शुक्रवार, अक्तूबर 29, 2010
कंपनी को जमीन मिली,पर पीडि़तों को मुआवजा नहीं
आईओसी आग : एक साल
कंपनी को जमीन मिली,पर पीडि़तों को मुआवजा नहीं
आज से ठीक एक वर्ष पूर्व २९ अक्टूबर, २००९ को जयपुर में आईओसी (इंडियन ऑयल कॉपरपोरेशन) में लगी भीषण हादसे के बाद सरकार ने सबक लेने की सोची है। डिपो को शहर और घनी आबादी से दूर बनाने का निर्णय लिया गया है। लेकिन सीतापुर औद्योगिक क्षेत्र में स्थित आईओसी के डिपो में एक साल पूर्व लगी भीषण आग में मरे ११ लोगों के परिवार अभी भी मुआवजे की वाट जो रहे हैं। घटना के बाद केंद्रीय पेट्रोलियम एवं प्रकृतिक गैस मंत्री मुरली देवड़ा ने पीडि़तों को दस-दस लाख रुपये की राशि देने की घोषणा की थी। लेकिन हादसे के करीब एक साल बाद आईओसी को डिपो बनाने के लिए जमीन तो आवंटित हो गई है। लेकिन पीडि़तों के हाथ में कुछ नहीं आया। निराश पीडि़तों ने गत दिनों पूर्व ही राष्ट्रपति के नाम पत्र लिख कर मुआवजा दिलाने की गुहार लगाई है।
आईओसी डिपो में आग लगने के बाद सरकार ने चीफ टाउन प्लानर की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी। समिति ने सरकार से सिफारिश की थी कि भविष्य में पेट्रोल-डीजल और गैस डिपों का निर्माण शहरी आबादी से करीब तीस किलोमीटर हो। रिपोर्ट के बाद राज्य सरकार ने जिला प्रशासन को शहर से डिपों दूर करने के लिए उचित जमीन तलाशने के आदेश दिये थे। आखिर जमीन मिला। जिला प्रशासन ने फागी में स्थित मोहनपुरा स्थित गांव में पड़ी सरकारी जमीन पर इसके निर्माण का प्रस्ताव सरकार के पास भेजा था। इस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी गई।
आश्चर्य की बात यह है कि समिति ने शहरी आबादी में रहने वाले लोगों की जान की चिंता तो की। लेकिन गांव की निवासियों की तनिक भी चिंता नहीं की। आबादी चाहे शहरी हो या गवई। आईओसी जैसे हादसों से खतरे एक समान होते हैं। ऐसे कार्यों के लिए सरकार को पहले से ही ऐसी जमीन तलाशनी चाहिए थी, जो आबादी से दूर हो। अब जिस जगह आईओसी के नये डिपो बनाने की जगह दी गई। वहां से गांव को हटाया जाएंगा। नये जमीन पर पुरानी कंपनी के नये डिपो बसाने के लिए पुराने वशिंदों को उजाड़ा जाएगा। भविष्य में इस जमीन के आसपास लोगों को नहीं बसने देने की संभावना भी कम है।
दूसरे डिपो भी शहर से बाहर बनेंगेघटना के ठीक एक साल पूरे होने के कुछ दिन पूर्व ही सरकार ने इस मामले में और ठोस पहल करते हुए यह निर्णय लिया कि राज्य में अब कभी भी पेट्रोल और डीजल सहित गैस के डिपो का निर्माण आबादी क्षेत्र में नहीं किया जाएगा। इसके लिए शहर से दूर ही जमीन का आवंटन या मंजूरी दी जाएगी। इस नीति के तहत ही सरकार ने भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड को भी शहर से दूर सांभर के आसलपुर गांव में जमीन का आवंटन करने की योजना बनाई है। इस जमीन को शीघ्र ही अवाप्त करके कंपनी को डिपो के निर्माण के लिए दिया जाएगा। इसी नियम के तहत ही सरकार ने पिछले दिनों हिन्दुस्तान पेट्रोलियम कॉरपोरेशन के डिपो को भी बगरू में आबादी रहित जमीन पर बनाया गया।
सीतापुरा जमीन पर योजना बाकी:सीतापुरा स्थित आईओसी के पुराने डिपो वाली जमीन पर अभी इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन ने कोई योजना को मूर्तरूप नहीं दिया है। जमीन पर क्योंकि अधिकार कंपनी का है, इसलिए सरकार इसमें अपनी दखलंदाजी नहीं कर सकती है। देखना यह है कि अब कंपनी इस जमीन का उपयोग किस काम के लिए करती है।
अदालत में चल रही आईओसी की प्रक्रियाआईओसी में लगी आग को लेकर शहर के सांगानेर सदर थाने में दो एफआईआर दर्ज कराई गई थी। एफआईआर नंबर २४१/०९ जीनस कंपनी और २४२/०९ बीएलएम इन्सीट्यूट की ओर से बीएल मेहरड़ा ने दर्ज कराई। इसके अलावा आदर्शनगर थाने में भी एक एफआईआर नंबर ३३७/०९ दर्ज कराई गई। इसके अलावा अदालती आदेश पर शहर के बजाज नगर थाने में तत्कालीन एसपी पूर्व बीजू जॉर्ज जोसफ, तत्कालीन कलेक्टर कुलदीप रांका और आईजी बीएल सोनी को आरोपी बनाते हुए एफआईआर नंबर ५६०/०९ दर्ज की गई।
एफआईआर नंबर २४१/०९ में कार्रवाई करते हुए पुलिस ने गत २ जुलाई को आईओसी के तत्कालीन जनरल मैनेजर गौतम बोस, तत्कालीन मुख्य ऑपरेशन मैनेजर राजेशकुमार स्याल, सीनियर ऑपरेशन मैनेजर शशांक शेखर, तत्कालीन पाइप लाइन डिवीजन प्रभारी सुमित्रशंकर गुप्ता, तत्कालीन मैनेजर कैलाशशंकर कनोजिया, सीनियर मैनेजर अरुणकुमार पोद्दार, उपप्रबंधक कपिल गोयल, ऑपरेशन ऑफिसर अशोककुमार और चार्जमैन कैलाशनाथ अग्रवाल को गिरफ्तार किया था। इनमें से आरोपी अशोक कुमार को छोड़कर शेष सभी आरोपियों को ७ जुलाई को जमानत मिल चुकी है, जबकि अशोककुमार अभी न्यायिक हिरासत में है। हाईकोर्ट में जमानत पर रिहा इन आठ आरोपियों की जमानत याचिका रद्द करने के लिए याचिका लंबित है तथा आरोपी अशोक कुमार की जमानत याचिका लंबित है। पुलिस ने इन आरोपियों के खिलाफ सांगानेर की निचली अदालत में गत दिनों चालान पेश कर दिया है। वहीं शेष एफआईआर २४२/०९ और ३३७/०९ पर पुलिस जांच कर रही है। जबकि बजाज नगर थाने में दर्ज एफआईआर ५६०/०९ में जांच के दौरान तीन बार अनुसंधान अधिकारी बदले जा चुके हैं। वर्तमान में पुलिस महानिरीक्षक मानवाधिकार मोरिस बाबू प्रकरण की जांच कर रहे हैं।
यूं लगी थी आगघटना के समय डिपो से बीपीसीएल को पाइप लाइन के माध्यम से पेट्रोल और केरोसिन आपूर्ति होती थी। इस कार्य के लिए ऑपरेशन ऑफिसर व तीन चार्जमैन को नियुक्त किया गया था। विभागीय निर्देशानुसार पाइप लाइन ट्रान्सफर के दौरान प्रत्येक स्थान पर वॉल्व ऑपरेशन के लिए दो कर्मचारियों की उपस्थिति आवश्यक होती है, जबकि वहां केवल एक ही कर्मचारी रामनिवास मौजूद था। जिसने हैमर वॉल्व में हैमर आई को फिक्स किए बिना ही डिलीवरी वॉल्व एवं बॉडी वाल्व को खोल दिया, जिससे आग लगी। इसके अलावा जिस टैंक में आग सबसे पहले लगी उसके बाहर लगा ड्रेन वॉटर वॉल्व खुली अवस्था में था, जबकि उसे बंद रहना चाहिए था। टैंक से करीब सवा घंटे से अधिक समय तक पेट्रोल का लीकेज होता रहा। लेकिन इस अवधि के दौरान अधिकारियों ने उसे रोकने का प्रयास नहीं किया। जिससे एक-एक कर सभी ११ टैंकों में आग लग गई। इसके अलावा केन्द्र पर नागरिकों को घटना की चेतावनी देने के लिए पब्लिक एड्रेस सिस्टम का भी पूर्णतया अभाव था। घटना के बाद अधिकारियों ने हाईडेंट और फोम सिस्टम का भी समय पर उपयोग नहीं किया। इसके अलावा टर्मिनल में फायर फाइटिंग सूट, ऑक्सीजन मास्क आदि सुरक्षा उपकरणों का भी अभाव था।
sanjay swadesh
सोमवार, अक्तूबर 25, 2010
पेड न्यूज/हल्ला करने वालों के हाथ में कुछ नहीं, मालिक को पकड़ें
संजय स्वदेश
पेड न्यूज पर लगाम को लेकर चुनावी नियमों की ढील की बात से यह चर्चा फिर गर्म हुई है। महत्वपूर्ण बात यह है कि चुनावी माहौल में ही पेड न्यूज को लेकर सबसे ज्यादा चर्चा होती रही है। पर अब समय के साथ पाठक भी होशियार हो चले हैं। उनके लिए खालिस न्यूज क्या है, इसकी समझ विकसित हो चुकी है। परिणाम सामने हैं। यदि पेड न्यूज का प्रभाव पाठकों पर व्यापकता से पड़ता है तो निश्चय ही कई नेताओं का कायाकल्प हो चुका होता। गत वर्ष महाराष्टÑ विधानसभा चुनाव हुये। निजी अनुभव है, जिन नेताओं ने जमकर पेड न्यूज का सहारा लिया, कुछ को लाभ तो मिला, लेकिन अधिकतर की लुटिया डूबी। हारते ही जनता के बीच के साथ पार्टी में भी किनारे पर आ गये। उससे पहले लोकसभा चुनाव में भी पेड न्यूज का खूब धंधा चला। पर पाठकों पर इसका जादू बहुत कम चला। बदलते पत्रकारिता के माहौल में पेड न्यूज को जनता जानने-पहचानने लगी है। इसलिए इसको लेकर चुनाव आयोग किसी नियम कायदे में ढील न भी दे तो चिंता की बात नहीं है। हां, मीडिया के बहाने ढील पर मीडिया जगत के लिए यह शर्म की बात जरूर है। यदि ऐसा होता है तो पेड न्यूज की मलाई खाने वाले को नुकसान तो होगा ही अखबार मालिकों के धंधे पर भी असर पड़ेगा। पर यह नियम कायदे जो भी बने, पेड न्यूज की वैसे ही चलती रहेगी, जिस तरह से सरकारी महकमे में भ्रष्टाचार रचबस चला है। सतर्कता आयोग के लाख प्रचार के बाद भी भ्रष्टाचार बढ़ते ही गया है। इसी तरह मीडिया में पेड न्यूज का भ्रटाचार भविष्य में और फलेगा-फूलेगा। पर भुगतान के आधार पर शब्दों के माध्यम से खबरों के काले धंधे को हमेशा ही अनैतिक माना जाएगा। महौल चाहे जैसे भी बदले, सैद्धांतिक पत्रकारिता का अस्तित्व कामय रहेगी। इसी अस्तित्व के सहारे पेड न्यूज का धंधा भी फलता-फूलता रहेगा। इसे रोकने की बात हमेशा होती रहेगी। इसमें भी स्टिंग हुए हैं और भी होंगे। कुछ की पोल खुलेगी, कुछ बचेंगे। जब धंधे में यह प्रवृत्ति रचबस कर एक हो गई है तो इसे अलग-थगल करना मुश्किल होगा। पेड न्यूज को केवल राजनैतिक खबरों से जोड़कर देखने की जरूरत नहीं है।
फिलहाल इसके लिए प्रबुद्ध लोग पेड न्यूज को रोकने की पहल कर रहे हैं। शपथ ले रहे हैं कि वे खबरों का कालाधांधा नहीं करेंगे। पर गौर करने वाली बात यह है कि जो पहल करने वाले हैं, उनके हाथ से यह मसला अब निकल चुका है। जब तक उनके हाथ में था कुछ धन बटोरे गए। जब अखबार मालिकों की आंख खुली तो उन्होंने इसे धंधे को सीधे अपने हाथ में ले लिया। पहले से पेड़ न्यूज की कमाई करने वाले पत्रकारों के हाथ में कुछ नहीं बचा तो वे अब एकजुट हुए हैं। शोर मच रहा हंै। पेड न्यूज का गुणा-गणित जान चुके अखबार मालिक नहीं चाहते हैं कि चुनाव के दौरान उनके नियुक्त पत्रकार उसका लाभ लें और वे केवल तमाशा देखें। कई समझदार मालिकों ने तो पेड न्यूज का धंधा करने के लिए चुनाव के पूर्व अखबार लाँच किये। नये संस्करण शुरू हुये। आश्चर्य की बात है कि पेड न्यूज को रोकने के लिए जितनी भी चर्चाएं और कार्यक्रम हो रहे हैं, उसमें पत्रकार ही हिस्सा ले रहे हैं। मान लें कि किसी समाचारपत्र का संपादक यह निर्णय लेता है कि वह पेड न्यूज को नकार देगा। वहीं उस पत्र का मालिक सीधे पेड न्यूज देने वालों से समझौता कर खबर प्रकाशित करने को कहे तो संपादक क्या करेंगे? दरअसल जो संगठन पेड न्यूज को लेकर चिंतित हैं और सेमिनार आदि का आयोजन करवा रहे हैं, उन्हें चाहिए कि वे ऐसे सेमिनार, संगोष्ठियों का वक्ता समाचारपत्रों के मालिकों को बनाये, तो शायद मालिकों को पेड न्यूज पर कुछ मंथन करने का मन बनें।
पेड न्यूज पर लगाम को लेकर चुनावी नियमों की ढील की बात से यह चर्चा फिर गर्म हुई है। महत्वपूर्ण बात यह है कि चुनावी माहौल में ही पेड न्यूज को लेकर सबसे ज्यादा चर्चा होती रही है। पर अब समय के साथ पाठक भी होशियार हो चले हैं। उनके लिए खालिस न्यूज क्या है, इसकी समझ विकसित हो चुकी है। परिणाम सामने हैं। यदि पेड न्यूज का प्रभाव पाठकों पर व्यापकता से पड़ता है तो निश्चय ही कई नेताओं का कायाकल्प हो चुका होता। गत वर्ष महाराष्टÑ विधानसभा चुनाव हुये। निजी अनुभव है, जिन नेताओं ने जमकर पेड न्यूज का सहारा लिया, कुछ को लाभ तो मिला, लेकिन अधिकतर की लुटिया डूबी। हारते ही जनता के बीच के साथ पार्टी में भी किनारे पर आ गये। उससे पहले लोकसभा चुनाव में भी पेड न्यूज का खूब धंधा चला। पर पाठकों पर इसका जादू बहुत कम चला। बदलते पत्रकारिता के माहौल में पेड न्यूज को जनता जानने-पहचानने लगी है। इसलिए इसको लेकर चुनाव आयोग किसी नियम कायदे में ढील न भी दे तो चिंता की बात नहीं है। हां, मीडिया के बहाने ढील पर मीडिया जगत के लिए यह शर्म की बात जरूर है। यदि ऐसा होता है तो पेड न्यूज की मलाई खाने वाले को नुकसान तो होगा ही अखबार मालिकों के धंधे पर भी असर पड़ेगा। पर यह नियम कायदे जो भी बने, पेड न्यूज की वैसे ही चलती रहेगी, जिस तरह से सरकारी महकमे में भ्रष्टाचार रचबस चला है। सतर्कता आयोग के लाख प्रचार के बाद भी भ्रष्टाचार बढ़ते ही गया है। इसी तरह मीडिया में पेड न्यूज का भ्रटाचार भविष्य में और फलेगा-फूलेगा। पर भुगतान के आधार पर शब्दों के माध्यम से खबरों के काले धंधे को हमेशा ही अनैतिक माना जाएगा। महौल चाहे जैसे भी बदले, सैद्धांतिक पत्रकारिता का अस्तित्व कामय रहेगी। इसी अस्तित्व के सहारे पेड न्यूज का धंधा भी फलता-फूलता रहेगा। इसे रोकने की बात हमेशा होती रहेगी। इसमें भी स्टिंग हुए हैं और भी होंगे। कुछ की पोल खुलेगी, कुछ बचेंगे। जब धंधे में यह प्रवृत्ति रचबस कर एक हो गई है तो इसे अलग-थगल करना मुश्किल होगा। पेड न्यूज को केवल राजनैतिक खबरों से जोड़कर देखने की जरूरत नहीं है।
फिलहाल इसके लिए प्रबुद्ध लोग पेड न्यूज को रोकने की पहल कर रहे हैं। शपथ ले रहे हैं कि वे खबरों का कालाधांधा नहीं करेंगे। पर गौर करने वाली बात यह है कि जो पहल करने वाले हैं, उनके हाथ से यह मसला अब निकल चुका है। जब तक उनके हाथ में था कुछ धन बटोरे गए। जब अखबार मालिकों की आंख खुली तो उन्होंने इसे धंधे को सीधे अपने हाथ में ले लिया। पहले से पेड़ न्यूज की कमाई करने वाले पत्रकारों के हाथ में कुछ नहीं बचा तो वे अब एकजुट हुए हैं। शोर मच रहा हंै। पेड न्यूज का गुणा-गणित जान चुके अखबार मालिक नहीं चाहते हैं कि चुनाव के दौरान उनके नियुक्त पत्रकार उसका लाभ लें और वे केवल तमाशा देखें। कई समझदार मालिकों ने तो पेड न्यूज का धंधा करने के लिए चुनाव के पूर्व अखबार लाँच किये। नये संस्करण शुरू हुये। आश्चर्य की बात है कि पेड न्यूज को रोकने के लिए जितनी भी चर्चाएं और कार्यक्रम हो रहे हैं, उसमें पत्रकार ही हिस्सा ले रहे हैं। मान लें कि किसी समाचारपत्र का संपादक यह निर्णय लेता है कि वह पेड न्यूज को नकार देगा। वहीं उस पत्र का मालिक सीधे पेड न्यूज देने वालों से समझौता कर खबर प्रकाशित करने को कहे तो संपादक क्या करेंगे? दरअसल जो संगठन पेड न्यूज को लेकर चिंतित हैं और सेमिनार आदि का आयोजन करवा रहे हैं, उन्हें चाहिए कि वे ऐसे सेमिनार, संगोष्ठियों का वक्ता समाचारपत्रों के मालिकों को बनाये, तो शायद मालिकों को पेड न्यूज पर कुछ मंथन करने का मन बनें।
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मन की बात
शुक्रवार, अक्तूबर 22, 2010
सोमवार, अक्तूबर 18, 2010
साहित्य में टूटती शब्दों की मर्यादा
साहित्य को शर्मशार करते हंस और नया ज्ञानोदय
संजय स्वदेशनेट खंगालते-खंगालते, सहज ही मन में इच्छा हुई कि साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिका हंस पढ़ी जाए। पत्रिका का अक्टूबर,2010 अंक डाउनलोड लिया। करीब एक दशक बाद हंस को पढ़ रहा था। पर यह क्या, एक दशक में काफी बदलावा दिखा। साहित्य की इस प्रतिष्ठित पत्रिका में पटना के रामधारी सिंह दिवाकर की एक कहानी रंडियां शीर्षक से छपी हैं। जिस संवदेना को कहानी का आधार बनाया गया है, उसका तानाबाना गजब का है। पर यथार्थ दिखाने के चक्कर में यह इस शब्द का प्रयोग शर्मशार करने वाला है।
कहानी के एक अंश है-
‘‘आज इस बड़का गांव में रंडिया ही रंडिया है. कहा है लाली यादव, पंडित बटैश झा, पुलकित राय, रघुनाथ भगत और बिसुनलाल तो चले गए दुनिया से, मगर उनके परिवारों से भी रंडियां पंचायत का चुनाव लड़ रही हैं. लाली यादव की परेनियां वाली बहू राधिका यादव, पंडित बटेश झा की बहू ममता झा, पुलिकित राय की पोती चंद्रकला राय... रंडियां ही रंडियां हैं. गांव में, हर उम्र की रंडिया.‘लेखक कहानी मेें जिस मुद्दे को उठाना चाहता है, उसमें सफल है। लेकिन शब्दों की ऐसी अर्मादित शैली उसकी स्तरीयता को निम्म कर देती है। सरस सलिस जैसी पत्रिकाएं ऐसे शब्दों को उपयोग कर जल्द ही लोकप्रियता हासिल कर लेती हैं। लेकिन उनका स्तर साहित्यिक नहीं है। लोग खूब चटकारे लेकर पढ़ते हैं। पर एक उच्च कोटी की साहित्यिक पत्रिका में ऐसे शब्दों का प्रयोग साहित्य की गरिमा निश्चय ही ठेस पहुंचाता है।
ज्ञात हो कि हंस के संस्थापक मुंशी प्रेमचंद थे। मुंशी प्रेमचंद ने अनेक मुद्दों को सरल और सहज शब्दों में बड़े ही प्रभावशाली तरीके से उठाया है। उनके लेखन में देशज शब्दों की भरमार है। इसके बाद भी वे शब्दों की शालीनता बनाये रखते हैं। आज वहीं हंस शब्दों की शालीनता की मार्यादा तोड़ रहा है। भले ही इस दिनों साहित्यिक पत्रिकाओं की संख्या बढ़ी है, लेकिन अमर्यादित शब्दों का प्रयोग पाठकों के बीच लोकप्रियता पाने का सरल माध्यम बनता जा रहा है। यदि आज प्रेमचंद होते तो अपनी स्थापित इस पत्रिका को पढ़ कर निश्चय ही शर्मशार हो जाते।
पिछले दिनों नया ज्ञनोदय के अंक में भी ऐसा ही कुछ हुआ। महात्मा गांधी अंतरराष्टÑीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय के साक्षात्कार में प्रयुक्त एक शब्द को लेकर खूब तूल दिया गया। मजेदार बात यह रही है कि उस पर टीका-टिप्पणी करने वालों ने नया ज्ञानोदय का वह अंक पूरा पढ़ा ही नहीं। जबकि उस अंक में प्रकाशित अन्य कई रचनाओं में अनेक आपत्तिजनक और अमर्यादित शब्दों के प्रयोग किये गए हैं। लेकिन बहस केवल विभूति नारायण के शब्दों पर छिड़ी रही। इससे सबसे ज्यादा लाभ नया ज्ञनोदय को हुआ। स्टॉल पर पत्रिका हाथो-हाथ बिक गई। इसके बाद जिस विषय को विशेषांक बनाया गया, हिंदी साहित्य में उसकी कोई विद्या या परंपरा नहीं रही है। एक साहित्यक पत्रिका को बेवफाई का सुपर विशेषांक निकालना उसी तरह लोकप्रिय होने का राह अपनाना है जैसे इंडिया टूटे, आऊटलुक पिछले कुछ वर्षों में सेक्स सर्वे पर कवर स्टोरी छाप कर क्षणिक लोकप्रियता पाई है।
बेवदुनिया ने कुछ भी लिखने पढ़ने की अजादी दी है। क्योंकि यहां अभी नियंत्रण नहीं है। लिहाजा, इंटरनेट की दुनिया में कई लेखकों की कुंठाएं साफ दिखती है। पत्र-पत्रिकाओं की दुनिया अलग है। यहां यह संयम इस लिए जरूरी है, क्योंकि आज भी इसके पाठकों की दुनिया अगल है। महंगी साहित्यिक पत्रिकाएं खरीदने वाला पाठक इसलिए जेब ठीली नहीं करना चाहता है कि उसे एक यथार्थ मुद्दे को अमर्यादित शब्दों की चांसनी में परोसा मिलता है। ऐसी अपेक्षाएं तो छह रुपये में बिकने वाली सरस सलिल जैसी पत्रिकाओं से पूरी हो सकती है। यदि अश्लीलता ही पढ़ती है तो इससे अच्छा बाबा मस्तराम की किताबे सस्ती।
संजय स्वदेशनेट खंगालते-खंगालते, सहज ही मन में इच्छा हुई कि साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिका हंस पढ़ी जाए। पत्रिका का अक्टूबर,2010 अंक डाउनलोड लिया। करीब एक दशक बाद हंस को पढ़ रहा था। पर यह क्या, एक दशक में काफी बदलावा दिखा। साहित्य की इस प्रतिष्ठित पत्रिका में पटना के रामधारी सिंह दिवाकर की एक कहानी रंडियां शीर्षक से छपी हैं। जिस संवदेना को कहानी का आधार बनाया गया है, उसका तानाबाना गजब का है। पर यथार्थ दिखाने के चक्कर में यह इस शब्द का प्रयोग शर्मशार करने वाला है।
कहानी के एक अंश है-
‘‘आज इस बड़का गांव में रंडिया ही रंडिया है. कहा है लाली यादव, पंडित बटैश झा, पुलकित राय, रघुनाथ भगत और बिसुनलाल तो चले गए दुनिया से, मगर उनके परिवारों से भी रंडियां पंचायत का चुनाव लड़ रही हैं. लाली यादव की परेनियां वाली बहू राधिका यादव, पंडित बटेश झा की बहू ममता झा, पुलिकित राय की पोती चंद्रकला राय... रंडियां ही रंडियां हैं. गांव में, हर उम्र की रंडिया.‘लेखक कहानी मेें जिस मुद्दे को उठाना चाहता है, उसमें सफल है। लेकिन शब्दों की ऐसी अर्मादित शैली उसकी स्तरीयता को निम्म कर देती है। सरस सलिस जैसी पत्रिकाएं ऐसे शब्दों को उपयोग कर जल्द ही लोकप्रियता हासिल कर लेती हैं। लेकिन उनका स्तर साहित्यिक नहीं है। लोग खूब चटकारे लेकर पढ़ते हैं। पर एक उच्च कोटी की साहित्यिक पत्रिका में ऐसे शब्दों का प्रयोग साहित्य की गरिमा निश्चय ही ठेस पहुंचाता है।
ज्ञात हो कि हंस के संस्थापक मुंशी प्रेमचंद थे। मुंशी प्रेमचंद ने अनेक मुद्दों को सरल और सहज शब्दों में बड़े ही प्रभावशाली तरीके से उठाया है। उनके लेखन में देशज शब्दों की भरमार है। इसके बाद भी वे शब्दों की शालीनता बनाये रखते हैं। आज वहीं हंस शब्दों की शालीनता की मार्यादा तोड़ रहा है। भले ही इस दिनों साहित्यिक पत्रिकाओं की संख्या बढ़ी है, लेकिन अमर्यादित शब्दों का प्रयोग पाठकों के बीच लोकप्रियता पाने का सरल माध्यम बनता जा रहा है। यदि आज प्रेमचंद होते तो अपनी स्थापित इस पत्रिका को पढ़ कर निश्चय ही शर्मशार हो जाते।
पिछले दिनों नया ज्ञनोदय के अंक में भी ऐसा ही कुछ हुआ। महात्मा गांधी अंतरराष्टÑीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय के साक्षात्कार में प्रयुक्त एक शब्द को लेकर खूब तूल दिया गया। मजेदार बात यह रही है कि उस पर टीका-टिप्पणी करने वालों ने नया ज्ञानोदय का वह अंक पूरा पढ़ा ही नहीं। जबकि उस अंक में प्रकाशित अन्य कई रचनाओं में अनेक आपत्तिजनक और अमर्यादित शब्दों के प्रयोग किये गए हैं। लेकिन बहस केवल विभूति नारायण के शब्दों पर छिड़ी रही। इससे सबसे ज्यादा लाभ नया ज्ञनोदय को हुआ। स्टॉल पर पत्रिका हाथो-हाथ बिक गई। इसके बाद जिस विषय को विशेषांक बनाया गया, हिंदी साहित्य में उसकी कोई विद्या या परंपरा नहीं रही है। एक साहित्यक पत्रिका को बेवफाई का सुपर विशेषांक निकालना उसी तरह लोकप्रिय होने का राह अपनाना है जैसे इंडिया टूटे, आऊटलुक पिछले कुछ वर्षों में सेक्स सर्वे पर कवर स्टोरी छाप कर क्षणिक लोकप्रियता पाई है।
बेवदुनिया ने कुछ भी लिखने पढ़ने की अजादी दी है। क्योंकि यहां अभी नियंत्रण नहीं है। लिहाजा, इंटरनेट की दुनिया में कई लेखकों की कुंठाएं साफ दिखती है। पत्र-पत्रिकाओं की दुनिया अलग है। यहां यह संयम इस लिए जरूरी है, क्योंकि आज भी इसके पाठकों की दुनिया अगल है। महंगी साहित्यिक पत्रिकाएं खरीदने वाला पाठक इसलिए जेब ठीली नहीं करना चाहता है कि उसे एक यथार्थ मुद्दे को अमर्यादित शब्दों की चांसनी में परोसा मिलता है। ऐसी अपेक्षाएं तो छह रुपये में बिकने वाली सरस सलिल जैसी पत्रिकाओं से पूरी हो सकती है। यदि अश्लीलता ही पढ़ती है तो इससे अच्छा बाबा मस्तराम की किताबे सस्ती।
रविवार, अक्तूबर 17, 2010
...क्योंकि रावण अपना चरित्र जानता है
संजय स्वदेश
कथा का तानाबाना तुलसीबाबा ने कुछ ऐसा बुना की रावण रावण बन गया। मानस मध्ययुग की रचना है। हर युग के देशकाल का प्रभाव तत्कालीन समय की रचनाओं में सहज ही परीलक्षित होता है। रावण का पतन का मूल सीता हरण है। पर सीताहरण की मूल वजह क्या है? गंभीरता से विचार करें। कई लेखक, विचारक रावण का पक्ष का उठाते रहे हैं। बुरी पृवत्तियों वाले ढेरों रावण आज भी जिंदा हैं। कागज के रावण फूंकने से इन पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। पर जिस पौराणिक पात्र वाले रावण की बात की जा रही है, उसे ईमानदार नजरिये से देखे। विचार करें। यदि कोई किसी के बहन का नाक काट दे तो भाई क्या करेगा। आज 21वीं सदी में ऐसी घटना किसी भी सच्चे भाई के साथ होगी, तो निश्चय ही प्रतिशोध की आग में धधक उठेगा। फिर मध्य युग में सुर्पनखा के नाम का बदला रामण क्यों नहीं लेता। संभवत्त मध्ययुग के अराजक समाज में तो यह और भी समान्य बात रही होगी।
अपहृत नारी पर अपहरणकर्ता का वश चलता है। रावण ने बलात्कार नहीं किया। सीता की गरीमा का ध्यान रखा। उसे मालूम था कि सीता वनवासी बन पति के साथ सास-श्वसुर के बचनों का पालन कर रही है। इसलिए वैभवशाली लंका में रावण ने सीता को रखने के लिए अशोक बाटिका में रखा। सीता को पटरानी बनाने का प्रस्ताव दिया। लेकिन इसके लिए जबरदस्ती नहीं की। दरअसल का मध्य युग पूरी तरह से सत्ता संघर्ष और नारी के भोगी प्रवृत्ति का युग है। इसी आलोक में तो राजेंद्र यादव हनुमान को पहला आतंकवादी की संज्ञा देते हैं। निश्चय ही कोई किसी के महल में रात में जाये और रात में सबसे खूबसूरत वाटिका को उजाड़े तो उसे क्यों नहीं दंडित किया जाए। रावण ने भी तो यहीं किया। सत्ता संघर्ष का पूरा जंजाल रामायण में दिखता है। ऋषि-मुनि दंडाकारण्य में तपत्या कर रहे थे या जासूसी। रघुकुल के प्रति निष्ठा दिखानेवाले तपस्वी दंडाकारण्य अस्त्र-शस्त्रों का संग्रह क्यों करते थे। उनका कार्य तो तप का है। जैसे ही योद्धा राम यहां आते हैं, उन्हें अस्त्र-शस्त्रों की शक्ति प्रदान करते हैं। उन्हीं अस्त्र-शस्त्रों से राम आगे बढ़ते हैं। मध्ययुग में सत्ता का जो संघर्ष था, वह किसी न किसी रूप में आज भी है। सत्ताधारी और संघर्षी बदले हुए हैं। छल और प्रपंच किसी न किसी रूप में आज भी चल रहे हैं। सत्ता की हमेशा जय होती रही है। राम की सत्ता प्रभावी हुई, तो किसी किसी ने उनके खिलाफ मुंह नहीं खोला। लेकिन जनता के मन से राम के प्रति संदेह नहीं गया। तभी एक धोबी के लांछन पर सीता को महल से निकाल देते हैं। वह भी उस सीता को तो गर्भवती थी। यह विवाद पारिवारीक मसला था। आज भी ऐसा हो रहा है। आपसी रिश्ते के संदेह में आज भी कई महिलाओं को घर से बेघर कर दिया जाता है। फिर राम के इस प्रवृत्ति को रावण की तरह क्यों नहीं देखी जाती है। जबकि इस तरह घर से निकालने के लिए आधुनिक युग में घरेलू हिंसा कानून के तहत महिलाआें को सुरक्षा दे दी गई है। बहन की रक्षा, उनकी मर्यादा हनन करने वालों को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा, पराई नारी को हाथ नहीं लगाने का उज्ज्वल चरित्र तो रावण में दिखता है। लोग कहते भी है कि रावण प्रकांड पंडित था। फिर भी उसका गुणगणान नहीं होता। विभिषण सदाचारी थे। रामभक्त थे। पर उसे कोई सम्मान कहां देता है। सत्ता की लालच में रावण की मृत्यु का राज बताने की सजा मिली। सत्ता के प्रभाव से चाहे जैसा भी साहित्या रचा जाए, इतिहास लिखा जाए। हकीकत को जानने वाला जनमानस उसे कभी मान्यता नहीं देता है। तभी तो उज्ज्वल चरित्र वाले विभिषण आज भी समाज में प्रतिष्ठा के लिए तरसते रहे। सत्ता का प्रभाव था, राम महिमा मंडित हो गए। पिता की अज्ञा मानकर वनवास जाने तक राम के चरित्र पर संदेह नहीं। लेकिन इसके पीछे सत्ता विस्तार की नीति जनहीत में नहीं थी। राम राजा थे। मध्य युग में सत्ता का विस्तार राजा के लक्षण थे। पर प्रकांड पंडित रावण ने सत्ता का विस्तार का प्रयास नहीं किया। हालांकि दूसरे रामायण में देवताओं के साथ युद्ध की बात आती है। पर देवताओं के छल-पंपंच के किस्से कम नहीं हैं।
काश, कागज के रावण फूंकने वाले कम से कम उसके उदत्ता चरित्र से सबक लेते। बहन पर होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए हिम्मत दिखाते। उसकी रक्षा करते। परायी नारी के साथ जबरदस्ती नहीं करते। ऐसी सीख नहीं पीढ़ी को देते। समाज बदलता। मुझे लगता है कि राम चरित्र की असंतुलित शिक्षा का ही प्रभाव है कि 21वीं सदी में भी अनेक महिलाएं जिस पति को देवता मानती है, वहीं उन पर शक करता है, घर से निकालता है। संभवत: यहीं कारण है कि आज धुं-धुं कर जलता हुए रावण के मुंह से चीख निकलने के बजाय हंसी निकलती है। क्योंकि वह जनता है कि जिस लिए उसे जलाया जा रहा है, वह चरित्र उसका नहीं आज के मानव रूपी राम का है।
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सोमवार, अक्तूबर 04, 2010
राष्टÑमंडल खेल के समापन के बाद दिखेंगी विकृतियां
राष्टÑमंडल खेल शुरू हो गये। करीब 70 हजार करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। पर यह तो रकम खर्च की है। इसके पीछे जो कुछ नष्ट हुआ है, उसकी कीमत लगाए, तो इससे कहीं ज्यादा होगा। इस खेल के बहाने से भले ही दिल्ली दुल्हन जैसी सजी-धजी हो। पर दुलहन की यह खूबसूरती महज कुछ खास इलाकों तक ही सीमित है। पूर्वी दिल्ली में में खेलगांव बना है। पूर्वी दिल्ली के भजनपुरा हो आइएं, जमीनी हकीकत का अंदाज हो जाएगा। खेल के बहाने दिल्ली से गरीब हटा दिये गये। खबर आ रही है कि अब दिल्ली के घरों में नौकर-चाकर के टोटे पड़ गए हैं। सब्जी-भाजी बेचने वालों को दिल्ली से बाहर निकल गए। बड़े दुकानदारों की चांदी हो गई। किराया बढ़ने से मकान मालिकों की धौंस बढ़ गई। फिलहाल दिल्ली राष्ट्रमंडल खेले के जश्न में डूबी है। पर इसकी बुनियाद में जो अमानवीयता को दबाई गई है, उसके बदनूमा दाग इस खेले के बाद दिखेंगे। किसी जामाने से दिल्ली में एसिायाड़ गेम हुए थे। साऊथ एक्स चमक गया। पर साऊथ एक्स में आपसी भाईचारा गायब हो गया। अनेक तरह के असमाजिक घटाएं साऊथ एक्स से आती रही।
इतिहास गवाह है जहां भी समृद्धि और प्रतिष्ठा के लिए गरीबों का गला घोंटा गया, वहां समृद्धि और प्रतिष्ठा तो आई, पर मानवीय संवेदनाओं को सहेजने वाला समाज खत्म हो गया। विकृत मानासिकता हावी हो गई। ऐसे समाज और संस्कृति में गुजर-बसर करने वाले संवेदनशील भीड़-भाड़ में भी तन्हा रहते हैं। कोसते हैं। राष्टÑमंडल खेल के आयोजन की विकृतियां इसके समापन के बाद दिखेगी।
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इतिहास गवाह है जहां भी समृद्धि और प्रतिष्ठा के लिए गरीबों का गला घोंटा गया, वहां समृद्धि और प्रतिष्ठा तो आई, पर मानवीय संवेदनाओं को सहेजने वाला समाज खत्म हो गया। विकृत मानासिकता हावी हो गई। ऐसे समाज और संस्कृति में गुजर-बसर करने वाले संवेदनशील भीड़-भाड़ में भी तन्हा रहते हैं। कोसते हैं। राष्टÑमंडल खेल के आयोजन की विकृतियां इसके समापन के बाद दिखेगी।
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शनिवार, अक्तूबर 02, 2010
शास्त्रीजी को भी नमन
संजय स्वदेश
बचपन में में हमारे चाचा ने चाचा नेहरू के बारे में बताया, कि वे बच्चों से बहुत प्रेम करते थे। इसलिए उनका नाम चाचा नेहरू पड़ा। स्कूली किताबों में भी चाचा नेहरू जी के बारे में पढ़ा। कैसे बच्चों के लिए एक गरीब के सारे गुब्बारे खरीद लेते हैं। चाचा ने गांधीजी के बारे में भी बताया। उन्होंने देश का अजाद कराया। अकेले। एक लंगोटी पर। बताया कि जब चंपारण आये थे तब एक महिला को आधे वस्त्र में देखा। मन इतना विचलित हुआ कि ताउम्र एक धोती में गुजार दिया। चाचा ने लाल बहादुर शास्त्रीजी के बारे में बताया। कैसे, नदी तैरकर पढऩे जाते थे।
तीनों महापुरुषों में सबसे ज्यादा प्रभावित चरित्र शास्त्री जी का लगा। बड़ा हुआ तो समझ में आया कि एक प्रधानमंत्री को इतना समय कैसे मिल सकता है कि वह दूसरे कार्यों को दरकिनाार कर बच्चों को प्यार करें। हां, किसी पार्टी, आयोजन या अन्य किसी समारोह में बच्चे हों और वहां उन्हें लाड़-दुलार कर लिया। प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले नेरूरीजी के ये कार्य इतिहास में दर्ज हो गया। जबकि उसके बाद कई नेता हुये जिन्होंने बच्चों को खूब प्यार किया पर उन्हें चचा का वह दर्जा नहीं प्राप्त हो पाया, जिस दरजे पर नेहरूजी है।
गांधी तो राष्टपित तो हो गया। पद से ज्यादा कद। बापू का कद ही इतना बड़ा है कि सब छोटे पड़ गये। पर बापू के दाम पर भी कई छिंटे लगाये गए। पर शास्त्रीजी की क्या गलती? 2 अक्टूबर को जितना लोग बापू को याद करते हैं, उससे तुलना में शास्त्री जी तो कुछ भी याद नहीं किया जाता है। राजघाट सजता-धजता है, भीड़ लगती है, लेकिन शास्त्रीजी की समाधी सूनी रहती है। भूले-बिसरे शास्त्री परिवार या कोई अन्य औपचारिकवश आ जाए तो बात दूसरी है।
दरअसल हमारी प्राथमिक पाठ्यकपुस्तों में शास्त्रीजी संक्षिप्त जीवन का शामिल करना उसी तरह जरूरी होना चाहिए जैसे चाचा नेहरू और गांधी के जीवन प्रसंग शामिल हैं। बाल मन पर ऐसे महापुरुषों के जीवन के प्रसंगों का गहरा असर पड़ता है। शास्त्री के सिर पर बचपनप में ही पिता का साया उठ गया। मां ने संघर्षों से पाला। खुद संघर्ष किया। अपनी योग्याता साबित की। इनके जीवन के प्रसंग बाल विषम परिस्थियों में की मजबूती के साथ डटे रहने का आत्मविश्वास भरते हैं। नेहरू परिवार के संपर्क में आने से कांग्रेस कमेटी काम का मौका मिला। उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रमुख पद पर जाकर उन्होंने जो कुछ किया, उससे उनका कद और बढ़ गया। सरल-सहज और सच्चे व्यक्तित्व का मजबूत प्रभाव इतना था कि उनके प्रधानमंत्रीत्व काल में स्वयं इंदिरा भी भयभीत थी।
कमजोर भारत को जय-जवान और जय किसान के नारे से इतन मजबूत बना दिया कि दुश्मनसेना को मुंह की खानी पड़ी। ताश्कंद में रहस्यम मौत रहस्य ही रह गया। सरकार ने कभी भी शास्त्री जी के मौत के रहस्य को सुलझाने की कोशिश नहीं की। दिल का दौरा पडऩे की हुई मौत कह कर इनकी जीवन का इतिश्री कर दिया गया। जबकि जो व्यक्ति जीवन के विषम परिस्थितियों से जूझते हुए इतना आगे आए वह इतना कमजोर नहीं हो सकता है कि उसे दिल का दौरा आये और वह दुनिया से चल बसे।
ऐसे आदर्श और प्रेरणादायी व्यक्तित्व का उनके जन्मदिवस पर शत, शत नमन है।
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शुक्रवार, अक्तूबर 01, 2010
पंचायती फैसले की तरह है कोर्ट का निणर्य
संजय स्वदेशअयोध्या प्रकरण पर रामलला की जमीन में आधे आधे के बटवारे पर मुलायम सिंह का बयान है। फैसले में कानून पर आस्था भारी दिख रही है। भविष्य में इसके कई परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। निश्चय ही कानून के खिलाड़ी इस प्रकरण में फैसले का हवाला देकर उन मामलों में जीत हासिल करने की कोशिश करेंगे, जिसमें किसी दूसरे की जमीन का दबंगई से कब्जा जमाया गया है। कई मामले हैं, जिसमें आस्था के आगे कानून को नरमी दिखानी पड़ी है।
यदि इस मामले में कानून के अनुसार निर्णय दिया जाता तो फैसला पूरी तरह किसी एक समुदाय के पक्ष में जाता। जरा साचिये, फिर देश में क्या होता। उन्नामदी मसूमों के रक्त से खेलते। पर कोर्ट की सूझबूझ और जनता के संयम ने उन्नादियों के मंसबूों पर पानी फेर दिया है। पंचायती निर्णय को स्वीकारने की परंंपरा पुरानी रही है। कोर्ट का निर्णय पंचायती निणर्य की तरह की सबको खुश कर बीच का रास्ता निकालने वाला है।
मुलायम की बात सही है। आस्था कानून पर भारी पड़ी है। पर यह बात को कानून की बुनियाद में भी है कि कई बार जहां काूनन की पेचिदगियां होती है, उसमें अदालत स्व विवेक से भी निर्णय देता है। लेकिन इस निर्णय में कोर्ट ने कई तत्थों को आधार बनाया है। और तीन जजों में फैसला बहुमत से लिया गया है। पर एक निर्णय से एक संकेत तो मिल ही गया है कि गलत मंसूबों के अदालत न्याय देगी और न ही जनता अब उसे प्रश्रय देगी। कम से कम अयोध्या मामले में पूरा देश तो एकमत है ही। निर्णय से पूर्व तनाव भरा जो महौल बना, उसके लिए मीडिया और सरकार कम दोषी नहीं रही है।
दबंग लोग सबक लें...इस फैसले से उन लोगों को भी सबक लेनी चाहिए जो अपने का समाज में प्रभावशाली और बाहुबली मानते हैं। दबे-कुचले की जमीन हथिया लेते हैं। बाबर ने जो गलती की, उसका नतीजा हमने 1992 में देख लिया। जो लोग दूसरे की जीमन हथियाएंगे, जरूरी नहीं कि उनकी आने वाली पीढिय़ां उनके जैसे दबंग रहेगी। कालचक्र में कमजोर, पीडि़त पक्ष की नश्ले भी मजबूत होकर उभरेंगी। वे अपने पूर्वजों पर हुए जुल्म की खोज-खबर लेगी। तब तक जुल्म ढाने वाले दंबंगों की अगली पुश्ते अपने पूर्वजों की गलती से अनजान रहेगी। वह भी मासूम रहेगी। तब क्या होगा। गलती पूर्वजों की सजा सजा पुश्तों को मिले। इसलिए अपने तत्कालीन सुख के लिए दूसरे का हक न मारे। भविष्य में उनकी पुश्ते उनकी लगतियों का बोझ उठाएगी।
यदि इस मामले में कानून के अनुसार निर्णय दिया जाता तो फैसला पूरी तरह किसी एक समुदाय के पक्ष में जाता। जरा साचिये, फिर देश में क्या होता। उन्नामदी मसूमों के रक्त से खेलते। पर कोर्ट की सूझबूझ और जनता के संयम ने उन्नादियों के मंसबूों पर पानी फेर दिया है। पंचायती निर्णय को स्वीकारने की परंंपरा पुरानी रही है। कोर्ट का निर्णय पंचायती निणर्य की तरह की सबको खुश कर बीच का रास्ता निकालने वाला है।
मुलायम की बात सही है। आस्था कानून पर भारी पड़ी है। पर यह बात को कानून की बुनियाद में भी है कि कई बार जहां काूनन की पेचिदगियां होती है, उसमें अदालत स्व विवेक से भी निर्णय देता है। लेकिन इस निर्णय में कोर्ट ने कई तत्थों को आधार बनाया है। और तीन जजों में फैसला बहुमत से लिया गया है। पर एक निर्णय से एक संकेत तो मिल ही गया है कि गलत मंसूबों के अदालत न्याय देगी और न ही जनता अब उसे प्रश्रय देगी। कम से कम अयोध्या मामले में पूरा देश तो एकमत है ही। निर्णय से पूर्व तनाव भरा जो महौल बना, उसके लिए मीडिया और सरकार कम दोषी नहीं रही है।
दबंग लोग सबक लें...इस फैसले से उन लोगों को भी सबक लेनी चाहिए जो अपने का समाज में प्रभावशाली और बाहुबली मानते हैं। दबे-कुचले की जमीन हथिया लेते हैं। बाबर ने जो गलती की, उसका नतीजा हमने 1992 में देख लिया। जो लोग दूसरे की जीमन हथियाएंगे, जरूरी नहीं कि उनकी आने वाली पीढिय़ां उनके जैसे दबंग रहेगी। कालचक्र में कमजोर, पीडि़त पक्ष की नश्ले भी मजबूत होकर उभरेंगी। वे अपने पूर्वजों पर हुए जुल्म की खोज-खबर लेगी। तब तक जुल्म ढाने वाले दंबंगों की अगली पुश्ते अपने पूर्वजों की गलती से अनजान रहेगी। वह भी मासूम रहेगी। तब क्या होगा। गलती पूर्वजों की सजा सजा पुश्तों को मिले। इसलिए अपने तत्कालीन सुख के लिए दूसरे का हक न मारे। भविष्य में उनकी पुश्ते उनकी लगतियों का बोझ उठाएगी।
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