रविवार, मई 09, 2010

खाप पंचायतों को समाज-सुधार से जोड़ना जरूरी

भारत डोगरा
5 May 2010, 2300 hrs IST,नवभारत टाइम्स


तीस वर्ष पहले फरीदाबाद जिले का अलावलपुर गांव एक दहेज-विरोधी आंदोलन का केन्द्र बन ग
या था। यहां की खाप पंचायत ने जाट समुदाय में दहेज प्रथा समाप्त करने व शादी-ब्याह में तरह-तरह की फिजूलखर्ची को दूर करने की एक प्रशंसनीय शुरुआत की थी, जिसे शीघ्र ही सफलता मिलने लगी। दरअसल यहां के अनेक बुजुर्ग व सम्मानित व्यक्तियों ने महसूस किया था कि निकट के शहरी समाज के अंधाधुंध अनुकरण से गांवों में भी दहेज व शादी-ब्याह के खर्च में बढ़ोतरी होने लगी है, जिससे छोटे किसानों का आर्थिक संकट बढ़ रहा है। कुछ परिवारों में तो इस कारण जमीन बिकने तक की नौबत आ गई थी। इस स्थिति में जाट समुदाय के प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने अलावलपुर में एक बड़ी पंचायत बुलाई जिसमें दूर-दूर के अनेक गांवों के लोगों ने हिस्सा लिया।

इस महापंचायत में निर्णय लिया गया कि ग्यारह व्यक्तियों से अधिक की बारात नहीं जाएगी व मात्र एक रुपये का शगुन लिया जाएगा। विवाह के समय के लेन-देन को भी थोड़े से रस्मो-रिवाज के वस्त्र और बर्तन तक सीमित कर दिया गया। उस समय इन नियमों की वास्तव में जरूरत थी। शीघ्र ही इनका व्यापक स्तर पर पालन होने लगा। जब इस बारे में अनेक गांववासियों से बातचीत की तो उन्होंने कहा कि इस समाज-सुधार के कदम ने उनको आर्थिक संकट से बचा लिया, खेती के लिए उनकी जमीन बचा दी। बाद में पता चला कि इस प्रयास की सफलता से प्रभावित होकर इस क्षेत्र की कुछ अन्य जातियों ने भी अपने स्तर पर ऐसे ही प्रयास किए और उन्हें थोड़ी-बहुत सफलता भी मिली।

लेकिन छह-सात वर्षों के बाद इस गांव में जाने पर कुछ दूसरी ही तस्वीर सामने आई। यहां फिर से शादी-ब्याह में दहेज की मांग की जाने लगी थी, हालांकि यह अभी बहुत खुलकर नहीं हो रहा था। दबी जबान से कुछ गांववासियों ने बताया कि इस समाज-सुधार के प्रयास को जनसाधारण तो और व्यापक स्तर पर अपनाना चाह रहा था, पर समुदाय के धनी व अनुचित ढंग से पैसा कमाने वाले जो तत्व थे, उन्होंने ही सबसे पहले इन नियमों को तोड़ा। वे चाहते थे कि उन्हें अपनी समृद्धि के प्रदर्शन का अवसर मिले। इससे खाप व जाति पंचायतों की जो सार्थक भूमिका उभर रही थी, वह नव धनाढ्य व सत्ताधारी तबके के दबाव में टूटने लगी। जैसे-जैसे समाज-सुधार चाहने वाले तत्वों को पीछे धकेला गया, वैसे-वैसे उनके स्थान पर कट्टर सोच वाले आगे आने लगे।

कुछ वर्ष पहले दहेज-विरोध के अतिरिक्त कुछ जाति पंचायतों ने समाज-सुधार के अन्य सार्थक कार्य भी किए थे। कुछ स्थानों पर शराबखोरी व नशा विरोध का महत्वपूर्ण कार्य हुआ था। पश्चिम उत्तर प्रदेश के एक बुजुर्ग दलित नेता ने मुझे बताया था कि उनके समुदाय ने जाति स्तर पर शराब व दहेज दोनों बुराइयों को दूर करने के प्रयास एक सीमित क्षेत्र में किए थे। इसमें कुछ समय के लिए उन्हें अच्छी सफलता भी मिली थी।
इस हकीकत से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि समाज में जातिगत पहचान आज भी मजबूत बनी हुई है।

इसलिए जाति-समुदाय के आधार पर जो सामाजिक संगठन बनते हैं, उनकी भूमिका पर भी ध्यान देना जरूरी हो जाता है। हमें भरसक प्रयास करना चाहिए कि उन्हें कट्टरता, संकीर्णता व अलगाव की राह से हटाकर लोकतांत्रिक सोच, समाज-सुधार व प्रगति की राह से जोड़ा जाए। सामाजिक रस्मो-रवाज से जुड़े सुधार करने हैं तो इन संस्थाओं को साथ लेना ही होगा क्योंकि इनकी बातों का बहुत ज्यादा असर लोगों पर होता है। अब तक के अनुभव से साफ है कि जाति-समुदाय के संस्थानों का समर्थन मिलने से इन सुधारों को बहुत तेजी से सफलता मिलती है। आज जातिगत संस्थानों की सार्थक संभावनाओं को प्रोत्साहित करने की जरूरत है।

जाति-समुदाय के संगठनों के माध्यम से समाज-सुधार के कार्यों जैसे दहेज व नशा विरोधी प्रयासों को तेज करना चाहिए। इस तरह जाति पंचायतों की सार्थक, सुधारवादी भूमिका उभर सकेगी व कट्टरता की सोच पर आधारित अन्यायपूर्ण निर्णय देने की प्रवृत्ति पर रोक लगेगी।
साभार नवभारत टाइम्स

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