शनिवार, अप्रैल 16, 2016
सद्भावना की परंपरा में देरी नहीं लगती
पटना का प्रसिद्ध हनुमान मंदिर में रामवनवी के दिन आयोध्या के बाद सबसे ज्यादा भीड़ उमड़ती है। राम के जन्मोत्सव के जय घोष के दौराना मस्जिद में नामाज अता की गई। मुस्लिम भाइयों में हिंदू भाइयों से गले मिलकर सद्भावना का उदहरण पेश की। एक और उदाहरण देखिए। राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय नागपुर में है। यहां के सबसे पुराने पोद्दारेश्वर राम मंदिर से जब रामनवमी पर श्रीराम की झांकी निकते हुए मुस्लिम बाहुल्य इलाके मोमिनपुरा से गुजरती है तो वहां मुस्लिम समुदाय के लोग फूलों की वर्षा कर स्वागत करते हैं। ऐसा केवल रामनवमी के मौके पर ही ऐसा नहीं होता है।
संजय स्वदेश
16 अप्रैल को देशभर में रामनवमी की धूम रही, पर गोपालगंज, सीवान और गोपालगंज जिले के ही मीरगंज में रामनवमी पर हिंसक घटनाओं में देशभर इन तीन जगहों को सुर्खियों में ला दिया। रामनवमी को निकली भगवान श्रीराम की शोभा यात्रा के दौरान गोपालगंज तथा मीरगंज नगर में दो पक्ष के लोग आमने-सामने आ गए। दोनों जगह शोभा यात्राओं पर पथराव से माहौल बिगड़ गया। हालांकि, हालात बिगड़ते देख मौके पर भारी संख्या में पहुंची पुलिस ने स्थिति पर काबू पाया। गोपालगंज के ही मीरगंज नगर में भी शोभा यात्रा के मरछिया देवी चौके के पास थाना मोड़ पर पहुंचते ही मस्जिद के समीप कुछ लोगों ने पथराव कर दिया। इससे दोनों पक्ष के लोग आमने-सामने आ गए। पथराव में कई लोग घायल हो गए। यहां हिंसा पर उतारू भीड़ ने सड़क पर आगजनी की तथा शोभा यात्रा में शामिल लोगों के आधा दर्जन बाइक भी फूंक दिए। सिवान में भी कुछ ऐसा ही हुआ। रामनवमी के मौके पर निकाली गई शोभा यात्रा के दौरान सिवान के नवलपुर में दो गुटों के बीच विवाद हो गया। देखते-देखते तोडफोड़ व पथराव होने लगा। असामाजिक तत्वों ने कई गाड़ियों के शीशे भी तोड़ दिए। इस दौरान भीड़ में फायरिंग भी की गई। सिवान के जेपी चौक पर भी दो गुट भिड़ गए। हंगामे की सूचना पाकर डीएम व एसपी ने शहर में फ्लैग मार्च किया। स्थिति पर नियंत्रण के लिए पुलिस ने लाठीचार्ज व हवाई फायरिंग की। शहर में माहौल को शांत कराने के लिए प्रशासन ने कुछ देर के लिए सभी अखाड़ों को रोक दिया। घटना के बाद बजरंग दल के कार्यकर्ता टाउन थाने में पहुंच कर हंगामा करने लगे। करीब तीन घंटे बाद माहौल सामान्य हुआ। फिर, शहर में अखाड़ों का निकलना शुरू हुआ।
गोपालगंज और सीवान में यह ऐसा पहला मामला नहीं है कि कि जब धार्मिक उत्सवों के दौरान हिंसक झड़प हुर्इं हो। ऐसा हमेशा होता है कि जब कोई स्थानीय उत्सव आने वाला होता है तो थाने में शांति समिति की बैठक होती है। उत्सव को शांतिपूर्ण तरीके से निपटने के लिए आम सहमति बनी है। इसके बाद भी धार्मिक उत्सवों के दौरान हिंसा की घटना समाज में हिलोरे मारते एक बड़े अंतर्कलह का संकेत देती है। यह स्वास्थ समाज के सुंदर भविष्य के लिए ठीक नहीं है। ऐसे मजहबी उपद्रव के बाद हुए मजहबी दंगे के दंश बड़े घातक होते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी टीस चलती रहती है। पिछले कई दंगों का इतिहास खंगाल का देखिए, क्षणिक उन्नाद में उठाये कदम से किसे क्या मिला है?
देश के कई शहरों में ऐसे मौके के कई ऐसे प्रसंग हैं, जो समाजिक सद्भावना के अनूठ मिशाल के रूप में गिनाये जाते हैं। ज्यादा दूर न जाकर इसी रामनवमी के दिन पटना में कुछ अनूठा हुआ। पटना का प्रसिद्ध हनुमान मंदिर में रामवनवी के दिन आयोध्या के बाद सबसे ज्यादा भीड़ उमड़ती है। राम के जन्मोत्सव के जय घोष के दौराना मस्जिद में नामाज अता की गई। मुस्लिम भाइयों में हिंदू भाइयों से गले मिलकर सद्भावना का उदहरण पेश की। एक और उदाहरण देखिए। राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय नागपुर में है। यहां के सबसे पुराने पोद्दारेश्वर राम मंदिर से जब रामनवमी पर श्रीराम की झांकी निकते हुए मुस्लिम बाहुल्य इलाके मोमिनपुरा से गुजरती है तो वहां मुस्लिम समुदाय के लोग फूलों की वर्षा कर स्वागत करते हैं। ऐसा केवल रामनवमी के मौके पर ही ऐसा नहीं होता है। जब विजयदशमी के मौके पर राष्टÑीय स्वयं सेवक संघ की परेड निकलती है तो भी उसका स्वागत मुस्लिम समाज के लोग पुष्प वर्षा से करते हैं। लेकिन सद्भावा की ऐसी तासीर सिवान, गोपालगंज और सारण के क्षेत्र में क्यों नहीं दिखती है। निजी अनुभव है, यहां के युवाओं में बातचीत में महसूस होता है कि धार्मिक जुलूस चाहे किसी भी समुदाय के हो, जब उसे किसी धार्मिक स्थल से गुजरना होता है तब उसकी मानसिकता शक्ति प्रदर्शन की होती है। यह मनोविज्ञान दिमाग में हावी हो जाता है कि हर हाल में अपना मजहब या धर्म दूसरे को दूसरे से ऊंचा और पावरफुल दिखाना है। करीब एक दशक पहले ऐसे हालात नहीं थे। सियासत में जब धार्मिक आधार पर धुव्रीकरण का खेल शुरू हुआ, तब धीरे धीर बिहार में खासकर सारण के बेल्ट की जनमानस में धार्मिक वर्चस्व की भावना मजबूत होती गई। यह बीमारी दिमाग में घर कर गई है कि दोनों मजहब वाले एक दूजे के दुश्मन है। लेकिन ऐसा नहीं है कि दोनों मजहबों के का हर बुद्धिजीवी इसी बीमारी से पीड़ित है। दोनों समाज के शिक्षित सम्मानित लोग धर्म का असली मर्म समझते हैं। उन्हें पता है कि सियासत की आंच पर महजब की रोटी अच्छे से सेंकी जाती है। लिहाजा, उन्हें आगे आना चाहिए। एक दूसरे के तीज ज्यौहारों में ऐसे उदाहरण पेश करना चाहिए, जिसे सद्भाव की मिशाल बने। बड़ों की मिशाल नई पीढ़ी के लिए सीख होती है। यह सीख एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक चलती है। यही परंपरा बनती है। कोई तो मिशाल की शुरुआत करे, परंपरा बनते देर नहीं लगेगी।
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