मंगलवार, फ़रवरी 23, 2010

सरकारी अस्पतालों से सरकी चुकी सेवा भावना

संजय स्वदेश
सोमवार को कुछे-एक खबरियां चैनलों पर ऐसा ही वाक्या फिर दिखा। नागपुर के सरकारी अस्पताल में पांच दिन का एक मासूम नवजात अस्पतकालकर्मियों की लापरवाही से जिंदा जला और मर गया। दुर्गा काडे नाम की महिला ने 17 फरवरी को एक निजी अस्पताल में जुड़वा बच्चे को जन्म दिया था। दोनों बच्चों का समान्य औसत वजन कम व अन्य स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के कारण विशेष उपचार के लिए ऑक्सीजन पर रखा गया था। दो दिन में जुड़वे नवजात की स्थिति काफी अच्छी हो गई थी। लेकिन निजी अस्पताल में प्रतिदिन का इलाज शुल्क ज्यादा होने से उसे दो दिन बाद ही शासकीय मेडिकल अस्पताल में भर्ती कराया गया। अस्पताल में नवजात के शरीर को सामान्य रखने के लिए वर्मर में रखा गया। लेकिन चिकित्साकर्मियों की लापरवाही से तापमान ज्यादा हो गया। वर्मर में लगे वल्ब की ताप से एक नवजात का एक तरफ का हाथ, पैर और छाती बुरी तरह से जल गई। नवजात के परिजनों का अरोप है कि जब नवजात जल रहा था, तभी उन्होंने अस्पताकर्मियों को बताया। लेकिन उन्होंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। पांच दिन का नवजात तड़कर मर गया। मामले पर जब हंगामा हुआ तो राज्य के स्वास्थ्य मंत्री में मामले की जांच का आदेश देकर दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का आश्वासन दे दिया। यह घटना मंगलवार तक शायद ही किसी को याद रहे। शायद अस्पताल प्रशासन बाद में मामले को दबा भी तो भी किसी को फर्क नहीं पड़ता है।
लेकिन इस घटना को आधार पर यह आवश्यक सोचना चाहिए कि आखिर देश में चिकित्सा विज्ञान किस ओर तरक्की कर रहा है। एक निजी अस्पताल में अस्वस्थ्य जन्मा बच्चा स्वास्थ हो रहा है। लेकिन पैसे के अभाव में उसे मजबूरन सरकारी अस्पताल का आसरा खोजना पड़ता है। पर इस अश्रय में लापरवाही का आलम इतना है कि मौत हर किसी को सहज लगती है। कहने के लिए तो देश में मेडिकल का क्षेत्र तेजी से तरक्की कर रहा है। यहां इलाज इतना सस्ता है कि विदेशी लोट पर्यटक के साथ इलाज के लिए भारत को चुन रहे हैं। निजी क्षेत्र के भी विदेशी मरीजों को आकर्षिक करने के लिए कई तरह की व्यवस्था कर रखी है। मुंबई समेत प्रमुख शहरों के पांच सितारा सुविधा वाले होटलों में तो विदेशी मरीजों के लिए विशेष व्यवस्था की गई है। विदेशी मरीजों को किसी तरह की तकलीफ न हो, उसके लिए उनकी बोलने वाली और अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रशिक्षण प्राप्त नर्सों को नियुक्त गया है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में इस तरह की उन्नति को उपलब्धि बताकर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय हमेशा ही अपना पीठ थपथपाता है। पर एक बात गौर करने वाली है। जितनी तेजी से देश में मेडिकल टूरिज्म का दायरा बढ़ा है, उससे कहीं ज्यादा तेजी से देश के सरकारी अस्पतालों की हालत लचर हो गई है। तभी तो आए दिन देश के किसी न किसी अस्पताल में लापरवाही के कारण होने वाली मौत की खबर समाचारों में आती है। ऐसी खबर इतनी आम हो गई है कि अब इससे लोग नहीं सिहरते हैं। देश के प्रतिष्ठित अस्पताल एम्स में चिकित्सकिय लापरवाही की कई घटनाएं हो चुकी है। पूर्वी दिल्ली में गुरुतेग बहादुर अस्पताल तो इस मामले में कुख्यात हो चुका है। मीडिया की सक्रियता से अब छोटे शहरों में अस्पतलों की लापरवाहीं की घटनाएं प्रकाश में आने लगी है।
यह समस्या केवल भारत की नहीं है। इस मामले में एशिया के अधिकर देशों की स्थिति कमोबेश यही है। पर इसके साथ ही मेडिकल जगत की एक दूसरी चमकती तस्वीर है। एशियन मेडिकल टूरिज्म विश्लेषण 2008-12 की रिपोर्ट के मुताबिक मेडिकल टूरिज्जम के कुल बाजार का 90 प्रतिशत हिस्सा में थाईलैंड, सिंगापुर और भारत का है। अनुमान है कि अगले दो वर्षों में देश में मेडिकल टूरिज्ज का बाजार 25 प्रतिशत की गति से बढ़ेगी।
सवाल है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध होती भारत की मेडिकल व्यवस्था घरेलू स्तर पर फिसड्डी क्यों साबित हो जाती है? सीधा और सरल जवाब है? जनसंख्या के अनुपात में पर्याप्त संख्या में न डॉक्टर हैं और न ही अस्पताल। इसका लाभ निजी अस्पताल वाले खूब उठा रहे हैं। मोटी कमाई कर रहे हैं। कई गरीबों के हक के हिस्से के खर्च पर पढ़ कर विदेश चले जाते हैं। और जब सरकार डॉक्टरों को ग्रामीण क्षेत्र में सेवा देने की बात करती है तो काफी हो हल्ला मचाया जाता है। पर जिस मूल भावना से डॉक्टरी पढ़ाई जा रही है, वह भावना ही खत्म हो चुकी है। मानवी सेवा भावना से भागने के लिए यह यह संकेत काफी है। जिस-जिस क्षेत्र में बाजार घुसा है, वहां से मनवी भावना धीरे-धीरे नष्ट हो गई है। उपचार के बाजार की आग में मानवी सेवा भावना पूरी तरह से नष्ट हो गई है। सरकार कछुए गति से स्वास्थ्य सेवा के प्रसार में लगी है। पर यह प्रसार उपरी स्तर पर ज्यादा है। जमीनी हकीकत पर कभी बात नहीं होती है। सरकारी अस्पताल से मिलने वाली महंगी दवाएं हमेशा गायब रहती है। कई बार तो डॉक्टर स्वयं यह सलाह देते हैं कि यह दवा बाहर मिलेगी। तीन-चार साल पहले ही केंद्र सरकार ने देश के हर जिले में जनाऔषधि केंद्र खोलने की बात कही थी। पर यह जिला तो दूर हर राज्य में नहीं खुला। गांव-गांव तक चिकित्सा सुविधा अभी तक नहीं पहुंची। यूपीए सरकार के पिछले कार्यकाल में भारत निर्माण की आबोहवा नहीं सुनाई दे रही है। फिलहाल महंगाई की गूंज है। इस गूंज में दूसरे महत्वपूर्ण मुद्दे गौण हो गए है। आने वाले बजट के अपेक्षाओं पर चर्चा हो रही है। पर घरेलू चिकित्सा सुविधा की लचर हालत को सुधारने की अपेक्षा का चिंतन का आभास कहीं नहीं दिख रहा है।

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