मंगलवार, अगस्त 30, 2011

इरोम के हमदर्द मणिपुर जाएं

संजय स्वदेश
अन्ना के आंदोलन के समय मणिपुर में एक दशक से ज्यादा समय से अनशनरत इरोम की याद आ रही है।
सबसे पहले तो हमें मणिपुर की हकीकत समझनी चाहिए। इस प्रांत की भारी उपेक्षा के बाद वहां के निवासियों में अलगाव की जो ग्रंथी अब बैठ चुकी है, उसे न सेना हटाकर खत्म किया जा सकता है, और ना ही वहां सेना लगाकर। इरोम को मुद्दा गंभीर है। इरोम के साथ होना या न होना लंबी चर्चा का विषय है।
मणिपुर की स्थानीय राजनीति में अलगाववादी तत्व पूरी तरह से हावी है। सरकार की कोई भी विकासात्मक योजना यहां सफल नहीं होने देते हैं। केंद्र सरकार के भारी-भरकम पैकेज के बाद भी वहां के लोग केंद्र सरकार पर उपेक्षा का दोष मढ़ते हैं। वहां की मीडिया पर भी अलगावादी तत्व ज्यादा हावी है। बदहाली की व्यस्था वहां के आम लोगों की नियति बन गई है।
देश-के दूसरे प्रांतों के लोगों केवल खबरों को पढ़ कर अलगाववादियों के सुर में सुर न मिलाना कर
हमदर्दी जताने वाले छुट्टियों में मणिपुर के सुरुरक्षेत्रों में भ्रमण करने जाये तो हकीकत से रू-ब-रू होंगे।
वहां तैनात सैन्य बलों पर कई बार महिला उत्पीड़न का आरोप लगाया जाता है, लेकिन वहां के महिला संगठनों का वहां के अलगाववादी तत्व कैसे उपयोग करते हैं, इसे समझना जरुरी है। करीब हर सामाजिक व अन्य संगठन अलगावादियों के प्रभाव में है। मणिपुर में पुरुषों में शराब की लत को रोकने के मीरा पाइजी नाम का महिलाओं का एक संगठन बनाया गया। कुछ समय तक तो यह संगठन अपने उद्देश्यों के लेकर जोर-शोर से सक्रिय रहा। पर धीरे-धीरे संगठन का जोश-खरोश शांत हो चुका है। अब मीरा पाइजी भी अलगावादियों से मिलकर काम करती है। एक तरह से कहें तो महिलाओं का यह संगठन पूरी तरह से उनके ही नियंत्रण में है। कई महिलाएं अब अलगावादियों के लिए मुखबीर का काम करती है। जब भी कोई अलगावादी सेना के चंगुल में फंसता है। मीरा पाइजी पूरी तरह से विरोध में उतर जाती है। सेना के वाहन के सामने लेट जाती है। कहती हैं कि वह निर्दोष और आम आदमी है।
मणिपुर के सेनापति जिले के मफाऊ में भी अंसल कंपनी एक बड़ी बांध परियोजना पर कार्य कर रही है। बांध थोबल नदी से जोड़ कर बनाया जा रहा है। इसमें राज्य की सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण विभाग डैम बनाने में सहयोग कर रहा है। इस परियोजना को शुरू हुए बीस साल हो चुके हैं। अभी तक बांध का 25 प्रतिशत कार्य भी पूरा नहीं हो पाया। सरकार की तमाम सुरक्षा के बाद भी यह परियोजना अधर में है। नगा और कुकी समुदाय के संगठन बार-बार परियोजना में वसूली के लिए टांग अड़ा देते हैं। पैसे नहीं देने पर यहां काम करने वाल कमर्चारियों का अपहरण कर लिया जाता है। बीच-बीच में जैसे ही ठेके की रकम ठेकेदार को मिलती है, अलगावादी उससे रुपये देने की मांग कर देते हैं। ठेके की मंजूरी की आधी रकम तो वसूली में ही चली जाती है।
पूर्वी इंफाल जिले में पेयजल की समस्या गंभीर है। पेयजल की स्थिति को देखते हुए मणिपुर सरकार ने 1996 में इस क्षेत्र में 90 करोड़ रुपये की लागत से एक बांध बनाने की परियोजना शुरू की थी। तेरह साल में बांध का दस प्रतिशत कार्य भी पूरा नहीं हो पाया। इसका बजट 90 करोड़ से बढ़ कर 2200 करोड़ रुपये का हो गया। कब पूरा होगा कुछ कहा नहीं जा सकता है। जैसे-जैसे ठेकेदार यूजी को अनुदान देते है कार्य की गति बढ़ती जाती है।
कहते हैं कि देशभर में हिंदी संपर्क भाषा है, लेकिन मणिपुर में हिंदी की हालत खराब है। ऐसी बात नहीं है कि वहां हिंदी बोलने-समझने वाले नहीं है, लेकिन को प्रभावशाली नहीं होने यिा जा रहा है। भले ही अलगावादी हिंदी सिनेमा के दिवाने हों, लेकिन सिनेमा हॉल में बॉलीवुड की फिल्में नहीं चलती हैं। वहां काम व व्यवसाय करने वालों से लेकर नौकरी पेशा वालों को अलगावादी संगठनों को वार्षिक चंदा देना पड़ता है। क्या शर्मिला के समर्थन की बात करने वालों इसे पर बहस करेंगे कि केंद्र सरकार के युद्ध विराम के बाद भी ऐसा क्यों हो रहा है।
शायद ही आपने मीडिया में कहीं खबर पढ़ी होगी कि वर्ष 2009 में एक मुद्दे को लेकर अलगावादी तत्वों ने वहां के स्कूलों को बंद करा दिया। तीन महीने तक स्कूल बंद रहे। पर बेवश सरकार इनके सामने कमजोर पड़ी रही। बच्चों की पढ़ाई चौपट हो हुई। एक निजी स्कूल ने चोरी-छिपे स्कूल खोल कर बच्चों को पढ़ाने की कोशिश की तो स्कूल को जला दिया गया। मणिपुर के गरीब वर्ग के बच्चों को बड़े होकर भी गरीबी देखते हुए अलगावाद से जुड़ना नियति हो चुकी है। दिल्ली और अन्न शहरों में चमक-दमक से दिखने वाले और पढ़ने वाले अधिकतर विद्यार्थी किसी न किसी अलगावादी संगठन से जुड़े सदस्य के परिवार के ही होते हैं। तभी तो हिंसा उनके चरित्र में होती है। दिल्ली में उन्हें हिंदी भाषी चिंकी बोलते हैं। चिंकी मतलब छोटें आंखों वाला। पर कभी चिंकी बोलने वालों ने यह नहीं सोचा होगा कि वे हिंदी भाषियों को क्या बोलते होंगे। अपनी भाषा में वे हिंदी भाषियों को म्यांग बोलते हैं। म्यांग मतलब-ऊंची नाक वाला।
इरोम शर्मिला के अनशन का उद्देश्य भले ही पाक साफ हो, पर इरोम अनशन में अपने राज्य की एक दशक में बदल चुकी हकीकत नहीं समझ रही है। यदि समझती तो सबसे पहले वह राज्य सरकार के खिलाफ ही धरना पर बैठ जाती, अनशनरत इरोम को क्या पता कि हर राज्य की लोकतांत्रिक सरकार है, पर मणिपुर की लोकतांत्रिक सरकार वहां की अलगाववादी तत्वों के साथ जियो और जीने दो की नीति के साथ चल रही है। युद्ध विराम के बाद भी अलगाववादियों की समानांतर सरकार चल रही है।
संजय स्वदेश
कार्यकारी संपादक
समाचार विस्फोट
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