बुधवार, अगस्त 11, 2010

बाजार की गर्मी से शांत होगी कश्मीर की आग

कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग करने वाला पूरे भारत की ओर से कश्मीर को क्या मिला है। वहां कश्मीर घाटी की हिंसा में मरने स्थानीय लोगों की खबरों हमें नहीं झकझोरती हैं। देश ने केवल यह दावा किया की कश्मीर हमारा है। लेकिन इस दावे के बाद भी पूरा कश्मीर उपेक्षित हो गया। भूख तो पशु भी बर्दाश्त कर सकते हैं, लेकिन उपेक्षा नहीं। फिर भला एक पूरी समुदाय उपेक्षित हो तो उसे अहिंसक होने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है।




संजय स्वदेश
कश्मीर में हिंसा की आग धधक पड़ी है। तरह-तरह की चर्चाओं का दौरा जारी है। कोई राजनीतिक असफलता की बात कह रहा है तो कोई पड़ोसी देश पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई की प्रायोजित रणनीति। हालत जो भी हो, पर इस हिंसा से साबित हो गया है कि कश्मीर की वर्तमान लाकतांत्रित सरकार वहां की जनता की आकांक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाई। अलगाववाद की स्थिति पर काबू पाने के लिए केंद्र सरकार भी विफल रही। इन तमाम चर्चाओं के बीच एक महत्वपूर्ण बात छूट रही है। आईएसआई की गतिविधियों से सभी वाकिफ है। सरकार ने सेना की तैनाती कर इस पर अंकुश लगाने का भी कार्य किया। दूसरी ओर गत एक दशक में कश्मीर की चिंगारी भड़कने की मुख्य वजह क्या थी। अभी तक काबुल से पत्थर फेंकने की घटनाएं आ रही थी। अब भारत में भी हो गई। कहने वाले कह रहे है कि पड़ोसी राज्यों ने जनता को पत्थरबाजी के लिए उकसाया। उसके लिए जनता को पैसे भी उपलब्ध कराये गए। पर इसमें संदेह है। पैसे के लालच में एक व्यक्ति जान जोखिम में डालने की सोच सकता है, लेकिन अमन की चाह रखने वाला पूरा समाज ऐसा नहीं कर सकता है। ईमानदारी से सोच और विचार करने की जरूरत है। कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग करने वाला पूरे भारत की ओर से कश्मीर को क्या मिला है। वहां कश्मीर घाटी की हिंसा में मरने स्थानीय लोगों की खबरों हमें नहीं झकझोरती हैं।
गत दो दशक के समय पर विचार करें। उदारदवाद की हवा जहां-जहां गई, स्थिर समाज सचेत हुआ। सरकार ने इस दौरान ढेरों तरक्की के दावे किये। पर विचार करने वाली बात यह है कि उदारवाद की यह हवा कश्मीर की घाटी में विकास की संतोषजनक गर्माहट पैदा नहीं कर सकी। कश्मीर को केंद्र सरकार ने सेना के अलावा क्या दिया है? जिनती स्थिति सेना के माध्यम से कश्मीर को अपने नियंत्रण में लेने की रही, उतनी ही दृढ़ता वहां बाजार को पहुंचाने में नहीं रही। आप माने या न माने। आज हर समाज में बाजार जीने की बुनियादी जरूरत बन गई है। भले ही इस के रूप अलग-अलग क्यों न हो। लेकिन देश के पिछड़े इलाकों में जहां-जहां बाजार पहुंचा, वहां थोड़ी-बहुत समृद्धि जरूर आई है। विदर्भ में किसानों ने आत्महत्या की। खबरे राष्ट्रीय स्तर पर आईं। पर किसानों की उपज को अच्छा मूल्य देने वाला बाजार वहां भी नहीं पहुंच पाया। ठीक इसी तरह से कश्मीर के होने वाले उत्पादन को हाथों हाथ लेने के लिए बाजार बनाने में सरकार असफल दिख रही है। पर्यटन का व्यवसाय एक सीजन में चलता है। लेकिन इससे उन्हीं लोगों को ज्यादा लाभ है जो झील के आसपास हैं और उनकी अपनी नाव हैं या फिर पर्यटक स्थलों पर जिनकी दुकानें हैं।
बेहतरीन सेव उत्पादन के मामले में कश्मीर अव्वल रहा है। पर वहां के सेव को वहीं बेचने के लिए बाजार उपलब्ध नहीं है। बिचौलिये उनका मुनाफा खाते रहे हैं। कश्मीर के गर्म कपड़ों के क्या कहने, पर जब वे देश के विभिन्न हिस्सों में प्रदर्शनी के लिए जाते हैं, तो तिब्बती शरणार्थियों के गर्म कपड़े उन पर भारी पड़ जाते हैं। ऐसी बात नहीं है कि इन चीजों के उत्पादों को प्रोत्साहन के लिए कोई सरकारी पहल नहीं हुआ है। लेकिन जो पहल हुआ है, वह औपचारिक रूप से। उसकी गति बेहद सुस्त है। इसका लाभ भी एक खास वर्ग तक सीमित हो कर रह गया है।
करीब तीन-चार साल पूर्व पाकिस्तान और भारत के बीच साफ्टा नाम की एक संधि हुई। इस संधि के माध्यम से 773 ऐसी वस्तुओं को सूचीबद्ध किया गया है जिसे पाकिस्तान भारत से निर्यात करेगा। इसमें कई ऐसी चीजे शामिल थीं, जिनका उत्पादन कश्मीर में होता है और उसकी पाकिस्तान में बेहद मांग है। पर कश्मीर की आग में यह संधि जल गई। यह व्यापार दोनों देशों की आपसी राजनीति की ऊपर था। कारण चाहे जो भी हो, समाज की मांग के दवाब में कश्मीर में बाजार ने पांव पसारने की कोशिश भी की, तो सरकारी संरक्षण के कारण उसे प्रोत्साहन नहीं मिला।
गत एक दशक में कश्मीर में बेरोजगारों की एक बड़ी फौज खड़ी हो गई है। पारंपरागत बंदिशों से कश्मीरी समाज की बहुसंख्यक महिलाएं उच्च शिक्षित नहीं हो पाई। महिलाएं भी बेकार हैं। सरकार इनके हाथों में उनके हुनर लायक संतोषजनक काम देने में नाकाम रही। लेकिन इसके लिए केवल राज्य सरकार को ही दोष नहीं दिया जा सकता है। स्थिति की नाजुकता को देखते हुए कश्मीर की जनता में अपना विश्वास बहाल करने के लिए केंद्र सरकार को भी समय-समय पर ताक-झांक करते रहना चाहिए था। लेकिन
लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। लिहाजा, सत्ता की राजनीति को बनाये रखने में कश्मीर के युवा, युवति व महिलाएं आक्रोशित होकर हाथ में पत्थर नहीं उठाते तो क्या करते। दरअसल इस मामले को पूरी तरह से संवेदनशील होकर सोचने की जरूरत है। क्या हम अपने ही घर में पुलिस या सैन्य बलों के साये में रहना पसंद करेंगे? यदि हम ऐसा पंसद नहीं कर सकते हैं तो कश्मीरी भला कैसे करेंगे। यदि यह सुरक्षा साया जरूरी भी था तो जनता की की बदहाली दूर करने और उनमें विश्वास बहाल करने के लिए सैन्य बलों को संरक्षण में ही विकास और रोजगार के ढेरों कार्य हो सकते थे। पर ऐसा हुआ नहीं। सरकार चाहे राज्य की रही हो या केंद्र की। सभी ने केवल इसे भारत का अभिन्न अंग होने का दावा किया। देश के दूसरे राज्यों की जनता ने भी ऐसा ही दावा किया। लेकिन इस दावे के बाद भी पूरा कश्मीर उपेक्षित हो गया। भूख तो पशु भी बर्दाश्त कर सकते हैं, लेकिन उपेक्षा नहीं। फिर भला एक पूरी समुदाय उपेक्षित हो तो उसे अहिंसक होने की अपेक्षा कैसे की जा सकती

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