यह कितना हास्यास्पद है कि २१वीं सदी की दुनिया को बीसवीं सदी के उत्तराद्ध में बना एक संगठन नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है जो खुद में बदलाव नहीं कर पाया। 1945 से अब तक ही दुनिया में बहुत कुछ बदल चुका है। शक्ति संतुलन बदल चुका है। भारत, ब्राजील, जापान और जर्मनी दुनिया के नये ताकतवर देश के रूप में उभरे हैं जो उस समय अगल-अलग कारणों से विश्व परिदृश्य से गायब थे। इन बदली हुई परिस्थितियों में इन देशों का संयुक्त राष्टï्र की गतिविधियों में भागीदारी न बनाना सामंती प्रवृति ही कही जाएगी। दुनिया में यदि लोकतंत्र का भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो स्थाई सदस्यों के हाथों से कठपुतली बने संयुक्त राष्टï्र का आजाद कराना ही होगा। वैसे संयुक्त राष्टï्र संघ की 71वीं वर्षगांठ नई चुनौतियों के साथ आई है। स्थाई सदयों की संख्या बढ़ाने की मुहिम आगामी दिनों में जाहिर तौर पर तेज होगी।
बुधवार, अक्तूबर 12, 2016
रावण के पतन का मूल सीता हरण, सीता हरण की मूल वजह क्या है?
संजय स्वदेश
कथा का तानाबाना तुलसी ने कुछ ऐसा बुना की रावण रावण बन गया। मानस मध्ययुग की रचना है। हर युग के देशकाल का प्रभाव तत्कालीन समय की रचनाओं में सहज ही परीलक्षित होता है। रावण का पतन का मूल सीता हरण है। पर सीताहरण की मूल वजह क्या है? गंभीरता से विचार करें। कई लेखक, विचारक रावण का पक्ष का उठाते रहे हैं। बुरी पृवत्तियों वाले ढेरों रावण आज भी जिंदा हैं। कागज के रावण फूंकने से इन पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। पर जिस पौराणिक पात्र वाले रावण की बात की जा रही है, उसे ईमानदार नजरिये से देखे। विचार करें। यदि कोई किसी के बहन का नाक काट दे तो भाई क्या करेगा। आज 21वीं सदी में ऐसी घटना किसी भी सच्चे भाई के साथ होगी, तो निश्चय ही प्रतिशोध की आग में धधक उठेगा। फिर मध्य युग में सुर्पनखा के नाम का बदला रामण क्यों नहीं लेता। संभवत्त मध्ययुग के अराजक समाज में तो यह और भी समान्य बात रही होगी।
अपहृत नारी पर अपहरणकर्ता का वश चलता है। रावण ने बलात्कार नहीं किया। सीता की गरीमा का ध्यान रखा। उसे मालूम था कि सीता वनवासी बन पति के साथ सास-श्वसुर के बचनों का पालन कर रही है। इसलिए वैभवशाली लंका में रावण ने सीता को रखने के लिए अशोक बाटिका में रखा। सीता को पटरानी बनाने का प्रस्ताव दिया। लेकिन इसके लिए जबरदस्ती नहीं की। दरअसल का मध्य युग पूरी तरह से सत्ता संघर्ष और नारी के भोगी प्रवृत्ति का युग है। इसी आलोक में तो राजेंद्र यादव हनुमान को पहला आतंकवादी की संज्ञा देते हैं। निश्चय ही कोई किसी के महल में रात में जाये और रात में सबसे खूबसूरत वाटिका को उजाड़े तो उसे क्यों नहीं दंडित किया जाए। रावण ने भी तो यहीं किया। सत्ता संघर्ष का पूरा जंजाल रामायण में दिखता है। ऋषि-मुनि दंडाकारण्य में तपत्या कर रहे थे या जासूसी। रघुकुल के प्रति निष्ठा दिखानेवाले तपस्वी दंडाकारण्य अस्त्र-शस्त्रों का संग्रह क्यों करते थे। उनका कार्य तो तप का है। जैसे ही योद्धा राम यहां आते हैं, उन्हें अस्त्र-शस्त्रों की शक्ति प्रदान करते हैं। उन्हीं अस्त्र-शस्त्रों से राम आगे बढ़ते हैं। मध्ययुग में सत्ता का जो संघर्ष था, वह किसी न किसी रूप में आज भी है। सत्ताधारी और संघर्षी बदले हुए हैं। छल और प्रपंच किसी न किसी रूप में आज भी चल रहे हैं। सत्ता की हमेशा जय होती रही है। राम की सत्ता प्रभावी हुई, तो किसी किसी ने उनके खिलाफ मुंह नहीं खोला। लेकिन जनता के मन से राम के प्रति संदेह नहीं गया। तभी एक धोबी के लांछन पर सीता को महल से निकाल देते हैं। वह भी उस सीता को तो गर्भवती थी। यह विवाद पारिवारीक मसला था। आज भी ऐसा हो रहा है। आपसी रिश्ते के संदेह में आज भी कई महिलाओं को घर से बेघर कर दिया जाता है। फिर राम के इस प्रवृत्ति को रावण की तरह क्यों नहीं देखी जाती है। जबकि इस तरह घर से निकालने के लिए आधुनिक युग में घरेलू हिंसा कानून के तहत महिलाआें को सुरक्षा दे दी गई है। बहन की रक्षा, उनकी मर्यादा हनन करने वालों को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा, पराई नारी को हाथ नहीं लगाने का उज्ज्वल चरित्र तो रावण में दिखता है। लोग कहते भी है कि रावण प्रकांड पंडित था। फिर भी उसका गुणगणान नहीं होता। विभिषण सदाचारी थे। रामभक्त थे। पर उसे कोई सम्मान कहां देता है। सत्ता की लालच में रावण की मृत्यु का राज बताने की सजा मिली। सत्ता के प्रभाव से चाहे जैसा भी साहित्या रचा जाए, इतिहास लिखा जाए। हकीकत को जानने वाला जनमानस उसे कभी मान्यता नहीं देता है। तभी तो उज्ज्वल चरित्र वाले विभिषण आज भी समाज में प्रतिष्ठा के लिए तरसते रहे। सत्ता का प्रभाव था, राम महिमा मंडित हो गए। पिता की अज्ञा मानकर वनवास जाने तक राम के चरित्र पर संदेह नहीं। लेकिन इसके पीछे सत्ता विस्तार की नीति जनहीत में नहीं थी। राम राजा थे। मध्य युग में सत्ता का विस्तार राजा के लक्षण थे। पर प्रकांड पंडित रावण ने सत्ता का विस्तार का प्रयास नहीं किया। हालांकि दूसरे रामायण में देवताओं के साथ युद्ध की बात आती है। पर देवताओं के छल-पंपंच के किस्से कम नहीं हैं।
काश, कागज के रावण फूंकने वाले कम से कम उसके उदत्ता चरित्र से सबक लेते। बहन पर होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए हिम्मत दिखाते। उसकी रक्षा करते। परायी नारी के साथ जबरदस्ती नहीं करते। ऐसी सीख नहीं पीढ़ी को देते। समाज बदलता। मुझे लगता है कि राम चरित्र की असंतुलित शिक्षा का ही प्रभाव है कि 21वीं सदी में भी अनेक महिलाएं जिस पति को देवता मानती है, वहीं उन पर शक करता है, घर से निकालता है। संभवत: यहीं कारण है कि आज धुं-धुं कर जलता हुए रावण के मुंह से चीख निकलने के बजाय हंसी निकलती है। क्योंकि वह जनता है कि जिस लिए उसे जलाया जा रहा है, वह चरित्र उसका नहीं आज के मानव रूपी राम का है।
गुरुवार, सितंबर 29, 2016
लड़के-लड़की का गुण-अवगणु कौन देखता है?
दर्दनाक : शादी के दस साल बाद दहेज में मोटरसाइकिल नहीं मिली तो छपरा में दो बच्चों सहित एक मां को जिंदा जला दी गई! सीवान-गोपालगंज में भी ऐसी घटनाएं आती रहती है। कभी खटिया में बांध कर जला दिया जाता है तो कभी घर से निकाल देने की खबर अखबार में हर दूसरे दिन होती है। अपने यहां बेटी को बोझ समझने वाले बाप हैसियत नहीं होने पर भी दहेज में वह चीज देने का वादा करते हैं जो दे ही नहीं सकते हैं...उधर लड़के अपनी कमाई के बजाय सुसराल से बाइक और चेन पाने के इंतजार में बैठे रहते हैं। लड़के-लड़की का गुण-अवगणु कौन देखता है?
शनिवार, जुलाई 16, 2016
वर्धा के हिंदी विश्वविद्यालय के अकेले आदिवासी प्रोफेसर पर कुलपति का कहर
पटना/वर्धा (महाराष्ट)। महाराष्टÑ के वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के हिंदी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग के सहायक प्रोफेसर डॉ. सुनील कुमार का जान-बूझकर किए गए कोलकाता तबादले के खिलाफ हिंदी विश्वविद्यालय परिसर में आंदोलन गरमा गया है। डा. सुनील कुमार सुमन बिहार के उस चंपारण (मोतिहारी)से हैं, जहां दक्षिण अफ्रीका से आए मोहन दास करमचंद गांधी ने देश में पहला पहला आंदोलन शुरू किया। गांधीजी की यह पहली कर्मभूमि है। यहां गांधीजी का आश्रम है। गांधी का एक और आश्रम महाराष्टÑ के वर्धा जिले में हैं। यह भी गांधीजी की कर्मभूमि रही है। इसी कर्मभूमि पर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय स्थित है। गांधी की पहली कर्मभूमि चंपारण के लाल डा.सुनील कुमार सुमन इसी हिंदी विश्वविद्यालय के कुल नब्बे प्रोफेसरों में पहले और एकमात्र आदिवासी प्राध्यापक हैं। लेकिन यहां के पूर्व कुलपति विभूति नारायण राय और और वर्तमान कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्रा ने हमेशा इन्हें अपने निशाने पर रखा। डा. सुमन आदिवासी और दलित मुद्दों के प्रखर आवाज के रूप में सक्रिय रहे। ताजा मामला इनके वर्धा से कोलकाता ट्रांफसर कर प्रताड़ित करने का है। जब शांतिपूर्ण आग्रह के बाद डा. सुमन का धैर्य टूट गया तो डॉ सुनील कुमार शनिवार सुबह विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ भूख हड़ताल पर बैठ गए। उनके समर्थन में पचासों छात्र-छात्राएँ व शोधार्थी भी अनशन पर बैठ गए। विश्वविद्यालय के शिक्षक संघ का भी उन्हें समर्थन हासिल है।
गौरतलब है कि डॉ सुनील कुमार इस विश्वविद्यालय के बेहद लोकप्रिय अध्यापक हैं। वे ऐसे अध्यापक हैं, जो अपने विभाग से इतर दूसरे विभागों-केंद्रों के विद्यार्थियों के बीच भी काफी लोकप्रिय हैं। इसका कारण उनका मृदुभाषी-सहयोगी स्वभाव और छात्रों को हमेशा बेहतर बनने-करने के लिए प्रेरित करने वाली उनकी प्रकृति है। वे इस विश्वविद्यालय के एकमात्र आदिवासी वर्ग के प्राध्यापक हैं। यह गोंडवाना का क्षेत्र हैं, जहाँ लाखों-करोड़ों की संख्या में आदिवासी सदियों से रहते हैं। वर्धा और आसपास के सभी जिलों में भी लाखों की संख्या में आदिवासी हैं। यह इस विश्वविद्यालय के लिए खुशी की बात है कि इस वर्ग का प्राध्यापक यहाँ सेवारत है। डॉ. सुनील कुमार की पहचान राष्ट्रीय स्तर के आदिवासी लेखक-विचारक और एक्टिविस्ट के रूप में प्रतिष्ठित है। विदर्भ के तमाम जिलों तथा देश के कई विश्वविद्यालयों-शहरों के दलित-आदिवासी कार्यक्रमों में डॉ. सुनील कुमार को अतिथि वक्ता के रूप में हमेशा बुलाया जाता है। इन्हें क्षेत्र की जनता द्वारा कई बार गोंडवाना भूषण पुरस्कार, शिक्षण मैत्री सम्मान और समाज भूषण सम्मान जैसे पुरस्कारों से भी नवाजा जा चुका है। लेकिन दु:ख और गहरा अफसोस इस बात का है कि इस विश्वविद्यालय में शुरू से ही उनको जातिगत आधार पर प्रताड़ित किया जाता रहा है। पिछले कुलपति के कार्यकाल में भी ऐसा हुआ और अब भी ऐसा ही हो रहा है। शर्मनाक बात है कि यह उच्च शिक्षा का केंद्र है और यहाँ बौद्धिक लोग रहते हैं। उन्हें अपने जातिगत दुराग्रहों के आधार पर व्यवहार नहीं करना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि उच्च प्रशासनिक पदों पर बैठे लोग भी जातिगत भावना से निर्णय लेते हैं। इसी के तहत डॉ. सुनील कुमार का स्थानांतरण कोलकाता केंद्र पर किया गया है।
अंबेडकर स्टूडेंट्स फोरम खुलकर इस आंदोलन में आ गया है। फोरम का मानना है कि डॉ सुनील कुमार दो साल तक एक फर्जी केस के चक्कर में नौकरी से बाहर रहे, केस-मुकदमा झेला, आर्थिक दिक्कतें सहीं और मानसिक पीड़ा तो झेली ही। फिर साहित्य विभाग में इतने अध्यापकों के रहते हुए डॉ. सुनील कुमार को ही क्यों कोलकाता भेजा जा रहा है? पिछले ममाले में बोम्बे उच्च न्यायालय ने विश्वविद्यालय की ओर से दायर किए गए केस को फजर््ी करार करते हुए विश्वविद्यालय पर ही दस हजार का जुर्माना ढोका था। इतना ही नहीं तत्काल डा सुमन की बहाली का आदेश दिए। इसके बाद भी विश्वविद्यालय प्रशासन ने उन्हें ज्वाइन तो कर वाया लेकिन एक साल तक उनकी जांच करवाते रहे और उन्हें सात महीने तक बैठने तक की कुर्सी और मेज तक नहीं दी गई। यह समाचार लिखे जाने तक डा. सुमन को पिछले दो साल का वेतन भी नहीं दिया गया है।
कुलपति के मुंह पर पोतेंगे कालिख!
यहां धरने पर बैठे वर्धा से ही आए एक आदिवासी युवक ने बताया कि कुलपति गिरीश्वर मिश्रा घोर जातिवादी हैं। पिछले दिनों गिरीश्वर मिश्राा ने यहां जितनी भी नियुक्तियां की, उसमें से एक भी दलित या आदिवासी नहीं है। उन्होंने अपने संगे संबंधियों व रिश्तेदारों को यहां के प्रशासनिक पदों पर बैठा रखा है। यदि इसी तरह तर उनकी दलित और आदिवासी विरोधी गतिविधियां चलती रही तो कभी भी आक्रोशित आदिवासी उनके मुंह पर कालिख पोत सकता है। वीडियो बनाकर मीडिया को जारी कर सकता है।
डर से कुलपति नहीं आए दफ्तर
शनिवार शाम तक डॉ सुनील कुमार के साथ बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएँ और शोधार्थी कुलपति दफ्तर के सामने अनशन पर जमे हुए थे। इस आंदोलन की खबर सुनकर कुलपति अपने दफ्तर ही नहीं आए, घर पर ही रहे। पूरे मामले में जब डा गिरीश्वर मिश्रा से फोन पर संपर्क किया गया तो घंटी जाती रही, लेकिन फोन नहीं उठाया।
समर्थन देने आया आदिवासियों का दल
इस बीच गोंडवाना युवा और महिला जंगोम दल तथा अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद के भीमा आड़े, चन्द्रशेखर मड़ावी, रंजना उइके, कल्पना चिकराम, सुवर्णा वरखड़े, राकेश कुमरे, नगर पार्षद शरद आड़े आदि कुलपति से मिलने आए, उनके आवास पर भी गए, लेकिन उन्हें मिलने नहीं दिया गया। विश्वविद्यालय के कई प्राध्यापक अनशन स्थल पर पहुंचे और डॉ सुनील कुमार के प्रति अपना समर्थन जाहिर किया।
तेज होगा आंदोलन
देर शाम बातचीत में डा. सुमन सुनील कुमार सुमन ने बताया कि विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा यहां दलित और आदिवासियों को प्रताड़ित करने का यह कोई नया मामला नहीं है। उन्होंने बताया कि यहां के आदिवासी समुदाय काफी अक्रोशित है। उनके समर्थन से आत्मविश्वस बढ़ गया है। डा. सुमन ने बताया कि अभी यह आंदोलन एक चेतावनी भर है। यदि सोमवार तक विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनका स्थानांतरण वापस नहीं लिया तो आंदोलन तेज किया जाएगा।
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शुक्रवार, जुलाई 15, 2016
अन्नदाता की मेहनत से कौन मालामाल
संजय स्वदेश
अर्थशास्त्र में मांग और पूर्ति की एक समान्य सी बात बताई जाती है। यदि मांग ज्यादा है तो कीमत भी ज्यादा होगी। यदि कीमत सस्ती होगी, तो आपूर्ति भी काम होगी। अर्थशास्त्र के इस नियम में भले ही बहुसंख्य धंधे फीट बैठते हों, लेकिन खेती-किसानी में यह बात थोड़ी-सी पटरी से उतर जाती है। मांग देखकर यदि किसान किसी अनाज की बुआई करता है और उस वर्ष उसका उत्पादन ज्यादा होता है, तो उस लागत से बहुत ज्यादा इतना भी धन प्राप्त नहीं हो पाता है कि वह कुछ रुपए अपने पास अगली बुआई के खर्च के लिए बचा सके। पूर्ववर्ती और वर्तमान सरकार के किसान हितैषी होने के तमाम दावों के बाद भी अन्नादाता किसानों की परिवारों में के घर वह बरकत नहीं है, जो धन्नासेठों के यहां होती है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा किसानों के आर्थिक स्थिति आंकलन सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2013 के दौरान किसान परिवारों पर कर्ज के आंकड़े एकत्र किये गये और उस दिन देश के हर किसान परिवार पर औसतन लगभग 47 हजार रुपए कर्ज होने का अनुमान लगाया गया है। इस ऋण में संस्थागत संस्थानों तथा सेठ-साहूकारों से लिए गए कर्ज भी शामिल हैं। सर्वेक्षण के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्र के लगभग 52 प्रतिशत किसान परिवारों के कर्ज के बोझ में दबे होने का अनुमान है। कम जोत के किसान परिवार पर कम कर्ज का भार है, जबकि बड़े किसान परिवारों पर अधिक कर्ज है। कम जमीन वाले 41.9 प्रतिशत किसानों पर कर्ज हैं, जबकि 10 हैक्टेयर से अधिक जमीन वाले 78.7 प्रतिशत किसान परिवार कर्जदार हैं। एक हैक्टेयर से कम जमीन वाले किसान परिवार पर औसतन 31,100 रुपए का ऋण है, जबकि 10 हैक्टेयर से अधिक जमीन जोतने वाले किसान परिवार लगभग 2,90,300 रुपए के कर्जदार हैं। एक हैक्टेयर से कम जमीन वाले किसानों ने संस्थागत संस्थानों अर्थात सरकार, सहकारिता समितियों और बैंकों से 15 प्रतिशत कर्ज लिया है, जबकि 10 हैक्टेयर से अधिक जमीन रखने वाले किसानों ने इन संस्थानों से 79 प्रतिशत कर्ज लिया है। राष्ट्रीय स्तर पर किसानों ने 60 प्रतिशत ऋण संस्थागत संस्थानों से लिया है। बैंकों ने 42.9 प्रतिशत ऋण दिया है, जबकि सहकारिता समितियों ने 14.8 प्रतिशत तथा सरकार ने 2.1 प्रतिशत ऋण दिया हुआ है। गैर-संस्थागत संस्थानों या सेठ-साहूकारों ने 25.8 प्रतिशत कर्ज किसानों को दिया है। वर्ष 2013 में किए गए सर्वेक्षण में देश में 9 करोड़ 2 लाख किसान परिवार होने का अनुमान लगाया गया है। लगभग 69 प्रतिशत कृषक परिवारों के पास एक हैक्टेयर से कम जमीन है। केवल 0.4 प्रतिशत किसान परिवारों के पास 10 हैक्टेयर या इससे अधिक जमीन है। राष्ट्रीय स्तर पर 0.1 प्रतिशत किसान परिवार भूमिहीन पाए गए, जबकि 6.7 प्रतिशत परिवारों के पास केवल मकान की ही जमीन थी। यानि कुल 92.6 प्रतिशत किसान परिवारों के पास मकान के अलावा कुछ जमीनें हैं। यह तो रही आंकड़ों की बात। जमीनी हकीकत तो यह है कि छोटे जोत के किसानों को बैंक कर्ज देने से कतराते हैं। यही किसान मोटे ब्याज दर पर सेठ साहूकारों से कर्ज लेकर केसी-किसानी शुरू करते हैं। परिवार के सदस्यों की जरूरतों को काट कर कर्ज भी उतार देते हैं। छोटे किसानों को बैंक कम ब्याज पर कर्ज दे दे तो थोड़ी बहुत खुशियां इनके घरों में भी अठ्खेलियां कर लेती। किसानों के लिए जो योजनाएं और सुविधाएं हैं, वह आसानी से पहुंच नहीं पाती हैं। सरकार यदि बोनस की घोषणा कर भी दे तो उसे लेने-देने की प्रक्रिया में इतनी कठिनाई होती है कि किसान निराश हो जाता है। वहीं इस प्रकियाओं में दलालों की चांदी होती है। छोटे जोत के किसान बिचौलियों के हाथों फंस कर सस्ते में अपनी फसल बेच देते हैं। इससे मुश्किल से ही अपने घर परिवार लायक खर्च जुटा पाते हैं। किसानों की मेहनत पर मालामाल कर्जदेने वाला साहूकार और अनाज खरीदने-बेचने वाले बिचौलिये होते हैं।
रविवार, जुलाई 10, 2016
विकास की कुल्हाड़ी से कटेगा बदहाली का पेड़
संजय स्वदेश
ऐसे कई छोटे व बदहाल देश हैं, जहां गरीबी-कुपोषण और बदहाली को दूर कर विकास की बयार बहाने के लिए भारत कर्ज देती है। लेकिन अपने ही देश में कई ऐसे राज्य हैं जो अपने यहां की बदहाली दूर कर विकास की गंगा बहाने के लिए केंद्र सरकार से फंड के लिए तरसते रहते हैं। बीते सप्ताह बिहार सरकार ने गरीबी से लड़ने के लिए विश्व बैंक से 1937 करोड़ का कर्ज लेने का कारार किया। हमेशा केंद्र सरकार पर निशाना साधने वाली बिहार सरकार के इस कर्ज के लिए केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार गारंट बनी। जब विकास की बात एकल व्यक्ति का हो अथवा परिवार या समाज या राज्य या राष्टÑ की हो तो बिना धन के योजनाओं का क्रियान्वयन महज कोरी कल्पना कहलाएगी। यह अच्छी बात है कि विकास के मुद्दे पर कभी-कभी केंद्र और राज्य की सरकारें एक हो जाती हैं। कितना अच्छा होता कि ऐसा हमेशा होता। विश्व बैंक का कर्ज जल्द मिलता है और उसका क्रियान्वयन बिना भ्रष्टाचार के होता है तो निश्चय ही बिहार के विकास की एक नई क्रांति का आगाज होगा। विश्व बैंक के मुताबिक यह रुपएा ग्रामीणों को स्वयं सहायता समूह बनाने, बाजार व सार्वजनिक सेवाओं तथा वित्तीय सेवाओं तक पहुंच उपलब्ध कराने में खर्च होगा। उन्हें बैंकों तथा अन्य प्रतिष्ठानों के जरिए वित्तीय सहायता मुहैया कराई जाएगी। हमेशा परदे में महिलाओं को सहेजने वाल राज्य के समाज में इन परियोजनाओं में महिलाओं को तबज्जों मिलेगी, यह और भी सराहनीय है। महिला सशक्तिकरण की दिशा ओर यह एक मजबूत कदम होगा। ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी कृषि कार्यों में महिलाओं की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है। लेकिन उस पर मालिकाना हक से वे वंचित हैं। योजना में महिलाओं की स्वामित्व वाली कृषि उत्पाद कंपनियों की स्थापना के लिए मदद मिलेगी, यह सराहनीय है। उम्मीद है कि इससे बिहार की 18 लाख महिलाओं को लाभ मिलेगा। पंचायती चुनाव में महिलाओं की सशक्त भागीदारी के बाद शराबबंदी ने बिहार में महिला जमात के हौसलें बुलंद हैं। घर के मर्दों के सहारे ही सही वे दहलीज से बाहर निकल रही हैं। साइकिल या छात्रवृत्ति का लालच ही सही, बेटियां घर से बाहर निकलीं और पढ़ने लगी। अभी भी उच्च शिक्षा में लड़कियां पिछड़ी हैं, लेकिन हालत देखकर लगत हैं कि स्थिति देर की हैं अंधेर की नहीं। हालात एक दिन में नहीं बदलते हैं। धीरे-धरे ही बिहार में बदहाली और महिला शोषण की मानसिकता की गहरी पैठ बनी है। इसी जड़ें मजबूत हैं। जिस तरह कोई मजबूत और पुराना पेड़ कुल्हाड़ी के धीरे-धीरे के बार से कटता है, वैसे ही बिहार में विकास की कुल्हाड़ी से ही धीरे-धीरे बदहाली के जड़ों पर पड़ने वाले प्रहार इसे काट फेंकेंगे।
शनिवार, अप्रैल 16, 2016
सद्भावना की परंपरा में देरी नहीं लगती
पटना का प्रसिद्ध हनुमान मंदिर में रामवनवी के दिन आयोध्या के बाद सबसे ज्यादा भीड़ उमड़ती है। राम के जन्मोत्सव के जय घोष के दौराना मस्जिद में नामाज अता की गई। मुस्लिम भाइयों में हिंदू भाइयों से गले मिलकर सद्भावना का उदहरण पेश की। एक और उदाहरण देखिए। राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय नागपुर में है। यहां के सबसे पुराने पोद्दारेश्वर राम मंदिर से जब रामनवमी पर श्रीराम की झांकी निकते हुए मुस्लिम बाहुल्य इलाके मोमिनपुरा से गुजरती है तो वहां मुस्लिम समुदाय के लोग फूलों की वर्षा कर स्वागत करते हैं। ऐसा केवल रामनवमी के मौके पर ही ऐसा नहीं होता है।
संजय स्वदेश
16 अप्रैल को देशभर में रामनवमी की धूम रही, पर गोपालगंज, सीवान और गोपालगंज जिले के ही मीरगंज में रामनवमी पर हिंसक घटनाओं में देशभर इन तीन जगहों को सुर्खियों में ला दिया। रामनवमी को निकली भगवान श्रीराम की शोभा यात्रा के दौरान गोपालगंज तथा मीरगंज नगर में दो पक्ष के लोग आमने-सामने आ गए। दोनों जगह शोभा यात्राओं पर पथराव से माहौल बिगड़ गया। हालांकि, हालात बिगड़ते देख मौके पर भारी संख्या में पहुंची पुलिस ने स्थिति पर काबू पाया। गोपालगंज के ही मीरगंज नगर में भी शोभा यात्रा के मरछिया देवी चौके के पास थाना मोड़ पर पहुंचते ही मस्जिद के समीप कुछ लोगों ने पथराव कर दिया। इससे दोनों पक्ष के लोग आमने-सामने आ गए। पथराव में कई लोग घायल हो गए। यहां हिंसा पर उतारू भीड़ ने सड़क पर आगजनी की तथा शोभा यात्रा में शामिल लोगों के आधा दर्जन बाइक भी फूंक दिए। सिवान में भी कुछ ऐसा ही हुआ। रामनवमी के मौके पर निकाली गई शोभा यात्रा के दौरान सिवान के नवलपुर में दो गुटों के बीच विवाद हो गया। देखते-देखते तोडफोड़ व पथराव होने लगा। असामाजिक तत्वों ने कई गाड़ियों के शीशे भी तोड़ दिए। इस दौरान भीड़ में फायरिंग भी की गई। सिवान के जेपी चौक पर भी दो गुट भिड़ गए। हंगामे की सूचना पाकर डीएम व एसपी ने शहर में फ्लैग मार्च किया। स्थिति पर नियंत्रण के लिए पुलिस ने लाठीचार्ज व हवाई फायरिंग की। शहर में माहौल को शांत कराने के लिए प्रशासन ने कुछ देर के लिए सभी अखाड़ों को रोक दिया। घटना के बाद बजरंग दल के कार्यकर्ता टाउन थाने में पहुंच कर हंगामा करने लगे। करीब तीन घंटे बाद माहौल सामान्य हुआ। फिर, शहर में अखाड़ों का निकलना शुरू हुआ।
गोपालगंज और सीवान में यह ऐसा पहला मामला नहीं है कि कि जब धार्मिक उत्सवों के दौरान हिंसक झड़प हुर्इं हो। ऐसा हमेशा होता है कि जब कोई स्थानीय उत्सव आने वाला होता है तो थाने में शांति समिति की बैठक होती है। उत्सव को शांतिपूर्ण तरीके से निपटने के लिए आम सहमति बनी है। इसके बाद भी धार्मिक उत्सवों के दौरान हिंसा की घटना समाज में हिलोरे मारते एक बड़े अंतर्कलह का संकेत देती है। यह स्वास्थ समाज के सुंदर भविष्य के लिए ठीक नहीं है। ऐसे मजहबी उपद्रव के बाद हुए मजहबी दंगे के दंश बड़े घातक होते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी टीस चलती रहती है। पिछले कई दंगों का इतिहास खंगाल का देखिए, क्षणिक उन्नाद में उठाये कदम से किसे क्या मिला है?
देश के कई शहरों में ऐसे मौके के कई ऐसे प्रसंग हैं, जो समाजिक सद्भावना के अनूठ मिशाल के रूप में गिनाये जाते हैं। ज्यादा दूर न जाकर इसी रामनवमी के दिन पटना में कुछ अनूठा हुआ। पटना का प्रसिद्ध हनुमान मंदिर में रामवनवी के दिन आयोध्या के बाद सबसे ज्यादा भीड़ उमड़ती है। राम के जन्मोत्सव के जय घोष के दौराना मस्जिद में नामाज अता की गई। मुस्लिम भाइयों में हिंदू भाइयों से गले मिलकर सद्भावना का उदहरण पेश की। एक और उदाहरण देखिए। राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय नागपुर में है। यहां के सबसे पुराने पोद्दारेश्वर राम मंदिर से जब रामनवमी पर श्रीराम की झांकी निकते हुए मुस्लिम बाहुल्य इलाके मोमिनपुरा से गुजरती है तो वहां मुस्लिम समुदाय के लोग फूलों की वर्षा कर स्वागत करते हैं। ऐसा केवल रामनवमी के मौके पर ही ऐसा नहीं होता है। जब विजयदशमी के मौके पर राष्टÑीय स्वयं सेवक संघ की परेड निकलती है तो भी उसका स्वागत मुस्लिम समाज के लोग पुष्प वर्षा से करते हैं। लेकिन सद्भावा की ऐसी तासीर सिवान, गोपालगंज और सारण के क्षेत्र में क्यों नहीं दिखती है। निजी अनुभव है, यहां के युवाओं में बातचीत में महसूस होता है कि धार्मिक जुलूस चाहे किसी भी समुदाय के हो, जब उसे किसी धार्मिक स्थल से गुजरना होता है तब उसकी मानसिकता शक्ति प्रदर्शन की होती है। यह मनोविज्ञान दिमाग में हावी हो जाता है कि हर हाल में अपना मजहब या धर्म दूसरे को दूसरे से ऊंचा और पावरफुल दिखाना है। करीब एक दशक पहले ऐसे हालात नहीं थे। सियासत में जब धार्मिक आधार पर धुव्रीकरण का खेल शुरू हुआ, तब धीरे धीर बिहार में खासकर सारण के बेल्ट की जनमानस में धार्मिक वर्चस्व की भावना मजबूत होती गई। यह बीमारी दिमाग में घर कर गई है कि दोनों मजहब वाले एक दूजे के दुश्मन है। लेकिन ऐसा नहीं है कि दोनों मजहबों के का हर बुद्धिजीवी इसी बीमारी से पीड़ित है। दोनों समाज के शिक्षित सम्मानित लोग धर्म का असली मर्म समझते हैं। उन्हें पता है कि सियासत की आंच पर महजब की रोटी अच्छे से सेंकी जाती है। लिहाजा, उन्हें आगे आना चाहिए। एक दूसरे के तीज ज्यौहारों में ऐसे उदाहरण पेश करना चाहिए, जिसे सद्भाव की मिशाल बने। बड़ों की मिशाल नई पीढ़ी के लिए सीख होती है। यह सीख एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक चलती है। यही परंपरा बनती है। कोई तो मिशाल की शुरुआत करे, परंपरा बनते देर नहीं लगेगी।
रविवार, अप्रैल 03, 2016
...अब और न हो सकड़ पर मौत
संजय स्वदेश
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सड़क दुर्घटना में जख्मी लोगों को मदद करने और अस्पताल पहुंचाने वाले लोगों को अब पुलिस या अन्य कोई भी अधिकारी द्वारा जांच के नाम पर परेशान नहीं करने संबंधी केंद्र सरकार के जारी दिशानिर्देशों पर मुहर लगाते हुए एक फरमाना जारी किया है। यह सरकार और सुप्रीम कोर्ट स्वागतयोग्य पहल है। सड़क दुर्घटनाओं में ज्यादातर मौत समय पर चिकित्सा नहीं मिलने के कारण होती है। अधिकतर मामलों में देखा गया है कि हादसों के शिकार खून से लथपथ मदद के लिए तड़पते रहते हैं, देखने वालों की भीड़ जमा हो जाती है, लेकिन कोई आगे आकर झटपट उठा कर अस्पताल जाने की हिम्मत कोई नहीं दिखता है। सबको पुलिस के पचड़े में पड़ने का डर सताता है। ऐसे नजारे देश के हर शहर में देखने को मिल जाएंगे। करीब बीस बरस पहले की बात है। देश की राजधानी दिल्ली में सड़क हादसे के मददगारों में पुलिस का ऐसा खौफ था कि लोग दुर्घटना पीड़ित को भीड़ में घेर कर उसकी बेबशी देखते हुए पुलिस के आने का इंतजार करते रहते थे। एक के बाद एक मौतों के बाद दिल्ली पुलिस ने समाचार पत्रों में इस्तहारे देकर यह अपील की कि आप सड़क हादसे में पीड़ित को पास के अस्पताल पहुंचाए, पुलिस मददगार को परेशान नहीं करेगी। अपील के बाद भी लोगों के मन में खौफ कायम रहा। अब जब सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस द्वारा मददगार का परेशान नहीं करने का स्पष्ट फरमान दे दिया तो मन को सकुन मिलता है। सुप्रीम कोर्ट का यह दिशा निर्देश तब सफल होंगे जब व्यवहारिक रूप से पुलिस लोगों को परेशान नहीं करेगी। हालांकि कोर्ट ने कहा है कि पुलिस मुसीबत के समय दूसरों की मदद करने वाले नेक लोगों को कोई अधिकारी प्रताड़ित न कर सके इसका प्रचार कराए, जिससे सड़क दुर्घटनाओं के पीड़ितों की जिंदगी बचाने वाले लोगों को पुलिस या अन्य अधिकारियों द्वारा प्रताड़ित किए जाने के डर को दूर किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूर्व न्यायाधीश के एस. राधाकृष्णन की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय समिति की सिफारिशों के आधार पर केंद्र सरकार ने पिछले साल सितंबर में ही इस दिशा में दिशानिर्देश जारी कर एक अधिसूचना जारी की थी। समिति की सिफारिश में कहा गया था कि सड़क दुर्घटनाओं के पीड़ितों की जिंदगी बचाने वाले लोगों को पुलिस या अन्य अधिकारियों द्वारा प्रताड़ित किए जाने से डरने की जरूरत नहीं है।
सड़क हादसे में पीड़ित को यदि मददगार पुलिस के डर को दरकिनार कर अस्पताल पहुंचा दे तो उसकी वहां एक दूसरे तरह की कठिनाई शुरू हो जाती है। अस्पताल के कर्मचारी त्वरित इलाज शुरू करने से पहले कागजी फॉरमालटिज पूरी कराने और पुलिस को बुलाने में पर जोर देते हैं। यदि अस्पताल निजी हो तो परेशानी बढ़ जाती है। निजी अस्पताल वालों को इस बात का डर रहता है कि यदि उन्होंने अनजान का इलाज शुरू किया तो उसका खर्च कौन भरेगा। फिर पुलिस की औपचारिकता का अलग झमेला। यह अच्छी बात है कि सरकार ने इस ओर भी ध्यान दिया है। केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से भी सभी पंजीकृत सार्वजनिक एवं निजी अस्पतालों को दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं कि वे सहायता करने वाले व्यक्ति से अस्पताल में घायल व्यक्ति के पंजीकरण और दाखिले के लिए किसी प्रकार के शुल्क की मांग नहीं की जाएगी। अधिसूचना में यह भी प्रावधान है कि घायल की सहायता करने वाला व्यक्ति उसके पारिवारिक सदस्य अथवा रिश्तेदार है तो भी घायल व्यक्ति को तुरंत इलाज शुरू किया जाएगा, भले ही उनसे बाद में शुल्क जमा कराया जाए। लेकिन सवाल यह है कि सरकार और कोर्ट की यह पहल अस्पताल प्रशासन और पुलिस कितनी शिद्दत से अमल करेंगे। जिस तरह सरकार अपनी महत्वकांक्षी योजनाओं पर करोड़ों रुपए खर्च कर प्रचार प्रसार कर जनता तक पहुंचाती है, वैसे ही नई और सराहनीय पहल को भी मजबूत प्रचार प्रसार से जन जन तक पहुंचा कर जनता को जागरुक करना चाहिए, जिससे सड़क हादसे के शिकार त्वरित मेडिकल सुविधा नहीं मिलने के कारण अब और मौत के मुंह में समाने से बच सकें।
मंगलवार, फ़रवरी 23, 2016
क्या फेसबुक नेशनल मीडिया है!
क्या फेसबुक नेशनल मीडिया है!
संजय स्वदेश
युवा फेसबुकिया मित्र वेद प्रकाश ने अपनी टाइम लाइन पर जो शेयर किया था, वह आप भी जानिए। आपको न्यूज चैनल में कभी ऐसे सुनने को मिला है-कैमरामैन फलां पटेल के साथ मैं फलाना यादव। कैमरामैन फला कुशवाहा के साथ मैं फलाना विश्वकर्मा। मैं फला प्रजापति के साथ फलाना साव। कैमरामैन फलां हुड्डा के साथ मैं फलां निषाद। अगर ये ओबीसी भी मीडिया में नहीं हैं तो कौन है? एससी एसटी तो हो ही नहीं सकते। आपको सुनते होंग कि फलां मिश्रा/द्विवेदी/त्रिवेदी/चतुर्वेदी/पांडे/तिवारी/झा/दूबे/त्रिपाठी/ चौबे/त्यागी/वाजपेयी/कश्यम/शर्मा आदि-आदि..। तो ये दो चार जाति के वर्चस्व वाली मीडिया को देश का नेशनल मीडिया कैसे कहा जा सकता है। लोकतंत्र में कथित चौथाखम्भा में लोकतंत्र कहा है। ये तो ब्रह्मणवादी मीडिया है। हमारे देश का नेशनल मीडिया तो फसबुक है। जहां हर जाति वर्ग के लोग पत्रकार है। यहां कथित नेशनल मीडिया वाले मनुवादी पत्रकार बहुजनों के सामने बौना नजर आ रहे हैं।
वेद प्रकाश के टाइम लाइन पर शेयर इन बातों पर प्रतिक्रिया देते हुए गौरव कुमार पाठक कहते हैं-भाई जल क्यों रहे हो तुम, अगर तुम्हारे अंदर प्रतिभा है तो सामने आओ, दूसरे की बुराई करने से आगे थोरे ही आ जाओगे तुम, प्रतिभा के दम पर पीछे करने कोशिश करो, खुद ब खुद जवाब मिल जाएगा तुम्हे।
फेसबुक की आभासी दुनिया में इस तरह के तर्क-वितर्क कोई नई बात नहीं है। यहां फेसबुक की टाइम लाइन हर किसी के लिए अपना स्वतंत्र मीडिया का प्लेटफार्म है। अपनी बात अपनी मर्जी से रखो, विरोध की अभिव्यक्ति की पूरी आजादी ही नहीं अपितु पूरा स्पेस भी है। समाज की असली जिंदगी में कभी-कभी प्रसंग आने पर यह जरूर सुनने को मिल जाता है कि मीडिया बिक चुकी है। फेसबुक की दुनिया में तो इस बात को लेकर हर दिन चर्चा होती है। यहां तक की मीडिया को लेकर भद्दे भद्दे कॉमेट या गाली गलौच किया जाता है। यहीं यह सवाल उठता है कि यदि मीडिया भ्रष्ट है, बिकाऊ है तो असल समाज में ये लोग हैं कौन? जब मीडिया में हमेशा ही प्रतिभाशाली माने जाने वाले समाज के अभिजात्य वर्ग वालों का कब्जा है और उनका ही नियंत्रण है तो फिर मीडिया का स्तर क्यों गिर रहा है। कई आरक्षण विरोधियों से यह कहते सुना है कि इससे देश बंट गया है। आरक्षण का आधार जाति नहीं आर्थिक होना चाहिए। सवाल है कि जब मीडिया में किसी तरह का आरक्षण नहीं है। इस पेशे में अधिकतर लोग गैर आरक्षित पेशे से हैं तो फिर मीडिया की विश्वसनीयता पर इतना बड़ा संकट कैसे खड़ा हो गया है? गहराई से समझने वाली बात है, जब से सूचना तकनीकी की पहुंच जन जन तक होने लगी है, खबरों की हकीकत समझ में आने लगी है। अब बहुसंख्यक जनता मीडिया के फैलाए भ्रम में नहीं पड़ती है। पिछले साल की ही तो बात है। बिहार की सियासत में मीडिया के दुरुपयोग का बड़ा प्रयोग हुआ था। एक पार्टी विशेष ने प्रिंट मीडिया का इतना स्पेश पहले से ही बुक कर रखा था कि हर जगह वह ही वह दिखती थी। मीडिया के माध्यम से जन जन तक जंगलराज रिटर्न की बात पहुंचाने की कोशिश की गई। लेकिन परिणामों ने यह सिद्ध कर दिया कि मीडिया की गली से निकली इस सियासी भ्रम में जतना नहीं पड़ी। अंदर ही अंदर एक मौन माहौल चलता रहा और उसका परिणाम भी दिखा।
मीडिया संस्थानों का संचालन पूंजीपतियों के बश की ही बात है। बड़ी लागत मामूली करोबारी लगा कर मीडिया का इंपायर नहीं खड़ा कर सकता है। छोटे पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से एक सार्थक पहल तो होती है लेकिन जल्द ही यह पहल थक हाकर कर ठहर जाती है। पहले से महाधीश की तरह जम जमाये मीडिया संस्थानों के कारण यदि मीडिया की विश्वसनीयता संकट में है तो यह चिंता की बात दलित, पिछड़े अथवा बहुजन समाज के लिए नहीं है। जमे जमाये विश्वास से अपना हित साधते रहने वाले मीडिया मालिक इसकी चिंता करें।
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